विश्व में सैकड़ों भाषायें प्रचिलित हैं । परन्तु जिसे कहा जाता है महान् और जो रुचिपूर्ण है, ऐसा साहित्य, जिसे सभी देशों के लाग पढ़ना चाहते हैं, केवल कुछ ही भाषाओं में मिलता है । इनमें से एक भाषा ’’संस्कृत‘‘ है । यह एक प्राचीनतम भाषा है । यह कई भाषाओं की जननी है ।हिन्दी, बंगाली, मराठी, कन्न्ाड़, तेलुगू और दक्षिण की अन्य भाषायें इससे समृद्ध हुयी हैं ।
भाषा को विश्वविख्याति प्राप्त कराने के लिये, असाधारण बुद्धि के कवि और महान विचारकों की आवश्यकता होती है । इस दृष्टि से संस्कृत भाषा बहुत भाग्यशाली है । प्रकृति के चमत्कार, आकाश, तारे, पर्वत, नदियां, सूर्य, चन्द्र, मेघ आदि का अनुष्ठान साधु करते हैं । विश्वशक्ति की यह प्रार्थना वेदों में मिलती है । ये वेद संस्कृत भाषा में हैं । पुराण संस्कृत में हैं । ऐतिहासिक पौराणिक ग्रंथ जैसे रामायण, महाभारत संस्कृत में हैं । अच्छाई और बुराई का संघर्ष इनमें अत्यंत स्पष्ट रूप से वर्णित किया गया है । सत्य के प्रति आस्था, त्यागभावना, वीरता, सभ्यता आदि को वे चित्रित करते हैं । पशु-पक्षियों की सुन्दर कथायें हमें ’’परतंत्र‘‘ में मिलती हैं । यह सारी कथायें संस्कृत भाषा में हैं । इन कहानियों द्वारा अच्छे गुण, चतुराई और बुद्धिमानी की प्रशंसा की गयी है । संस्कृत में नाटक-कवितायें, वैज्ञानिक और दार्शनिक लेखों का भी बृहत् भंडार है ।
कवि कालिदास एक ऐसे विद्वान थे जिन्होंने संस्कृत साहित्य को श्रेष्ठ और अत्याधिक योगदान दिया । उन्होंने अपने साहित्य में जीवन के सौंदर्य का वर्णन किया है । हम अपने उदार एवं प्रेमपूर्ण व्यवहार दूसरों को कैसे प्रसन्न्ा कर सकते हैं, इस विषय पर भी उन्होंने विचार दिये हैं । उनके चित्रण स्पष्ट व हृदयस्पर्शी हैं । उनकी ’’शब्दयोजना‘‘ अद्वितीय है । संक्षेप में, वे अपना कथन अति संुदर रूप से कहते हैं । उनका लेखन उत्तम, अर्थपूर्ण जीवनयापन का तरीका बताता है । उनकी रचनायें बुद्धिमान विचारकों एवं साधारण वाचकों को समान रूप से आनंद देती हैं ।
महान विद्वान कवि:
कालिदास कौन थे ? वे कब, कहां रहते थे ? इसके बारे में बहुत सी चर्चायें हैं । इसका कोई निश्चित उत्तर नहीं प्राप्त हो सका । अनेक पौराणिक कथायें इस विषय में मिलती हैं । एक कथा में यह कहा गया है कि वे एक ब्राह्मण-पुत्र थे, और जब छः मास के थे, तब उनके माता-पिता का स्वर्गवास हो गया । एक चरवाहे ने उन्हें पाला । वे कभी पाठशाला नहीं गये । उस समय, भीमशुक्ल काशी नगरी के राजा थे । राजा अपनी पुत्री वासंती का विवाह ’वररुचि‘ से, जो कि दरबार के विद्वान थे, करना चाहते थे । परंतु राजकुमारी ने इन्कार कर दिया । उसने कहा कि वररुचि की अपेक्षा वह स्वयं अधिक विद्वान है । इससे वररुचि क्रोधित हुये ।
एक दिन राजा के मंत्री ने इस चरवाहे लड़के को देखा, जो एक पेड़ पर बैठकर उसी की जड़ें काट रहा था । ’क्या मूर्ख है ? यह वासन्ती के लिये योग्य वर है ।‘ यह मन में सोचकर, मंत्री जी लड़के को राजधानी ले आये । मंत्री जी ने और वररुचि ने लड़के को सिखाया कि वह हर प्रश्न का उत्तर ’’ स्वस्ति‘‘ ऐसा ही दे । उन्होंने लड़के को अच्छे राजसी वस्त्र पहनाये और दरबार में ले आये । लड़का दिखने में सुंदर था । मंत्री ने लड़का विद्वान होने का झूठा विश्वास वासंती को दिलाया । विवाह हो गया । वासंती को शादी के बाद सत्य का पता चला । वह बहुत दुखी हुयी । वह देवी काली की अनन्य भक्त थी । उसने अपने पति को देवी की भक्ति करना सिखाया । परंतु कालिदास की भक्ति, प्रार्थनायें देवी को संतुष्ट नहीं कर सकीं । अंत में उसने देवी के सामने अपने प्राण अर्पण करने का निश्चय किया । इससे देवी द्रवित हुयी और उसने कुछ अक्षर कालिदास के जीभ पर अंकित किये । इसके पश्चात् वह एक महान, विद्वान कवि हुये । देवी काली ने उन्हें आशीर्वाद दिया था, इसलिये उन्होंने ’कालिदास‘ नाम धारण किया ।
कालिदास के बारे में यह एक अत्यधिक प्रचलित कथा है ।
वैसी और भी कथायें उनके बारे में हैं, परन्तु कोई सत्य प्रमाण उनके विषय में नहीं हैं ।
कालिदास, महाराज विक्रमादित्य के दरबार में थे । इस राजा का काल और स्थान अभी निश्चित नहीं हुआ । परंतु यह माना जाता है कि वे 1400 साल पहिले याने 6वीं शदी में हो गये ।
उज्जैन के प्रति उन्हें भारी लगाव था । उनके साहित्य में उज्जैन का वर्णन मिलता है । पर यह कहना कठिन है कि वे वहीं के थे । फिर भी हम कह सकते है कि वे उज्जैन में रहते थे ।
