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कृष्ण - 'कृष्' का अर्थ है सब और 'ण' का अर्थ है आत्मा। वे परब्रह्म परमात्मा सबके आत्मा हैं इसलिए उनका नाम कृष्ण है। 'कृष्' शब्द सर्व का वाचक है और 'णकार' आदिवाचक है। वे सर्वव्यापी परमेश्वर सबके आदिपुरुष हैं इसलिए कृष्ण कहे गए हैं। 'कृष्' सर्वार्थ वाचक है , 'न ' से बीज अर्थ की उपलब्धि होती है। अतः सर्वबीजस्वरुप परब्रह्म परमात्मा कृष्ण कहे गए हैं। 'कृष्' का अर्थ है भगवान की भक्ति और 'न ' का अर्थ है उनका दास्य। अतः जो अपनी भक्ति और दास्य देने वाले हैं, वे कृष्ण कहलाते हैं।

'कृष्' शब्द निर्वाण का वाचक है और 'णकार' मोक्ष का बोधक है और 'अकार' का अर्थ दाता है। ये श्रीहरि निर्वाण मोक्ष प्रदान करने वाले हैं इसलिए कृष्ण कहे गए हैं। 'कृष्' का अर्थ है निश्चेष्ट, 'ण' का अर्थ है भक्ति और 'अकार' का अर्थ है दाता। भगवान निष्कर्म भक्ति के दाता हैं; इसलिए उनका नाम कृष्ण है। 'कृष्' का अर्थ है कर्मों का निर्मूलन, 'ण' का अर्थ है दास्य भाव और 'अकार' प्राप्ति का बोधक है। वे कर्मों का समूल नाश करके भक्ति की प्राप्ति कराते हैं; इसलिए कृष्ण कहे गए हैं।

वह ब्रह्म मंडलाकार ज्योतिपुंज स्वरुप है। ग्रीष्म ऋतु के मध्यान्ह कल में प्रकट होने वाले कोटि कोटि सूर्यों के समान उसका प्रकाश है। वह आकाश के समान विस्तृत, सर्वत्र व्यापक और अविनाशी है। योगियों को वह चन्द्र मंडल के समान सुखपूर्वक दिखाई देता है। योगी उसे सनातन परब्रह्म कहते हैं और दिन-रात उस सर्व मंगलमय सत्य स्वरुप परमात्मा का ध्यान करते रहते हैं।

योगी जन सदा तेज स्वरुप में ही ब्रह्म का ध्यान करते हैं; परन्तु सूक्ष्म बुद्धि वाले (वैष्णव) भक्तगण ऐसा नहीं मानते। वे वैष्णव जन उस आश्चर्यमय तेजमंडल के अन्दर सदा साकार, सर्वात्मा, स्वेच्छामय पुरुष के मनोहर रूप का ध्यान करते हैं। वे स्वतंत्र प्रभु साकार और निराकार भी हैं। उनका निराकार रुप तेजपुंजमय है, योगी जन सदा उसका ही का ध्यान करते हैं और उसे परब्रह्म परमात्मा और ईश्वर की संज्ञा देते हैं। उनका कहना है कि परमात्मा अदृश्य होकर भी सबका दृष्टा है। वह सर्वज्ञ, सबका कारण, सब कुछ देने वाला, समस्त रूपों का अंत करने वाला, रुपरहित और सबका पोषक है। परन्तु भगवान् के सूक्ष्म दर्शी भक्त ऐसा नहीं मानते हैं। वे पूछते हैं - यदि कोई तेजस्वी पुरुष - साकार पुरुषोत्तम नहीं है तो वह तेज किसका है? योगी जिस तेजमंडल का ध्यान करते हैं, उसके अन्दर अंतर्यामी तेजस्वी परमात्मा परमपुरुष विद्यमान है। वे स्वेच्छामय रूपधारी, सर्वस्वरूप और समस्त कारणों के भी कारण हैं। वे प्रभु जिस रूप को धारण करते हैं, वह अत्यंत सुन्दर, रमणीय तथा परम मनोहर है। इन भगवान् की किशोर अवस्था है, ये शांत स्वभाव हैं। इनके सभी अंग परम सुन्दर हैं। इनसे बढ़कर जगत में दूसरा कोई नहीं है। इनका श्याम विग्रह नवीन मेघ की कांति का परम धाम है। इनके विशाल नेत्र शरत्काल के मध्यान्ह में खिले हुए कमलों की शोभा को छीन रहे हैं। मोतियों की शोभा को तुच्छ करने वाली इनकी सुन्दर दन्त पंक्ति है। मुकुट में मोर का पंख सुशोभित है। मालती की माला से ये अनुपम शोभा पा रहे हैं। इनकी नासिका सुन्दर है। मुख पर मुस्कान छाई हुई है। ये परम मनोहर प्रभु भक्तों पर अनुग्रह करने के लिए व्याकुल रहते हैं। प्रज्ज्वलित अग्नि के समान विशुद्ध पीताम्बर से इनका विग्रह परम मनोहर हो गया है। इनकी दो भुजाएं हैं। हाथ में बांसुरी सुशोभित है। ये रत्नमय भूषणों से भूषित, सबके आश्रय, सबके स्वामी, संपूर्ण शक्तियों से युक्त और सर्वव्यापी पूर्ण पुरुष हैं। समस्त ऐश्वर्य प्रदान करना इनका स्वभाव ही है। ये परम स्वतंत्र और सम्पूर्ण मंगलों के भंडार हैं।

---- ब्रह्मवैवर्त पुराण