श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी के १९९४ में प्रकाशित "आगरानामा " ने शोध कर्ताओं को आगरा के इतिहास से संबंधित अभिलेखों से परिचय कराया तो जिज्ञासाओं का मानो समुद्र उमड़ पड़ा। यह आगरा के इतिहास के लिए सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है।
सन १९८७ में छपी उनकी पुस्तक, " अंगिरा से आगरा " तब तक यह प्रमाणित कर चुकी थी कि आगरा एक प्राचीन नगर है और महर्षि अंगिरा के समय से साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र रहा है। मुगलों ने किसी खाली जमीन पर किला बाज़ार आदि बना कर राजधानी स्थापित नहीं की थी। आगरा का पौराणिक रणनीतिक, सामाजिक, आर्थिक महत्व पहले भी था जिसके कारण यह नगर मुगलों की नजर में चढ़ गया। श्री चतुर्वेदी जी का मानना था कि आगरा का दुर्भाग्य रहा कि आगरा की प्रतिभाओं को उन्नति के शिखर पर पहुंचने का अवसर नहीं मिला। शायद महर्षि अंगिरा भी शहर को अपना नाम देकर यायावरी में अन्यंत्र चले गए ।
श्री चतुर्वेदी जी ने करीब डेढ़ दशक तक इतिहास की विभिन्न पुस्तकों में बिखरी आगरा सम्बन्धी सामग्री को एकत्र करने का प्रयास किया। पुरातत्व विभाग के अभिलेख , शताब्दियों से आबाद जन समूह के कार्य कलापों और अभिलेख ,आगरा के विभिन्न यमुना तटों , भदावर के किले ,मंदिर ,मस्जिद,मूर्तियों का बहुत करीब से अध्ययन किया और परिणाम स्वरूप "अंगिरा से आगरा " और " आगरानामा को स्वरुप प्रदान किया।चतुर्वेदी जी की दोनों पुस्तकों की पृष्ठ्भूमि में १०१ से ज्यादा पुस्तकों ,पुरातत्व अभिलेखों और १५० से ज्यादा बुद्धिजवियों, पुरतत्ववेत्ता , इतिहासकार , पत्रकार और सामाजिक व्यक्तियों से संग्रह के वर्णन है।
सोलहवीं शताब्दी में अकबर के विशाल साम्राज्य स्थापित होने और सत्रहवीं शताब्दी में ताजमहल के निर्माण के साथ आगरा की शानदार सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनैतिक विरासत में नए रंग जुड़े । श्री चतुर्वेदी ने अपनी रचनाओं "अंगिरा से आगरा" और "आगरानामा" में इन तथ्यों को प्रमाणिकता के साथ सिद्ध किया है। एक तरफ "अंगिरा से आगरा" आगरा के संपर्क को शूरीपुर, बटेश्वर, रेणुका, कैलाश और गौघाट से जोड़ता है, जबकि "आगरानामा" मुगलकाल, मराठा काल और अंग्रेजी युग का वर्णन करता है।
चतुर्वेदी जी के प्रेरणा स्रोत कुछ गिने चुने प्रसिद्ध साहित्यकार और लेखक थे जिनकी शैली उनके लेखन में प्रतिबिंबित होती है। डॉ रामविलास शर्मा, डॉ रांगेय राघव और पंडित राहुल सांकृत्यायन ने चतुर्वेदी जी के न केवल लेखन को बल्कि उनके संपूर्ण व्यक्तित्व को बहुत नजदीक से प्रभावित किया। राहुल जी जब भी आगरा आते थे तब चतुर्वेदी जी के निवास पर ही रुकते थे।
चतुर्वेदी जी ने अपनी पुस्तक "अंगिरा से आगरा " में लिखा है की राहुल जी ने सन १९५८ में अपनी चीन यात्रा के दौरान बीजिंग से उन्हें पत्र लिखा की कैसे उन्हें तुंगलीन (चीनी अजंता) के चित्रों को देखने के लिए ६०० मील से अधिक जीप में जाना पड़ा। ऐसे ही परिश्रम और अपनी खोजपूर्ण यात्राओं के द्वारा उन्होंने अपनी पुस्तकों को ऐतिहासिक स्वरुप दिया।