वैसे देखा जाय तो कालिदास को संपूर्ण भारत की जानकारी थी । ’मेघदूत‘ काव्य में उन्होंने मध्यभारत के ’रामगिरि‘ से लेकर हिमालय की अलका नगरी के बीच आने वाले पर्वत, नदियां, नगर, ग्रामों का सुन्दर वर्णन किया है । दूसरे काव्य ’रघुवंश‘ में कालिदास ने, पूर्व के क्षेत्र असम, बंगाल, उत्कल, दक्षिण में केरल, पांड्य और उत्तर-पूर्व के सिन्ध, गांधार इत्यादि प्रांतों के लोगों का वर्णन किया है । वहां के पर्वत, नदियां, लोगों का रहन-सहन, खानपान, उद्योग-धंधे आदि का सूक्ष्म चित्रण है ।
इनता सुन्दर वर्णन पढ़ने के बाद हम कह सकते हैं कि कवि को उस क्षेत्र की पूरी जानकारी थी । कवि ने उस क्षेत्र का भ्रमण किया होगा, वहां के लोगों का अध्ययन किया होगा, तौर-तरीके समझे होंगे ।
निःसन्देह कालिदास, अत्यंत बुद्धिमान थे, जिसके कारण ही वे एक असाधारण महान कवि हो सके । उनकी रचनायें उनकी काव्यात्मक बुद्धि के साथ-साथ, उनकी विद्वता भी दर्शाती है । उनकी रचनायें जीवन की अच्छाइयां एवं लक्ष्य पर प्रकाश डालती हैं । वे राजमहल का सुखमय विलासी-जीवन और आश्रम का सादा, गंभीर और शांत जीवन दोनों का एक सी सूझ-बूझ से वर्णन कर सकते हैं । पति-पत्नी के वैवाहिक जीवन के आनंद और विरह व्यथा का वर्णन उनती ही कुशलता से करते हैं । गंभीर और विनोद वे सरलतापूर्वक चित्रित करते हैं । उनकी रचनायें अवर्णनीय हैं । कलात्मकता एवं अद्वितीय शब्दयोजन का सुन्दर चित्रण है ।
कालिदास की सात रचनायें है । ’कुमारसंभव‘ और ’रघुवंश‘ दो महाकाव्य हैं । ’मालविकाग्निमित्रम्‘ ’विक्रमोर्वशीयम्‘ तथा ’अभिज्ञान शाकुंतलम्‘ उनके नाटक हैं । ’मेघदूत‘, ’ऋतुसंहार‘ भी महान, सुंदर खण्ड काव्य हैं ।
कुमार-संभव:
कुमार-संभव कालिदासकी एक महान रचना है । आलोचकों के विचार से कालिदास ने केवल प्रथम सात सर्गों की ही रचना की है । इस महाकाव्य में शिव-पार्वती के विवाह का वर्णन है । पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालय के सुन्दर वर्णन से उसका प्रारंभ किया गया है । कालिदास लिखते हैं, ’’हिमालय पर्वत पर विविध प्रकार का जीवन है । यहां सिद्ध पुरुष रहते हैं । किन्न्ार एवं सौंदर्यशाली विद्याधर भी रहते हैं । गुफाओं के सामने झूमते बादल मानो परदे जैसे लगते हैं । हाथियों के मस्तक से निकली मणि के प्रकाश से सिंह के मार्ग का पता चलता है; रक्त की बूंदों से नहीं । हिमालय पर्वत पर पाये जाने वाले ’’सरला‘‘, वृक्ष का दूध हाथी को अच्छा लगता है । वे अपनी पीठ इसी पेड़ से रगड़ते हैं । इन पेड़ द्वारा हाथी का झुंड किस दिशा में गया इसका पता लगता है । यज्ञ के लिये आवश्यक सारी सामग्री यहां उपलब्ध है । स्वयं ब्रह्मा ने इस पर्वतराज का निर्माण किया है । यह न केवल प्रेमीजनों को सुख देने वाला स्थान है, वरन् जिन्हें तपश्चर्या करनी हो, उनके लिये भी आदर्श स्थान है ।‘‘
पार्वती, पर्वतराज हिमालय की पुत्री है । यथासमय वह एक अद्वितीय सौंदर्य प्राप्त युवती के रूप में बड़ी होती है ।
प्रायः स्त्रियां सौंदर्य-वृद्धि के लिये गहने पहनती हैं, परंतु ऐसा लगता है कि पार्वती की गर्दन ही हार की शोभा बढ़ाती दिखाई देती थी । उनकी वाणी इतनी मधुर थी जितनी की वीणा की झंकार । और उनकी छबि हिरण की याद दिलाती है ।
हमारे पुराणों में नारद एक मुनि हैं । वे भ्रमण करने वाले ईश्वर स्तुति गायक हैं । वे एक बार पर्वतराज के दरबार में आये और उन्होंने भविष्यवाणी की कि, पार्वती का विवाह शिव से होगा । शिवजी पार्वती को स्वीकार करेंगे कि नहीं इस बात पर पर्वतराज को संदेह था । पर्वतराज ने स्वयं शिवजी से पूछा नहीं था । शिवजी ने भी पार्वती को नहीं मांगा था । शिव हिमालय की सबसे ऊंची चोटी पर तपस्या में लीन थे । पर्वतराज ने अपनी कन्या पार्वती को शिव की सेवा में भेजा । पार्वती ने उनकी शुद्ध श्रद्धाभाव से सेवा की । वह प्रतिदिन तपस्या का स्थान स्वच्छ करती, और तपस्या के लिये आवश्यक सामग्री जैसे शुद्ध जल, दूध, फल आदि एकत्रित करतीं ।
जब शिव इस प्रकार तपस्या में लीन थे, तारकासुर नामक राक्षस ने देवताओं को सताना शुरू किया । दुखित होकर देवता ब्रह्मा जी के पास गये । ब्रह्माजी विश्व के निर्माता हैं । देवताओं ने उनसे सहायता मांगी । ब्रह्माजी ने कहा कि पार्वती का विवाह भगवान शिव से होना ही चाहिये, क्योंकि उनका पुत्र ही, तारकासुर का वध करने में समर्थ है ।
परन्तु प्रश्न यह उत्पन्न्ा हुआ कि शिवजी को कैसे जगाया जावे ? और पार्वती से विवाह के लिये कैसे राजी किया जावे ?
