‘ऋतुसंहार’ – काव्यानुवाद के बारे में
काव्य संग्रह पुस्तक : महाकवि कालिदास प्रणीत ‘ऋतुसंहार’ का हिंदी पद्यानुवाद, (रचनाकार: रमाशंकर पाण्डेय, संपा.: डॉ. आभा पांडेय) में प्रकाशित अनुवादकीय समीक्षा : (पृ.सं. : 20-31)। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष 2019। ISBN: 978-93-88471-03-9
‘ऋतुसंहार’ कालिदास की आरंभिक रचना है। आरंभिक रचना होने के कारण काव्य-तत्त्व मर्मज्ञों की गंभीर दृष्टि से यह प्रायः उपेक्षित सी रही है। ‘ऋतुसंहार’ के संबंध में संस्कृत साहित्यविदों द्वारा बहुधा कहा जाता है कि इसमें काव्याभिव्यक्ति और भावानुभूति वह वाग्वैभव उपलब्ध नहीं है जो कालिदासीय सर्जना का सामान्य अभिलक्षण है। इसमें नैरेशन (विवरणपरकता) बहुत है और नैरेटिव (कथ्य) साधारण कोटि का है। इसलिए कालिदास के अध्येताओं के लिए इस कृति का कालशास्त्रीय महत्व जो भी हो, परंतु काव्यशास्त्रीय महत्व विशेष नहीं रहा। संभवतः यही कारण है कि इस कृति को लेकर अध्ययन-अनुसंधान की गंभीर परंपरा भी संस्कृत में नहीं बनी।
ऋतुसंहार के संबंध में संस्कृत साहित्य-शास्त्रीय पंरपरा में जो भी धारणा रही हो किंतु यह कृति लोकमानस को आकर्षित करती रही है। ‘सरलता-साधारणता’ के जिस आक्षेप के आधार पर पाण्डित्यवादियों ने इसे अपने अध्ययन-विमर्श की परिधि से दूर रखा, उसी सरलता-साधारणता की गुण-राशि के कारण यह लोकवृत्त में निरंतर अपनी जगह बनाए रही। यही कारण है कि संस्कृत सहित विभिन्न देशी भाषाओं में समय-समय पर अनेक ऋतुमूलक काव्य रचे गए। स्वयं कालिदास ने भी कालान्तर में मेघदूतम जैसे उत्कृष्ट खंडकाव्य की रचना की।
ये सभी तथ्य इस ओर संकेत करते हैं कि ऋतुओं का काव्यात्मक आस्वाद और विविध विधाओं में उस आस्वाद की पुनर्रचना/पुनरुक्ति भारतीय साहित्यिक मन की आत्मीय वृत्ति रही है। इसी आधारभूमि पर हम ऋतु काव्यों की रचनाशीलता और उनके अनुकथन (अनुवाद) की परंपरा का सम्यक आकलन कर सकते हैं।
ऋतुसंहार का सामान्य आशय है – ऋतुओं का संघात/ समूह/ चक्र/ माला। कालिदास ने प्रकृति के ऋतु-चक्र (ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमंत, शिशिर, वसंत) का आलंबन एवं उद्दीपन भाव से वर्णन करते हुए इनके सर्वव्यापी सौंदर्य एवं वैभव का दिग्दर्शन कराया है। विविध ऋतुओं की जीवंत दृश्यावलियाँ, उनका नैसर्गिक एवं मानव-मनोगत वैशिष्ट्य तथा जगत-जीवन पर इनके व्यापक प्रभाव, परिवर्तन एवं प्रतिक्रिया का अंकन इस कृति के रचनात्मक वैशिष्ट्य का एक पक्ष है। ‘प्रकृति के ऋतु-चक्र का हर परिवर्तन लोकमंगल की व्यापक उद्भावना के साथ अभिव्यक्त होता है’, यह धारणा प्रतिपादित और स्थापित करना इस कृति के महत्व का अन्यतम पक्ष है। यही इसका ‘अंतर्पाठ’, अर्थात् मूल संदेश भी है।
