शरशैय्या पर लगे पूंछने भीष्म पितामह
कहो युधिष्ठिर इंद्रप्रस्थ कैसा लगता है।
पतझर सा सूना सूना लगता है उपवन,
या फिर गीत सुनाती हैं अलमस्त हवाएं,
छमछम नूपुर बजते रहते राजभवन में
या फिर करती हैं विलाप व्याकुल विधवाएं।
कहो युधिष्ठिर कौरव कुल के लाल रक्त से,
धुला हुआ यह राजवस्त्र कैसा लगता है?
धर्म युद्ध है धर्मराज यह कहकर तुमने,
कौरव के समान ही की है भागीदारी,
धर्मयुद्ध था या अधर्म यह ईश्वर जाने,
पर समानतम थी दोनों की हिस्सेदारी।
कहो युधिष्ठिर धर्म युद्ध या केवल हठ में,
मानवता हो गयी ध्वस्त कैसा लगता है?
गली गली में लाखों प्रश्न खड़े हैं लेकिन,
प्रश्न सभी यदि युद्धों से ही हल हो जाते,
तो राधा के नयन प्रलय के आंसू लाते,
और सुदामा के तंदुल असफल हो जाते,
कहो युधिष्ठिर यह कैसा है धर्म जगत का ,
जीवन ही हो रहा नष्ट कैसा लगता है ।
धर्मराज धर्मावतार सत्पथ अनुगामी,
तुमसे बढ़कर कौन जानता मर्म हमारा,
धर्म अगर संकट बन जाए राष्ट्रधर्म पर,
तो अधर्म के साथ रहूं था धर्म हमारा।
कहो युधिष्ठिर क्या था मेरा धर्म कि जिससे
जीवन था सब अस्त व्यस्त कैसा लगता है?
क्या अब कर्ण नहीं बहते हैं गंगाजल में,
क्या निश्चिन्त हो गयी जग में कुन्ती मायें,
सर्वनाश हो गए कहो कुल दुशाशनों के,
या लुटती रहती हैं अब भी द्रुपद सुताएँ।
कहो युधिष्ठिर भोर हो गयी क्या भारत में,
या सूरज हो रहा अस्त कैसा लगता है?
- प्रियांशु गजेन्द्र
युग युग का संकल्प अटल था
मुझमे मेरा राम प्रबल था
पग-पग पर जग की मर्यादा
देकर थोडा ले गयी ज्यादा
भोर नयन भर लायी आंसू, पीड़ा लायी शाम,
सिया तेरा अभिशापित है राम
अग्नि परीक्षा जग का छल थी
पर जग के प्रश्नों का हल थी
फिर भी उस पर प्रश्न उठा है
जो गंगा जैसी निर्मल थी
मैंने घर से उसे निकाला
सागर जिसके लिए खंगाला
लंका जीतने वाला हार जीवन का संग्राम
सिया तेरा अभिशापित.......
बोल रहा पौरुष की भाषा
मेरा राजकुंवर नन्हा सा
जो प्राणों से भी प्यारा है
आज वही प्राणों का प्यासा
मेरा साहस तोल रहा है
मानों मुझसे बोल रहा है
जननी की हर एक पीड़ा का पाओगे परिणाम
सिया तेरा अभिशापित.........
तात मुझे करके वनवासी
आप हुए गोलोक निवासी
मेरे राजकुंवर कुटिया में
मैं हूँ राजभवन का वासी
कहती रघुकुल रीति अभागे
अब तक प्राण नहीं क्यूँ त्यागे
धरती शायद ठुकरा देगी जल में चिर विश्राम
सिया तेरा अभिशापित है राम
-प्रियांशु गजेंद्र
गहन गिरवर सघन वन में
बहकती पुरवा पवन में
दहकते धरती गगन में महकने दो प्यार मेरा
नागफनियों की गली में फूल का व्यापार मेरा
झोपड़ी या महल मैं कब देखता हूँ
हर खुली छत पर कबूतर भेजता हूँ
लोग लौटे हैं जहाँ से मुंह छुपाकर
मैं उन्ही गलियों में दर्पण बेंचता हूँ
चोट खाये लोग रहते जिस गली में
है वहीँ मरहम का कारोबार मेरा
नागफनियों की....................
खून के छींटे धरा से धो रहा हूँ
जो पुकारे मैं उसी का हो रहा हूँ
कल जहाँ बारूद की फसलें उगी थी
आज उन खेतों में मेंहदी बो रहा हूँ
दहकते अंगार बिखरे जिस गली में
है वहीँ चन्दन से निर्मित द्वार मेरा
नागफनियों की.....................
दिल में तेरे प्यार की दुनिया दफ़न है
भोर में ही दोपहर जैसी तपन है
मैं इधर शादी का जोड़ा बुन रहा हूँ
तू उन्ही धागों से क्यों बुनता कफ़न है
अर्थियों पर ही किया श्रृंगार तुमनें
डोलियों में चल रहा श्रृंगार मेरा
नागफ...........................
प्रियांशु गजेन्द्र