केवल दो गीत लिखे मैंने
इक गीत तुम्हारे मिलने का
इक गीत तुम्हारे खोने का।
सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों
नदियों-नदियों, लहरों-लहरों
विश्वास किए जो टूट गए
कितने ही साथी छूट गए
पर्वत रोए-सागर रोए
नयनों ने भी मोती खोए
सौगन्ध गुँथी सी अलकों में
गंगा-जमुना-सी पलकों में ।
केवल दो स्वप्न बुने मैंने
इक स्वप्न तुम्हारे जगने का
इक स्वप्न तुम्हारे सोने का
बचपन-बचपन, यौवन-यौवन
बन्धन-बन्धन, क्रन्दन-क्रन्दन
नीला अम्बर, श्यामल मेघा
किसने धरती का मन देखा
सबकी अपनी है मजबूरी
चाहत के भाग्य लिखी दूरी।
मरुथल-मरुथल, जीवन-जीवन
पतझर-पतझर, सावन-सावन
केवल दो रंग चुने मैंने
इक रंग तुम्हारे हंसने का
इक रंग तुम्हारे रोने का ।
-राजेन्द्र राजन
मैं लिपटकर तुम्हें स्वप्न के गांव की
इक नदी में नहाता रहा रात भर
कोई था भी नहीं ज़िंदगी की जिसे
मैं कहानी सुनाता रहा रात भर।
मैंने छू भर लिया क्या गज़ब हो गया
मखमली जिस्म से उठ रहा था धुआं
मन लगा तोड़ने तब सभी सांकलें
इक परिंदे को ज्यों मिल गया आसमां
हो गया वृद्ध लाचार संयम विकल
चीखकर चरमराता रहा रातभर ।
दो इकाई-इकाई गुणा हो गईं
धीरे-धीरे निलंबित हुईं दूरियां
एक भी मेघ आकाश में था नहीं
किंतु महसूस होती रहीं बिजलियां
थी अंधेरों भरी रात छाई मगर
मैं दिवाली मनाता रहा रात भर।
एक अपराध भी तप सरीखा हुआ
बंध गए हम किसी साज़ के तार से
दस दिशाएं प्रणय गीत गाती रहीं
शब्द झरते रहे आंख के द्वार से
था अजब मदभरा एक वातावरण
मैं स्वयं को लुटाता रहा रातभर।
- राजेन्द्र राजन