राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
क्या यह शक्तिशाली संस्था देश की प्रगति में बाधा बन रही है?
राजेंद्र कुमार काले
देश में लाखों स्वयंसेवी संस्थाएं हैं. वे सब संबंधित नियमों के अंतर्गत पंजीकृत हो कर सरकार के नियंत्रण में अपने-अपने कार्यक्षेत्र में काम करती रहती हैं, इसलिए उन पर कोई खास चर्चा नहीं होती. लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, या आर.एस.एस.—जिसने हाल ही में अपनी सौवीं वर्षगांठ मनाई है—देश की एकमेव शक्तिशाली स्वयंसेवी संस्था है, जो देश के किसी नियम के अंतर्गत पंजीकृत नहीं है, और इसलिए उस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है. उलटे वही सन २०१४ से सरकार चलाने वाली पार्टी के माध्यम से सरकार को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित कर रही है. उदाहरणार्थ, आज की सरकार जहां तक संभव हो, आर.एस.एस. की विचारधारा से जुड़े व्यक्तियों को ही राजनीतिक पदों पर नियुक्त करती है, जैसे कि राज्यों के राज्यपाल.
सत्तारूढ़ पार्टी किसी स्वयंसेवी संस्था से वैचारिक स्तर पर प्रेरणा ले, इसमें कुछ अनुचित प्रतीत नहीं होता. लेकिन जब संविधान से चुनी गई सरकार संविधान की मूलभूत रचना (बेसिक स्ट्रक्चर) को चुनौती देने वाली विचारधारा से प्रेरणा ले, तो यह एक चिंता का विषय बन जाता है. मूलभूत रचना का अर्थ है, मानवीय मूल्यों पर आधारित संविधान की वह विधाएं जिन्हे देश की सर्वोच्च कानून बनाने वाली संस्था, भारतीय संसद भी बदल नहीं सकती. संविधान का धर्मनिरपेक्ष स्वरूप उसी बेसिक स्ट्रक्चर का एक हिस्सा माना गया है, जिस पर आर.एस.एस. का संविधान से वैचारिक संघर्ष सर्वविदित है: क्योंकि आर.एस.एस. को हिन्दू राष्ट्र स्थापित करना है. संविधान के अनुसार “हिन्दू” एक धर्म है, अर्थात आर.एस.एस. का लक्ष्य धर्म-राज्य स्थापित करना है.
संघ तथा बहुमत से केन्द्र सरकार चलाने वाली पार्टी के संघ-प्रेरित नेता भली-भांति जानते हैं, कि उनके हिन्दू राष्ट्र के सपने को पूरा करने के लिए देश के संविधान में मूलभूत संशोधन करने होंगे, जिसका देश की संसद को अधिकार नहीं है. इस विरोधाभास का एक स्वाभाविक परिणाम यह है, कि जनता सड़क पर भगवे झंडे लेकर ‘हिन्दू राष्ट्र’ स्थापित करने के लिए अहिंदुओं से संघर्ष करती है, और सरकार उस पर चुप्पी साध लेती है. देश की प्रगति के विषय (गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी, इत्यादि) दरकिनार करके देश के अनेक हिन्दू दिन रात इसी चिंता और क्रोध में घुल रहे हैं कि किन ‘दुष्टों’ ने देश के संविधान को धर्मनिरपेक्ष बनाया, और अब इस शब्द से निजात कैसे पाई जाए. फिर यह क्रोध द्वेषपूर्ण भेदभाव में बदल कर अल्पसंख्यकों की ओर मुड़ जाता है, अराजकता फैल जाती है, और देश की सच्ची समस्याएं एक ओर रह जाती हैं. क्या यही है (माननीय प्रधानमंत्री के शब्दों में कहें तो) “दुनिया की सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था” का देश के विकास में योगदान?
विवादों से बचने के लिए आर.एस.एस. “हिन्दू” शब्द को अपनी वेबसाईट पर दूसरे ढंग से परिभाषित करता है: “हिन्दू एक जीने का एक दृष्टिकोण है, जीने का ढंग है”. आगे उसकी वेबसाईट पर लिखा है, “भारत में रहने वाला ईसाई या मुस्लिम भारत के बाहर से नहीं आया है. वे सब यहीं के हैं. हमारे सबके पुरखे एक ही हैं. किसी कारण से मजहब बदलने से जीवन दृष्टि नहीं बदलती है. इसलिए उन सभी की जीवन दृष्टि भारत की याने हिन्दू ही है”. इस अर्थ से हर भारतीय हिन्दू है. यह परिभाषा ‘हिन्दू’ की संवैधानिक परिभाषा से भिन्न है, पर इसे स्वीकार कर लें, तो भी अनेक प्रश्न अनुत्तरित रह जाते हैं. जैसे कि, संघियों को मस्जिदों और गिरिजाओं से द्वेष क्यों है? संघ के सभी छः प्रमुख (सर-संघचालक) सिर्फ सनातन-धर्मी, उसमें भी सिर्फ ब्राह्मण वर्ण के पुरुष ही, क्यों बने हैं?
