योग प्रकल्प
योग प्रकल्प
भारत विभिन्न संस्कृति एवं संस्कार प्रधान देश अनादि काल से अपने योग एवं अध्यात्म के जरिए सम्पूर्ण विश्व का गुरु रहा है।योग का प्रादुर्भाव गुरुकुल से होता है एवं गुरुकुल की परिकल्पना पारम्परिक गुरु अर्थात् आचार्य से ही सम्भव है।सरल शब्दों में कहा जाय तो गुरुकुल वह स्थान है जहां पर मिट्टी घडे का आकार लेती है और विष एवं अमृत को स्वयं के अन्दर समाहित करके रखने का सामर्थ्य प्राप्त करती है उसी तरह बालक गुरुकुल में मिट्टी की भांती आता है और वहां से विष और अमृत को संभालने की शक्ति प्राप्त करता है।हमारे भारतीय ऋषि परम्परा श्रुति परम्परा आश्रित रही है एवं गुरुकुल उसी परम्परा का जीवन्त स्वरुप है।
ज्ञानार्जन और आत्म अवबोध के बिना जीवन की अन्य सभी उपलब्धियां गौण हैं।आत्म जागरण के बिना जीवन ठीक वैसा ही है जैसे बाती-तेल विहीन दीपक से प्रकाश की अपेक्षा रखना।अतः आत्म- जागरण हेतु स्वाभाविक प्रतिबद्धता एवम् तत्परता रहे !
सप्त ऋषियों की अवधारणा
कौन से ऋषि का क्या है महत्व- महत्वपूर्ण जानकारी
अंगिरा ऋषि
ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।
विश्वामित्र ऋषि
गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।
वशिष्ठ ऋषि
ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।
कश्यप ऋषि
मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।
जमदग्नि ऋषि
भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।
अत्रि ऋषि
सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।
अपाला ऋषि
अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।
नर और नारायण ऋषि
ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।
पराशर ऋषि
ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।
भारद्वाज ऋषि
बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।
आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।
वेदों के रचयिता ऋषि
ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।
१. वशिष्ठ
राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
२. विश्वामित्र
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
३. कण्व
माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
४. भारद्वाज
वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
५. अत्रि
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
६. वामदेव
वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।
७. शौनक
शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है। साभार _ शोभना राष्ट्रवादी जी
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कौन से ऋषि का क्या है महत्व- महत्वपूर्ण जानकारी
अंगिरा ऋषि
ऋग्वेद के प्रसिद्ध ऋषि अंगिरा ब्रह्मा के पुत्र थे। उनके पुत्र बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी।
विश्वामित्र ऋषि
गायत्री मंत्र का ज्ञान देने वाले विश्वामित्र वेदमंत्रों के सर्वप्रथम द्रष्टा माने जाते हैं। आयुर्वेदाचार्य सुश्रुत इनके पुत्र थे। विश्वामित्र की परंपरा पर चलने वाले ऋषियों ने उनके नाम को धारण किया। यह परंपरा अन्य ऋषियों के साथ भी चलती रही।
वशिष्ठ ऋषि
ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा और गायत्री मंत्र के महान साधक वशिष्ठ सप्तऋषियों में से एक थे। उनकी पत्नी अरुंधती वैदिक कर्मो में उनकी सहभागी थीं।
कश्यप ऋषि
मारीच ऋषि के पुत्र और आर्य नरेश दक्ष की १३ कन्याओं के पुत्र थे। स्कंद पुराण के केदारखंड के अनुसार, इनसे देव, असुर और नागों की उत्पत्ति हुई।
जमदग्नि ऋषि
भृगुपुत्र यमदग्नि ने गोवंश की रक्षा पर ऋग्वेद के १६ मंत्रों की रचना की है। केदारखंड के अनुसार, वे आयुर्वेद और चिकित्साशास्त्र के भी विद्वान थे।
अत्रि ऋषि
सप्तर्षियों में एक ऋषि अत्रि ऋग्वेद के पांचवें मंडल के अधिकांश सूत्रों के ऋषि थे। वे चंद्रवंश के प्रवर्तक थे। महर्षि अत्रि आयुर्वेद के आचार्य भी थे।
अपाला ऋषि
अत्रि एवं अनुसुइया के द्वारा अपाला एवं पुनर्वसु का जन्म हुआ। अपाला द्वारा ऋग्वेद के सूक्त की रचना की गई। पुनर्वसु भी आयुर्वेद के प्रसिद्ध आचार्य हुए।
नर और नारायण ऋषि
ऋग्वेद के मंत्र द्रष्टा ये ऋषि धर्म और मातामूर्ति देवी के पुत्र थे। नर और नारायण दोनों भागवत धर्म तथा नारायण धर्म के मूल प्रवर्तक थे।
पराशर ऋषि
ऋषि वशिष्ठ के पुत्र पराशर कहलाए, जो पिता के साथ हिमालय में वेदमंत्रों के द्रष्टा बने। ये महर्षि व्यास के पिता थे।
भारद्वाज ऋषि
बृहस्पति के पुत्र भारद्वाज ने 'यंत्र सर्वस्व' नामक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें विमानों के निर्माण, प्रयोग एवं संचालन के संबंध में विस्तारपूर्वक वर्णन है। ये आयुर्वेद के ऋषि थे तथा धन्वंतरि इनके शिष्य थे।
आकाश में सात तारों का एक मंडल नजर आता है उन्हें सप्तर्षियों का मंडल कहा जाता है। उक्त मंडल के तारों के नाम भारत के महान सात संतों के आधार पर ही रखे गए हैं। वेदों में उक्त मंडल की स्थिति, गति, दूरी और विस्तार की विस्तृत चर्चा मिलती है। प्रत्येक मनवंतर में सात सात ऋषि हुए हैं। यहां प्रस्तुत है वैवस्तवत मनु के काल में जन्में सात महान ऋषियों का संक्षिप्त परिचय।
