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उफ ये कानून

अक्सर हमारी सरकारें हमें किस तरह से लूट रही हैं हमें इसका पता नहीं होता है काले कानूनों में बदलाव भी नहीं होता है क्योंकि जानकारी नहीं होती है इसलिये विरोध में कोई आवाज भी नहीं उठती है। लेकिन ये कानूनी कमियां और सुधार की जरूरतें जहां एक कानून का पालन करने की इच्छा रखने वाले को भी मजबूर कर रही हैं वहीं बहुत बडी समस्याओं को जन्म भी दे रही हैं यहां हम आपको कानून की कुछ बारीकियों को आसान तौर पर समझाने की कोशिश कर रहे हैं जिससे आपका फायदा हो सकता है इन जानकारियों की आपको कभी भी जरूरत पड सकती है। यहां हम कानून से पैदा होने वाले भ्रष्टाचार नक्सलवाद आदि पर भी चर्चा करेंगे।

कानून का एक प्रमुख काम पुलिस और उसकी कार्यप्रणाली से जुडा है देश में अंग्रेजों के समय का पुलिस एक्ट आज भी लागू है और यह पुलिस एक्ट आम जनता के लिये गोपनीय है। पुलिस की हालत कुछ इस तरह है कि जहां अनेक देशों में पुलिस के पास केवल डण्डा होता है लेकिन फिर भी पुलिस पर हमला लगभग नहीं देखने में आता है आम जनता किसी भी मामले में पुलिस का पूरा साथ देती है और पुलिस भी आम जनता की मदद अपना फर्ज समझती है लेकिन भारत में कुछ प्रदेशों में हालत बिल्कुल उल्टी है पुलिस सडक पर ट्र्क वालों से वसूली/भीख मांगती भी दिखती है वहीं गुण्डे और नेता थानों तक में पुलिस की पिटायी करते हैं यहां तक कि ड्यूटी के समय भी पुलिसकर्मियों की हत्या भी कर दी जाती है। वहीं पुलिकर्मियों के अनेक थाने चौकियां और रिहायशी घर भी बेहद जर्जर हालत में हैं, साथ ही उनके रोज कसरत और नयी जानकारियों में प्रशिक्षित होते रहने की व्यवस्था भी नहीं है।

जनता का थाने में पहला सामना पुलिस से रिपोर्ट दर्ज कराने में होता है रिपोर्ट दर्ज कराना अनेक प्रदेशों में आज भी टेढी खीर है आम जनता को इस बारे में जानकारी भी नहीं है अगर किसी थाने में पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने से इन्कार कर दे या तहरीर ले लेने के बाद भी रिपोर्ट दर्ज न करे तो आप सम्बिन्धित जिले के पुलिस मुखिया जो अक्सर पुलिस अधीक्षक या उस से उच्च स्तर के पुलिस अधिकारी होते हैं को लिखित तहरीर रजिस्टर्ड या स्पीड पोस्ट से भेज सकते हैं और फिर भी अगर रिपोर्ट दर्ज न की जाये तो उस थाने से सम्बिन्धित न्यायालय में दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत धारा 156 की उपधारा 3 के अन्तर्गत रिपोर्ट दर्ज कराने के आदेश हेतु प्रार्थनापत्र दे सकते हैं और अगर मजिस्ट्र्ेट रिपोर्ट दर्ज करने के ठीक कारण नहीं पाता है और आपकी रिपोर्ट दर्ज नहीं होती है तो भी आपके पास परिवाद दाखिल करने का अधिकार रहता है। वहीं अगर आपका कोई कीमती अभिलेख /कागजात कहीं गिर जाता है या खो जाता है तब आप थाने पर जो सूचना देते हैं वह एन0 सी0 आर0 यानी नॉन कॉग्जनेबल रजिस्टर में दर्ज किया जाता है ऐसी हालत में आपके प्रार्थनापत्र की प्रति पर थाने की मुहर लगाकर प्रति आपको दे दी जाती है और यह मुहर लगी प्रति पर्याप्त होती है।

