पूर्वजन्म के कर्म: सच या अंधविश्वास?

राजेंद्र कुमार काळे

This article, written on Dec 17, 2024, was published both in Hindi in the April-Pratham issue of Sarita  and in Marathi in the June issue of Grihshobhika


जो विश्वास तर्क पर आधारित नहीं है, वह रेत पर बने घर के समान है; जो समय की कसौटी पर टिक नहीं सकता.

तीन मित्र – दो महिलाएँ और एक पुरुष – लोनावला के तुंगार्ली जंगल और बांध की सैर के बाद लौट रहे थे. संकरे और क्षतिग्रस्त रास्ते पर उखड़े हुए पत्थरों पर से उनकी एसयूवी धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. रास्ते में स्कूल-यूनिफॉर्म पहने कुछ लड़कियां शायद तुंगार्ली बांध के आगे राजमाची गाँव लौट रही थीं. वहीं, बांध से रिसने वाले पानी का एक छोटा सा सोता फूट पड़ा था, जिसमें से एक लड़की अपनी पीने के पानी की बोतल भर रही थी.

दो आदिवासी महिलाएं सिर पर लकड़ी के गट्ठर उठाए सड़क पार करने के लिए उनकी गाड़ी के गुज़रने का इंतज़ार कर रही थीं. उनके फटे हुए कपड़े, कृशकाय शरीर, और धूप से जली गहरी त्वचा देखकर सैलानियों का दिल करुणा से भर आया.

पुरुष ने गाड़ी रोककर उन्हें रास्ता पार करने का इशारा किया और अपने मित्रों से बोला, “यहाँ तो समय ठहर गया है. ये लोग जैसे पचास या सौ साल पहले की ज़िंदगी जी रहे हैं.”

एक महिला ने दार्शनिक लहजे में कहा, “यह तो महज संयोग है कि उन्हें गरीबी में जन्म मिला और हमें खाते-पीते घरों में. यह संभव है कि हम ‘वह’ होते और वे ‘हम’. इसलिए हमारा अपने जीवन पर गर्व करना बेकार है.”

दूसरी महिला ने तुरंत जोड़ा, “यह पूर्वजन्म के कर्मों का फल है.” फिर इसी विषय पर तीनों में गंभीर चर्चा शुरू हो गई.

पहली महिला की व्याख्या – यानि संयोग, या गणितीय प्रायिकता (probability) – वैज्ञानिक आधार दर्शाती है, भले ही जन्म और मृत्यु विज्ञान के लिए आज भी गूढ़ रहस्य बने हुए हैं. लेकिन “पूर्वजन्म के कर्म” वाली व्याख्या अक्सर धार्मिक चर्चाओं में सुनाई देती है. तीनों मित्रों को यह विचार बेमानी लगा कि सिर पर लकड़ी ढोती गरीब महिलाएँ पिछले जन्म के पापों का फल भुगत रही हैं. न्याय की बात करें, तो अपराध का विवरण सुने बिना दंड मिलना अनुचित है. क्या धर्म के पुरोहित इन गरीबों को उनके कथित अपराधों का विवरण दे सकते हैं?

यह सवाल विज्ञानवादी को अंधविश्वासी से अलग करता है. वैज्ञानिक जानते हैं, कि विज्ञान के पास हर प्रश्न का उत्तर नहीं है. इसलिए विज्ञानवादी में एक बौद्धिक विनम्रता होती है. धर्म का भी एक दार्शनिक दृष्टिकोण होता है, जो आस्था और तर्क के बीच एक विचारशीलता का पुल बनाता है. लेकिन आडंबरवादी पुरोहित ब्रह्मांड, और जीवन–मृत्यु के हर प्रश्न का उत्तर धर्म के ‘विश्वास’ के सहारे दे सकते हैं, भले ही वह तार्किक हो या न हो. इनकी “पूर्वजन्म के कर्म” जैसी व्याख्याओं ने भारतीय समाज पर गहरी छाप छोड़ी है. दुःखों को पूर्वजन्म से जोड़ने के बाद समाज और सरकार का दायित्व खत्म हो जाता है. और व्यक्ति भी अपनी दशा को पूर्वजन्म का परिणाम मानकर निष्क्रिय हो जाता है.

