सारे कवि चोर होते हैं
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मेरा लिखी हुई
कोई भी कविता मेरी नहीं है
एक पँक्ति, एक शब्द भी नहीं
ये सब कुछ चुराया हुआ है
कभी अन्जाने में, कभी जानबूझकर
नैतिकता की सभी सम्भावनायें ताक पर रखकर
सुख, दुख, प्रेम, क्रोध, ईर्ष्या, स्नेह
ईश्वर, जीवन, प्रकृति, माँ, मित्रों, बच्चों
जानवरों, पक्षियों, तारों, नदियों, पत्थरों
इन सबकी कविताओं से
मैने चुराया है, कभी न कभी, कुछ न कुछ
और छिपा दिया है सब
काले शब्दों की जालीदार तिजोरियों में
अपने नाम का हॉलमार्क लगाकर
मेरी सब कवितायें चुराई हुई हैं
पर सारे कवि चोर होतें हैं।
अप्प दीपो भवः
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आधी रात थी
यशोधरा सोई थी
सिद्धार्थ भाग गए
सत्य की तलाश में
जैसा पोथियों में लिखा है
और बौद्धों के मुँह में भी
कि, उन्हें मिल भी गया
कई सालों बाद
उच्चतम सत्य (मतलब दुनिया की सबसे झूठी चीज)
मुझे याद है
आधी रात थी
तुम जाग रही थी और मैं भी
और, हम रुक-रुक कर हँस रहे थे
बारी-बारी से बुद्ध बन रहे थे
अब और क्या कहूँ
अप्प दीपो भवः
डेमोक्रेटिक कम्युनिज़म
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शाम बारिश हुई
मैंने घर के भीतर से देखा
इन दो लाइनों के बीच
जेंटलमैन नामक डर हो सकता है
बीमारी की संभावना भी
शायद उम्र की ऊब
कोई शंकित अथवा संकुचित प्रेम
या फिर दार्शनिकता
नया पुराना फलाना ढिमकाना
कोई भी कारण
चूँकि छतरियों की ईजा़द से सदियों पहले ही
खोज लिए थे आदमी ने ना भीगने के तमाम तरीके
सो जन्मना पड़ा तूफ़ानों को
असहाय पक्षपाती बारिशों के बीच
बारिशें बस कर सकी आदमी को गीला
तूफ़ान ही तरबतर भीगाते रहे हैं
आदमी, उसके डरों और अकारण के कारणों को
तूफ़ान
ईश्वर और प्रेम का
डेमोक्रेटिक कम्युनिज़म है ।
बुद्ध और बौद्ध
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मॉनेसट्री के सामने
मेमने को गोद में लिए एक लड़की
देवदार की पत्तियां गिन रही है
भूल रही है तो धत तेरे की बोलकर
फिर से गिन रही है, हँस रही है
करीब ढाई हजार साल पहले बोधगया में
बरगद के पत्ते गिनते गिनते
जब बेहोश हो गए सिद्धार्थ
तब इसी लड़की ने
धोया उनका चेहरा, खिलाई उन्हें खीर
होश संभालते ही
सिद्धार्थ " हे ईश्वर " ( बरगद के पत्तों को घूरते हुए )
लड़की " धत तेरे की " (खिलखिलाते हुए)
सिद्धार्थ चुप हो गए हैं
सिद्धार्थ बुद्ध हो गए हैं
बुद्धम शरणं गच्छामि करते हुए मोंक्स
मॉनेसट्री के अंदर जा रहे हैं
बाहर बैठी हुई लड़की
हँस रही है, पत्तियाँ गिन रही है
मेमना चुप है,
देवदार भी चुप है
बुद्ध भी चुप हैं
बुद्ध बनना बौद्ध बनने से कितना अलग है ।
कंचे
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सर्द कुहासी सुबह के
साढ़े सात बजे ही
मिर्र दिए गए हैं
पूरे एक रुपये के
बारहों के बारहों कंचे
खुद गया है गहरा पिल्लुक
खींच दी गयी है बचपन की लक्ष्मण-रेखा
दांव पर लगा है
बूढ़े काका पूरा अनुभव
और मामू की नई इस्टाइल
रुकी हुई है बूढी दाई की कलछी
छोटी लड़कियों की बातें
बछिया की पागुर
परख है आज रिया के सामने
अंकुश के मारतूस की
कछ्छु के भाग्य की
भोलू की उँगलियों की
और पंकज तुम समझते हो
डेटा-कलेक्शन इज मोर इम्पोर्टेन्ट
तुम भी न
कब समझोगे जिंदगी।
प्रेम , उधार और दुश्मनी
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तुमसे माँग लूँगा मैं कोई किताब
और नहीं करूँगा उसे वापस
तुम्हारे बार-बार याद दिलाने के बावज़ूद
दे दूंगा तुम्हें उधार कुछ रुपए
और भूल जाऊंगा सारा हिसाब
जब तुम, उंगलियों से उकेरोगी बहीखाते
प्रेम और दुश्मनी के इन दो उदाहरणों-कारणों के मध्य
सदैव झूलता रहेगा हमारा स्नेह
भाषा, भाव और गणित से
सना, बुना और तना ।
शब्द और मौन
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शब्द और मौन में
युद्द हुआ
युद्द, वर्चस्व का, आन का
मान और सम्मान का!