देवेन्द्र देवताओं के राजा हैं । उनके दरबार में एक देवता ’काम‘ हैं, जिनकी पत्नी रति एक अनन्य सुन्दरी हैं । कामदेव में वह शक्ति है जिसके द्वारा वे किसी के भी मन में विवाह की इच्छा उत्पन्न्ा कर सकते हैं । देवेन्द्र ने उन्हें शिव के मन में विवाह की लालसा जागृत करने के लिये लिये भेजा । कामदेव, रति व वसन्त अपने कार्य में लगे ।
वह समय वसन्त ऋतु का नहीं था । परंतु कामदेव ने वसन्त की सुन्दरता व वैभव निर्माण किया । दक्षिण से मन्द पवन के झोंके आने लगे । अशोक वृक्ष में फूल खिलने लगे । पक्षी, मधुमक्खियां ताजे फूलों का व कोमल आम्रपत्तों का स्वाद लेने लगीं ।
परन्तु यह सब शिवजी की तपस्या भंग करने में असफल रहा । कामदेव शिव के पास गये । शिवजी व्याघ्र चर्म पर बैठे देवदार वृक्ष के नीचे तप में लीन थे । शिव की भव्यता, दिव्यता देखकर कामदेव स्तंभित रह गये । कामरूपी बाण उनकी हाथ से गिर पड़े । इसी समय पार्वती अपनी नित्य सेवा के लिये आयी । उन्होंने सूर्य-किरण जैसी लाल रंग की साड़ी पहनी थी । उनकी चोटी पर फूलों का गजरा था । हीरों की माला उनके मस्तक पर चमक रही थी । कोमल लता सी वह पग उठा रहीं थीं ।
यह अनोखा सौंदर्य देखकर कामदेव भी पुनः उल्हासित हुये । पार्वती ने कमल पुष्प की माला शिव को अर्पण करने के लिये जैसे ही हाथ उठाये, एकदम शिवजी तपस्या छोड़कर उठ आये । कामदेव इसी क्षण की प्रतीक्षा में थे । उन्होंने अपनी काम रूपी तलवार चलायी । शिवजी ने पार्वती को देखा वे समझ गये कि तपस्या भंग हुयी है । परन्तु यह सब हुआ कैसे ? कामदेव अपने मदन रूपी बाण लेकर कार्य के लिये तत्पर थे ।
तभी भगवान शिव ने क्रोधित होकर अपना तृतीय नेत्र खोल दिया । भयंकर अग्नि प्रज्वलित हुयी । कामदेव भस्म हो गये व शिवजी अंतर्धान हो गये । अपने पति का नाश देखकर रति बेहोश होकर गिर पड़ी । पार्वती के पिता पर्वतराज दुखित होकर उसे अपने घर ले गये ।
होश में आने पर रति ने आत्मत्याग का निर्णय लिया । तभी आकाशवाणी हुयी कि शिवजी व पार्वती के विवाह के बाद कामदेव पुनः जीवित होंगे ।
इसी समय पार्वती ने घोर तपस्या प्रारम्भ कर दी । उनके स्वयं के आसपास अग्नि प्रज्जवलित की व सूर्य की ओर देखती हुयी खड़ी हो गयी । तेज बारिश, कपकपाने वाली सर्दी, तेज हवायें उनको विचलित न कर सकीं । उनकी परीक्षा लेने हेतु शिव जी ने ब्रह्मचारी का वेश धारण किया व शिव के लिये अपशब्द कहने लगे । ’’जिसके गले की शोभा सर्प हैं, ऐसे व्यक्ति को तुम चाहत हो ? तुम तो शानदार रेशमी वस्त्र पहनी हुयी हो । तुम उस गजचर्मधारी को क्यों पूजना चाहती हो ? जब उसके साथ तुम बूढ़े बैल पर सवारी करोगी तो क्या लोग हंसेगे नहीं ? और इन सबके बावजूद उसकी तीन आंखे हैं । तुम ऐसा पति क्यों चाहती हो ?‘‘
ब्रह्मचारी के वेष में शिव को न पहचानने के कारण पार्वती को इस बात को सुनकर क्रोध आया । उसने दासियों से कहा इस ब्रह्मचारी को भगा दो । और वहां से जाने लगी । तभी शिव अपने असली रूप में आ गये । उनका पवित्र रूप देखकर पार्वती गद्गद हो गयी । वह स्तब्ध खड़ी रहीं । इस दृश्य का वर्णन कवि ने अत्यन्त सुन्दर शब्दों में किया है ।
पार्वती ने सखी द्वारा शिवजी को सन्देश भेजा कि वे पिताजी से विवाह के बारे में बात करें । शिवजी ने सात ऋषियों को द्वारा पर्वतराज को सन्देश भेजा । पर्वतराज सहर्ष तैयार हो गये । विवाह बहुत ही शानदार ढंग से संपन्न्ा हुआ ।
कालिदास की ’कुमारसंभव‘ रचना विवाह के बाद खत्म होती है । फिर शिव-पार्वती के पुत्र कुमार का जन्म, उसके द्वारा देव सेना का नेतृत्व, तारकासुर का वध आदि अन्य कवि द्वारा लिखा गया है ।
कालिदास की रचनायें तीन विशेषताओं के लिये प्रसिद्ध हैं । उनमें सौदर्य की अनुभूति, कलात्मकता तथा हमारी प्राचीन परम्परा को सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया गया है । हिमालय पर्वत का चित्रण और वसंत ऋतु के आगमन का वर्णन इतना अधिक सुन्दर है कि, शब्दों में वर्णन नहीं कर सकते । उनके वर्णन इतने सजीव रहते हैं कि सही चित्र आंखों के सामने आता है, और प्रत्यक्ष देखने का अनुभव प्राप्त होता है । पार्वती जी के सौंदर्य का वर्णन उनके कवित्व भावना को चार चांद लगा देता है । कामदेव के भस्म होने के बाद, रति का विलाप, आंखों में आंसू लाता है । शिव पार्वती के वैवाहिक जीवन के प्रसंग, हर्ष व दुःख की भावना भी उन्होंने अत्यधिक प्रभावशाली ढंग से चित्रित की है ।