सैलानियों की गाड़ी अब पक्की सड़क पर पहुँच गई थी. चर्चा को समेटते हुए एक मित्र ने कहा, “मन, बुद्धि, और शरीर की दृष्टि से सारे मनुष्य लगभग समान ही होते हैं. फिर भी देश सम्पन्न, या विपन्न होते हैं. अर्थात गरीबी के लिए गरीबों के पूर्वजन्म के कर्म नहीं, बल्कि समाज और समाज ने चुनी हुई सरकारों के बुरे कर्म ही ज़िम्मेदार हैं.” सच ही है, भारतीय समाज में बदलाव की गति बहुत धीमी है. आज इक्कीसवीं सदी में भी हम जातिवाद और चिंताजनक स्तर तक बढ़ी आर्थिक असमानता से जूझ रहे हैं. “पूर्वजन्म के कर्म” जैसी मान्यताएँ इन समस्याओं को सहारा देती हैं.

यह सच है, कि व्यक्ति के कर्म उसके वर्तमान और भविष्य को प्रभावित करते हैं. एक अच्छा बीज (अच्छे कर्म) ही एक स्वस्थ पौधा (अच्छा भविष्य) बनाएगा. लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि हम बिना किसी प्रमाण के पुनर्जन्म या पूर्वजन्म के कर्मों को स्वीकार कर लें. मूलतः धर्मों का कर्म-सिद्धांत (karma theory) नैतिकता और उत्तरदायित्व को प्रोत्साहित करता है, जिसे निश्चित रूप से स्वीकार किया जा सकता है. नैतिकता का एक अर्थ यह है, कि व्यक्ति जो कार्य करे, उसका, और उसके परिणामों का पूरा उत्तरदायित्व भी ले. सरल शब्दों में कहें, तो राह जीवन की हो या शहर की; अगर किसी ने लाल बत्ती को लांघा हो, तो जुर्माना भी सिर उठा कर भरें! आखिर हर गलती सीख भी दे जाती है.

विज्ञान दुनिया की सबसे खुली किताब है, जिसमे लिखने, जिसे पढ़ने, समझने, और उसमें प्रश्नचिह्न लगाने का अधिकार हर व्यक्ति को है. कुछ शोधकर्ताओं (जैसे डॉ. वॉल्टर सेमकिव) ने बच्चों द्वारा पूर्वजन्म की यादों के दावों का समर्थन किया किया है. उनके उद्देश्य पर संदेह नहीं, पर उनके निष्कर्ष वैज्ञानिक कसौटी पर खरे नहीं उतरते. अधिकतर वैज्ञानिक उन्हें मनोवैज्ञानिक स्थितियों, जैसे क्रिप्टोम्नेसिया (अवचेतन स्मृति) या सुझाव का परिणाम मानते हैं. दूसरी ओर, धर्म और पुरोहित “पूर्वजन्म” की व्याख्या को बिना किसी तर्क के पवित्र ग्रंथों के आधार पर करते हैं. धार्मिक कथाओं की जटिल व्याख्या कई बार आम लोगों के लिए कठिन हो जाती है, जिससे वे अनजाने में अंधविश्वास का शिकार हो जाते हैं. जब तक ठोस प्रमाण न मिलें, पुनर्जन्म और पूर्वजन्म के कर्मों पर विश्वास करना अंधविश्वास ही रहेगा.

