Sanskrit Slokas
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत्
अर्थ:।संसार में सभी सुखी हो, निरोगी हो, शुभ दर्शन हो और कोई भी ग्रसित ना हो।
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।
अर्थ: हे प्रभु, हम सभी को असत्य से दूर सत्य की ओर ले चलो घोर अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
न चोरहार्यं न च राजहार्यं न भ्रातृभाज्यं न च भारकारी।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
अर्थ: विद्या सभी धनों में श्रेष्ठ है। विद्या रूपी धन को चोरों द्वारा हरण नहीं किया जा सकता है, अर्थात कोई चोर इसे चुरा नहीं सकता। किसी राजा के द्वारा हरी जा सकती है। अर्थात कोई राजा इसे अपनी शक्ति एवं पद के बल पर जबरन नहीं छीन सकता। संपत्ति की भांति भाइयों में विद्या का कोई भाग नहीं नहीं होता है। अतः इसे किसी के साथ बांटना नहीं पड़ता है, और ना ही विद्या रूपी इस धन का कोई अतिरिक्त भार होता हैI विद्या रूपी यह अनमोल धन खर्च करने से निरंतर और अधिक बढ़ता ही जाता है। अतः विद्याधन सभी धनों में प्रमुख एवं श्रेष्ठ है।
विद्या ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वाद्धनमाप्नोति धनाद्धर्मं ततः सुखम्।।
अर्थ: विद्या मनुष्य में विभिन्न गुणों को विकसित करती है। इन गुणों के कारण ही व्यक्ति जीवन में धन, यश, कीर्ति एवं सुख प्राप्त करता है।
विद्या विवादाय धनं मदाय
शक्तिः परेषां परिपीडनाय।
खलस्य साधोर् विपरीतमेतद्
ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय॥
अर्थ: : दुर्जन की विद्या विवाद के लिये, धन उन्माद के लिये, और शक्ति दूसरों का दमन करने के लिये होती है। सज्जन इसी को ज्ञान, दान, और दूसरों के रक्षण के लिये उपयोग करते हैं।
अलसस्य कुतो विद्या अविद्यस्य कुतो धनम् ।
अधनस्य कुतो मित्रममित्रस्य कुतः सुखम् ॥
अर्थ:: आलसी इन्सान को विद्या कहाँ ? विद्याविहीन को धन कहाँ ? धनविहीन को मित्र कहाँ ? और मित्रविहीन को सुख कहाँ ? !! अथार्त जीवन में इंसान को कुछ प्राप्त करना है तो उसे सबसे पहले आलस वाली प्रवृति का त्याग करना होगा।
अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्।
अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
अर्थ:आलसी व्यक्ति को विद्या कहां, मुर्ख और अनपढ़ और निर्धन व्यक्ति को मित्र कहां, अमित्र को सुख कहां।
काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।
अल्पहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं।।
अर्थ: हर विद्यार्थी में हमेशा कौवे की तरह कुछ नया सीखाने की चेष्टा, एक बगुले की तरह एक्राग्रता और केन्द्रित ध्यान एक आहत में खुलने वाली कुते के समान नींद, गृहत्यागी और यहाँ पर अल्पाहारी का मतबल अपनी आवश्यकता के अनुसार खाने वाला जैसे पांच लक्षण
क्षणशः कणशश्चैव विद्यामर्थं च साधयेत् ।
क्षणे नष्टे कुतो विद्या कणे नष्टे कुतो धनम् ॥
एक एक क्षण गवाये बिना विद्या ग्रहण करनी चाहिए और एक एक कण बचा करके धन ईकट्ठा करना चाहिए। क्षण गवाने वाले को विद्या कहाँ और कण को क्षुद्र समझने वाले को धन कहाँ ?