अगर कोई किसी के खिलाफ गलत रिपोर्ट दर्ज कराता है तो ऐसी गलत रिपोर्ट दर्ज कराने वाले के खिलाफ कार्यवाही और रिपोर्ट दर्ज करायी जा सकती है लेकिन फिर भी पुलिस की अपने थाने के रिकार्ड में अपराध कम दिखाने के लिये पूरी कोशिश होती है कि रिपोर्ट दर्ज न करनी पडी और मजबूरी में अगर दर्ज करनी भी पडे तो मामले को बेहद हल्का बनाकर दर्ज की जाये ये हालत अपराधियों के लिये और अपराध बढाने के लिये वरदान है। जब शहरों की ये हालत है तो गांव व दूर दराज की हालत हम समझ सकते हैं। लिखित तौर पर लगभग चालिस से तीस प्रतिशत और अलिखित तौर पर पचास प्रतिशत से अधिक पुलिस केवल नेताओं की सुरक्षा में लगी रहती है। एक न्यायायिक मजिस्ट््रेट जिसके क्षेत्राधिकार में लगभग दो से तीन या अधिक थाने होते हैं और जो रोज अनेक मुकदमे अपराधियों के खिलाफ सुनता और सजा भी देता है उसकी सुरक्षा में एक डण्डे वाला होमगार्ड भी नहीं होता है यहां तक कि उच्च न्यायालय के न्यायाधीशो की सुरक्षा में एक से दो गार्ड ही तैनात रहते हैं लेकिन जिनका काम कानून बनाना है और जो रोज कानून की कितनी समीक्षा या संशोधन करते हैं या शोर शराबा करते हैं ये अलग विषय है उनकी सुरक्षा में इतनी अधिक सुरक्षा की जरूरत पडती है यह अपने आप में एक अजीब बात है।