हमारे सैलानियों की चर्चा का रुख अचानक पुनर्जन्म से भविष्य की ओर मुड़ गया था. वे लंच के लिए लोनावला के एक प्रसिद्ध होटल में पहुंचे थे. खाली टेबल का इंतजार करते हुए एक अखबार के ज्योतिष-भविष्य वाले पन्ने को देखते हुए एक महिला ने मुस्कुरा कर कहा, “देखें, आज हमारे 140 करोड़ देशवासियों का भविष्य क्या है?” तीनों मित्र हंस पड़े. यह उन अखबारों और ज्योतिषियों पर एक व्यंग था, जो जन्मदिन के आधार पर रची गई 12 राशियों के द्वारा दुनिया के 800 करोड़ लोगों का भाग्य रोज बताने का दावा करते हैं.

ज्योतिष एक रूढ़ी है, और सभी ज्योतिषी रूढ़िवादी हैं, पर अब उनकी भाषा परिष्कृत हो गई है, जैसे: आज आपका आशावाद आपको परेशानियों से दूर ले जाएगा. इस प्रत्यक्ष-सत्य को जानने के लिए ज्योतिष विद्या जरूरी नहीं, यह जानते हुए भी शिक्षित लोग भविष्य-फल वाले पन्ने की ओर आकृष्ट हो ही जाते हैं; हमारे शिक्षित सैलानी भी हुए. क्या आश्चर्य कि मुखपृष्ठ पर बड़े गर्व से “स्था: 1838” छापने वाला अखबार पिछले 186 वर्षों से हर रोज पाठकों को राशिफल से अनुग्रहित करता है. मनुष्य हर दिन जन्म लेते हैं, अर्थात (हमारे ज्योतिषियों के अनुसार) एक ही राशि में जन्मे दुनिया के लगभग 67 करोड़ लोग (या 800 करोड़ का 12वां हिस्सा) हर रोज एक ही भाग्य साझा करेंगे!

दार्शनिक कहते हैं, मनुष्य का सारा जीवन “इस पल में”, याने वर्तमान काल में समाया हुआ है. बीते हुए कल को बदला नहीं जा सकता, और आने वाले कल की बस कल्पना ही की जा सकती है. हाँ, भूतकाल के अनुभवों से (जिनमे “पूर्वजन्म” के अनुभव निश्चित ही शामिल नहीं  हैं) आने वाले कल को संवारा जा सकता है. पर भविष्य की अनिश्चितता जीवन की एक सचाई भी है, और जीने के प्रमुख आकर्षण, कुतूहल, और रोमांच भी—अपने पसंदीदा डायरेक्टर की नई फिल्म की तरह! बल्कि (किसी ने कहा है) “सचाई कल्पना से भी ज्यादा विलक्षण होती है”.

आखिर एक मेज खाली हुई और मित्रों का लंच शुरू हुआ. बातचीत अब गुजराती–मराठी पाक कला पर केंद्रित थी. खाने के बाद मीठा पान प्रस्तुत किया गया. बिल चुका कर तीनों यात्री महानगर की ओर चल दिए. तब तक शायद तुंगार्ली की लकड़ी ढोने वाली महिलाएं भी घर पहुँच कर भोजन कर चुकी होंगी. उनका भोजन बिलकुल अलग ढंग का होगा, पर कड़ी मेहनत के बाद स्वादिष्ट जरूर लगा होगा. सब दिन एक से नहीं होते. आज नहीं तो कल देश की प्रगति में उनका न्यायपूर्ण हिस्सा उन्हे मिलेगा और कोई सुबह उनके जीवन में संपन्नता की बहार जरूर लाएगी.

गाड़ी अब एक्सप्रेस-वे पर सरपट दौड़ रही थी. एफएम रेडियो पर नए- पुराने गीत बज रहे थे. उनमें यह सुप्रसिद्ध गीत भी था: ज़िन्दगी कैसी है पहेली! कभी तो हँसाए, कभी ये रुलाये. हम सामान्य लोग कुछ अधिक नहीं, तो अपने कर्मों से किसी न किसी तरह दूसरों के जीवन को बेहतर जरूर बना सकते हैं. शायद यही मानवीयता का सार है.

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