रामायण चौपाई : 



गुर पितु मातु महेस भवानी । 

प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी ।। 

सेवक स्वामि सखा सिय पी के ।

हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के ।। 

श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं,  श्री सीता पति रामचन्द्र जी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपट रहित सच्चा हित करने वाले हैं. 



बिनु सत्संग विवेक न होई। 

राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥

सठ सुधरहिं सत्संगति पाई।

पारस परस कुघात सुहाई॥ 

अर्थ : सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और राम जी की कृपा के बिना वह सत्संग नहीं मिलता, सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुंदर सोना बन जाता है। 


कहेहु तात अस मोर प्रनामा।

सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥

दीन दयाल बिरिदु संभारी।

हरहु नाथ मम संकट भारी॥


अर्थ : हे तात ! मेरा प्रणाम और आपसे निवेदन है - हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीन-दुःखियों पर दया करना आपका विरद (प्रकृति) है, अतः हे नाथ ! आप मेरे भारी संकट को हर लीजिए (मेरे सारे कष्टों को दूर कीजिए)॥



हरि अनंत हरि कथा अनंता।

कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता॥

रामचंद्र के चरित सुहाए।

कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥


अर्थ : हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है। सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। रामचंद्र के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते।



जासु नाम जपि सुनहु भवानी।

भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥

तासु दूत कि बंध तरु आवा।

प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥



अर्थ : (शिवजी कहते हैं) हे भवानी सुनो - जिनका नाम जपकर ज्ञानी मनुष्य संसार रूपी जन्म-मरण के बंधन को काट डालते हैं, क्या उनका दूत किसी बंधन में बंध सकता है? लेकिन प्रभु के कार्य के लिए हनुमान जी ने स्वयं को शत्रु के हाथ से बंधवा लिया।


एहि महँ रघुपति नाम उदारा।

अति पावन पुरान श्रुति सारा॥

मंगल भवन अमंगल हारी।

उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥



अर्थ : रामचरितमानस में श्री रघुनाथजी का नाम उदार है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, मंगल (कल्याण) करने वाला और अमंगल को हरने वाला है, जिसे पार्वती जी सहित स्वयं भगवान शिव सदा जपा करते हैं।


होइहि सोइ जो राम रचि राखा।

को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

अस कहि लगे जपन हरिनामा।

गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥



अर्थ : जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। अर्थात इस विषय में तर्क करने से कोई लाभ नहीं।  (मन में) ऐसा कहकर भगवान शिव हरि का नाम जपने लगे और सती वहाँ गईं जहाँ सुख के धाम प्रभु राम थे। 


करमनास जल सुरसरि परई,

तेहि काे कहहु सीस नहिं धरई।

उलटा नाम जपत जग जाना,

बालमीकि भये ब्रह्म समाना।।



अर्थ : कर्मनास का जल (अशुद्ध से अशुद्ध जल भी) यदि गंगा में पड़ जाए तो कहो उसे कौन नहीं सिर पर रखता है? अर्थात अशुद्ध जल भी गंगा के समान पवित्र हो जाता है। सारे संसार को विदित है की उल्टा नाम का जाप करके वाल्मीकि जी ब्रह्म के समान हो गए।


अनुचित उचित काज कछु होई,

समुझि करिय भल कह सब कोई।

सहसा करि पाछे पछिताहीं,

कहहिं बेद बुध ते बुध नाहीं।।



अर्थ : किसी भी कार्य का परिणाम उचित होगा या अनुचित, यह जानकर करना चाहिए, उसी को सभी लोग भला कहते हैं। जो बिना विचारे काम करते हैं वे बाद में पछताते हैं,  उनको वेद और विद्वान कोई भी बुद्धिमान नहीं कहता।


सुमति कुमति सब कें उर रहहीं।

नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥

जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।

जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥



अर्थ : हे नाथ ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख और समृद्धि) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ विभिन्न प्रकार की विपत्ति (दुःख) का वाश होता है। 


