है मुनासिब हर किसी को ही रवानी चाहिए,
जिंदगी से है मुझे बस ज़िंदगानी चाहिए ।
ये तमन्ना है नहीं मेरा फलक पे नाम हो,
हाँ मगर मुझको उड़ानें आसमानी चाहिए ।
जिंदगी से है मुझे बस ज़िंदगानी चाहिए ।
हो वफ़ा भी बेवफ़ाई भी मुझे हासिल रहे,
दूर मुझसे हो कभी कदमों तले मंज़िल रहे
जिंदगी से जिंदगी का हर तजुर्बा चाहिए,
कुछ नये मरहम मुझे चोटें पुरानी चाहिए।
जिंदगी से है मुझे बस ज़िंदगानी चाहिए ।
है जरूरी के मुझे हर इक लहर से प्यार हो,
हो सफीना पार चाहे डूबता मझधार हो,
जिक्र हो तो बज़्म की रंगत बदलनी चाहिए
बस मुझे मेरे लिये ऐसी कहानी चाहिए।
जिंदगी से है मुझे बस ज़िंदगानी चाहिए ।
' शर ' जीया न हो किसी ने जिस मुहब्बत को कभी
प्रीत का रिश्ता मुझे इतना रूहानी चाहिए ।
है लहू आँखों में पानी है रगों में दौड़ता
बस रगों में खूं मुझे आँखों में पानी चाहिए ।
-शुभम् जैन ' शर '
जो रह गया वो ढूँढ ला जो है उसे महान कर,
ख़िलाफ जो तमाम हैं उन्हें तू बेज़बान कर,
ज़मीन पर उतार दे गुरूर आसमान का,
बढ़ा बढ़ा के कद सतत जमीन आसमान कर ।
जो रह गया वो ढूँढ ला जो है उसे महान कर ।
तुझे तमाम कर सके हवा में इतना दम नहीं,
सकल जहाँन फूँकने ज़रा शरर भी कम नहीं,
ज़रा ज़रा सही मगर ज़रा रवाँ जरूर हो,
ठहर ठहर कदम बढ़ा सफर सकल जहान कर।
बढ़ा बढ़ा के कद सतत जमीन आसमान कर ।
झुको-तनो, गिरो-उठो, वहन करम का भार हो,
जलो समर्थ, जब विजय के होम की पुकार हो,
वहाँ जहाँ से सैकड़ों घरों को लौट जाएंगे,
वहाँ से आगे वो चलेंगे जो चलेंगे ठान कर।
बढ़ा बढ़ा के कद सतत जमीन आसमान कर ।
झुका ना सर ना शोक कर, तू खुद पे ऐतबार कर,
जुटा जो रक्त शेष है, उठा के शस्त्र वार कर,
है रण विजय का मूल मंत्र हार कर न हारना,
समर जो शेष है उसे न हार, हार मानकर।
बढ़ा बढ़ा के कद सतत जमीन आसमान कर ।
- शुभम् जैन ' शर '
वह गीत के जिसकी खामोशी में प्रेम मेरा रत होगा,
वह गीत मेरा जिसकी लय पर संसार तरंगित होगा,
हर हर्फ कि जिनमें हर अपने जज़बात सजाए होंगे,
हर अक्षर खुद में कर की कंपन को छुपाए होंगे,
यह गीत मेरा आवाज बिना, बिन साज़ मगर क्या होगा,
स्वीकार नहीं जो गीत तुम्हें वह गीत अमर क्या होगा ।
वह रण जिनकी गाथाओं में, मैं वीर कहाया जाऊँगा,
हर वीर पुरुष के पौरूष की तासीर बताया जाऊँगा,
मेरे हिस्से की चोटें तो दुनिया को नुमाया होगी,
पर ढाल के हिस्से की चोटें इस रण में ज़ाया होगी,
ढाल बिना इस भीषण रण में, ढड़ पर सर क्या होगा,
प्रिये तुम्हारे बिन 'शर' के जीवन का समर क्या होगा।
वह मेरे सपने जिनका मुझको अधिकार नहीं है,
कुछ ऐसे जज़बात मेरे जिनका उपचार नहीं है,
इक उम्मीद मेरी कि जिसमें तुम मेरी हो जाओ,
इक एहसास मेरे कि जिसमें तुम मुझको छू जाओ,
ये न कहकर दूँ धीर तुम्हें इससे बेहतर क्या होगा,
यह कोलाहल भीतर का, बाहर लाकर क्या होगा।
-शुभम् जैन ' शर '
अनकहे सब भाव दर्पण चाहते हैं,