कालिदास की रचनायें हमारी संस्कृति के सुन्दर शब्दचित्र प्रस्तुत करती हैं । प्रश्न उठता है कि वह संस्कृति क्या है ? संस्कृति का अर्थ है हमारा आचरण मन का बाहरी व्यवहार का । जिस प्रकार फूलों के रंग व सुगंध मन को मोह लेते हैं, उसी भांति हमारे अच्छे आचरण का प्रभाव होता है । आसपास के वातावरण को हम आनंदित कर सकते हैं । परिपक्व मनुष्य के विचार, वाणी व कार्य दूसरों को आनन्द देते हैं । इन सब का तो कालिदास ने बहुत शानदार वर्णन किया है । इसके साथ ही उन्होंने कार्य और व्यवहार का भी मनोहारी वर्णन किया है । पर्वतराज का शिव के पास पार्वती के विवाह हेतु न जाना, परन्तु पार्वती को शिव की सेवा में भेजना, शिव का सात ऋषियों द्वारा विवाह प्रस्ताव भेजना यह सब प्रसंग कालिदास की उच्च अभिरुचि व आदर बढ़ाने में सहायक हैं । पार्वती का एकाग्रचित्त से सेवा करना, शिव के विरुद्ध अपशब्द न सहन करना, ये सभी बातें पार्वती की उच्च संस्कृति जिसमें वह पली थीं, दिखाती हैं । पार्वती का सौदन्र्य देखकर शिव किंचित विचलित हुये थे । परन्तु जब उन्हें कामदेव के छल का पता चला तो उन्होंने उस भस्म कर दिया । ये सब बातें पार्वती की परीक्षा लेती हैं । सात ऋषियों को राजा के पास भेजना शिवजी के मन का बडप्पन व परिपक्वता दर्शाता है । वैसे देखा जावे तो शिव, पार्वती के बाह्य सौन्दर्य से प्रभावित नहीं हुये थे । वे तो उसके उच्च गुण व तपस्या देखकर मोहित हुये थे । शिव-पार्वती तप करके एक त्यागमय जीवन जी रहे थे । दोनों भी पवित्रता की प्रतिमा थे । उनके पुत्र ’’कुमार‘‘ थे । माता-पिता के तप ने कुमार को शक्ति प्रदान की थी जिससे उन्होंने राक्षस तारक का वध किया ।
कालिदास का काव्य हमें एक स्पष्ट व सुन्दर चित्रण देता है कि उत्तम व अर्थपूर्ण जीवन बिताने का मार्ग जो हमें हमारे पूर्वजों ने बताया है, उसी पर हमें चलना चाहिये ।
रघुवंश:
कालिदास का दूसरा महाकाव्य ’रघुवंश‘ है । उसमें उन्न्ाीस अध्याय हैं, जिन्हें सर्ग कहते हैं । इस महाकाव्य में राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, श्रीराम, लव और कुश का इतिहास है । बहुत संक्षेप में नल से लेकर अग्निवर्ण तक के इक्कीस राजाओं का वर्णन भी है । आरम्भ में कवि राजा रघु के राजवंश की प्रशंसा करते हैं ।
राजवंश कुलीन, श्रेष्ठ है । उससे संबन्धित सभी व्यक्ति अपनी शिक्षा समय पर उत्तम गुरुजनों से प्राप्त करते थे । वे समय पर विवाह करते थे और न्यायपूर्ण तथा धर्माधिष्ठित राज्य करते थे । वृद्धावस्था प्राप्त होते ही वे अपना राज्य उत्तराधिकारी को सौंप कर संन्यास लेते थे । योग द्वारा शरीर-त्याग करते थे । वे धन इसलिये कमाते थे कि जरूरतमंद व्यक्ति की सहायता कर सकें । यश प्राप्ति के लिये वे युद्ध करते थे । अपराधियों को सजा मिलती थी । राजा लोग अत्यन्त सतर्क एवं निर्भीक रूप से राज्य कर अपना इच्छित प्राप्त करते थे । उनका साम्राज्य समुद्र तक फैला था । वे अपना रथ स्वर्ग तक ले जाते थे । कवि कालिदास का प्रमुख उद्देश्य रघुवंश के राजाओं के गुणों का वर्णन करना है । कथा राजा दिलीप से प्रारंभ होती है ।
राजा दिलीप कुलीन व्यक्ति थे। वे ऊंचा कद, चैड़ा सीना व आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे । वे साक्षात् क्षत्रिय धर्म का साकार रूप थे । उनके व्यक्तित्व जैसी ही उनकी बुद्धि थी । उनकी बुद्धि उनके अपार ज्ञान से मेल खाती थी । इसलिये उनके कार्यों में उनके उच्च ज्ञान की झलक मिलती थी व परिणाम हमेशा प्रयत्नों के अनुरूप होते थे ।