वेदों के रचयिता ऋषि
ऋग्वेद में लगभग एक हजार सूक्त हैं, लगभग दस हजार मन्त्र हैं। चारों वेदों में करीब बीस हजार हैं और इन मन्त्रों के रचयिता कवियों को हम ऋषि कहते हैं। बाकी तीन वेदों के मन्त्रों की तरह ऋग्वेद के मन्त्रों की रचना में भी अनेकानेक ऋषियों का योगदान रहा है। पर इनमें भी सात ऋषि ऐसे हैं जिनके कुलों में मन्त्र रचयिता ऋषियों की एक लम्बी परम्परा रही। ये कुल परंपरा ऋग्वेद के सूक्त दस मंडलों में संग्रहित हैं और इनमें दो से सात यानी छह मंडल ऐसे हैं जिन्हें हम परम्परा से वंशमंडल कहते हैं क्योंकि इनमें छह ऋषिकुलों के ऋषियों के मन्त्र इकट्ठा कर दिए गए हैं।
वेदों का अध्ययन करने पर जिन सात ऋषियों या ऋषि कुल के नामों का पता चलता है वे नाम क्रमश: इस प्रकार है:- १.वशिष्ठ, २.विश्वामित्र, ३.कण्व, ४.भारद्वाज, ५.अत्रि, ६.वामदेव और ७.शौनक।
पुराणों में सप्त ऋषि के नाम पर भिन्न-भिन्न नामावली मिलती है। विष्णु पुराण अनुसार इस मन्वन्तर के सप्तऋषि इस प्रकार है :-
वशिष्ठकाश्यपो यात्रिर्जमदग्निस्सगौत।
विश्वामित्रभारद्वजौ सप्त सप्तर्षयोभवन्।।
अर्थात् सातवें मन्वन्तर में सप्तऋषि इस प्रकार हैं:- वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र और भारद्वाज।
इसके अलावा पुराणों की अन्य नामावली इस प्रकार है:- ये क्रमशः केतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरा, वशिष्ट तथा मारीचि है।
महाभारत में सप्तर्षियों की दो नामावलियां मिलती हैं। एक नामावली में कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और वशिष्ठ के नाम आते हैं तो दूसरी नामावली में पांच नाम बदल जाते हैं। कश्यप और वशिष्ठ वहीं रहते हैं पर बाकी के बदले मरीचि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह और क्रतु नाम आ जाते हैं। कुछ पुराणों में कश्यप और मरीचि को एक माना गया है तो कहीं कश्यप और कण्व को पर्यायवाची माना गया है। यहां प्रस्तुत है वैदिक नामावली अनुसार सप्तऋषियों का परिचय।
१. वशिष्ठ
राजा दशरथ के कुलगुरु ऋषि वशिष्ठ को कौन नहीं जानता। ये दशरथ के चारों पुत्रों के गुरु थे। वशिष्ठ के कहने पर दशरथ ने अपने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र के साथ आश्रम में राक्षसों का वध करने के लिए भेज दिया था। कामधेनु गाय के लिए वशिष्ठ और विश्वामित्र में युद्ध भी हुआ था। वशिष्ठ ने राजसत्ता पर अंकुश का विचार दिया तो उन्हीं के कुल के मैत्रावरूण वशिष्ठ ने सरस्वती नदी के किनारे सौ सूक्त एक साथ रचकर नया इतिहास बनाया।
२. विश्वामित्र
ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। इस हार ने ही उन्हें घोर तपस्या के लिए प्रेरित किया। विश्वामित्र की तपस्या और मेनका द्वारा उनकी तपस्या भंग करने की कथा जगत प्रसिद्ध है। विश्वामित्र ने अपनी तपस्या के बल पर त्रिशंकु को सशरीर स्वर्ग भेज दिया था। इस तरह ऋषि विश्वामित्र के असंख्य किस्से हैं।
माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज हैं उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ठ होकर एक अलग ही स्वर्ग लोक की रचना कर दी थी। विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मन्त्र की रचना की जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।
३. कण्व
माना जाता है इस देश के सबसे महत्वपूर्ण यज्ञ सोमयज्ञ को कण्वों ने व्यवस्थित किया। कण्व वैदिक काल के ऋषि थे। इन्हीं के आश्रम में हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत की पत्नी शकुंतला एवं उनके पुत्र भरत का पालन-पोषण हुआ था।
४. भारद्वाज
वैदिक ऋषियों में भारद्वाज-ऋषि का उच्च स्थान है। भारद्वाज के पिता बृहस्पति और माता ममता थीं। भारद्वाज ऋषि राम के पूर्व हुए थे, लेकिन एक उल्लेख अनुसार उनकी लंबी आयु का पता चलता है कि वनवास के समय श्रीराम इनके आश्रम में गए थे, जो ऐतिहासिक दृष्टि से त्रेता-द्वापर का सन्धिकाल था। माना जाता है कि भरद्वाजों में से एक भारद्वाज विदथ ने दुष्यन्त पुत्र भरत का उत्तराधिकारी बन राजकाज करते हुए मन्त्र रचना जारी रखी।
ऋषि भारद्वाज के पुत्रों में १० ऋषि ऋग्वेद के मन्त्रदृष्टा हैं और एक पुत्री जिसका नाम 'रात्रि' था, वह भी रात्रि सूक्त की मन्त्रदृष्टा मानी गई हैं। ॠग्वेद के छठे मण्डल के द्रष्टा भारद्वाज ऋषि हैं। इस मण्डल में भारद्वाज के ७६५ मन्त्र हैं। अथर्ववेद में भी भारद्वाज के २३ मन्त्र मिलते हैं। 'भारद्वाज-स्मृति' एवं 'भारद्वाज-संहिता' के रचनाकार भी ऋषि भारद्वाज ही थे। ऋषि भारद्वाज ने 'यन्त्र-सर्वस्व' नामक बृहद् ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का कुछ भाग स्वामी ब्रह्ममुनि ने 'विमान-शास्त्र' के नाम से प्रकाशित कराया है। इस ग्रन्थ में उच्च और निम्न स्तर पर विचरने वाले विमानों के लिए विविध धातुओं के निर्माण का वर्णन मिलता है।
५. अत्रि
ऋग्वेद के पंचम मण्डल के द्रष्टा महर्षि अत्रि ब्रह्मा के पुत्र, सोम के पिता और कर्दम प्रजापति व देवहूति की पुत्री अनुसूया के पति थे। अत्रि जब बाहर गए थे तब त्रिदेव अनसूया के घर ब्राह्मण के भेष में भिक्षा मांगने लगे और अनुसूया से कहा कि जब आप अपने संपूर्ण वस्त्र उतार देंगी तभी हम भिक्षा स्वीकार करेंगे, तब अनुसूया ने अपने सतित्व के बल पर उक्त तीनों देवों को अबोध बालक बनाकर उन्हें भिक्षा दी। माता अनुसूया ने देवी सीता को पतिव्रत का उपदेश दिया था।
