वैदिक काल में स्त्री-शिक्षा...

वेदों में उल्लिखित कुछ मन्त्र इस बात को रेखांकित करते हैं कि कुमारियों के लिए शिक्षा अपरिहार्य एवं महत्वपूर्ण मानी जाती थी । स्त्रियों को लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों प्रकार की शिक्षाएँ दी जाती थी । गोभिल गृहसूत्र में कहा गया है कि अशिक्षित पत्नी यज्ञ करने में समर्थ नहीं होती थी । संगीत शिक्षा पर जोर दिया जाता था ।

इच्छा और योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्ति के लिए श्रमणक्रमणिका में उल्लेखित प्राचीन परम्परा के अनुसार ऋग्वेद की रचना में 200 स्त्रियों का योगदान है ।

शकुन्तला राव शास्त्री ने इन्हें तीन कोटियों में विभाजित किया है- (1) महिला ऋषि द्वारा लिखे गये श्लोक, (2) आंशिक रूप से महिला ऋषि द्वारा लिखे गये श्लोक एवं (3) महिला ऋषिकाओं को समर्पित श्लोक । ऋग्वेद के दशम मंडल के 39वें एवं 40वें सूक्त की ऋषिका घोषा, रोमशा, विश्ववारा, इन्द्राणी, शची और अपाला थीं ।

वैदिक युग में स्त्रियाँ यज्ञोपवीत धारण कर वेदाध्ययन एवं प्रात: - सायं होम आदि कर्म करती थी । “शतपथ ब्राह्मण” में व्रतोपनयन का उल्लेख है । हरित संहिता के अनुसार वैदिक काल में शिक्षा ग्रहण करनेवाली दो प्रकार की कन्याएँ होती थी – ब्रह्मवादिनी एवं सद्योदबाह । ब्रह्मावादिनी जीवन भर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर अविवाहिता रहतीं थीं और धर्मशास्त्रों के अध्ययन में ही अपना अधिकतर समय व्यतीत करती थीं और सद्योदबाह 15 या 16 वर्ष की उम्र तक, जब तक उनका विवाह नहीं हो जाता था, तब तक अध्ययन करती थी । इन्हें प्रार्थना एवं यज्ञों के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण वैदिक मंत्र पढ़ाए जाते थे तथा संगीत एवं नृत्य की भी शिक्षा दी जाती थी ।

वस्तुत: कन्याओं के लिए पृथक् पाठशालाएँ न थीं । जिन कन्याओं को गुरुकुल में अध्ययन करने का अवसर प्राप्त होता था वे पुरुषों के साथ ही अध्ययन करती थीं । उत्तर रामचरित में वाल्मीकि के आश्रम में आत्रेयी अध्ययन कर रही थी । भवभूति ने `मालती माधव' (प्रथमांक) में कामन्दकी के गुरुकुल में अध्ययन करने का वर्णन किया है । किन्तु ये उदाहरण बहुत कम हैं । अधिकतर गुरुपत्नी, गुरुकन्या अथवा गुरु की पुत्रवधू ही गुरुकुल में रहने के कारण अध्ययन का लाभ उठा पाती थीं । वस्तुत: शास्त्रों के अनुरोध पर कन्याओं की शिक्षा गृह पर ही होती थी ।