उनकी पत्नी सुदक्षिणा आदर्श पत्नी थी । पर पुत्र हीन होने से वे दुखी थे । वे महर्षि वशिष्ठ के आश्रम गये । ऋषि न उन्हें कामधेनु की पुत्री नंदिनी की सेवा करने के लिये कहा ।
उनके अनुसार दिलीप ने इक्कीस दिन जंगल में जाकर उसकी सेवा की । आखिरी दिन एक सिंह ने नन्दिनी पर हमला किया । जैसे ही राजा ने अपनी तीर उसे मारने के लिये निकाला, कि उनका हाथ धनुष से चिपक गया । तभी मनुष्यवाणी में सिंह बोलने लगा, ’’हे राजन ! यह गाय मेरा भक्ष्य है इसलिये आप आश्रम वापस जाइये ।‘‘ तब राजा दिलीप ने स्वयं के शरीर को सिंह के भोजन के रूप में प्रस्तुत कर दिया । अचानक सिंह अदृश्य हुआ । वास्तव में सिंह नन्दिनी के द्वारा राजा की परीक्षा लेने के लिये बनाया गया था । नन्दिनी ने आशीर्वाद दिया कि उसका दूध पीने के पश्चात राजा को पुत्र प्राप्ति होगी ।
आश्रम जाकर राजा व रानी ने नंदिनी का दूध पिया । वे राजधानी वापस लौटे । यथासमय रानी सुदक्षिणा ने एक पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम ’’रघुराज‘‘ रखा गया । हमें राजा दिलीप के रूप में सत्य के प्रति आस्था एवं उच्च नैतिक धार्मिक, आदर्शों को अपनाने वाले एक राजा का वर्णन मिलता है । राजा व साधुओं के घनिष्ठ संबन्ध रहते थे, और साधु, जो कि पवित्रता की प्रतिमा होते थे, उनके आशीर्वाद द्वारा महान व्यक्तित्व जन्म लेते थे ।
कवि ने हमें राजा रघु की कहानी भी सुनाई है । जब राजा रघु राजकुमार ही थे, उन्होंने अश्वमेघ यज्ञ के लिये पिता द्वारा भेजे गये घोड़े की, शौर्य व साहस से रक्षा की । देवों के राजा इन्द्र व रघु में भयंकर युद्ध छिड़ा । तब राजा दिलीप सौंवा ’अश्वमेघ‘ यज्ञ कर रहे थे । रघु के पराक्रम से प्रसन्न्ा होकर इन्द्र ने राजा दिलीप को आशीर्वाद दिया । तद्नन्तर दिलीप ने राज्यभार पुत्र ’रघु‘ को सौंपकर वन में प्रस्थान किया । वहां उन्होंने अपना शेष जीवन तपस्या में बिताया ।
रघु ने अनेक राज्य जीते व अपनी राज्य की सीमा बढ़ाई । उसने ’’विश्वजीत‘‘ नामक महान यज्ञ किया । उसके पश्चात अपनी धनसम्पदा दान में दे दी । उसी समय एक ऋषिपुत्र कौत्स आये व उन्होंने गुरू-दक्षिणा के लिये राजा से सहायता मांगी । राजा ने तब तक अपनी संपूर्ण धन-सम्पत्ति दान कर दी थी । राजा केवल मिट्टी के पात्र में शुद्ध जल दे सकते थे । जब उन्हें ऋषिपुत्र की आवश्यकता का पता चला तो उन्होंने कुबेर पर चढ़ाई करने का निश्चय किया । स्वयं कुबेर जल्दी से आये और रघु की तिजोरी धर से भर दी, ताकि ’रघु‘ ऋषि-पुत्र कौत्स की इच्छा पूर्ण कर सकें ।
रघु के पुत्र अज थे । वे अत्यन्त सुन्दर व दयालु स्वभाव के थे । बड़े होने पर वे विदर्भ राज्य में इन्दुमति के स्वयंवर के लिये गये । जैसे ही राजकुमारी इन्दुमति ने स्वयंवर कक्ष में प्रवेश किया, उसकी दासी सुनन्दा ने वहां उपस्थित प्रत्येक राजकुमार के सौन्दर्य, पराक्रम, वीरता का परिचय कराया । सुनन्दा ने राजकुमार अज का परिचय भी दिया । उसके सुन्दर गुणों व परिवार की प्रशंसा की । इन्दुमति ने वरमाला उसके गले में डाल दी ।
इस स्वयंवर का कालिदास ने बहुत सुन्दर वर्णन किया है । राजकुमार का वर्णन भी सुन्दर है । उनका शारीरिक सौंदर्य, वीरता, धन आदि का चित्रण मनमोहक है । किसी भी राजकुमार को किसी दृष्टि से कम नहीं कहा गया । इंदुमति उनहें कुछ दोषों के कारण अस्वीकार करती है ऐसा भी नहीं । वैसे भी प्रत्येक मनुष्य का व्यक्तित्व भिन्न्ा रहता है । कवि भी सोचता है कि कोई भी कारण नहीं दिखता कि हम एक दूसरे के प्रेम में क्यों पड़ते हैं । यह चित्रण कवि की उच्च अभिरुचि, सौंदर्य दृष्टि और उल्हासित मनोवृत्ति का परिचायक है ।
इन्दुमति और राजा अज का विवाह बहुत शानदार ढंग से संपन्न्ा हुआ । परन्तु निराश राजकुमारों ने बदले की भावना से अज पर हमला किया । भयंकर युद्ध हुआ । अज सब को पराजित करके विजेता होकर अपनी वधू के साथ राजधानी वापस लौटे । राजा रघु ने पुत्र की वीरता व शौर्य को देखकर राज्यभार उसे सौंपा, और अयोध्या की बाहरी सीमा में आश्रम में निवास करने लगे ।
