कुछ यादें.....
श्री आलोक मिश्रा
एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर ONGC
अगस्त 2020
श्री आलोक मिश्रा
एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर ONGC
अगस्त 2020
श्रद्धेय (स्वर्गीय) श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी जी से मेरी पहली मुलाकात अविस्मरणीय है।बात 1984 की है जब मैं ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन की अहमदाबाद परिसंपत्ति में प्रशासनिक अधिकारी के रूप में कार्यरत था।पिताजी के पत्र से यह पता चला कि मेरे विवाह हेतु आगरा में चौबे जी के फाटक में रहने वाले श्री सतीश चंद्र चतुर्वेदी जी की बेटी का प्रस्ताव आया है। पत्र में यह भी लिखा था कि संभवत कुछ दिनों में वह आकर मुझसे अहमदाबाद में मिलेंगे। पत्र मेरे कार्यालय में आया था अतः पढ़ते-पढ़ते मेरी नजर कार्यालय की खिड़की के बाहर चली गई,तो देखा कि दूर से एक गौरवर्ण व्यक्ति जिनके साथ एक किशोर तथा एक आकर्षक भद्र महिला भी थी, कुछ लोगों के साथ चले आ रहे हैं। व्यक्ति की वेशभूषा बाकी लोगों से तथा अहमदाबाद में रहने वाले अधिकतर लोगों से कुछ भिन्न थी। वह एक हल्के पीले रंग का सिल्क का कुर्ता तथा सफेद पाजामा पहने हुए थे। कुछ ही समय में मुझे यह आभास हो गया कि यह सभी लोग तो मेरे कमरे की ओर ही चला आ रहा है और कुछ क्षणों पश्चात मेरे सामने यह पूरा परिवार खड़ा था। पिताजी के पत्र में लिखी बात इतनी जल्दी सच हो जाएगी यह मुझे पता नहीं था, लेकिन मैंने उनका परिचय प्राप्त होने से पहले ही पहचान लिया तथा सबसे पहले उठकर उन दोनों के चरण स्पर्श कर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। चेहरे पर एक मृदु मुस्कान तथा पान की लालामी से सुशोभित उनकी दंत पंक्ति सहसा अपनी तरफ किसी का भी ध्यान आकर्षित करने में सक्षम थी। जैसे जैसे बातचीत आगे बढ़ी, मैं उनके स्वभाव की सरलता तथा साहित्यिक अभिरुचि जो उनकी भाषा से बड़ी साफ रूप से परिलक्षित हो रही थी, का कायल हो गया। उनकी पत्नी तथा ज्येष्ठ पुत्र जो साथ आए थे इसी परंपरा की एक कड़ी प्रतीत हो रहे थे।मुझे याद है कि उस समय अहमदाबाद परियोजना में एक वरिष्ठ मैकेनिकल इंजीनियर थे पांडे जी, जिन्हें साहित्य से बड़ा लगाव था। जब उन्हें पता लगा कि मेरा विवाह संबंध आगरा में किनारी बाजार में हो रहा है तो उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या तुम्हारी होने वाली ससुराल का संबंध श्री सतीश चंद्र जी चतुर्वेदी, जो 'रत्नदीप' नामक संस्था चलाते हैं तथा नियमित रूप से साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन करते हैं, उनके परिवार से हैं ? जब मैंने कहा हां,तब उन्होंने पापा की भूरि भूरि प्रशंसा की और कहा कि साहित्य में उनके योगदान के अलावा वह एक बहुत ही सरल तथा बहुत विनम्र स्वभाव के व्यक्ति हैं। विवाह से पूर्व, होने वाली पत्नी के परिवार के विषय में इतने अच्छे उद्गार सुनकर मन को बड़ा संतोष हुआ था। कालांतर में जब बड़ों की सहमति से मेरा विवाह इनकी ज्येष्ठ पुत्री वाणी से तय हो गया, तब से मैंने उन्हें पापा कह कर संबोधित करना आरंभ कर दिया था। उनसे जब भी मुलाकात होती थी वह बड़े आत्मीयता से तथा प्रेम से अपने पास बैठाते थे तथा हाल चाल पूछने के पश्चात, अपने पुराने संस्मरण तथा अनुभवों को मेरे साथ बड़ी सरल भाषा में साझा किया करते थे। उनके इन अनुभवों का निचोड़ मेरे जीवन में कितनी ही बार एक दिशा देने में काम आया। भाषा के धनी होने के अलावा उनमें किसी भी परिस्थिति को विश्लेषणात्मक रुप से समझने की अद्भुत क्षमता थी।वह दूसरों की सोच को पूरा सम्मान देते थे परंतु अपने विचारों के प्रति हमेशा आत्मविश्वास से लबरेज रहते थे।अपने जीवन के पूर्वार्ध में ही उन्होंने बहुत सारी व्यक्तिगत चुनौतियों का सामना किया तथा संभवत उन चुनौतियों ने ही उनकी सोच को अत्यधिक परिपक्व बना दिया था। उनकी यही परिपक्वता उन्नीस वर्ष की अल्पायु में प्रकाशित उनके पहले उपन्यास 'खंडहर' में परिलक्षित होती है।