शब्द ने गर्जना की
नाद किया, उन्माद किया
अनाहत मौन ने
अवैचारिक संवाद किया!
शब्द ने, शब्द से वार किया
मंत्रौचार किया, हाहाकार किया
ख़बरदार किया, चीखपुकार किया!
मौन ने सब समग्रता से
स्वीकार किया
अंगीकार किया
शब्द ने, ध्वनि, प्रतिध्वनि, तरंग
अर्थ व् अनर्थ से मौन को
बेध डाला
मौन ने, शांति, प्रतीक्षा,धैर्य,
भाव व् स्वभाव से शब्द को
बेध डाला!
अब शब्द मौन है
और मौन गुंजित!
अब शब्द मौन में
और मौन शब्द में
अनवरत है
सतत है
युद्दरत है ।
असमंजस
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असमंजस में मैं खुद
मेरेपन को लेकर
भरे भरे से मन में
एक खालीपन को लेकर
कभी जीवन को लेकर
कभी ईश्वर को लेकर
इस समझदार दुनिया में
मेरे पागलपन को लेकर!
रोऊँ या मौज मनाऊं
छोडूं या सब अपनाऊं
चलूँ साथ मैं सबके
या अपना राग बनाऊं
कभी अपनों को लेकर
कभी सपनो को लेकर
कुछ सुलझे से प्रश्नों के
उत्तर को लेकर!
कर्मो का फल पाता
या किस्मत मेरी साथी
कितना कुछ कर डाला
अभी कितना कुछ है बाकी
मेरे हंसने को लेकर
मेरे रोने को लेकर
मेरे इस खालीपन में
एक भारीपन को लेकर !
असमंजस में मैं खुद
मेरेपन को लेकर!
विरोध
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कपडे नंगा कर देते हैं आदमी को
सफ़ेद अचल सूरज से हैं काली परछाइयां
शून्य-निर्वात खींच लेता है सर्वस्व
प्रेम प्रथम कारण है घृणा का
खाइयाँ जोडती हैं चोटियों को नितांत गहरे में
पुण्य इच्छित है पाप की पृष्ठभूमि में
सृजन घोषणा है आगामी विनाश की
स्वर जन्म सकता है बस मौन के बीच
ईश्वर पूज्य है शैतान के भय से
सब सुरक्षित हैं विरोध से
सब समाहित हैं विरोध में
सर्वोच्च सामंजस्य है विरोध में
शाकाहारी डरपोक
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मैं एक शाकाहारी डरपोक हूँ
मुझे डर लगता है
जानवरों से, अंधेरे से, लोगों से
एक बुजुर्ग ने कहा कि बाघ का माँस खा लो
डर खत्म हो जाएगा - सदियों से आज़माई हुई तरकीब है
मैंने अपनी सालों कि कमाई से एक बंदूक खरीद ली
और घुस गया अंधेरे जंगल मे बाघ कि ख़ोज मे
उम्र भर डर की कीमत एक बाघ की हत्या - मुझे कम ही लगी
बाघ दिखा, गोली चली, बाघ मर गया
अब डर और मेरे बीच
बस माँस का एक टुकड़ा, शाकाहार की आदत और एक मक्खी थी
मक्खी, जो बाघ के मरते ही, उसके जख्म पर बैठ गई थी
और चख रही थी बाघ का गर्म माँस उसके खून के साथ
वो माँस जिस पर केवल मेरा अधिकार होना चाहिए
वो माँस जो लोगों एकिलिस की तरह निडर बना देता है
मैंने सोचा अब तो ये मक्खी निडर हो गयी हो होगी-मानो मक्खी-एकिलिस
और बाघ के माँस के लिए एक और युद्ध तय है - मक्खी और मेरे बीच
मैं फिर डर रहा था -आखिर अब वो मक्खी एकिलिस बन चुकी थी
परंतु मुझे जूझना तो था ही
उम्र भर डर की कीमत एक मक्खी की हत्या - मुझे कम ही लगी
मैंने पूरे ज़ोर से अपनी बंदूक मक्खी पर दे मारी - मक्खी उड़ गई
भाग निकली, जान बचा के, वापस नहीं आई
भाग गयी -बाघ का माँस खाने के बावजूद
बात साफ थी -मक्खी मक्खी थी, बाघ का माँस खाने के बावजूद
मैं समझ चुका था तीन बातें
कुछ बुजुर्ग बच्चे होते हैं
विश्वास, अंधविश्वास और बकवास मे अंतर नहीं कर पाते
डर जान देने को तैयार होने से जाता है, लेने से नहीं
आदमियों और बाघों की लड़ाई से ही मक्खियों की दावत है
एक बात और
कुछ बाघ जंगलों से बाहर आ गए हैं
एक आदमी की तलाश में
जिसके पास बंदूक है, जो बाघ के माँस का शौकीन है, जो अंधेरे मे छिपकर रहता है
वो उसे फाड़ डालना चाहते हैं
वो मुझसे रोज पूछते हैं उसका पता
मैं उनसे कहता हूँ - कोई आदमी ऐसा हो ही नहीं सकता
बाघ पूछते हैं "तुमने कभी माँस खाया है किसी जानवर का ?"