अत्रि ऋषि ने इस देश में कृषि के विकास में पृथु और ऋषभ की तरह योगदान दिया था। अत्रि लोग ही सिन्धु पार करके पारस (आज का ईरान) चले गए थे, जहां उन्होंने यज्ञ का प्रचार किया। अत्रियों के कारण ही अग्निपूजकों के धर्म पारसी धर्म का सूत्रपात हुआ। अत्रि ऋषि का आश्रम चित्रकूट में था। मान्यता है कि अत्रि-दम्पति की तपस्या और त्रिदेवों की प्रसन्नता के फलस्वरूप विष्णु के अंश से महायोगी दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से चन्द्रमा तथा शंकर के अंश से महामुनि दुर्वासा महर्षि अत्रि एवं देवी अनुसूया के पुत्र रूप में जन्मे। ऋषि अत्रि पर अश्विनीकुमारों की भी कृपा थी।
६. वामदेव
वामदेव ने इस देश को सामगान (अर्थात् संगीत) दिया। वामदेव ऋग्वेद के चतुर्थ मंडल के सूत्तद्रष्टा, गौतम ऋषि के पुत्र तथा जन्मत्रयी के तत्ववेत्ता माने जाते हैं।
७. शौनक
शौनक ने दस हजार विद्यार्थियों के गुरुकुल को चलाकर कुलपति का विलक्षण सम्मान हासिल किया और किसी भी ऋषि ने ऐसा सम्मान पहली बार हासिल किया। वैदिक आचार्य और ऋषि जो शुनक ऋषि के पुत्र थे।
फिर से बताएं तो वशिष्ठ, विश्वामित्र, कण्व, भरद्वाज, अत्रि, वामदेव और शौनक- ये हैं वे सात ऋषि जिन्होंने इस देश को इतना कुछ दे डाला कि कृतज्ञ देश ने इन्हें आकाश के तारामंडल में बिठाकर एक ऐसा अमरत्व दे दिया कि सप्तर्षि शब्द सुनते ही हमारी कल्पना आकाश के तारामंडलों पर टिक जाती है।
इसके अलावा मान्यता हैं कि अगस्त्य, कष्यप, अष्टावक्र, याज्ञवल्क्य, कात्यायन, ऐतरेय, कपिल, जेमिनी, गौतम आदि सभी ऋषि उक्त सात ऋषियों के कुल के होने के कारण इन्हें भी वही दर्जा प्राप्त है। साभार _ शोभना राष्ट्रवादी जी
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स्थावर-जङ्गमात्मक सम्पूर्ण विश्वप्रपञ्च का उपादान कारण प्रकृति है। मूलप्रकृति त्रिगुणात्मक होने से प्राणी मात्र के शरीर वात,पित्त एवं कफ इन त्रिधातुओं के नाना प्रकार के रूपान्तरों के सम्मिश्रण है।अतःअनेक शरीर वातप्रधान ,अनेक पित्तप्रधान अथवा कुछ कफ प्रधान होते है।वातप्रधान शरीर में आहार-विहार के दोष से तथा देशकालादि हेतु से प्रायः वातवृद्धि हो जाती है।पित्तप्रधान शरीरों में पित्तविकृति एवं कफोल्वण शरीरों में प्रायःकफ प्रकोप हो जाता है।कफ धातु विकृत होने पर दूषित श्लेष्म,आमवृद्धि या मेद का संग्रह हो जाता है।पश्चात् इन मलों के प्रकुपित होने से नाना प्रकारके रोग उत्पन्न होने लगते हैं।इन व्याधियों को उत्पन्न न होने देने के लिये और हो गये हों तो उन्हें दूर करके पुनःदेह को पूर्ववत् स्वस्थ बनाने के लिये जैसे आयुर्वेद के आचार्यों ने स्नेहपान,स्वेदन,वमन,विरेचन,एवं वस्ति ये पञ्च कर्म कहे है,वैस ही हठयोग के प्रवर्तक महर्षियों ने साधको के कफप्रधान शरीर की शुद्धि के लिये षट्कर्म निश्चित किया हैं।ये षट्कर्म सब साधकों को करने ही चाहिए मतान्तर से ऐसा आग्रह नही है। कुछ हठयोगियों के अनुसार षट्कर्मजन्य लाभ हमें प्राणायाम से भी प्राप्त हो सकता है।जिस तरह अत्यधिक गन्दगी से परिपूर्ण घर में कुदाल एवं टोकरी आदि की आवश्यकता आ पडती है।तद्वत् शरीर में मलों की आधिक्यता होने पर मलविक्षेपण शीघ्र हटाने के लिये षट्कर्म की आवश्यकता अपेक्षित है।जैसा कि गोरक्षशतकम् के द्वितीय शतक के आदि में उल्लिखित है- मेदःश्लेष्माधिकः पूर्वं षट् कर्माणि समाचरेत्।
अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावतः।।
अर्थात् जिनके शरीर में मेद और श्लेष्मा अधिक हों वह प्राणायाम से पहले षट्कर्म का अभ्यास करें।तथा दोषों के समभाव होने पर न करें।जिस तरह घेरण्ड ऋषि ने सप्तसाधनों में षट्कर्म को प्रथम स्थान पर वर्णन किये।शरीर शुद्धि का प्रमुख कारण बताय़े इसे- षट्कर्मणा शोधनं च......।इसी तरह योगप्रदीपिकाकार ने भी द्वितीय उपदेश मे 18 श्लोको के द्वारा प्राणायाम के पूर्व विधिवत् वर्णन किया है।
यथा – धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते।।2.22
अर्थात् धौति,बस्ति,नेति, त्राटक,नौली एवं कपालभाति विज्ञजनों ने ये छःकर्म योगमार्ग में कहे हैं।आगे उन्होने जैसा की कहा है- घटशोधनकारकम् अर्थात् देह को शुद्ध करने वाले एवं विचित्रगुणसंधायि तात्पर्य विचित्र गुणों का सन्धान करने वाले भी कहते हैं। यह कथन सत्य है कि षट्कर्मों के बिना ही पहले योगसाधन किया जाता था।समय और अनुभवने दिखाया कि प्राणायाम से जितने समय में मल दूर किया जा सकता है।इन कर्मों की उन्नति होती गयी और छःसे ये कर्म दस हो गये।पीछे गुरुपरम्परा से प्राप्त गुप्तविद्या लुप्त होने लगी।तब तो ये कर्म पूरे जाँचे हुए षट्कर्मतक ही परिमित रह गये।इन षट्कर्मों से लाभ है,इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता है।यह बात दूसरी है कि सबकी इधर प्रवृत्ति न हो सब इन्हें न कर सकते हों।एक बात और है।वर्तमान समयमें अनेक योगाभ्यासी मूल उद्देश्यको न समझने के कारण शरीर में त्रिधातु सम होने पर भी नित्य षट्कर्म करते रहते हैं और अपने शिष्यों को भी जीवनपर्यन्त नियमित रीति से करते रहने का उपदेश देते हैं।यदि शरीरशुद्धि के लिये अथवा इन क्रियाओ पर अपना अधिकार रखने के लिये भविष्य में कदाचित् देश-कालपरिवर्तन ,प्रमाद या आहार विहार में भूल से वातादि धातु विकृत हो जायँ तो शीघ्र क्रियाद्वारा उनका शमन किया जा सकता है।परन्तु आवश्यकता न होने पर भी नित्य करते रहने से समय का अपव्यय,शारीरिक निर्बलता ऐर मानसिक प्रगति में शिथिलता आ जाती है।चरणदास नं इस पर तर्क-वितर्क किये बिना ही अपना अन्तिम निर्णय इस प्रकार दे दिया है-