जो रहे अर्पित समर्पण चाहते हैं,
चाहते हैं छू सकें हम तह तुम्हारी,
है आधार पर प्यास तर्पण चाहते हैं।
योग से इस प्रश्न का न हल सरल है,
भाग की सम्भावना पर मन विकल है।
है खड़े हम वक्त इक देहरी पर,
हो जहाँ एक ओर तुम एक ओर दुनिया,
अनवरत झकझोरता संघर्ष मुझको ,
खींचते इक ओर तुम इक ओर दुनिया,
इस धरा पर आदि से परिणय प्रणय के,
इस सफर में कौन ही होता सफल है,
भाग की सम्भावना पर मन विकल है।
भार जब जयमाल का तन तोड़ देगा,
सात फेरों पर कदम मीलों चलेंगे,
पत्र के पीले वरक़ हल्दी तुम्हारी,
सब सपन इक होम की समिधा बनेंगे,
तब हिना का रंग गहरा देख तुमको,
यूँ लगेगा मंत्र जग का एक छल है,
भाग की सम्भावना पर मन विकल है।
भावों के खालीपन में सारे गीत कहीं खो जाएंगे,
तुमसे वंचित रहकर इनको आधार कहां मिल पाएगा।
हमने जिसको नींदें देकर रंगों से आबाद किया,
अपने सपनों की दुनिया को आकार कहां मिल पाएगा।
जीवन के नव अनुभव अनगिन जब दुनिया से सांझा होंगे,
बचपन, यौवन, आदत, अवगुण में तुम हमसे ज्यादा होंगे,
तुम यादों में छूकर मुझको सब बात नहीं कहने दोगी,
उन किस्सों को फिर तुम जैसा किरदार कहां मिल पाएगा ।
अपने सपनों की दुनिया को आकार कहां मिल पाएगा।
कातर मेरे नयनों के दर्पण किसका रूप निखारेंगे,
अक्षर अक्षर इन गीतों के फिर किसका नाम पुकारेंगे ,
अपने अपने सपने जीते गर, अपना सपना हार गया,
फिर तुमको इन गीतों को श्रृंगार कहाँ मिल पाएगा।
अपने सपनों की दुनिया को आकार कहां मिल पाएगा।
जब दिन मुश्किल होंगे अपने रातें भारी हो जाएंगी,
सब कुछ हंसकर सहते सहते आँखें खारी हो जाएंगी,
सारे हफ्ते थक-कर मुझको जिसमें खोकर आराम मिले,
"शर" फिर उन कोमल बाहों का इतवार कहां मिल पाएगा।
अपने सपनों की दुनिया को आकार कहां मिल पाएगा।
-शुभम् जैन ' शर '
पथ पर पत्थर पीड़ा सहकर जल ही जल में जलना होगा,
सरिता हो तुम सागर तट तक अविराम तुम्हें चलना होगा ।
जग को जीवन देकर तुमको स्वीकार गरल करना होगा।
चंचल मन हो बाधित जिसमें, और कोई विस्तार नहीं,
तुम पर ऐसे अंकुश डालें ये बाँधों को अधिकार नहीं,
जो तट कट कर दें पथ तुमको उनको अपना हमराह करो,
उनका बंधन स्वीकार करो तुम वचनों का निर्वाह करो।
वरना अपनी इच्छाओं का हर बार दमन करना होगा।
तुम हँस कर छू लो जिसको वह जीवन से भर जाता है,
तुम जिससे रूठो उसका सारा साहस मर जाता है,
है सृष्टि के संहार सृजन का भाग्य तुम्हारे हाथों में,
हर साधन तुमसे है हर इक साध्य तुम्हारे हाथों में ,
तुमको अपनी क्षमताओं का सम्मान मगर करना होगा,
तुम ही हर युग में प्रेम के पावन रिश्तों का आधार रही,
हर प्रेम वचन का साक्ष्य रही तुम सपनों का संसार रही।
तुमने 'शर' के इतने बिखर हारे जीवन को जीत किया,
अपनी लय से तुमने मन के इस कोलाहल को गीत किया।
गति है जब तक, गीतों में श्रृंगार तुम्हें भरना होगा ।
-शुभम् जैन ' शर '