"नहीं" मैं आंखे तरेर के बोलता हूँ उनसे
बाघ कहते हैं कि फिर तुम नहीं समझोगे ये सब - तुम शाकाहरी हो न!
लोग कहते कि मैं बड़ा निडर हूँ
क्योंकि मैं बाघों से आँख तरेर के बात करता हूँ।
अब मैं लोगों से कहता हूँ
बाघ का मांस खाये बिना भी निडर बना जा सकता है
पर मैं ये नहीं बताता
मेरे पास एक पुरानी बंदूक है और एक बाघ कि हत्या की याद
मैं बेचैन रहता हूँ
कि कहीं कोई जान न जाए ये पुराने राज
मैं ये भी नहीं बताता
कि मक्खी मक्खी ही रहती है बाघों से आंखे तरेरने के बावजूद।
कौतूहल
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कल सोच रहा था की
आदमी की औसत उम्र के अनुसार
मैं लगभग आधी दूरी तय ही कर चुका हूँ, जिंदगी की
इस दौरान
कितने जीवंत रिश्ते कहानी बन चुकें हैं, अलिफ़ लैला की तरह
जिन्हें मैं केवल सोचकर सुना सकता हूँ, स्वप्न की तरह
शक्ति के पर्याय कुछ वृक्ष, अब कांपते हैं, सूखकर
बुद्धि के पर्याय कुछ खग, थक चुके है, घूमकर
कितने दुश्मन बना लिए, बेवजह ही
कितने दोस्त भी, नेपथ्य में ही
सब कुछ जो तय था, अब संदेह है
जो दिवास्वप्न था, सामने है
शरुआत के कुछ स्वप्न अब सत्य हैं, पर कटु
शुरुआत के कुछ डर भी प्रत्यक्ष हैं, पर मधु
मुझे अपना जीवन
ऐसा प्रतीत होता है
जैसे ईश्वर ने किसी चलचित्र में
मुख्य पात्र बनाकर, मुझसे अभिनय करवाया है
फिर, कौतूहल व् विनोद के लिए
मेरा ब्रेनवाश कर दिया है
और बिठा दिया है, अजनबियों की भीड़ में
मुझे दर्शक बनाकर!
प्रेम हो, पर मिलन की कोई प्यास न हो
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प्रेम की स्वप्निल डगर पर
दो तरफ हम एक पथ पर
पुलक चलते, समानांतर
पर कभी जुड़ने की कोई आस न हो
प्रेम हो, पर मिलन की कोई प्यास न हो!
एक सखी हो , न प्रेयसी हो
हर झलक स्पर्श सी हो
शून्य स्वप्न, बस अब-अभी हो
हो समर्पण पर कभी कोई ख्वाब न हो
प्रेम हो, पर मिलन की कोई प्यास न हो!
झिझकना और हिचकिचाना
तंग करना, फिर मनाना
खूब लड़ झगड़ के, मुस्कुराना
यूँ बीत जाए उम्र पथ, पर बात न हो
प्रेम हो, पर मिलन की कोई प्यास न हो!
अलग यौवन, अलग जीवन
हो अलग साथी, अलग प्रियतम
सकल दूरी, सकल बंधन
भर भीड़ में हम हो मगर, एहसास न हो
प्रेम हो, पर मिलन की कोई प्यास न हो!
मापदंड
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मैंने पुछा की क्या है तुममे ख़ास
जो मैं करूँ स्वीकार, तुम्हारा प्यार
वो बोली
मैं बहुत ही साधारण हूँ
पर हर सुख दुःख में पूरा साथ निभाउंगी
बिस्तर पर पत्नी
साथ में बहन
विश्वास में बेटी
और
रसोई में तुम्हारी माँ बन जाउंगी ।
डरता हूँ मैं मोरों से, इनकी सुन्दरता से
जब याद आता है मुझे
कि खा जाते हैं ये जहरीले सापों को भी
चीरकर,
बस जरा सी भूख लगने पर ।