पहले ये सब सोधिये,काया होवे शुद्धि।
रोग न लागे देह को,उज्ज्वल होवे बुद्धि।।
यद्यपि इन षट्कर्मों की विधि, अधिकारी और फल का वर्णन हठयोग प्रदीपिकादि ग्रन्थों मे है तथाप केवल इन पुस्तकों पर से सम्यक बोध नहीं होता ,सद्गुरु से समझ लेने की पूरी-पूरी आवश्यकता रहती है।अन्यथा लाभ के स्थान में थोडी-सी भूल होने पर किसी प्रकारका उपद्रव खडा हो सकता है।वर्तमान युग में कलिके प्रभाव से हठयोग की परम्परा छिन्न-भिन्न हो गयी है।किञ्च भारत में सामाजिक धर्मपतन,बालविवाह,पाश्चात्त्य दोषयुक्त रिवाजों को गुणदायी मानकर अपना लेने और आर्थिक अवनति के कारण शारीरिक व्यवस्थामें भी निःसत्वता की वृद्धि हो रही है, जिससे वर्तमान कालीन हठयोग के साधक स्थऊल शरीर न होनेपर भी अधिकांश षट्कर्म के अधिकारी होते हैं।
अब षट्कर्म के नाम के विषय में अन्यान्य ग्रन्थो में संख्याभेद है।जैसा कि हठयोगप्रदीपिकाकार स्वामी स्वात्माराम जी ने छःकहा है
यथा- धौतिर्बस्तिस्तथा नेतिस्त्राटकं नौलिकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि षट् कर्माणि प्रचक्षते।।2.22
अर्थात् धौति,वस्ति,नेति ,त्राटक, नौलि एवं कपालभाति को षट्कर्म कहा है।इसी तरह घेरण्ड ऋषि नें भी उल्लिखित किया -
धौतिर्वस्तिस्तथा नेलिलौलिकी त्राटकं तथा।
कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत्।। घे.सं.1.12
धौति,वस्ति ,नेति, लौलिकी ,त्राटक एवं कपालभाति इन षट्कर्मों का आचरण योग- जिज्ञासु को करना चाहिये। हठरत्नावली ग्रन्थ के प्रणेता श्रीनिवासयोगीन्द्र थोडा हट कर वर्णन किये है।
यथा प्रथमोपदेश में कहा है- चक्रिनौलीर्धौतिर्नेतिः वस्तिःगजकरणी तथा।
त्रोटने मस्तकभातिः कर्माण्यष्टौ प्रचक्षते।।1.26
अर्थात् चक्री ,नौलि ,धौतिय, नेति ,वस्ति, गजकरणी , त्रोटन एवं मस्तकभाति ये अष्ट कर्म निगदित है।
परन्तु भक्तिसागर ग्रन्थ के रचयिता चरणदास जी ने 1.नेति ,2. धौति ,3. वस्ति ,4.गजकर्म , 5.न्योलि और 6. त्राटक को षट्कर्म कहा साथ ही कपालभाति ,धौंकनी, बाघी एवं शंखप्रक्षालन इन चार कर्मों को भी पूर्वोक्त षट्कर्मों के अन्तर्भूत निहित किये है।
षट्कर्म साधको के लिए नियम
योग में हठयोग के अन्तर्निहित षट्कर्म के अभ्यासियों के लिए भी वहीं नियम लागू होते है जो एक सामान्य योगाभ्यासी साधक के लिये ग्रन्थो में निर्दिष्ट है।प्रमुख तौर पर आहार-विहार,स्थान,भोजन,आचार-विचार आदि नियमो की परमावश्यकता होती है।यहाँ यही कहा जा सकता है कि स्थान रमणीक और निरापद,भोजन सात्त्विक –जैसे गोक्षीर,घृत,घोटा बादाम और मिश्री आदि पुष्ट और लघु पदार्थ तथा परिमित होना चाहिये।एकान्त सेवन,कम बोलना,वैराग्य साहस इत्यादि आचार विचार से समझना चाहिये।
अब यहा पर कुछ षट्कर्म की क्रियाओ का ग्रन्थदृष्ट्या स्वरूप वर्णन किया जा रहा है जो प्रायःसभी स्थलों में सामान्य रूप से प्राप्त होते है।
नौलि,लौलिकी,नलक्रिया या न्योली का स्वरूप
ग्रन्थकारों ने इस क्रिया के विषय में जैसा उपन्यस्त किया है –
अमन्दावर्त्तवेगेन तुन्दं सव्यापसव्यतः।
नतांसो भ्रामयेदेष नौलिः सिद्धैः प्रचक्ष्यते।।(ह.प्र.2.33)
तात्पर्य है कि कन्धों को नवाये हुए वेगपूर्वक जलभ्रमर की भांती अपने तुन्द(पेट) को सव्य-अपसव्यात्मक उभय (वाम एवं दाहिने) तरफ से घुमाने को सिद्धो ने नौलि कर्म कहा है।चरणदास जी ने कहा है –
न्योली पद्मासन सों करे। दोनों पग घुटनों पर धरे।।
पेट रू पीठ बराबर होय । दहने बायें नलै विलोय।।
जो गुरु करके ताहि दिखावे। न्योली कर्म सुगम करि पावे।।(भक्ति सागर)
अभ्यास हेतु साधक को पूर्व योगाभ्यास की भांति शौचादि क्रियाओं से विनिवृत्त होकर साथ ही प्रामुख्येन पेट साफ करके आसनाभ्यास के अनन्तर। अपनी स्वानुकूलतानुसार पद्मासन ,सिद्धासन या फिर जो आसन इसमे ज्यादा सहायक है ऐसा उत्कटासन का आलम्बन लेकर अभ्यास करे।सर्व प्रथम रेचक कर, वायु को बाहर रोके, फिर बिना हिलाये केवल मनोबल से पेट को दायें से बाये चलाना सोचे और आगे तदनुसार प्रयास करे।इसी प्रकार सायं-प्रातः स्वेद आनेपर्यन्त प्रतिदिन अभ्यास करते-करते पेट की स्थूलता जाती रहती है।तदनन्तर यह सोचना हाहिये कि दोनों कुक्षियां दब गयी और बीच में दोनों ओर से नल जुटकर मूलाधार से हृदय तक एक गोलाकार खंभ खडा हो गया है।यही खंभा जब बंध जाय तब नौली सुगम साध्य हो जाती है। इसी को नौलि निकालना कहते है।आगे मनोबल एवं अभ्यास बढाने से दायें-बायें घूमने लगती है।इसे चलाने में छाती के समीप ,कण्ठपर और ललाटपर भी नाडियों का द्वन्द्व मालूम पडता है।एक बार न्योली चल जाने पर चलती रहती है।पहले-पहल चललने के समय दस्त ढीला होता है।जिसका पेट हलका है तथा जो प्रयास पूर्वक अभ्यास कता है उसको एक महीने के भीतर ही न्योली सिद्ध हो जायेगी।