पिता, योग की सीढ़ी चढ़ते हैं और पुत्र राजसिंहासन पर बैठता है । इन दोनों के कार्य की लयबद्धता और सूझबूझ का वर्णन कवि ने किया है । पिता का मार्गदर्शन ऋषिमुनि करते हैं और पुत्र की सहायता मन्त्रिगण । पिता ने सब सांसारिक इच्छाओं पर विजय प्राप्त की है, पुत्र ने बाहरी शत्रुओं को पराजित किया है । राजा रघु का जीवन चरित्र दर्शाता है कि एकाग्रता से ईश्वरोपासना करने पर जीवन में शान्ति मिलती है, संतोष प्राप्त होता है । पवित्र आचरण द्वारा कोई भी मनुष्य सच्चा आनन्द, संतोष प्राप्त कर सकता है, यह राजा अज के जीवन द्वारा प्रमाणित होता है ।
यद्यपि राजा दिलीप और रघु महान व्यक्ति थे परन्तु हम उनमें अन्तर महसूस करते हैं । हमारे प्रबुद्ध पूर्वजों द्वारा मनुष्य के लिये चार लक्ष्य रखे गये हैं । वे हैं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । धन कमाने की लालसा या सुख-प्राप्ति की इच्छा दोनों भी गलत नहीं । परन्तु दोनों का उचित रूप से व्यवहार होना चाहिये । धन नैतिक ढंग से ही कमाना चाहिये । धन इस प्रकार से अर्जित करना चाहिये कि किसी के साथ अन्याय न हो । उस धन का अच्छे व योग्य कारणों में व्यय करें । दूसरों का अहित या बुरा हो, इस तरीके से धन का उपयोग न करें । मनुष्य को ऐसा जीवन जीना चाहिये कि उसे पापों से मुक्ति मिले और मृत्यु के समय दिव्यत्व प्राप्त हो । हम देखते हैं कि राजा दिलीप के जीवन में धर्म का प्रभुत्व था । वे इतने त्यागी थे कि गौ ’’नन्दिनी‘‘ को बचाने हेतु सिंह का भक्ष्य बनना उन्होंने स्वीकार किया । धन कमाने और व्यय करने की सही रीति हमें राजा ’रघु‘ के जीवन में देखने को मिलती है । बहुत से राज्य जीनकर कमाया हुआ धन उन्होंने जरूरतमंदों में बांट दिया और अंत में उनके पास केवल एक मिट्टी का बर्तन बचा था ।
राजा ’’अज‘‘ को प्रजा का स्नेह और प्रेम प्राप्त था । एक दिन वे अपनी पत्नी समेत उद्यान में विहार कर रहे थे । नारद मुनि आकाश मार्ग से जा रहे थे । नारद मुनि के वीणा की माला सरक गयी व इन्दुमति के सिर पर गिर पड़ी । वह बेहोश हो गयी । और उसकी मृत्यु हो गयी । ’’अज‘‘ को गहरा सदमा पहुंचा और वे अचेत हो गये । मंत्रियों ने उन्हें होश में लाया । तब इन्दुमति का सिर गोद में लेकर वे विलाप करने लगे । ’’क्या एक फूल तुम्हारा जीवन ले गया ? मैंने यह माला हाथ में पकड़ी हे? फिर भी मैं क्यों नहीं मरता हूं ? यह परमेश्वर की इच्छा है कि विष, अमृत में बदलता है, या अमृत, विष में बदलता है । तुम मेरा सब कुछ थी । पत्नी, सलाहकार, मददगार और कला सीखने में मेरी शिष्या । तुमकों खींचकर मृत्यु ने मेरा सब कुछ लूट लिया ।‘‘
कवि ने ’’काम‘‘ जीवन का आनन्द लेने की इच्छा अज के जीवन में दर्शाई है । हम यहां उसके सुखी जीवन एवं विरह का वर्णन पाते हैं । अज उसके लिये बहुत दुखी होते हैं और अपना जीवन नदी में डूबकर, समाप्त करते हैं । क्योंकि वे पत्नी का विरह नहीं सहन कर सके । समर्पित प्रेम-भाव का यह अत्युत्तम उदाहरण है ।
पहले आठ सर्गों में, ’’राजा दिलीप, रघु और अज‘‘ की कहानियां हैं । इसके बाद के अध्याय, दशरथ, श्रीराम और लव-कुश के विषय में हैं । कवि संक्षिप्त में रामायण के प्रसंग देते हैं । वैसे रामायण की कथा प्रसिद्ध है । परन्तु कालिदास की वर्णनशैली अद्वितीय है । वाल्मीकि रामायण, सादी, सुगम, सुन्दर व असली हीरे जैसी चमकदार है । कालिदास ने इस हीरे जेसे चमकदार विषय को अपनी शैली द्वारा तराश कर अधिक चमकीला बनाया है ।
कुश के बाद उनके पुत्र ’’अतिथि‘‘ सिंहासन पर बैठे । अतिथि ने धमे के आदेशानुसार राज्य किया । उसने राज्य की शत्रुओं से रक्षा की । साधु लोग निर्भीकता से तप करते थे । कवि कालिदास ने युवा राजा की बहुत प्रशंसा की है ।
कालिदास ने रघुवंश के इक्कीस राजाओं की सूची दी है, जो अतिथि के बाद सिंहासन पर बैठे । कवि के अनुसार इस वंश के अंतिम राजा अग्निवर्ण, विलासी थे । उन्होंने राजा के कर्तव्यों का पालन नहीं किया । यह कहा जाता है कि जब प्रजा, राजा के दर्शन हेतु आती थी, तब वह खिड़की पर पैर पसारकर आराम से बैठता था । रोगों से ग्रस्त होकर उसने बिस्तर पकड़ा । उसकी मृत्यु के पश्चात उसकी रानी ने विद्वान मन्त्रिगण की सहायता से राज्य चलाया । इस प्रकार रघुवंश का वर्णन इस दुखित घटना के साथ समाप्त होता है ।
