राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 100 वर्ष
राजेंद्र कुमार काले
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (रा.स्व.सं.) अपनी 100वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। संगठन की वेबसाइट के अनुसार इसके स्वयंसेवक, जो अब सरकार में विभिन्न भूमिकाओं में हैं, "हिंदू समाज को मजबूत करने" के मिशन के प्रति समर्पित हैं, जिसे वे "हमारे युवाओं की मानसिकता को ढालकर" हासिल करना चाहते हैं। बहुधर्मी भारत में इस एक-धर्मी मिशन, और भारतीय राजनीति पर इस संगठन के प्रभाव को देखते हुए इसके संवैधानिक स्वरूप और लोकतांत्रिक जवाबदेही से जुड़े सवालों पर विचार करना आवश्यक हो जाता है।
उदाहरणार्थ, राजनीति में अत्यधिक प्रभावशाली होने के बावजूद रा.स्व.सं. औपचारिक रूप से किसी भी भारतीय कानून के अंतर्गत पंजीकृत नहीं है। इसकी संरचना सन 1950 से संविधान लागू होने के बाद भी आज तक अनौपचारिक बनी हुई है। ये तथ्य कई गंभीर प्रश्न उपस्थित करते हैं। क्या रा.स्व.सं. की विचारधारा का भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ विरोधाभास है? क्या इसे संवैधानिक रूप से मान्यता प्राप्त संगठन बना कर विरोधाभास मिटाया जा सकता है?
इस संगठन के प्रभाव का सच तो यह है, कि वर्ष 2014 के बाद रा.स्व.सं. और शासन के बीच की दूरी लगभग समाप्त हो गई है। बावजूद इसके, रा.स्व.सं. के पास कोई औपचारिक संविधान या सदस्यता प्रक्रिया तक नहीं है। महिलाओं को बाहर रखा गया है, जो सीधे तौर पर असंवैधानिक है। रा.स्व.सं. की हिन्दू-केंद्रित विचारधारा से प्रेरणा लेकर सिर्फ महिलाओं के लिए बने समानांतर संगठन, 'राष्ट्र सेविका समिति' को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की मान्यता कभी नहीं मिली।
रा.स्व.सं.के सभी प्रमुख ब्राह्मण रहे हैं, जिन्हें आजीवन कार्यकाल प्राप्त हुआ है। संगठन की वित्तीय स्थिति गोपनीय है, क्योंकि यह पंजीकृत संगठनों पर लागू संवैधानिक दायित्वों से परे है। याने यह एक ऐसा संगठन है जो देश की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए भी पंजीकृत संगठनों के नियमों का पालन करने हेतु बाध्य नहीं है।
यह सच है कि रा.स्व.सं. ने आपदा राहत और अनुशासन को बढ़ावा देने जैसे सांस्कृतिक और सामाजिक कार्य किए हैं। यह संगठन आपातकाल के दौरान भूमिगत रूप से कार्य करते हुए सेंसर की गई जानकारी प्रसारित करता रहा, जिससे भारत के राजनीतिक परिदृश्य को उचित रूप से प्रभावित किया। लेकिन संवैधानिक या कानूनी मान्यता की अनुपस्थिति से उत्पन्न हुए विरोधाभास इन कार्यों से झुठलाए नहीं जा सकते।
रा.स्व.सं. की विचारधारा और संवैधानिक मूल्यों के बीच टकराव अविरत रूप से बना हुआ है। हाल ही में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने इस विरोधाभास को व्यक्त करते हुए कहा था, "सरकार को औरंगजेब की कब्र की रक्षा करनी पड़ती है, जबकि उसने (हिंदुओं का) उत्पीड़न किया था।" एक अन्य मंत्री ने इससे भी आगे बढ़कर कहा कि "सरकार अपना कार्य करेगी, जबकि हिंदुत्व संगठनों को अपना कार्य करना चाहिए।" यह विवादित बाबरी मस्जिद को असंवैधानिक रूप से ध्वस्त करने जैसी अराजकता फैलाने का खुला आमंत्रण था।
ध्यान रहे, महाराष्ट्र में औरंगजेब की कब्र को पुरातत्व विभाग ने सरकारी नीति के अंतर्गत सुरक्षित किया है। जब देश, राज्यों की सरकारें संविधान से वैधता हासिल करके संविधान को ही कमजोर करने का प्रयास करती हैं, और स्वयं नागरिकों को देश के कानून को नजरअंदाज करने के लिए प्रेरित करती हैं, तब शासन-प्रशासन नष्ट-प्राय होने की दिशा में चल पडते हैं, और देश की प्रगति रुक जाती है।
एक आधुनिक लोकतंत्र में प्रासंगिक बने रहने के लिए रा.स्व.सं. को इन विरोधाभासों को संबोधित करना होगा। इसे एक कानूनी मान्यता प्राप्त इकाई के रूप में पंजीकृत हो कर पारदर्शिता, वित्तीय जवाबदेही और संरचनात्मक सुधार सुनिश्चित करने होंगे। तभी इसके सांस्कृतिक और सामाजिक योगदान भी सर्वसमावेशक माने जा सकेंगे। ऐसा कदम इसे भारत के लोकतांत्रिक ढांचे में ढालेगा , इसकी विश्वसनीयता को मजबूत करेगा, और इस पर लगे वित्तीय गोपनीयता, लिंग-जाति पर आधारित असमानता, और अधिनायकवाद के आरोपों को दूर करेगा।
जैसे-जैसे भारत आगे बढ़ रहा है, रा.स्व.सं. एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है: क्या यह संवैधानिक जवाबदेही को अपनाएगा? या लोकतांत्रिक मानकों से परे कार्य करना जारी रखेगा? इन प्रश्नों के उत्तर देश की राजनीतिक दिशा को दशकों या शायद शतकों तक प्रभावित करेंगे।
दि.: 08 जून 2025