एक काव्यकृति के रूप में ऋतुसंहार की चर्चा और लोकप्रियता किसी हद तक आधुनिक है। भारत और भारत के बाहर इस काव्य कृति ने अनेक रसज्ञ-साहित्यिकों को चिंतन-अध्ययन और अनुसृजन (ट्रांसक्रियेशन) हेतु आकर्षित किया है। सन् 1772 में सर विलियम जोन्स द्वारा संपादित किए जाने के उपरांत संभवतः पहली बार इस कृति का अंतरराष्ट्रीय अध्ययन-फलक खुला। इसके उपरांत 1840 में पी. फ़ॉन वोलेन ने इसका मूलपाठ जर्मन एवं लैटिन भाषा में पद्यानुवाद सहित प्रकाशित किया। 1906 में पं मणिराम द्वारा की गई इसकी संस्कृत टीका निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित हुई।
विगत लगभग एक शती की अवधि में ऋतुसंहार के अनेक काव्यानुवाद किए गए हैं। इनमें रांगेय राघव द्वारा मूल कृति के नाम-शीर्षक से किया गया अनुवाद (1973) विशेष चर्चित रहा है। ‘द सीजंन्स’ (1920) के नाम से इसके चयनित अशों का अंग्रेज़ी अनुवाद ऑर्थर डब्ल्यू. रायडर ने किया। अंग्रेज़ी में ही एक अन्य अनुवाद मनीश नंदी ने ‘रितुसंहार’ (1970) शीर्षक से किया जो कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। अंग्रेज़ी में राजेंद्र टंडन ने ‘रितुसंहार (द गारलैंड ऑफ़ सीज़न्स)’ (2008) शीर्षक से एक और अनुवाद किया। कविता नागपाल (2002) ने भारत रंग महोत्सव के लिए ऋतुसंहार पर आधारित नाट्य प्रस्तुति के लिए इसका नाट्यपरक अनुवाद किया जिसकी कई कारणों से चर्चा हुई। इसी क्रम में देशिराजु हनुमन्त राव ने इसका ऑनलाइन अविकल शब्दनिष्ठ अनुवाद (2010) प्रस्तुत किया। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि विगत समय में ऋतुसंहार को पढ़ने-समझने की वृत्ति बढ़ी है और पुराने प्रतिष्ठित कवियों की रचनाओं तथा रचनाधर्मिता के नये समय-परिवेश के अनुकूल पाठ रचने की प्रवृत्ति विकसित हुई है।
समीक्ष्य कृति ‘ऋतुसंहार का हिंदी पद्यानुवाद’ के मनस्वी रचनाकार सुकवि रमाशंकर पाण्डेय जी किसी भी समीक्षा-अनुशंसा से पूर्व अनेकशः साधुवाद और शुभकामना के अधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने कालिदास की इस अल्प चर्चित काव्यकृति को लेकर अनुवाद के गह्वर क्षेत्र में प्रवेश करने का साहस जुटाया। वैसे तो अनुवाद करने के खतरे और चुनौतियाँ भी कुछ कम नहीं होते, उस पर एक अल्प चर्चित काव्य कृति के अनुवाद को लेकर आलोचनात्मक विमर्श के लिए स्वयं को प्रस्तुत करना बड़े मन की बात है, और यह काम कोई बड़े मन वाला रचनाशील व्यक्ति ही कर सकता है।
अनुवाद के संदर्भ में एक बात और उल्लेखनीय है। समस्त भारतीय उपमहाद्वीप में संस्कृत के रचनात्मक और सांस्कृतिक प्रदेय की समृद्ध पीठिका के कारण अनुवाद की परंपरा प्रायः संस्कृत से विविध भारतीय भाषाओं में एकल दिशीय रूप में तो किसी सीमा तक परिलक्षित होती है किंतु भारतीय भाषाओं में परस्पर अनुवाद की वृत्ति आज भी पर्याप्त समृद्ध और बहुकेंद्रीय नहीं है। इस अभाव ने भाषाओं में परस्पर