आम जनता को कानून की दूसरी बडी खामी का सामना तब करना पडता है जब वह कोई जमीन या मकान खरीदने या बेचने जाता है उदाहरण के तौर पर अगर किसी ने अपना मकान या जमीन पचास लाख में बेची है तो उस साल उसकी आमदनी पचास लाख मानी जायेगी और उस पर वहीं टैक्स लगेगा जो पचास लाख हर साल कमाने वाले पर लगता है जो कि लगभग तीस से चालिस प्रतिशत है। जमीन बेचने पर उसे छह सात प्रतिशत स्टैम्प शुल्क भी देना होगा साथ ही रजिस्ट्र्ेशन फीस भी देनी होगी अन्य खर्चे मिलकार यह रकम लगभग पैंतालिस से पचास प्रतिशत हो जाती है यानी कि अगर ठीक तरह से कोई अपनी जमीन बेच रहा है तो उसे मिलने वाली रकम का लगभग आधा ही मिलेगा अपनी गाढी कमाई की आधी रकम जाने का डर अनेक को बेइमानी रकने पर मजबूर कर देता है अब इस रकम को बचाने के लिये अनेक जुगत लगती है अगर बिक्रीत मूल्य से उस एरिये का सर्किल रेट कम है तो सर्किल रेट पर स्टाम्प ड्यूटी लगती है इसलिये स्टाम्प शुल्क बचाने के लिये बिक्री मूल्य से रजिस्ट््री कम पर भी करायी जाती है लेकिन आगे विवाद होने पर आप रजिस्ट्र्ी पर लिखा मूल्य ही वापस वसूलने का दावा कर सकते हैं उदाहरण के तौर पर अगर दस लाख की सम्पत्ति तीन लाख में रजिस्ट्र्ी की गयी है और अगर आपके साथ बेचने वाले ने धोखाधडी की तो आप रजिस्ट्र्ी पर लिखी तीन लाख की रकम ही वसूल पायेंगे। इस तरह रकम वापस करने के बाद भी वह धोखाधडी करने वाला बेहद फायदे में रहेगा और आप उसका कुछ नहीं कर पायेंगे। अगर आपने कोई जमीन या मकान बेचा है और रजिस्ट्र्ी में रकम कम दिखायी गयी है तो दिखायी रकम पर ही इन्कम टैक्स देना होगा इस तरह इन्कम टैक्स बचाने के लिये बेचने वाला भी कम रकम दिखाना चाहता है। इसी का फायदा घूस लेने वाले और माफिया भी उठाते हैं और ज्यादा रकम देकर कम रकम पर आसानी से रजिस्ट्र्ी करा लेते हैं अब जमीन बेचने पर मिली रकम सफेद रकम हो जाती है। इस कालाबाजारी को रोकने का अकेला उपाय है कि स्टाम्प शुल्क में बेहद कमी कर दी जाये जिससे भ्रष्टाचार, माफिया और आतंक पर रोक लग सके साथ ही हर साल रकम कमाने वाले और अपनी सम्पत्ति मजबूरी या लाभ के लिये बेचकर जीवन में एक बार रकम पाने वाले को इन्कम टैक्स की नजर में बराबर मानना बेहद अन्यायपूर्ण है। आयकर विभाग एक बिल्डर और अकेले सम्पत्ति बेचने वाले दोनों पर समान कानून लादता है। जबकि फ्लैट आदि बनाकर बेचने वाले बिल्डर और आम आदमी में कानून बनाकर आसानी से अन्तर किया जा सकता है। एक बिल्डर जिसका रोज का काम बेचना और लाभ कमाना है वह आसानी से अधिक टैक्स दे सकता है लेकिन आम इन्सान के लिये यह बेहद तकलीफदेह है। इसमें एक कानून है जो थोडी राहत देता है कि यदि जिस साल में आपने कोई सम्पत्ति बेची है उसी साल उतने ही मूल्य की या उससे अधिक की सम्पत्ति आप खरीद लेते हैं तो आपको आयकर नहीं देना होगा यदि सम्पत्ति बेची गयी सम्पत्ति से कम मूल्य की है तो बची रकम पर आपको टैक्स देना होगा।

लचर बैंकिंग कानूनों के कारण कर्ज वापस न होने की मात्रा बढती जा रही है जिसे बचाने के लिये कर्ज देने के कानून दिन पर दिन कडे किये जा रहे हैं लेकिन यह समस्या को बढाना है न कि समाधान है कर्ज लेने में पहले सोसायटी और पुश्तैनी जमीनों पर बनने वाले मकानों पर भी कर्ज आसानी से मिल जाता था लेकिन कुछ सालों से अब केवल आवास विकास और प्राधिकरणों द्वारा आवंटित भूखण्ड पर ही कुछ हालातों को छोडकर बैकों द्वारा कर्ज दिया जाता है, वहीं गारण्टर की हालत तो वर्तमान कानून में और भी खराब है अगर कोई मानवीयता के नाते गारण्टर बनता है और मूल कर्जदार कर्ज वापस नहीं करता तो वसूली गारण्टर से होती है लेकिन उसे कर्जदार द्वारा बन्धक रखी सम्पत्ति में से न तो कोई भाग मिलता है और न ही गारण्टर की सम्पत्ति पूरी न पडने पर कर्जदार को मिलने वाली रकम में से गारण्टर की रकम वापसी होती है यह बेहद काला कानून है लेकिन चल रहा है।