इस क्रिया का आरम्भ करने से पहले पश्चिमोत्तानासन और मयूरासन का थोडा अभ्यास कर लेना चाहिये।कारण इस क्रिया में सौकर्यता होती है और यह कम समय में ही सिद्ध हो जाती है।जबतक आँत पीठ के अवयवों से भलीभांति पृथक् न हो तब तक आँत उठाने की क्रिया सावधानी के साथ करें,अन्यथा आँते निर्बल हो सकती है।किसी-किसी समय आघात पहुँचकर उदररोग,शोथ,आमवात,कटिवात,गृध्रसी,कुब्जवात,शुक्रदोष या अन्य कोई रोग हो जाता है।अतःइस क्रिया को शान्ति पूर्वक करना चाहिये।अँतडी में शोथ,क्षतादि दोष या पित्तप्रकोपजनित अतिसारप्रवाहिका (पेचिश) ,संग्रहणी आदि रोगो में नौलिक्रिया हानिकारक है।चरणदास जी ने कहा है स्वग्रन्थ में यथा –मैल पेट मे रहन न पाव।अपान वायु तासों वश आवे।
तापतिली अरु गोला शूल।रहन न पावैं नेक न मूल।।
औऱ उदरके रोग कहावें। सो भी वे रहने नहिं पावैं।।(भक्तिसागर)
जैसा कि इस क्रिया का फल हठप्रदीपिकाकार ने कहा है-
मन्दाग्निसन्दीपनपाचनादि सन्धापिकाननन्दकरी सदैव।
अशेषदोषामयशोषणी च हठक्रियामौलिरियं च नौलिः।।(ह.प्र.2.34)
यह नौलि मन्दाग्नि का भली प्रकार दीपन और अन्नादि का पाचन और सर्वदा आनन्द करती है और समस्त वात आदि दोष और रोग का शोषण कररती है।यह नौलि हठयोग की सारी क्रियाओं में उत्तम है।अँतडियों के नौलि के वश होने से पाचन और मलका बाहर होन स्वाभाविक है।नौलि करते समय साँसकी क्रिया तो रूक ही जाती है।नौलि कर चुकने पर कण्ठ के समीप एक सुन्दर अकरथनीय स्वाद मिलता है।यह हठयोग की सारी क्रियाओं से श्रेष्ठ इसलिये है कि नौलि जान जानेपर तीनों बन्ध सुगम हो जाते हैं। अतएव यह प्राणायाम की सीढी है।धौति, वस्ति ,में भी नौलि की आवश्यकता होती है। शंखपषाली क्रियामें भी, जिसमें मुख से जल ले अँतडियों में घुमाते हुए पायुद्वारा ठीक उसी प्रकार निकाल दिया जाता है जैसे शंखमं एक ओर से जल देने पर घूमकर जल दूसरी राह से निकल जाता है ,नौलि सहायक है।नौलिक्रिया की नकल यन्त्रों द्वारा पाश्चात्त्यों से अभीतक न बन पडी है।
वस्तिकर्म
वस्ति मूलाधारके समीप है।रंग लाल है और इसके देवता गणेश हैं।अन्यमतावलंबियों के द्वारा इसे गणेश क्रिया के नाम से भी जाना जाता है।वस्ति प्रदेश को साफ करने वाली क्रिया को वस्ति कर्म कहते है।योगसार पुस्तकमं पुराने गुड,त्रिफला और चीते की छाल के रससे बनी गोली देकर अपानवायुको वश करने को कहा है।फिर वस्तिकर्म का अभ्यास करना कहा है।
वस्ति सामान्य विधा से ग्रन्थों मे इसके दो भेद बताएं गए हैं- 1. पवनवस्ति, 2. जलवस्ति। नौलिकर्म द्वारा अपानवायु को ऊपर खींच पुनःमयूरासन से त्यागने को वस्तिकर्म कहते हैं।घेरण्ड ऋषि मतानुसार पवनवस्ति को ही शुष्कवस्ति(स्थलवस्ति) के नाम से व्यवहार किया गया है।इसकी विधि कुछ इस तरह ग्रन्थ में उपन्यस्त है-
वस्तिं पश्चमोत्तानेन चालयित्वा शनैरधः।
अश्विनीमुद्रया पायुमाकुंचयेत्प्रसारयेत्।।(घे.सं.1.49)
अर्थात् सस्थल में ही (पीठ की ओर) पश्चिमोत्तानासन में स्थित होकर गुदाद्वार का धीरे-धीरे चालन करें।इस प्रकार अश्विनी मुद्रा द्वारा गुदा को सिकोड एवं फैलाकर स्थलवस्ति करनी चाहिए।
द्वितीय जो जलवस्ति है उसका स्वरूप इस प्रकार कहा गया है-
नाभिदघ्नजले पायौ न्यस्तनालोत्कटासनः।
आधाराकुञ्चनं कुर्यात् क्षालनं वस्तिकर्म तत्।।ह.प्र.2.26
अर्थात् गुदा के मध्यमें छःअंगुल लम्बी लाँस की नललीको रखे जिसका छिद्र कनिष्ठिका अँगुली के प्रवश योग्य हो,उसे घी अथवा तेल ललगाकर सावधानी के साथ चार अंगुल गुदा में प्रवश करे और दो अँगुल बाह रखे। पश्चात् बैठने पर नाभितक जल आ जाय इतने जल से भरे हुए टबमें उत्कटासन से बैठे अर्थात् दोनों पार्ष्णियों – पैर की एडियों को मिलाकर खडी रखकर उनपर अपने स्फिच(चूतड) को रखे और पैरों के अग्रभागपर बैठे और उक्त आसन से भैठकर आधाराकुढ्चन करे, चिससे बृहद् अन्त्रमें अपने आप जल चढने ललगेगा। बादमं भीतर प्रविष्ट हुए जल को नौलिक्रम से चलाकर त्याग दे। इस जलके साथ अन्त्रस्थित मल,आँव ,कृमि ,अन्त्रोत्पन्न सेन्द्रिय विष आदि बाहर निकलल आते हैं। इस उदरके क्षालन को वस्तिकर्म कहते हैं।धौति,वस्ति दोनों करर्म भोजन से पूर्व ही करने चाहिये और इनके करने के अनन्तर खिचडी आदि हलका भोजन शीघ्र कर लेना चाहिये, उसमें कुछ अंश बृहद् अन्त्रमें शेष रह जाता है, वह धीरे-धीरे मूत्रद्वारा बाहर आवेगा। यदि भोजन नहीं किया जायेगा तो वह दूषित जल अन्त्रों से सम्बद्ध सूक्ष्म नाडियों द्वारा शोषित होकर रक्तमें मिल जायेगा।कुछ लोग पहले मूलाधार से प्राणवायु के आकर्षण का अभ्यास करके और जल में स्थित होकर गुदा में नालप्रवेश के बिना ही वस्तिकर्म का अभ्यास करते है।उस प्रकार वस्ति कर्म करने से उदरमें प्रविष्ट हुआ सम्पूर्ण जल बाहर नहीं आ सकता और उसके न आने से धातुक्षय आदि नाना दोष होते हैं।इससे उस प्रकार वस्तिकर्म नहीं करना चाहिए।
अन्यथा न्यस्तनालः अपनी गुदा में नाल रखकर ऐसा पद स्वात्माराम क्यों देते यहाँ यह भी जान लेना आवश्यक है कि छोटे-छोठे जलजन्तुओं का नलद्वारा पेटमें प्रविष्ट हो जाने का भय रहता है। अतएव नलल के मुखपर महीन वस्त्र देकर आकुञ्चन करना चाहिये।और जल को बाहर निकालने के लिये खडा पश्चिमतान आसन करना चाहिए।