साहित्यिक ‘पाठीयता’ और ‘पठनीयता’ की अनेक विसंगतियों और समस्याओं को जन्म दिया है। कोई भी साहित्यिक पाठ अपनी मूल भाषा से अनुवाद के माध्यम से जब विभिन्न भाषाओं में गतिमान होता है तो उन अनेक भाषाओं में विद्यमान रचनान्वेषी मनीषियों की दृष्टि से उसमें अंतर्निहित अर्थ-संरचना के विविध आयाम प्रकाशित होते हैं तथा उन विविध अर्थ-संरचनापरक आयामों में से वरेण्य एवं निषिद्ध (अनूद्य) पाठ-संदर्भों का युक्तियुक्त निर्धारण होता है। इस प्रक्रिया का दूसरा महत्व इस बात को लेकर है कि किसी कारणवश यदि मूल अथवा किसी एक भाषा में किसी कालखंड में अनुवाद पाठ-चिंतन एवं सृजन की कोई कड़ी लुप्त होती भी है तो उसकी कालांतर में अन्यान्य संदर्भों से पुनर्रचना करना संभव होता है। उदाहरण स्वरूप, यदि आज बुद्धवचन (त्रिपिटक आदि) और प्रचुर बौद्ध साहित्य सुरक्षित है, तो उसका श्रेय किसी सीमा तक इनके चीनी अनुवादों को उनकी टीकाओं को देना होगा। इस प्रकारांतर चर्चा का उद्देश्य केवल यह स्पष्ट करना है कि अनुवाद केवल द्विभाषी प्रक्रिया भर नहीं है। इसकी विशिष्ट ऐतिहासिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक उपादेयता भी है।
पुनश्च, समीक्ष्य कृति के संदर्भ में चर्चा करते हुए यह कहना होगा कि एक श्रेष्ठ अनुवाद की जो भी विशेषताएँ रेखांकित की जाती हैं, वे सभी पाण्डेय जी द्वारा प्रस्तुत ऋतुसंहार के हिंदी पद्यानुवाद में यथोचित विद्यमान हैं। यह अनुवाद मूलपाठ (संस्कृत) के वाग्विन्यास, कथ्य-भंगिमा, काव्य गुण आदि से ‘निकटतम सहज प्रति-प्रतीकन’ का संबंध आद्यंत बनाए रखता है। हालांकि कतिपय अशों/ स्थलों पर काव्यानुवाद के संबंध में मतांतर हो सकता है किंतु इससे प्रस्तुत कृति का अनुवादकीय एवं रचनात्मक महत्व कम नहीं होता। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अनुवाद-रचनाकार ने कालिदासीय संवेदना के मर्म को कहीं भी ओझल नहीं होने दिया है। साथ ही लक्ष्य-भाषा (हिंदी) की प्रकृति के अनुरूप सर्वोत्तम अनुवादकीय/ साहित्यिक समाधान खोजने एवं प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
कोई भी साहित्यिक अनुवाद केवल शब्द-संरचना और शैलीय विन्यास की पुनर्रचना/ प्रतिस्थापन तक सीमित नहीं होता। इसमें मूल पाठ की सर्जनात्मक पुनरावृत्ति (रिपीटेशन), निदर्शन (इलिस्ट्रेशन) और उपपप्ति (डिमॉन्सट्रेशन) भी होती है। ऋग्वेद, ज्ञान सूक्त में एक मंत्र है – ‘’जो व्याख्याता केवल काव्य के शाब्दिक अर्थ को ग्रहण करता है, वह देखकर भी नहीं देखता, सुनकर भी नहीं सुनता, इस प्रकार वह ‘अफल’ (अर्थहीन) और ‘अपुष्प’ (सौंदर्यहीन) रहता है।’’ इस दृष्टि से यह अनुवाद न केवल सफल बल्कि सफल भी है। इसमें मूल कृति का शब्दार्थ-गौरव सुरक्षित है और लक्ष्य भाषा की प्रकृति (सहजता) भी संरक्षित है।