एक अन्य क्षेत्र किरायेदारी कानून है जिससे आम जनता का सामना होता है किरायेदार रखने पर कानूनन सभी टैक्स वाणिज्यिक दर से लगते हैं यानी कि अगर कोई अपने मकान में फैक्ट्र्ी, होटल आदि खोलता है और आप मासिक दर पर किरायेदार रखते हैं तो आप को अनेक टैक्स समान दर से देने होंगे। हम जानते हैं कि एक होटल में ठहरने के दो से तीन दिन का किराया सामान्य रूप से मासिक दर से मिलने वाले मकान के एक माह के किराये के बराबर होता है इस तरह मासिक दर से किराये पर देने वाले की आय बहुत कम होती है और वह अगर इमानदारी से सभी टैक्स अदा करता है तो उसे भवनकर, जलकर, बिजली आदि टैक्स वाणिज्यिक दर से देने होंगे और सामान्य ये सभी कर मिलाकर अक्सर उसको मिलने वाले मासिक किराये से भी अधिक होते हैं वहीं किरायेदार रखने पर उसके सत्यापन सहित निजता भी प्रभावित होती है। पुराने मकानों पर रेण्ट कण्ट्र्ोल एक्ट भी लागू हो जाता है लीज डीड कराने पर स्टाम्प ड्यूटी बहुत अधिक है। इन मामलों में मासिक किराये पर कमरा देने वालों और होटल को आसानी से अलग किया जा सकता है। इस मामले में सरकार एक पोर्टल/वेबसाइट बना सकती है जिसमें मकान किराये पर देने के इच्छुक लोग मासिक किराये, शर्तें व पूरे पते सहित अपना विवरण डाल दें मकान लेने के इच्छुक लोग उससे सम्पर्क कर सकते हैं किराये पर मकान उठने पर मासिक किराये का आधा किराया ऑनलाइन वेबसाइट में जमा करा लिया जाये जिसमें किरायेदार के सत्यापन सहित सभी कर एक वर्ष के लिये देय मान लिये जायें। एक माह की नोटिस पर जो उसी वेबसाइट के माध्यम से भेजी जाये मकान मालिक मकान खाली करा सके और किरायेदार खाली कर सके अगर यह सुविधा शुरू हो जाये तो बडी मात्रा में लोग किराये हेतु मकान दे सकेंगे और मकान की समस्या भी हल हो जायेगी।