’’रघुवंश‘‘ हमारी प्राचीन ऐतिहासिक संस्कृति व रीतिरिवाज को प्रकट करने वाला ग्रन्थ है । हमारे पूर्वजों ने, कौन अच्छा राजा हो सकता है, कौन तप कर सकता है, मनुष्य को कैसा उद्देश्य-पूर्ण जीवन बिताना चाहिये आदि की विस्तृत चर्चा की है । कवि ने परस्पर विरोधी चरित्र जैसे वशिष्ठ, दिलीप, रघु, अज इत्यादि चित्रित किये हैं । अग्निवर्ण इस प्रकार के राजा थे जिन्हें ’’दुराचारी‘‘ की संज्ञा प्राप्त हुयी थी ।
शाकुन्तल एक ’’अति उत्तम रचना‘‘:
’मालविकाग्निमित्र‘ कालिदास का पहला नाटक है । इस नाटक को लोग स्वीकर करेंगे या नहीं इस विषय में कवि अनिश्चित थे । उन्होंने अपनी विनम्रता प्रदर्शित की है । वे कहते हैं ’सब पुरानी वस्तुयें अच्छी नहीं होती, न ही नयी चीज बुरी होती है । ऐसा भी हो सकता है कि एकाध वस्तु पुराने जमाने में ज्यादा उपयोगी न हो और नई चीज ज्यादा अच्छी हो । नाटक का विषय है ’’मालविका‘‘ व ’’अग्निमित्र‘‘ की प्रेम कहानी ।
कालिदास का दूसरा नाटक ’’विक्रमोर्वशीय‘‘ है । यह राजा ’’पुरूरव‘‘ और स्वर्ग की अप्सरा ’उर्वशी‘ के प्रेम और विरह की कहानी है ।
’’अभिज्ञान शाकुन्तल‘‘ कालिदास की सर्वोत्तम रचना है । इस अति उत्तम रचना का विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद हुआ है । महाभारत के ’आदि पर्व‘ में शकुन्तला की कथा है । राजा दुष्यन्त शिकार खेलते हुये मुनि कण्व के आश्रम में आते हैं । मुनि आश्रम में नहीं थे । उनकी मुंहबोली कन्या अतिथि की देखभाल करने लगी । उसे देखते ही राजा ’’दुष्यन्त‘‘ उसके सौन्दर्य पर मोहित हुये, और उन्होंने उससे विवाह के लिये प्रस्ताव रखा । शकुन्तला ने एक शर्त रखी । उसने राजा से वचन मांगा कि उसका (होनेवाला) पुत्र राज्य का अधिकारी हो । राजा ने यह बात स्वीकार की । उन्होंने विवाह किया और कुछ दिन सुख-शान्ति पूर्वक बिताये । उसके बाद राजा दुष्यन्त राजधानी लौट आये । यथासमय शकुन्तला ने एक पुत्र को जन्म दिया । जिसका नाम सर्वदमन रखा गया ।
छह वर्ष बीत गये परंतु राजा दुष्यंत ने अपनी पत्नी और पुत्र को नहीं बुलाया । मुनि कण्व ने स्वयं ही शकुन्तला को राजमहल भेजने का निर्णय लिया । जब वह राजा के निवास स्थान पर आयी, राजा ने उसे पहिचानने से इन्कार कर दिया । शकुन्तला अत्यंत दुखी हुयी । इस बीच स्वर्ग से राजा दुष्यंत को आज्ञा हुयी कि यह तुम्हारा पुत्र है इसे स्वीकार करो । राजा ने पुत्र को स्वीकार किया और यह पुत्र आगे चलकर ’भरत‘ नाम से विख्यात हुआ ।
कालिदास ने महाभारत के इस प्रसंग पर अत्यंत सुन्दर नाटक प्रस्तुत किया है । दुष्यंत और शकुन्तला का प्रथम मिलन अत्यन्त मधुर और सुन्दर है ।
शिकार खेलते हुये राजा दुष्यंत कण्व मुनि के आश्रम में आते हैं, और अपनी सखियों के साथ पौधों को पानी देती हुयी शकुन्तला को देखते हैं । उसके सौंदर्य से मोहित होकर वे उससे विवाह करना चाहते हैं । शकुन्तला भी इस राजपुरुष पर मुग्ध होती है । तब वे गन्धर्व पद्धति से विवाह करते हैं । शकुन्तला को छोड़कर राजा राजधानी लौटते हैं । शकुन्तला अपने पुत्र को युवराज बनाने की बात कहती ही नहीं क्योंकि यह होगा ही यह वह मान लेती है । दुर्वासा ऋषि कण्व मुनि के आश्रम में उनसे मिलने आते हैं । कण्व ऋषि आश्रम में नहीं थे । राजा के विचारों में डूबी हुयी शकुन्तला से दुर्वासा ऋषि कहते हैं, ’’अतिथि आया है,‘‘ शकुन्तला को यह सुनाई देता । इसलिये दुर्वासा, (जो शीघ्र क्रोध के लिये प्रसिद्ध हैं) अत्यंत क्रोधित होते हैं, और उसे शाप देते हैं कि तुम ’’जिसके ख्यालों में डूबी हो, वह तुम्हें भूल जावेगा ।‘‘ बाद में दयावान होकर वे कहते हैं कि, ’’जब वह तुम्हें उसके द्वारा दी गयी निशानी देखेंगे तो तुम्हें पहचान लेंगे ।‘‘ दुर्भाग्य से राजा दुष्यन्त द्वारा दी गयी अगूंठी खो जाती है और राजा उसे भूल जाते हैं । मुनि कण्व गर्भवती शकुन्तला को राजदरबार में अपने शिष्यों के साथ भेजते हैं । कवि कालिदास कण्व द्वारा शकुन्तला की बिदाई का बहुत ही हृदयस्पर्शी वर्णन करते हैं । सम्पूर्ण आश्रम दुख में डूब जाता है । कण्व, शकुन्तला की सहेलियां उसकी बिदाई पर आंसू ढालती हैं । पशु-पक्षी, पेड़-पौधे दुख से झुक जाते हैं ।