सर्वविदित है कि ऋतुसंहार वंशस्थ, उपजाति, शार्दूलविक्रीडित, वसंततिलका, मालिनी इन पाँच छंदों में निबद्ध है। इसके समानांतर अनुवादक ने अपने काव्यानुवाद हेतु प्रायः लावनी / ताटंक~कुकुभ छंद को चुना है। मूल रचना के प्रवाह-सौंदर्य के अनुरूप ही अनुवाद का छंद-योजना भी पाठक को अपनी काव्य-लय द्वारा प्रवाहित-प्रभावित करती है। यह अनुवादक के चयन-विवेक और प्रयोग-कौशल को दर्शाता है। अनूदित कृति के छंद-प्रवाह में न तो कहीं ठहराव आता है और न ठहरने का मन होता है। लगता है, मानो आप मूलतः हिंदी में ही लिखी हुई रचना का आस्वाद ले रहे हैं। (तुलनीय – ‘प्रचण्ड सूर्यः स्पृहणीय चन्द्रमा’ - जलने लगी सूर्य की किरणें, चंद्रदेव जन-मन भाए) अनुवादक ने भाव-भाषा-शिल्प का कुशल संयोजन, अनुवादकीय संतुलन और पाठ-संदेश का सफल अंतरण किया है। उदाहरण बहुतेरे दिए जा सकते हैं परंतु विशेष उल्लेख हेतु यहाँ स्थाली-पुलक न्याय से एक ही पर्याप्त है –
मूल छंद : ‘मत्त द्विरेफ परिचुम्बितचारुपुष्पाः...’ (6/18)
अनुवाद : चुंबन करती जिन कलियों का मत्त मिलिन्दों की माला,
जिनके मृदु पल्लव सहलाता मारुत मंथर गति वाला,
रम्य रसालों की सुकुमारी केलिवती कलियाँ लखकर,
कुसुमायुध के कुसुम शरों से कौन न होता मतवाला?
यह अकेला छंद ही यदि कृति एवं रचनाकार का नाम-संदर्भ हटाकर कहीं उल्लेख किया जाए तो बड़ी बात नहीं कि इसे बच्चन-मधुशाला से उध्रत समझ लिया जाए।
वैसे तो ऋतुसंहार का हर सर्ग अपने-आप में प्रकृति के उदात्त लोकमंगलकारी स्वरूप का आख्यान है। प्रत्येक सर्ग की कुछ न कुछ विशेषता है। फिर भी इसका वसंत सर्ग विशेष महत्वपूर्ण है। इसमें भी ‘द्रुमा सपुष्पाः सलिलं सपद्मं ´´´’ एवं ‘प्रफुल्ल ´´´’ जैसे बहुपठित, बहुउध्रत छंद हैं। समय, संदर्भ एवं विमर्श परंपरा के विकास-क्रम में इन छंदों के अर्थ के अनेक स्तर, और आयाम विकसित हुए। तदनुसार इनका बहुभाँति अर्थावगाहन और व्याख्यान किया गया है। अतः इन दो छंदों के व्यापक अर्थ-वृत्त की अपेक्षा को देखते हुए इस स्थल पर अनुवादक ने अपने काव्य-छंद का विस्तार किया है। मैं इन्हें अवश्य उध्रत करना चाहूँगा -
छंद – ‘प्रफुल्ल कूतांकुरतीक्ष्णसायको ´´´’ (6/1)
‘योद्धा वीर वसंत आ रहा
आज प्रकृति की समर भूमि में समर-मूर्ति सा जो सुहा रहा।
योद्धा वीर वसंत आ रहा
आम्र मंजरी के अंकुर के तीखे स्वर्ण पंखधारी शर
गुंजनशील मधुप माला की किए धनुष-प्रत्यंचा दृढ़तर
कामी-कामिनियों के मन को आज वेधने को मनोज सा
धरे धनुश्शर वीर वेष में अपना बल विक्रम दिखा रहा।
योद्धा वीर वसंत आ रहा’
छंद – ‘द्रुमाः सपुष्पाः सलिलं सपद्मं ´´´’ (6/2)
‘यह वसंत की वेला है
इसका क्षण प्रतिक्षण सुहावना, मधुमय मंगल मेला है।
कुसुम किरीटों से सज्जित तरु तरुणाई में निखरे हैं।
जल पर कुमुद, कमल, शाद्वल पर जल मुक्ताहल बिखरे हैं।
महकी-महकी गंध पवन के साथ फिरे बहकी-बहकी।