चतुर्वेदी जी ने डॉ बनारसीदास चतुर्वेदी के रेखाचित्र लेखन , डॉ पदमसिंह शर्मा कमलेश के प्रगतिवादी काव्य , नजीर अकबराबादी के प्रगतिशील साहित्य , रावी जी के लघु कथा लेखन , पंडित सुंदरलाल की भारत में अंग्रेज़ी राज , पंडित कृष्णा दत्त पालीवाल के पत्रकारिता लेखन और डॉ वृन्दावन लाल वर्मा के पत्रों पर तथा अनेको लेखकों और साहित्यकारों के लेखन पर समीक्षात्मक लेखन किया। सात दशकों तक चतुर्वेदी अपनी संपन्न पत्रकारिता , लेखन और जीवंत व्यक्तित्व के साथ आगरा हिंदी साहित्य समाज के केंद्र बिंदु में रहे।
कवि सोम ठाकुर उनके अभिन्न मित्र थे , चतुर्वेदी जी कहते थे कि सोमजी सुललित गीतकार और नवगीत आंदोलन के सशक्त कवि हैं , उन्होंने आगरा को गौरवान्वित किया है I
श्री चतुर्वेदी ने अमर उजाला में "आगरा इतिहास के पन्नों में " और "आगरा के चर्चित व्यक्तित्व " श्रंखला में हर गुरुवार एक नए व्यक्तिव से परिचय कराया जिसकी आगरा क्षेत्र और ब्रज प्रांत के लाखों पाठक बेताबी से प्रतीक्षा करते । इन में साहित्यकार थे और डॉक्टर राजनेता वैज्ञानिक पत्रकार जैसे बुद्धिजीवी भी थे। यह सिलसिला लगातार ५३ सप्ताह (१९८९-९०) तक चलता रहा। वैसे उनकी लेखन विधाएँ में कहानी,कविता,निबंध, इतिहास, समीक्षा, साक्षात्कार सभी कुछ सम्मिलित था।
श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी का जन्म आगरा के एक साहित्यक परिवार में २९ दिसंबर १९३४ आगरा में हुआ था। उनके पिता पंडित हृषिकेश चतुर्वेदी का निवास स्थान संपूर्ण ब्रज क्षेत्र की साहित्यिक और सामाजिक गतिविधियों का केंद्र था। सतीश चन्द्र जी ने युवावस्था से ही साहित्यक क्षेत्रों में अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी थी. प्रथम रचना: "हिंदी साहित्य में हास्य" - "प्राची" साप्ताहिक कलकत्ता में १६ मई १९५४ को प्रकशित हुई। उनका घर किनारी बाजार में था जो साहित्य प्रेमियों का गढ़ बन गया था। डाकिया अक्सर कहता था ऐसा कोई दिन नहीं होता जब चतुर्वेदी जी के लिए कोई पत्र ना आये। वर्ष १९५२ में उन्होंने आगरा में "नवीन लेखक संघ" की स्थापना की और १९६२ तक इसका नेतृत्व किया। इस संस्था ने लगातार १८ वर्षों तक सभी हिंदी भाषी प्रांतों के उदीयमान लेखकों और कवियों की रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाया। कुछ वर्षों तक साहित्यकारों को एक स्वर्ण पदक से भी सुशोभित किया । "नवीन" मासिक बारह वर्षों तक लगातार प्रकाशित किया। एक नूतन सहकारी प्रकाशन योजना भी चलायी I
" आषाढ़ के बादल " और "बयार एक हल्की सी" कविता संग्रह तथा "उभरती रेखाएं" नामक कहानी संग्रह उभरते साहित्यकारों के प्रोत्साहन हेतु प्रकाशित किए। १९५६ में आगरा साहित्यकार पुस्तक प्रदर्शनी का आयोजन किया। उन्होंने " साहित्य संगम" संस्था का गठन वर्ष १९६२ में किया जिसने "अंग्रेजी हटाओ , हिंदी अपनाओ " का आंदोलन चलाया , जिसकी विज्ञप्ति तत्कालीन "धर्मयुग" साप्ताहिक ने १९६५ में प्रकाशित की। मध्य प्रदेश से प्रकाशित "वीणा" , दिल्ली से प्रकाशित "साहित्य अमृत " "चतुर्वेदी" जैसी पत्र-पत्रिकाओं में उनके लेख लगातार आते रहे।
श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी जी ने हिंदी के नवीनतम श्रेष्ट प्रकाशनों को पाठकों तक पहुँचाने के लिए १९६५ से १९६८ तक लगातार चार वर्ष " हिंदी पुस्तक प्रदर्शनी " का आयोजन किया। उनका एक लेख "पुस्तक मनोरंजन की कमी , एक समस्या " प्रयागराज से छपने वाली "माध्यम" पत्रिका में प्रकाशित हुआ । इस लेख में चतुर्वेदी जी ने अच्छे साहित्य को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से समर्थ लोगों से "ग्रन्थ दान यज्ञ " करने का आवाहन किया।