कई साधक ताललाब या नदीमें से जललका आकर्षण करते हैं , जिससे कभी-कभी जलके साथ सूक्ष्म जहरीले जन्तु आँतों में प्रवेशकर नाना प्रकारके रोग उत्पन्न कर देते हैं।किञ्च गङ्गा जी और हिमालय से निकललन वाली अनेक बडी-बडी नदियों का जल अधिक शीतलल होने के कारण न्युन शक्तिवालों को इच्छित लाभ के स्थानमें हानि पहँचा देता है।जल अधिक शीतल होने से उसे शोषण करने की क्रिया सूक्ष्म नाडियों द्वारा तुरन्त चाललू हो जाती है और शीतल जलसे आँव या कफ की उत्पत्ति होती है।अतः टब या अन्य किसी बजे बरतनमें बैठकर शुद्ध और सहन हो सके ऐसे शशीतल जल का आकर्षण करना हितकर होगा। हठयोग ,आयुर्वेद और पाश्चात्त्य एलोपैथिक आदि चिकित्साशास्त्रों की वस्तिक्रिया भिन्न-भिन्न प्रकारकी है। हठयोग में साधक आन्तरिक बल से हठपूर्वक अभ्यास करके इन क्रियाओ को सम्पादित करता है,वहीं आयुर्वेद में रोगानुसार भिन्न-भिन्न प्रकारकी ओषधियो के घृतादि के द्वारा चढाये जाते है।इसके फल के विषय में हठयोगियों ने कुछ इस तरह वर्णन किया है –
गुल्मप्लीहोदरं चापि वातपित्तकफोद्भवाः।
वस्तिकर्मप्रभावेन क्षीयन्ते सकलामयाः।।(ह.प्र)
अर्थात् वस्तिकर्म के प्रभावसे गुल्म ,प्लीहा , उदर (जलोदर) और वात-पित्त –कफ इनके द्वन्द्व वा एकसे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण रोग नष्ट होते हैं।
धात्विन्द्रियान्तःकरणप्रसादं
दद्याच्च कान्तिं दहनप्रदीप्तिम्।
अशेषदोषोपचयं निहन्यात्
अभ्यस्यमानं जलवस्तिकर्म।।(ह.प्र)
अभ्यास किया हुआ यह वस्तिकर्म साधकके ससप्त धातुओ , दस इन्द्रियों और अन्तःकरण को प्रसन्न करता है।मुखपर सात्त्विक कान्ति छा जाती है। जठराग्नि उद्दीप्त होती है। वात ,पित्त . कफ आदि दोषों की वृद्धि और न्यूनता दोनों को नष्ट कर साम्यरूप आरोग्यता को करता है।हाँ , एक बात इस सम्बन्ध मे ध्यान देने योग्य है कि वस्तिक्रिया करने वालो को पहले नेति और धौति क्रिया करनी चाहिए।
साथ ही राजयक्ष्मा (क्षय) , संग्रहणी ,प्रवाहिका ,अधोरक्तपित्त ,भगन्दर ,मलाशय और गुदामें शोथ, सन्ततज्वर ,आन्त्रसन्निपात (हल्का टाइपोइड), आन्त्रशो ,आन्त्रव्रण , कफवृद्धिजनित तीक्ष्ण श्वाससप्रकोप इत्यादि रोगों में वस्तिक्रिया नहीं करनी चाहिये।
धौतिकर्म
धौतिकर्म के विषय में ग्रन्थों में विभिन्न भेद-प्रभेद प्राप्त होते हैं पर सामान्य हठयोगप्रदीपिका के अनुसार यहाँ पर उपन्यस्त है।जैसा कि द्वितीयोपदेश में स्वात्माराम जी ने कहाँ है –
चतुरङ्गुलविस्तारं हस्तपञ्चदशायतम्।
गुरुपदिष्टमार्गेण सिक्तं वस्त्रं शनैर्ग्रसेत्।।
पुनः प्रत्याहरेच्चैतदुदितं धौति कर्म तत्। (ह.प्र.2.24)
अर्थात् चार अंगुल जौडे और पन्द्रह हाथ लंबे महीन वस्त्रको गरम जलमें भिगोकर थोडा निचोड ले। फिर गुरु के द्वारा बताये गये विधि के अनुसार धीरे-धीरे प्रतिदिन एक-एक हाथ या फिर अपनी सामर्थ्यानुसार उत्तरोत्तर निगलने का अभ्यास करें। सम्भवतः आठ- दस दिन में पूरी धोती निगलने का अभ्यास हो सकता है। करीब एक हाथ कपडा बाहर रखें।फिर मुख में जो शेष कपडा है उसे दाढो से भलीप्रकार दबाकर अनन्तर नौलि कर्म का अभ्यास करें।फिर धीरे-धीरे वस्त्र को बाहर निकाले।यहाँ यह जान लेना चाहिए कि वसस्ऊ निगलने के पहले पूरा जल पी लेना चाहिये। इससे कपडे को बाहर निकलने में भी सहायता मिलती है।धौति को रोज साबुन से धोकर स्वच्छ रखना चाहिये।अन्यथा धौतिमें लगे हुए दुषित पदार्थ अन्दर जा सकते है शरीर के आन्तरिक हिस्से को हानि पहुचा सकते हैं।
अनेक साधक बाँस की नवीन करची (कोईन, भोजपुरी भाषा) या वटकी बरोह सवा हाथ का लेकर पहले जल पी करके पीछे शनैःशनैः निगलने का अभ्यास करते हैं। सूत की एक चढाव-उतराववाली रस्सी से भी धौति साधते हैं। जब-जब निगलते हैं तब-तब जल बाहर निकलने लगता है और करची आदि को भीतर घुसनें में भी सुभीता होता है।
इस क्रिया के फल के विषय में हठयोगियों ने इस प्रकार बताया है –
कासश्वासप्लीहकुष्ठं कफरोगाश्च विंशतिः।
धौतिकर्मप्रभावेन प्रयान्त्येव न संशयः।।(ह.प्र.)
काया होवे शुद्ध ही, भजें पित्त कफ रोग।
शुकदेव कहे धोति करम ,साधें योगी लोग।।(भक्तिसागर)
पाश्चात्त्यों ने Stomach Tube (स्टामक ट्यूब) बनाया है। कोई एक-सवा हाथ की रबर की नली रहती है। जिसका क मुख खुला रहता है और दूसरे सिरेके कुछ ऊपर हटकर बगलमें एक छेद होता है।जल पीकर खुला सिरा ऊपर रखकर दूसरा सिरा निगला जाता है और जल रबर की नलिका द्वारा गिर जाता है।
चाहे किसी प्रकार की धौति क्यों न हो , उससे कफ , पित्त एवं रंग बिरंगे पदार्थ बाहर गिरते हैं। ऊपर की नाडी में रहा हुआ एकाध अन्न का दाना भी गिरता है। दाँत खट्टा –सा हो जाता है। परन्तु मन शान्त और प्रसन्न हो जाता है। वसन्त या ग्रीष्मकाल में इसका साधन अच्छा होता है।
घटिका , कण्ठनलिका या श्वासनलिका में शोथ ,शुष्क काश , हिक्का ,वमन , आमाशय में शोथ ,ग्रहणी ,तीक्ष्ण अतिसार , ऊर्ध्व रक्तपित्त (मुंह से रक्त गिरना) इत्यादि कोई रोग हो तो धौतिक्रिया लाभदायक नहीं होती है। और आवश्यकता न रहने पर इस क्रिया को प्रतिदिन करने से पाचनक्रिया में उपयोगी पित्त और कफ धौति निगलने के कारण विकृत होकर बाहर निकलते रहते हैं जिससे पाचनक्रिया मन्द होकर शरीर को निर्बल बना देती है।पित्तप्रकोप से ग्रहणीकला दूषित होनेपर धौतिक्रिया की जायेगी तो किसी समय धौति का भाग आमाशय और लघु अन्त्र के सन्धिस्थान में जाकर फँस जाएगा। इसी प्रकार धौति फट जानेपर भी उसके फँस जाने का भय रहता है।यदि ऐसा हो जाय तो थोडा गरम जल पीकर ब्रह्मदातुन चलाने से धौति निकलकर बाहर आ जायेदी। इन कारणों से पित्तप्रकोपजन्य रोगो में धौति का उपयोग करना अनुचित माना गया है।