मधु-स्वप्नों से कामिनियों के हृदय भरे हैं, उभरे हैं।
रागवती हर संध्या इसकी, हर दिन हर्ष हुलेला है।
यह वसंत की बेला है।’
अनुवादक जो निश्चित रूप से एक समर्थ कवि हैं, यदि चाहते तो इनके अनुवाद में छंद की एकरूपता बरत सकते थे किंतु वे इस तथ्य से भली-भाँति अभिज्ञ हैं कि एक बहुपठित पाठ की पुनर्रचनात्मक अपेक्षाएँ क्या होती हैं? पातञ्जल महाभाष्य के टीकाकार कैयट ने अपने टीका-ग्रंथ प्रदीप में एक स्थान पर लिखा है – ‘यदा प्रतिपत्ता प्रमाणान्तरावगत-मुख्यार्थकार्यांतरार्थ प्रयोक्ता प्रतिपद्यते तदानुवादो भवति।’ इस टीका-वचन की अनुवृत्ति परवर्ती द्रविड चिंतक अय्यप्पा पणिक्कर के अनुवाद-सिद्धान्त में मिलती है जहाँ वे साहित्यक पाठ के अनुवाद के संदर्भ में कृति के अनुरूप ‘अनुकृति’ (एप्रॉक्सिमेशन) की धारणा प्रस्तुत करते हैं। उल्लेखनीय है कि लक्ष्य भाषा में अनूदित पाठ मूल पाठ के वस्तुतः समरूप नहीं होता न ही अनूदित कृति मूल कृति की शत-प्रतिशत प्रतिकृति~साकृति होती है, अतः हर नया अनुवाद/अनुसृजन मूल रचना का नवोन्मेष करता है, उसको पुनर्जन्म देता है। इस रचना-प्रक्रिया में अनुवादक को ‘सर्जनात्मक विपथन’ (क्रिटिकल डेविएन्स) और ‘अर्थक्रिया’ (सीमेंटिक प्रॉसेसिंग) : ‘संयोजन-छूट’ (ऑमिशन), ‘विस्थापन’ (डिस्प्लेसमेंट) एवं ‘विस्तार’ (एक्सपेन्शन) का यथापेक्षा अनुसरण करना होता है। इसी संदर्भ में महिमभट्ट की अवधारणा : ‘व्यक्तिविवेकम्’ का उल्लेख भी अपेक्षित है जिसके अनुसार ‘अनुवाद मूल पाठ का अनुमान के आधार पर रचित भाष्य है।‘ प्रकारांतर से द्रविड काव्यशास्त्र का ‘उल्लुराइ’ सिद्धांत भी इसके विस्तार (एक्सटेंशन) के रूप में देखा जा सकता है जो प्रत्येक पाठ में विनिहित अंतर्पाठ के महत्व को रेखांकित करता है। अनुवाद केवल कृति का पुनर्कथन ही नही अपित कई बार उसका पुनर्जन्म भी होता है। अनुवादक की सफलता इसमें है कि वह परंपरागत, रूढ़, घिसे-पिटे पाठ की अनुरचना न करे बल्कि गहन चिंतन-मननपूर्वक पाठ विशेष की परंपरा, समसामयिकता और भविष्यदृष्टि का अवगाहन करे, अपनी अनुकृति के माध्यम से एक नया-प्रासंगिक अंतर्पाठ प्रकाशित करते हुए अनुवाद करे।
भर्तृहरि ने वाक्यपदीयम्, ब्रह्मकाण्ड, श्लोक 48-50 में इस रचनात्मक-प्रादर्श का अत्यंत सुंदर रूपक प्रस्तुत किया है। भर्तृहरि के अनुसार शब्द और अर्थ : नाद और स्फोट का संबंध बहते पानी में सूर्य के प्रतिबिम्ब के समान गतिमान होता है। वे कहते हैं कि ‘कोई भी प्रतिबिंब तब तक प्रतिविंब नहीं बन सकता जब तक कि कोई बिंब (वस्तु) विद्यमान न हो। इसी तरह अर्थ मूलतः भाषा में विद्यमान नहीं अपितु अनुपस्थित रहता है किंतु अर्थ की यह अनुपस्थिति वस्तुतः उसकी स्वतंत्र/स्वायत्त सत्ता के कारण होती है, उसके अभाव की द्योतक नहीं।’ रचनाकार का कार्य है - विद्यमान/लक्ष्य भाषिक व्यवस्था में अपनी अभिव्यक्ति की अपेक्षानुसार वरेण्य अर्थ का अन्वाख्यान करना। अतः यह रचनाकार का दायित्व है कि वह मूल पाठ से आबद्ध हुए बिना अथवा उसको आबद्ध करने की अभीप्सा से मुक्त रहकर उसको वैसे ही प्रस्तुत प्रकाशित करे जैसे सूर्य को अर्घ्य देते हुए प्रवहमान जलधारा में सूर्य का गतिमान बिंब प्रकाशित हो उठता है।