स्व .प. हृषिकेश चतुवेर्दी जी के समय से "रत्नदीप " संस्था साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजन के लिए प्रसिद्ध थी। १९७० में पिता के देहांत के बाद उनकी सांस्कृतिक और साहित्यिक विरासत का सारा जिम्मा उन्होंने जीवन पर्यन्त निभाया। इस संस्था को विस्तार देने के लिए उन्होंने साहित्यकार, कवि, कथाकार, मूर्तिकार, चित्रकार और संगीतकार सब कलाकारों का आव्हान किया और संस्था के माध्यम से उनके कार्यों को मंच देने का काम किया।वे ऐसे प्रतिभाशाली व्यक्तियों को खोज कर सामने लाए जिन की साहित्यिक उपलब्धियों को जनमानस में पहचान नहीं मिली थी--जैसे "भारत में अंग्रेजी राज" के लेखक गांधीवादी पंडित सुंदरलाल, महान गणितज्ञ श्री लोकमणि दास।
शोधपूर्ण एवम अन्वेषण आधारित लेखन में श्री चतुर्वेदी का अमूल्य योगदान रहा। उन्होने बाल्मीकि रामायण एवं तुलसी कृत रामचरित मानस में राम के चरित्र चरित्रण एवं अन्य समकालीन तथ्यों की भिन्नता पर शोध पत्र लिखा।। सैकड़ों पुस्तकों एवं शासकीय गजटीयर्स का अध्ययन कर मुगलकाल के बहुत पहले जाकर आगरा के इतिहास का पौराणिक आधार खोज निकाला।
सांस्कृतिक धरोहरों से श्री चतुर्वेदी को बेहद लगाव था। वे कहते थे कि पुनःनिर्माण की प्रक्रिया में किसी भी वास्तु शिल्प या भवन का पुरानापन ख़तम नहीं होना चाहिए।
आगरा जैसे ऐतिहासिक नगर में संग्रहालय का अभाव उन्हें खटकता था। उन्होंने आगरा किले में अकबर के व्यक्तिगत संग्रहालय के बारे में खोजपूर्ण प्रकाशन "अकबर का आगरा दुर्ग पुस्तकालय कहाँ गया"। उनका मानना था कि पुस्तकालय की ४३०० पुस्तकें पटना के खुदाबक्श पुस्तालय में रखी हैं। १९८६ में चतुर्वेदी जी ने "हृषिकेश संग्रहालय " स्थापित किया और बनारस विश्विद्यालय से दीक्षित श्रेष्ठ शिल्पी मूर्तिकार श्री सोमदत्त उप्रेती की "सद्य स्नाता " मूर्ति स्थापित करवाई।
सन २००० में "आगरानामा " के द्वितीय विस्तृत संस्करण के प्रकाशन के साथ खोजपूर्ण साहित्य को एक नया आयाम मिला। हालांकि आगरा के इतिहास को काफी हद तक मुगल साम्राज्य के साथ राजनैतिक मान्यता प्राप्त हुई तथापि इस समय तक यह प्रचलित हो चला था कि यह नगर क्षेत्र काफी पहले से बसा हुआ था। उन्होंने महाभारत काल और १००० ई.पू. के कई प्रमाण खोज निकाले - जैसे रेणुका आश्रम जिसमें भगवान कृष्ण के द्वापर काल से लेकर मुगल काल और अंग्रेजी शासन तक के चिन्ह विद्यमान हैं।
श्री चतुर्वेदी जी आगरा के प्राचीन इतिहास को उजागर करने के लिए लगातार प्रयासरत रहे। उन्होंने आगरा के पौराणिक स्थलों जैसे पोइया घाट , गढ़ी भदौरिया , रेणुका, कैलाश , जैन तीर्थं शौरिपुर को इतिहास में प्रामाणिक स्थान दिलाने के लिए सन २००५ एक सेमिनार किया जिसमें प्रदेश के पर्यटन सचिव और आगरा के मंडलायुक्त ने भी भाग लिया और उनके प्रयत्नों को मूर्त रूप प्रदान करने मे योगदान दिया।
नवीन लेखक संघ के कार्यकलाप चतुर्वेदी जी द्वारा उदीयमान साहित्यकारों के प्रोत्साहन की स्वर्णिम गाथा वर्षों तक कहते रहेंगे। वे जीवन पर्यंत साहित्य की सेवा में लगे रहे। लंबी साहित्य साधना के उपरांत श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी १६ जून २०२० को स्वर्गवासी हुए।