एक बडी समस्या अदालतों में लम्बित मुकदमों की भी है यहॉं भी कानूनी कमियां काफी हद तक जिम्मेदार हैं। उदाहरण के रूप में जनहित याचिकाये ंहैं किसी भी जनहित याचिका में पारित आदेश का अनुपालन न होने पर एक साल तक अदालत की अवमानना याचिका दाखिल की जा सकती है यानी कि अगर अतिक्रमण, गन्दगी सहित किसी भी विषय में कोई आदेश जनहित याचिका में पारित किया गया है और ऐसे आदेश को एक साल से अधिक हो चुका है तो उसी समस्या के लिये फिर नयी जनहित याचिका लानी होती है इस तरह मुकदमों का बोझ बढता है जनहित याचिका में सामान्य रूप से समय सीमा को समाप्त कर अथवा तीस साल निर्धारित कर इस समस्या को दूर किया जा सकता है। वादों के निपटान और न्यायाधीशों की जिम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिये न्यायालयों द्वारा न्यायाधीशों के लिये न्यूनतम वादों के निपटान के कोटे की व्यवस्था की गयी है जो कि पक्षकारों पर ही उल्टे भारी पड रही है और मुकदमों को लम्बा खींच रही है उदाहरण के रूप में किसी मुकदमे के दायर होने पर भले ही दूसरे पक्ष को जवाब दाखिल करने की तारीख लगी है लेकिन वाद खारिज हो सकता है इस पर नुकसान वादी का होता है और न्यायाधीश के कोटे में वाद खारिज करने पर एक मुकदना चढ जाता है। वकील इस बारे में अधिक विरोध इसलिये नहीं करते कि प्रार्थनापत्र देने पर आसानी से मुकदमा फिर पुर्नचलित हो जाता है और मुकदमा फिर चलाने के लिये फीस भी मोवक्किल से मिल जाती है। इस तरह एक पक्षीय आदेश, पक्षकारों के हाजिर न होने पर खारिज होने वाले मुकदमे आदि सभी मुकदमों को निस्तारित करने का श्रेय न्यायाधीश को मिल जाता है और ये सभी मुकदमे फिर कायम भी हो जाते हैं इस तरह अगर एक ही मुकदमा कई बार खारिज किया गया तो वह उतनी बार न्यायाधीश के खाते में बढोत्तरी करता है इस समस्या को न्यायाधीश द्वारा गुण दोष के आधार पर निर्णय किये गये मुकदमों को ही उनके कोटे/खाते में जोडकर दूर किया जा सकता है। यहॉं यह स्मरण रखना भी जरूरी है कि वकील न्यायालय की मदद के लिये होते हैं लेकिन न्यायालय को केवल वकील पर निर्भर रहना छोडना होगा किसी मुकदमे में कोई आदेश परित करने से पहले कम से कम पिछली तारीख में परित किये गये आदेश को न्यायालय को जरूर देख लेना चाहिये साथ ही नये निर्णयों और विधियों से अपनी जानकारी बढाते रहना चाहिये। कुछ न्यायाधीशों को अपना अहं खुद को सर्वश्रेष्ठ और ईश्वर मानने की भावना भी छोडनी होगी साथ ही जिला न्यायालय और राज्य के उच्च न्यायालय जिस राज्य में वे हैं उस राज्य की प्रचलित जनभाषा में आदेश व निर्णय देकर खुद को जनसामान्य से कहीं अधिक जोड सकते हैं। आज भी बेहद गरमी के मौसम में वकील और न्यायाधीश तहसील से लेकर जिला न्यायालयों और उच्च न्यायालय में कोट पहनकर रहते हैं साथ ही ऊपर से गाऊन भी पहनते हैं अधिकांश उच्च न्यायालयों में एयर कण्डीशनर लगे हैं लेकिन निचली अदालतों में एयर कूलर तक नहीं हैं ऐसे में कोट कहॉं तक न्यायसंगत है। इसे केवल ब्रास और बैण्ड में बदला जा सकता है और उच्च न्यायालयों में कोट के नीचे पहनने वाला ब्रास और गाऊन में बदला जा सकता है या पहनने की अनुमति तो दी ही जा सकती है। मेरे जैसे अनेक वकील इस ड्र्ेस को न चाहते हुए भी पहनते हैं।

कानून अथाह समुद्र है जिसका कोई ओर छोर नहीं है। इसलिये हर वकील खुद को प्रैक्टिसिंग लॉयर ;चतंबजपबपदह सूंलमतद्ध कहता है। वहीं कानून की अवधारणा है कि सारे व्यक्ति सारे कानून को जानते हैं। इसका मतलब यह है कि कोई भी यह कहकर बच नहीं सकता कि उसे तो पता ही नहीं था कि यह काम कानूनन गलत है या जुर्म है। कानून अथाह है और सब लोग सारे कानून जानते हैं यह आपस में विरोधाभासी हैं लेकिन सत्य हैं। कानून प्रवाहमान है समय के अनुसार इसमें बदलाव भी जरूरी है और कानून में सुधार के साथ नये कानून बनाने और जरूरत पडने पर पुराने कानूनों को खत्म करने की जिम्मेदारी विधायिका यानी संसद और विधानसभाओं की है। जिसमे अक्सर न तो सार्थक बहस होती है और नतीजा/परिणाम कानून की खामियां हमें झेलनी होती हैं कहने को विधि आयोग आदि भी हैं लेकिन उनमें नियुक्त होने वालों में भी कानून में सुधार की छटपटाहट देखने में नहीं आती है। न्यायपलिका यानी कि अदालत ने खुद कई बार कहा है कि अदालत का काम कानून बनाना नहीं है यहां तक कि कैसे कानून बनाये जायें इस पर भी न्यायालय राय दे सकती है आदेश नहीं दे सकती है।