न मातु: परदैवतम्।
अर्थ: मां से बढ़कर कोई देव नहीं है।
नास्ति मातृसमा छाय
नास्ति मातृसमा गतिः।
नास्ति मातृसमं त्राणं
नास्ति मातृसमा प्रपा॥
अर्थ: माता के समान कोई छाया नहीं, कोई आश्रय नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। माता के समान इस विश्व में कोई जीवनदाता नहीं॥
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
अर्थ: माँ और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
अर्थ: जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है।
अमित्रं कुरुते मित्रं मित्रं द्वेष्टि हिनस्ति च ।
कर्म चारभते दुष्टं तमाहुर्मूढचेतसम् ॥
अर्थ: जो व्यक्ति शत्रु से दोस्ती करता तथा मित्र और शुभचिंतकों को दुःख देता है, उनसे ईर्ष्या-द्वेष करता है । सदैव बुरे कार्यों में लिप्त रहता है, वह मूर्ख कहलाता है ।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
अर्थ: मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन उसमे बसने वाला आलस्य हैं । मनुष्य का सबसे बड़ा मित्र उसका परिश्रम हैं जो हमेशा उसके साथ रहता हैं इसलिए वह दुखी नहीं रहता ।
अश्वस्य भूषणं वेगो मत्तं स्याद् गजभूषणं।
चातुर्यम् भूषणं नार्या उद्योगो नरभूषणं।।
अर्थ: घोड़े की शोभा उसके वेग से होती है और हाथी की शोभा उसकी मदमस्त चाल से होती है।नारियों की शोभा उनकी विभिन्न कार्यों में दक्षता के कारण और पुरुषों की उनकी उद्योगशीलता के कारण होती है।
चिता चिंता समाप्रोक्ता बिंदुमात्रं विशेषता। सजीवं दहते चिंता निर्जीवं दहते चिता ॥
अर्थ: चिता और चिंता समान कही गयी हैं पर उसमें भी चिंता में एक बिंदु की विशेषता है; चिता तो मरे हुए को ही जलाती है पर चिंता जीवित व्यक्ति को मार देती है।
मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं मुखे । हठी चैव विषादी च परोक्तं नैव मन्यते ॥
अर्थ: मूर्खों की पांच निशानियां होती हैं, अहंकारी होते हैं, उनके मुंह में हमेशा बुरे शब्द होते हैं,जिद्दी होते हैं, हमेशा बुरी सी शक्ल बनाए रहते हैं और दूसरे की बात कभी नहीं मानते.
अमंत्रमक्षरं नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् ।
अयोग्यः पुरुषो नास्ति योजकस्तत्र दुर्लभः॥
अर्थ: ऐसा कोई अक्षर नहीं हैं जिसमे मंत्र ना हो, ऐसा कोई पोधा नहीं है जिसमे औषधि ना हो ।
तथा ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसमे कोई भी गुण ना हो , ऐसे व्यक्ति ही दुर्लभ हैं जो हर व्यक्ति में गुण देख कर उन्हें संघठित कर सके ।
कर्मणा जायते जन्तु: कर्मणैव विलीयते ।
सुखं दु:खं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते॥
अर्थ: श्रीमद्भागवत (कर्म से ही जीव की उत्पत्ति होती है तथा अपने कर्म के कारण ही वे विलीन(नष्ट) हो जाते हैं। सुख,दुःख,भय और अभय(सुरक्षा) की ये सभी परिस्थितियां भी कर्म करने से ही आती हैं।)
त्रेतायां मंत्र-श्क्तिश्च ज्ञानशक्तिः कृते-युगे।
द्वापरे युद्ध-शक्तिश्च, संघशक्ति कलौ युगे।।
अर्थ: सत्ययुग में ज्ञान शक्ति, त्रेता में मन्त्र शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति का बल था। किन्तु कलियुग में संगठन की शक्ति ही प्रधान है।
उद्योगिनं पुरुषसिंहं उपैति लक्ष्मीः
दैवं हि दैवमिति कापुरुषा वदंति।
दैवं निहत्य कुरु पौरुषं आत्मशक्त्या
यत्ने कृते यदि न सिध्यति न कोऽत्र दोषः।
उद्योगी ( मेहनती ) तथा साहसी लोगों को ही लक्ष्मी प्राप्त होती है। यह तो निकम्मे लोग हैं जो कहते रहते हैं कि भाग्य में होगा तो मिल कर रहेगा। भाग्य को मारो गोली, जितनी तुम्हारे पास योग्यता और शक्ति है, अपना उद्यम ( मेहनत ) करते रहो, यदि प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती है तो इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं।
परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।
परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
भावार्थ : परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं अर्थात् यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।
शुभं करोति कल्याणम् आरोग्यम् धनसंपदा।
शत्रुबुद्धिविनाशाय दीपकाय नमोऽस्तु ते।।
अर्थात् : मैं दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं जो शुभता, स्वास्थ्य और समृद्धि लाता है, जो अनैतिक भावनाओं को नष्ट करता है बार-बार दीपक के प्रकाश को प्रणाम करता हूं।