नेतिकर्म
नेति दो प्रकार की होती है- जलनेति और सूत्रनेति। पहले जलनेति करनी चाहिये। हठयोग ग्रन्थों में देखें तो नेति कथन से सूत्रनेति ही कथित है।जलनेति के विषय में जैसा कि अभ्यासियों के अभ्यास हेतु निर्देशन दिया जाता है कि ताम्रपात्र में ऊष्ण जल लें कर हल्का सेंधा नमक मिश्रित करें तथा कागा स्थिति मे बैठकर वाम नासानाल में ताम्रपात्र का जो टोटी वाला हिस्सा है उसे संलग्न करें।साँसो को सामान्य रखते हुए सिर का दाहिना भाग नीचे की ओर उन्नत करें। कुछ कालावधि के अनन्तर दाहिनी नासाछिद्र से जल स्वतःबाहर निकलने लगेगा।यह जल नेति की सामान्य विधि है। इसी क्रिया को दूध के द्वारा सम्पादित करने पर यह दूग्धनेति ,घृत के साथ घृतनेति ,तेल के साथ तेलनेति इत्यादि नामो से जानी जाती है। ग्रन्थानुसार एक ही स्वरूप प्राप्त होता है।यथा हठयोग प्रदीपिकाकार ने लिखा है -
सूत्रं वितस्तिसुस्निग्धं नासानाले प्रवेशयेत्।
मुखान्निर्गमयेच्चैषा नेतिः सिद्धैर्निगद्यते।।(ह.प्र.2.29)
अर्थात् सुस्निग्ध एक बीता भर धागा नासिका के छिद्र में प्रवेश करायें और बाद में इसे मुख मार्ग के द्वारा बाहर निकाल दें। इसे ही नेतिकर्म कहते हैं। घेरण्ड ऋषि नें भी नेति के विषय मे प्रथमोपदेश में यही बात कही है। नेति कर्म के अभ्यासीयों को कुछ बातें विदित होनी चाहिए। यदि आप तीक्ष्ण नेत्ररोग,तीक्ष्ण अम्लपित्त और नये ज्वर इत्यादि में इसका अभ्यास नहीं करना चाहिये। क्रमानुसार देखें तो जलनेति के अनन्तर सूत्र नेति का अभ्यास करना चाहिए। सूत्रनेति के विषय में जैसा कि कहते है – महीन सूत की दस-पन्द्रह तारकी एक हाथ लम्बी बिना बटी डोर ,जिसका छः-सात इंच लंबा एक प्रान्त बटकर क्रमशःपतला बना दिया गया हो, पिघले हुए मोम से चिकना बनाकर जल में भिगो लेना उचित है। फिर इस स्निग्ध भागको भी इस रीति से थोडा मोडकर जिस छिद्र से वायु चलती हो उस छिद्र में लगाकर , और नाकका दूसरा छेद अँगुली से बन्दकर ,खूब जोरसे बारंबार पूरक करने से सूतका भाग मुख में आ जाता है। तब उसे तर्जनी और अँगुष्ठ से पकडकर बाहर निकाल ले। पुनः नेतिको धोकर दूसरे छिद्र में डालकर मुँहमें से निकाल ले। कुछ दिन के अभ्यास के बाद एक हाथ से सूत को मुख से खींचकर और दूसरे से नाकवाला प्रान्त पकडकर धीरे-धीरे चालन करें। इस क्रिया को घर्षणनेति के नाम से भी कुछ योगी लोग कहा करते हैं। इसी प्रकार नासान्तर से भी अभ्यास करना चाहिये। इससे भीतर लगा हुआ कफ नेति के साथ बाहर आ जाता है। सावधानी पूर्वक इस क्रिया को करने पर कोई भय नहीं है। सध जाने पर तीन-चार दिन के अन्तराल के बाद इसे करना चाहिये। जलनेति प्रतिदिन भी अभ्यास किया जा सकता है। इसके फल के विषय में ग्रन्थकारों ने कहा हैं यथा चरणदास जी ने उपन्यस्त किया है -
नाक कान अरु दाँत का ,रोग न ब्यापै कोय।
उज्ज्वल होवे नैन ही , नित नेती कर सोय ।।(भक्तिसागर)
तथा घेरण्ड ऋषि ने इसे खेचरी सिद्धि मे अत्यन्त सहायक कहा है –
साधनान्नेतियोगस्य खेचरीसिद्धिमाप्नुयात्।
कफदोषा विनश्यन्ति दिव्यदृष्टिः प्रजायते।।(घे.सं.1.52)
साथ ही प्रदीपिकाकार नें भी कहा हैं कि –
कपालशोधिनी चैव दिव्यदृष्टीप्रदायिनी।
जत्रूर्ध्वजातरोगौघं नेतिराशु निहन्ति च।।(ह.प्र.2.30)
अर्थात् नेति कपाल को शुद्ध करती है ,दिव्य दृष्टि देती है।स्कन्ध, भुजा और सिर की सन्धि के ऊपर के सारे रोगों को नेति शीघ्र नष्ट करती हैं।
त्राटककर्म
निरीक्षेन्निश्चलदृशा सूक्ष्मलक्ष्यं समाहितः।
अश्रुसम्पातपर्यन्तमाचार्यैः त्राटकं स्मृतम्।।(ह.प्र.2.31)
समाहित अर्थात् एकाग्रचित्त हुआ मनुष्य निश्चल दृष्टि से सूक्ष्म लक्ष्यको अर्थात् लघु पदार्थ को तबतक देखे जबतक अश्रुपात न होवे। इसे मत्स्येन्द्र आदि आचार्यों ने त्राटककर्म कहा है। अन्य ग्रन्थकारों ने कुछ इस तरह इसके विषय में कहा हैं – त्राटक कर्म टकटकी लागे। पलक पललक सो मिलै न तागे।
नैन उघारे ही नित रहै । होय दृष्टि फिर शुकदेव कहै।।
आँख उलटि त्रिकुटी में आनो । यह भी त्राटक कर्म पिछानो।।
जैसे ध्यान नैनके होई। चरणदास पूरण हो सौई।।
सफेद दिवालपर सरसों –बराबर काला चिह्न चिह्नित कर लें उसीपर दृष्टि ठहराते-ठहराते चित्त समाहित और दृष्टि शक्तिसम्पन्न हो जाती है। मेस्मेरिज्म में जो शक्ति आ जाती हैं वही शक्ति त्राटक से भी प्राप्त है।
फल के विषय मे हठप्रदीपिका में उल्लिखित है –
मोचनं नेत्ररोगाणां तन्द्रादीनां कपाटनम्।
यत्नतस्त्राटकं गोप्यं यथा हाटकपेटकम्।।
त्राटक नेत्ररोग नाशक है। तन्द्र ,आलस्यादि को भीतर नहीं आने देता । त्राटककर्म संसार में इस प्रकार गुप्त रखने योग्य है जैसे सुवर्ण की पेटी संसार में गुप्त रखी जाती है।क्योंकि – भवेद्वीर्यवती गुप्ता निर्वीर्या तु प्रकाशिता। उपनिषदों में त्राटकके आन्तर ,बाह्य और मध्य इस प्रकार तीन भेद किये गये हैं। हठयोग के ग्रन्थों में प्रकार भेद नहीं है। उक्त तीनों भेद समझते हैं।
ह्रदय अथवा भ्रूमध्य में नेत्र बन्द रखकर रकाग्रता पूर्वक चक्षुवृत्ति की भावना करने को आन्तर त्राटक कहते हैं। इस आन्तर त्राटक और ध्यान में बहुत अंशो में समानता है। भ्रूमध्य में त्राटक करने से आरम्भ में कुछ दिनों तक कपाल में दर्द हो जाता है तथा नेऊ की बरौनी में चञ्चलता प्रतीत होने लगती है। परन्तु कुछ दिनों के पश्चात् नेत्रवृत्ति में स्थिरता आ जाती है। ह्रदय देश में वृत्ति की स्थिरता क लिये प्रयत्न करने वालों को ऐसी प्रतिकूलता नहीं होती ।