आर.एस.एस. की वेबसाईट पर लिखा है कि इसमें महिलाओं को प्रवेश नहीं दिया जाता. संस्था के जन्मदाता डॉ. हेडगेवार ने ‘हिन्दुस्तानी सेवा दल’ जो बाद में ‘काँग्रेस सेवा दल’ बना, को छोड़ कर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना सन 1925 में की थी. उन्हें हिन्दू सभ्यता पर गर्व था. वर्ण व्यवस्था और लिंग पर आधारित भेदभाव पुरातन हिंदुओं के जीने का एक दृष्टिकोण था, इसमें कोई शक नहीं. उस दृष्टिकोण के अनुसार शूद्रों का कर्तव्य उच्च-वर्ण की सेवा और महिलाओं का कर्तव्य घर संभालना और बच्चों की देखभाल करना था. संघ की सदस्यता पुरुषों के लिए, और उसका प्रमुख पद ब्राह्मण वर्ग के लिए आरक्षित करके हिन्दू समाज के जीने के उसी पुरातन ढंग को उन्होंने संघ में समाहित किया होगा. तो क्या 21वीं सदी के भारत में आज भी उस कालतीत दृष्टिकोण को जारी रखा जा सकता है? कभी नहीं. इसलिए वर्ण व्यवस्था और लिंग-आधारित असमानता के लिए सन 1950 से लागू हमारे संविधान में कोई जगह नहीं है.
एक पुराने गीत में ठीक ही पूछा गया है, “हर युग में बदलते धर्मों को कैसे आदर्श बनाओगे?”. संविधान को लागू हुए 75 वर्ष हो गए. इसके अंतर्गत कोई भी पजीकृत स्वयंसेवी संस्था जातिवाद और लिंगभेद जैसी नीतियाँ नहीं अपना नहीं सकती. पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज भी उन समयातीत घिसेपिटे विचारों से चिपके रहने और समानता, धर्मनिरपेक्षता, और संस्थागत लोकतंत्र जैसे संवैधानिक उत्तरदायित्वों से बचने के लिए देश के कानून के अंतर्गत अपने को पंजीकृत करने से बच रहा है. सदियों पूर्व पर्यावरण, विज्ञान, मानवाधिकार, आर्थिक समानता, लिंगभेद जैसे विषय देश की सामाजिक चर्चा में ज्यादा प्रचलित नहीं हुए थे. आज इन विषयों पर संघ के हिन्दू राष्ट्र में क्या नीतियाँ होंगी, इसका उत्तर संघ के पास नहीं है.
अ-पंजीकृत आर.एस.एस. में सदस्यता की कोई प्रक्रिया नहीं है, इसलिये संघ की अपने सदस्यों के प्रति भी कोई जवाबदेही भी नहीं है. जब संघ का कोई स्वयंसेवक कानून की गिरफ्त में आता है, तो संघ उससे मुंह मोड लेता है. बचपन से संघ के सदस्य रहे रक्षा वैज्ञानिक प्रदीप कुरुलकर, जो अक्सर संघ के मंच से भाषण देते थे, देशद्रोह के आरोप में सन 2023 से पुणे की जेल में बंद हैं. उन पर अनधिकृत रूप से गुप्त जानकारी सांझा करने का आरोप है. पुलिस की तफ्तीश जारी है और उनके वकील का कहना है कि कुरलकर ने ऐसी कोई जानकारी किसी को नहीं दी, जो पहले से ही सार्वजनिक रूप से उपलब्ध न हो. लेकिन अपने इस पुराने सदस्य पर लगे गंभीर आरोप पर संघ की ओर से कोई टिप्पणी नहीं आई है.
आज हमारे जीने का आदर्श है, भारत का संविधान. खास बात यह है कि संविधान एक जीता-जागता ग्रंथ है. याने, मानवीय मूल्यों के बेसिक स्ट्रक्चर को छेड़े बिना कालांतर में बदलते आदर्शों के अनुसार संसद को इसे बदलने की स्वतंत्रता है. अनेक बार इसे संशोधित भी किया गया है. इन अर्थों में संविधान मृतप्राय धर्मग्रंथों से भिन्न है जिन्हें बदलने की स्वतंत्रता धर्म के ठेकेदार नहीं देते. अब संघ को सोचना है, कि वह आधुनिक संविधान के आधार पर भारत के विकास में योगदान दे, या उसमें अपने कालातीत आदर्शों के रोड़े अटकाए.
तारीख: 15/12/2025