ऋतुसंहार के आलोच्य अनुवाद का आद्यंत अध्ययन-अनुशीलन करने के बाद यह स्पष्टतः आभासित होता है कि ऋतुसंहार का हिंदी काव्यानुवाद अनुवादकीय अनुसर्जना के विविध सिद्धांतों पर खरी और सफल विशिष्ट रचना है। यह न केवल संग्रहणीय है अपितु बार-बार पठनीय-मननीय भी है। मेरा मानना है कि यह अनुवाद न केवल ऋतुसंहार के सौंदर्यबोध और संदेश को हिंदी भाषी पाठकों के मध्य संप्रेषित एवं संप्रसारित करेगा बल्कि इसमें अंतर्निहित प्रकृति एवं पर्यावरण के प्रति अनुराग का संस्कार भी लक्षित पाठक वर्ग के मानस-मस्तिष्क में युगानुरूप सौंदर्य संस्कार एवं दायित्व-बोध की सर्जना करेगा।
व्यक्ति अपनी मनोवृत्ति के अनुरूप ऋतुओं का अभिरोचन-आस्वादन करता है। तदनुसार अनुवाद-रचनाकर्म के एक अध्येता, एक पाठक और एक नवशिक्षु रचनाकार के रूप में इस रचना के अध्ययन-आकलन के सारांश रूप में मैं प्रस्तुत काव्यानुवाद से ग्रीष्म सर्ग यह सर्गांत छंद सुकवि-अनुवादक रमाशंकर पाण्डेय जी को सादर साधुवाद सहित अर्पित करता हूँ -
छंद – कमलवन चिताम्बुः पाटलो मोद रम्यः ´´´ (1/28)
“खिले गुलाब कमल-दल फूले सुंदर मोद भरे सब ओर।
जल में स्नान सुखद मालाएँ चंद्र किरन की शीतल डोर।
इस निदाघ में कामिनियों के सँग चल छत पर बैठ प्रिये
रात बिताएँ तव गीतों को सुनकर हों आनंद विभोर।“
(अनुपम श्रीवास्तव)
असि. प्रोफेसर, भाषाविज्ञान,
केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
अध्ययन-संदर्भ :
ऋतुसंहार (संस्कृत-हिंदी व्याख्या संवलितम्), सं. शिवप्रसाद द्विवेदी, चौखम्भा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, 2012
ऋतुसंहार (कालिदास), sanskritdocuments.org, 2017
कालिदास कृत ऋतुसंहार, अनु. रांगेय राघव, आत्माराम एंड सन्स, दिल्ली, 1973
Kalidasa, K. Krishnamoorthy, Sahitya Akademi 1994
The Seasons, Selected Verses, translated into English verse by Arthur W. Ryder
Ritusamhara, transl. Manish Nandy, Dialogue Publications, Calcutta, 1970
Ritusamhara (The garland of seasons). Rajendra Tandon (translator) (2008). Rupa & co.
Online literal translation of Ritusamhara by Desiraju Hanumanta Rao
"BHARAT RANG MAHOTSAV : A RETROSPECTIVE", Kavita Nagpal (2002). PIB, Govt. of India
https://sanskritdocuments.org/sites/giirvaani/giirvaani/rs/rs_1.htm
http://kavitakosh.org
http://www.pustak.org/books/bookdetails/6036
https://hi.wikipedia.org