शकुन्तला के आने पर राजा दुष्यन्त उसे पहचानते भी नहीं । राजा उसके तरफ देखना भी नहीं चाहते । क्योंकि वह एक पराई स्त्री है । वह विश्वास नहीं करते कि यह स्त्री उनकी पत्नी है । मार्ग में अंगूठी खो जाने से शकुन्तला बहुत दुखी होकर बेहोश हो जाती हे । बाद में दैवी शक्ति उसे उठाकर ले जाती है ।
कुछ दिन बाद मछली के पेट में अंगूठी मिलती है । अंगूठी देखकर राजा को सब बातें याद आती हैं । शकुन्तला को अस्वीकार करने से वे बहुत दुखी होते हैं । दुष्यन्त जो कि राजा इन्द्र के संदेश पर उन्हें मदद करने स्वर्ग गये थे, लौटते समय मरीचि ऋषि आश्रम में जाते हैं । वहीं उन्हें एक छोटा लड़का, सिंह के शावक का मुंह बड़ी निडरता से खोलता हुआ दिखाई देता है । पूछताछ पर उन्हें पता लगता है कि वह और कोई नहीं उनका पुत्र सर्वदमन है । दुष्यन्त, उनकी पत्नी और पुत्र का सुखद मिलन होता है ।
नाटक के अन्त में हम शकुन्तला के दुख से द्रवित हो जाते हैं और हम समझ नहीं पाते है कि राजा दुष्यन्त को दोषी मानें या उस दिव्य शक्ति को जिसने यह घटनाक्रम चलाया । नाटक के अन्तिम दृश्य में हम शकुन्तला को अत्यन्त साधारण साड़ी में देखते हैं तब भी वह वैभव व गरिमा की प्रतिमा लगती है; यद्यति वह कम उम्र की है । उस के शब्द बहुत अर्थपूर्ण और गंभीर हैं । वह साक्षात तपस्विनी है । एक चंचल मुग्धबाला से, एक सेवाभावी युवती के रूप में शकुन्तला का परिवर्तन देखकर हम आश्चर्यचकित हो जाते हैं । शकुन्तला की सखियों का उसको प्यास से चिढ़ाना, कण्व ऋषि की दूरदृष्टि, राजा का शकुन्तला के विरह से दुखी होना, शकुन्तला का निर्मल प्रेम, दैवी शक्ति द्वारा पुनर्मिलन, यह सब प्रसंग हमारे सामने एक बहुत बड़ा जीवन-चित्र पेश करते हैं ।
मेघदूत एक सुन्दर प्रेम काव्य है । यक्ष, जो कि एक वर्ष के लिये पत्नी से दूर किया जाता है, उसे एक सन्देश भेजता है । उसकी पत्नी अलका नगरी में रहती है । यक्ष मेघ से कहता है ’’जाओ और मैने जो कहा है वह उससे कहा ।‘‘ एक मेघ को सन्देशवाहक के रूप में चुना जाना एक विलक्षण बात है । मेघ की ’रामगिरि‘ से अलका नगरी की यात्रा का वर्णन बहुत सुन्दर है । नदियां, पहाड़-पर्वत, गांव और शहर, बड़े-बड़े खेत, किसान कन्या, शहरी लड़कियां, पक्षी, मधुमक्खियां, इस सभी का कवि ने बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है । यह समूचे विश्व का सुन्दर चित्रण है । अलका नगरी, ’यक्ष‘ का घर, आसपास का बगीचा, यक्ष की पत्नी जो वीणा के तार छेड़ रही है उसका सौन्दर्य आदि का वर्णन मनमोहक है ।
’’ऋतु संहार‘‘ एक छोटी से काव्यरचना है जिसमें छः ऋतुओं का वर्णन है । वैसे यह भी आकर्षक है । कवि यहां हर बात में सौन्दर्य देखता है । प्रत्येक ऋतु का अलग पहलू कवि का मन मोह लेता है । यह अत्यंत रोमांचक दृश्य है ।
कुल मिलाकर कालिदास की रचनायें हमें सौन्दर्य का आनन्द देती हैं । उनके वर्णन हमें मोह लेते हैं । उनके साथ हम सब उच्च संस्कृति एवं उच्च व्यक्तित्व में विचरण करते हैं । उनकी रचना उस फूल के समान होती है, जो फूलने पर अपना सुगन्ध फैलाती है, और मनुष्य का परिपक्व प्रगल्भ मन और बुद्धि चारों ओर के लोगों को, सन्तोष देती है । कालिदास की रचना के साथ हम उस विश्व में प्रवेश करते हैं जहां के लोग मन और तन से पवित्र और तेजस्वी हैं । मनुष्य के स्वभाव को उच्च और नैतिक स्तर तक पहुंचाने की सीख हम ग्रहण करते हैं । पार्वती, दिलीप, रघु, अज, शकुन्तला, कण्व, दुष्यन्त के संपर्क में आकर हम सभी प्रसन्न्ाता अनुभव करते हैं । इसी अद्भुत अनुभूति के लिये ही हम और अन्य सभी लोग कालिदास की रचनायें पढ़ते हैं ।
साभार
लेखक: के.टी. पांडुरंगी