मैं जब भी आगरा जाता था, हमेशा उनके सानिध्य का लाभ उठाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ता था। मेरे साथ जब मेरी पत्नी वाणी से वे मिलते थे तब हमेशा एक वाक्य अवश्य बोलते थे "बेटी तुम ने ही सबसे पहले मुझे पिता बनने का सुख दिया था। तुम ही तो थी जिसने सबसे पहले मुझे पापा कह कर पुकारा था"। इन शब्दों को बोलते वक्त उनके चेहरे पर वात्सल्य तथा आनंद के जो भाव होते थे उसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। उनके पास अनेक लोग आते थे तथा अपनी समस्याओं को उनसे साझा करते थे।किसी भी व्यक्ति को अपनी तरफ आकर्षित करने का कार्य उनकी मुस्कुराहट बड़ी सहजता से कर देती थी। बड़ी सरलता से वे परिस्थितियों का विश्लेषण उस व्यक्ति के सामने रख देते थे तथा उसे एक ऐसा मार्गदर्शन देते थे जिसकी खोज में वह उनके पास आया था।
साहित्यिक चर्चा में उनकी विशेष अभिरुचि थी। कभी पंडित राहुल सांकृत्यायन से जुड़े संस्मरण तो कभी प्रसिद्ध कवि सोम ठाकुर के संस्मरण, कभी कवि नीरज, तो कभी पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी या श्रीयुत श्रीनारायण चतुर्वेदी (भैया साहब) से जुड़े संस्मरण। इनके अलावा भी वे हिंदी साहित्य की अनेक विभूतियों के संपर्क में रहते थे तथा उनसे जुड़े संस्मरणों को बड़े ही रोचक ढंग से हम लोगों से साझा करते थे। उनके पिताजी पंडित हृषिकेश चतुर्वेदी जी, जो स्वयं में एक विलक्षण व्यक्तित्व थे,उनसे जुड़े संस्मरणों को वे बड़े चाव से हम लोगों को सुनाते थे। पंडित हृषिकेश चतुर्वेदीजी के संपूर्ण कृतित्व को उन्होंने एक पुस्तक के रूप में छपवा कर हिंदी साहित्य में न केवल उन्हें महत्वपूर्ण स्थान दिलाया वरन उनके योगदान को बड़े ही प्रभावशाली रूप में हिंदी साहित्य के प्रेमियों के समक्ष पेश कर उनकी बहुत पुरानी मांग को पूरा किया।
पत्रकारिता तथा साहित्य में उनके उत्कृष्ट योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। आगरा शहर से उन्हें विशेष लगाव था तथा उन्होंने आगरा के इतिहास तथा आगरा की उत्पत्ति के विषय में दो बड़ी सुंदर पुस्तकों का सृजन किया-'अंगिरा से आगरा', तथा 'आगरानामा'। आगरा शहर के सबसे प्रसिद्ध, चर्चित व सबसे लोकप्रिय दैनिक समाचार पत्र, 'अमर उजाला' से उनका बड़ा ही करीबी संबंध था। उन्होंने आगरा की विभूतियों के विषय में इस दैनिक समाचार पत्र में लेखों की एक श्रंखला (सीरीज) लिखी थी जो अत्यधिक लोकप्रिय हुई थी।
उनका जुझारूपन व जीवन के प्रति एक सकारात्मक सोच हमेशा मुझे प्रेरणा देती रही। जब फालिज के आंशिक असर ने उनके एक जगह से दूसरी जगह चलने में सीमाएं बांध दी थी तब भी वे पूरा प्रयास करते थे कि स्वयं बिना किसी सहायता के नित्य कर्म पूरे करें तथा भोजन के कमरे में भोजन की मेज पर बैठकर ही भोजन करें ।
उनके चले जाने के पश्चात आज भी जब उनकी याद आती है तो उनका उल्लास भरा चेहरा तथा निश्चल प्रेम से परिपूर्ण स्वागत हमेशा याद रहता है।
इस महान व्यक्तित्व, साहित्य सृजक, एवं सकारात्मक दृष्टिकोण के पुरोधा तथा वात्सल्यमयी पिता को मैं सादर नमन करता हूं।