कवन सो काज कठिन जग माहीं।

जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥

राम काज लगि तव अवतारा।

सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥



अर्थ : जब मां सीता का पता लगाने के लिए समुद्र को पार करके त्रिकूट पर्वत पर स्थित लंका में जाना था, तब जामवंत जी ने हनुमान जी से कहा- हे पवनसुत हनुमान जी जगत में ऐसा कौन सा कार्य है जिसे आप नहीं कर सकते, संसार का कठिन से कठिन कार्य भी आपके स्मरण मात्र से सरल हो जाता है। ऐसा कहते हुए जामवंत जी ने हनुमान जी को यह स्मरण कराया कि आपका जन्म प्रभु श्री राम के कार्य के लिए हुआ है, ऐसा सुनते ही पवनसुत हनुमान जी पर्वत के आकार के समान विशालकाय (पर्वतों के राजा सुमेरू पर्वत के समान) हो गए। 


करम प्रधान बिस्व करि राखा।

जो जस करइ सो तस फलु चाखा॥



अर्थ : भगवान ने संसार में कर्म को प्रधान कर रखा है जो व्यक्ति इस संसार में जैसा कर्म करता है वह इस धरती पर वैसा ही फल भोगता है। इसमें कोई हेरा-फेरी नहीं होती, यह बिल्कुल सीधा और सरल नियम है। यदि व्यक्ति सत्कर्म (अच्छे कर्म) करता है तो उसे शांति और समृद्धि प्राप्त होती है परंतु यदि व्यक्ति दुष्कर्म (बुरे कर्म) करता है तो वह इसी धरती पर उसका दंड भी भोगता है (अर्थात दुःख और विपत्तियों में पड़ता है)। इसके अतिरिक्त जो व्यक्ति कर्महीन होता है अर्थात कोई कर्म नहीं करता, उसे विभिन्न प्रकार के पदार्थों से परिपूर्ण इस धरती पर भी कुछ प्राप्त नहीं होता। इस गंतव्य को तुलसीदास जी लिखते हैं:

सकल पदारथ एहि जग माहीं।

करमहीन नर पावत नाहीं।


पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।

पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

निर्नय सकल पुरान बेद कर।

कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥



अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान इस संसार में कोई नीचता (पाप) नहीं है। सारे वेदों और पुराणों का यह सार मैंने तुमसे कहा है इस बात को ज्ञानी लोग भली-भांति जानते हैं।



धीरज धर्म मित्र अरु नारी।

आपद काल परिखिअहिं चारी॥

बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।

अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥



अर्थ : धैर्य, धर्म, मित्र और स्त्री- इन चारों की सही परख (परीक्षा) विपत्ति के समय ही होती है। वृद्ध, रोगी, मूर्ख, निर्धन, अंधा, बहरा, क्रोधी और अत्यन्त दीन- ऐसे भी पति का अपमान करने से स्त्री यमपुर में भाँति-भाँति के दुःख पाती है। शरीर, वचन और मन से पति के चरणों में प्रेम करना ही स्त्री का एकमात्र धर्म है।


गुर बिनु भव निध तरइ न कोई।

जौं बिरंचि संकर सम होई॥



अर्थ : गुरु के बिना कोई भी भवसागर पार नहीं कर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों ना हो। गुरु का हमारे जीवन में बहुत बड़ा महत्व है। गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति संभव नहीं है और बिना ज्ञान के परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती



भक्ति हीन गुण सब सुख कैसे,

लवण बिना बहु व्यंजन जैसे।

भक्ति हीन सुख कवने काजा,

अस बिचारि बोलेऊं खगराजा॥



अर्थ : भक्ति के बिना गुण और सब सुख ऐसे फीके हैं, जैसे नमक के बिना विभिन्न प्रकार के व्यंजन। भजन विहीन सुख किस काम का। यह विचार कर पक्षीराज कागभुशुण्डि जी बोले- (यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो हे शरणागतों के हितकारी, कृपा के सागर और सुख के धाम कृपा करके मुझे अपनी भक्ति प्रदान कीजिए।)