चन्द्र ,प्रकाशित नक्षत्र , पर्वत के तृणाच्छादित शिखर अथवा अन्य किसी दूरवर्ती लक्ष्यपर दृष्टि स्थिर करने की क्रिया को बाह्य त्राटक कहते है। केवल सूर्यपर त्राटक करने की मना ही है। कारण ,सूर्य और नेत्र ज्योति में एक ही प्रकार की शक्ति होने से नेत्र-शक्ति सूर्य में आकर्षित होती रहेगी, जिससे नेत्र दो-ही ती मास में कमजोर हो जायेगें। यदि सूर्य पर त्राटक करना हो तो जलमें पडे हुए सर्यके प्रतिबिम्ब पर करें। इस प्रकार किसी दूरवर्ती पदार्थ पर त्राटक करने की क्रिया को बाह्य त्राटक कहते है।
काली स्याही से कागज पर लिखे हुए ऊँ , बिन्दु ,किसी देवमूर्ति अथवा भगवान् के चित्र , मोमबत्ती या तिल के तेल की अचल बत्ती या बत्ती के प्रकाश से प्रकाशित धातुकी मूर्ति , नासिका के अग्रभाग या समीपवर्ती किसी अन्य लक्ष्यपर दृष्टि स्थिर रखने की क्रिया को मध्य त्राटक कहते हैं। केवल भ्रूमध्य में खुले नेत्र से देखने की क्रिया प्रारम्भ में अधिक समय न करो, अन्यथा नेत्रों की नाडियाँ निर्बल होकर दृष्टि कमजोर हो जायेगी।
इन तीनों प्रकार के त्राटक के अधिकारी भी भिन्न-भिन्न हैं। जिस साधक की पित्त प्रधान प्रकृति हो , जिसके मस्तिष्क, नेत्र , नासिका या ह्रदय में दाह रहता हो, नेत्र मे फूला ,जाला या अन्य कोई रोग हो ,वह केवल आन्तर त्राटक का अधिकारी है। यदि वह बाह्य लक्ष्यपर त्राटक करेगा तो नेत्रको हानि पहुँचेगी। जिनकी वातप्रधान प्रकृति हो या जिन्हें शुक्रकी निर्बलता हो ,वे समीपस्थ मूर्ति आदिपर त्राटक न करें। चन्द्रादि उज्ज्वल लक्ष्यपर त्राटक करें। जिनकी दृष्टि दोषरहित हो , त्रिधातु सम हों ,कफप्रधान प्रकृति हो ,नेत्रों की ज्योति पूर्ण हो , वे मध्य त्राटक का अभ्यास करें।
गजकर्म या गजकरणी
गजकर्म यहि जानिये , पिये पेट शरि नीर।
फरि युक्तियों काढिये ,रोग न होय शरीर ।।
हाथी जैसे सूँड से जल खींच फिर फेंक देता है ,वैसे ही गजकर्म किया जाता है। अतः इसका नाम गजकर्म या गजकरणी हुआ।यह कर्म भोजन से पहले करना चाहिये । विषयुक्त या दूषित भोजन करने में आ गया हो तो भोजन के पीछे भी जा सकता है। प्रतिदिन दन्त धावन के पश्चात् इच्छाभर जल पीकर एँगुली मुखमें दे उलटी कर दे। क्रमशः बढा हुआ अभ्यास इच्छामात्र से जल बाहर फेंक देगा। भीतर गये जलको न्योलीकर्म से भ्रमाकर फेंकना और अच्छा होता है। जब जल स्वच्छ आ जाय तब जानना चाहिए कि अब मैल मुख की राह नहीं है। पित्तप्रधान पुरुषों के लिये यह क्रिया हितकर है।
कपालभातिकर्म
भस्त्रावल्लोहकारस्य रेचपूरौ ससम्भ्रमौ।
कपालभातिर्विख्याता कफदोषविशोषिणी।।
अर्थात् लोहकार की भस्त्रा (भाथी) के समान अत्यन्त शीघ्रता से क्रमशः रेचक-पूरक प्राणायाम को शान्तिपूर्वक करना योगशास्त्र में कफदोष का नाशक कहा गया है तथा कपालभाति नाम से विख्यात है। जब सुषुम्ना मे से अथवा फुफ्फुसमें से श्वासनलिका द्वारा कफ बार-बार ऊपर आता हो अथवा प्रतिश्याय (जुकाम) हो गया हो तब सूत्रनेति और धौतिक्रिया से इच्छित शोधन नही होता है। ऐसे समय पर यह कपालभाति लाभदायक है। इस क्रिया से फुफ्फुस औऱ समस्त कफवहा नाडियों में इकठ्ठा हुआ कफ कुछ जल जाता है और कुछ प्रस्वेदद्वारा बाहर निकल जाता है , जिससे फुफ्फुस कोषों की शुद्धि होकर फुफ्फुस बलवान होते हैं। साथ-साथ सुषुम्ना ,मस्तिष्क और आमाशय की शुद्धि होकर पाचनशक्ति प्रदीप्त होती है। परन्तु उरःक्षत , ह्रदय की निर्बलता ,वमनरोग ,ह्रलास (उबाक) , हिक्का ,स्वरभङ्ग ,मनकी भ्रमित अवस्था ,तीक्ष्ण ज्वर ,निद्रानाश ,ऊर्द्ध्वरक्तपित्त ,अम्लपित्त इत्यादि दोषो के समय , यात्रामे और व्षा हो रही हो, ऐसे समय पर इस क्रिया को न करे।
यदि यह क्रिया अधिक वेगपूर्वक की जायेगी तो किसी नाडी मं आघात पहुँच सकता है। और शक्ति से अधिक प्रमाण मे की जायेगी तो फुफ्फुसकोषों में शिथिलता आ जायेगी ,जिससे वायुको बाहर फेंकने की शक्ति न्यून हो जायेगी , जीवनीशक्ति भी क्षीण हो जायेगी तथा फुफ्पुसों में वायु शेष रहकर बार-बार डकार बनकर मुँहमें से निकलता रहेगा।
इस क्रिया से आमाशय में संगृहीत दूषित पित्त ,पाक न होकर शेष रहा हुआ आहार रस और विकृत श्लेष्म जलमें मिश्रित होकर वमन के साथ बाहर आ जाते है। कुछ जल आमाशय में से अन्त्र में चलला जाता है। कुछ सूक्ष्म नाडियों द्वारा रक्त में मिल जाता है। परन्तु इससे कुछ भी हानि नहीं होती। वह जल मल-मूत्र मार्ग से बहिः चला जाता है , या प्रस्वेदरूप सें एक-दो घण्टे में बाहर निकल जाता है। इस क्रिया को करने वालो को भोजन में खिचडी अथवा दूध-भात का सेवन विशेष हितकर है।
अजीर्ण , धूपमें भ्रमण ससे पित्तवद्धि ,पित्तप्रकोपजन्य रोग , जीर्ण कफ-व्याधि , कृमि ,रक्तविकार ,आमवात ,विषविकार और त्वचा रोगादि व्याधियों को दूर करने के लिये यह क्रिया गुणकारी है।
तीक्ष्ण कफप्रकोप ,वमनरोग, अन्त्रनिर्बलता , भतयुक्त संग्रहणी ,ह्रदयकी निर्बलता ,उरः भतादि रोगोंमें यह क्रिया न करे। इसी प्रकार आवश्यकता न होने पर इस क्रिया को नित्य न करें। शरद्- ऋतु में स्वाभाविक पित्तवृद्धि होती रहता है । ऐसे समयपर आवश्यकतानुसार यह क्रिया की जा सकती है।