कविताएँ
धूलिया वक्त
लेखक- सत्यम सौरभ
सफर में राहों की आस
जिंदगी गुजर के पास,
अभिलाषा का नया नायाब
अभी वक्त ही है ख्वाब ।
हम समुद्र में मझधार
नांव की है दरकार,
तरंग की वह तेज लहर
संस्मरण का दे गयी ज़हर ।
मन में बसी है ऐसी ज्वाला
जैसे दीपक तले होता उजाला
बंद हो गए मेरे नैना
बस परछाई है अब मेरा आईना ।।
मितभाषी की वह रेखा
खाई मनसा नहीं हुआ लेखा-जोखा,
बजे तमन्ना का एक ही गाना
गले में माला ,हाथ में मधुशाला ।।
नज़र
रचिता- प्रणव निटूरकर
नज़रों की बातें
बातें तो नहीं होती
बातें शुरू होती हैं
और खतम भी, नज़र नहीं
नज़र से खिलवाड़ कैसा
जब नज़र खुद खिलवाड़ हैं
एक ऐसी डोर जो जोड़े सभी को
पर किसीको बाँधे ना रखना चाहे
चाय के प्याले को भी
कभी ना कभी खाली तो होना हैं
तुमने और हमने भी आखिर
एक दिन तो मरना हैं
इस नज़र ने जो दी जिंदगी
दो पल की ही सही
शुक्रगुजार, इस ज्योत को
जीतेजी मरने नहीं देना हैं ...
जीतेजी मरने नहीं देना हैं...
गुरु
लेखिका- हीना अग्रवाल
राष्ट्र का निर्माणकर्ता है गुरु
भविष्य का नींवधर्ता है गुरु
पढ़ाई तो किताबों से हो जाती है।
सच्ची शिक्षा, तो देता है गुरु
नैतिक मूल्यों को सिखाता है गुरु
संस्कार सभी अच्छे देता है गुरु
सोते - जागते उसे शिष्य के हित का ही ध्यान है
शिष्य के लिए करता अपना सर्वस्व बलिदान है
इतने पर उसको अपने शिष्य का ही अभिमान है
इसीलिए तो गुरु भगवान से भी महान है।
अंधियारे जीवन में ज्ञान का आलोक है गुरु
हम सब भी गुरु महिमा को अंगीकार करें
गुरु को हम सब भी कोटि कोटि प्रणाम करें
गुरु से सच्चा मार्गदर्शक कोई नहीं
गुरु बिन शिष्य का अस्तित्व नहीं
एक शिष्य का अस्तित्व है गुरु
धनक
लेखक- दीपक कुमार चौबे
धनक- इंद्रधनुष, धन इच्छा, धनुष
चाहे इच्छा कहो य़ा मुझे वरदान।
चाहे मुझे आर्द्र कहो य़ा संघर्ष का सोपान।
मैं हूँ धनक! ज़िसे चाहिए अभयदान।।
कभी झुरमुटों से घिरता, तो कभी पक्षियों सा विचरता।
कभी शीशे सा टूटता, तो कभी वज्र सा तोडता।
मैं हूँ धनक! इस समाज की परिभाषा बदलता।।
कभी अर्जुन सा धनुर्धर, कभी युधिष्ठीर सा धर्म राज।
कभी कृष्ण सा सारथी, जो थे पांडवों के सरताज।
मैं हूँ धनक! प्रय़त्नशील! बन जाऊँ सुखराज।।
क्यों तेरी ये मानसिकता? जब मैं करूँ अभिव्यंजना।
मांगा गया मुझसे कवच, जब न किया पूजा-अर्चना।
मैं हूँ धनक! कहीं पहुँच न जाऊँ श्मशाना।।
क्यों तुझे है पीडा? जब रहूँ एकांतवासी।
सारी मोह-माया तोडके, कहलाऊँ अहंकारवासी।
मैं हूँ धनक! बन न जाऊँ विरागवासी।।
है एक ही इच्छा, जुड जाऊँ मुख्यधारा से।
न ड़ूबूँ, न टूटूँ भ्रांति के इस सैलाब से।
मैं हूँ धनक! है निवेदन इस समुदाय से।।
जीवन
लेखिका- भावना प्रियदर्शिनी
हकीकत बहुत कड़वी होती जा रही है
शायद इसीलिए लोग झूठ पसंद करते हैं
मानो सवेरा होने पर सूरज न उगे
और हमें काले बादलों से प्यार हो जाए
थोड़ा झूठ भी सही है यारों !
वरना सच पे कौन अश्क बहाता है।
जीवन तो उस पत्ते पर लटकी
पानी की बूंद की तरह है
जो कुछ समय बाद टपककर
मिट्टी में समा जाता है।
क्या करोगे?
क्या करोगे जीवन का सच जान कर?
जब इसका सार ही कल्पित कथा सा है
बस आईनो में ही छुपी रह गई हैं बातें
जुबां का क्या है!?
चल उठ जा मेरी जान
लेखक- गितेश मसराम
चमक देखकर हिंद की
नूर भी सिर झुकाया है ,
लहर देखकर सिंध की
हिमालय भी इतराया है ,
देख तो , बसंती हुआ है आसमान ।
चल उठ जा मेरी जान ।।१।।
लाल रंग में मेरे लाल को
माँ से लिपटा पाया है ,
मजनू रांझे की बात छोड़ो
भगत दुल्हन घर लाया है ,
सुन तो , रुला रही आखरी अजान ।
चल उठ जा मेरी जान ।।२।।
चुनती दीवारों में साहब के
जुबाँ पे सोनिहाल आया है ,
आज़ाद वतन हाथों में लिए
बंदूक का पेड़ लगाया है ,
सोच तो , वह ख्वाब था क्यों महान ।
चल उठ जा मेरी जान ।।३।।
पैडल को लात मारते
कलाम हैं निकल पड़े ,
आंधी भी औकात न भूले
ध्रुव हैं ऐसे खड़े ,
स्वराज की तलवार लिए
महाराज हैं चल पड़े ,
काली के समक्ष विवेका
हाथ हैं जोड़े खड़े ,
बैरागी का वेश लिए
सिद्धार्थ हैं ढ़ल पड़े ,
दीया बुझ दीपिका पूर्णकर
ज्ञाना हैं हुए खड़े ,
पूछ तो, इतिहास बदलना था आसान ?
चल उठ जा मेरी जान ।।४।।
अपनी जान को सुलाकर वो
कल रात देर से सोया था ,
जाम के साथ उन छल्लों में
वतन ने बहुत कुछ खोया था ,
दफ़ना दो इतिहास बदलने का अरमान
क्योंकि सो रही है मेरी जान ।।५।।
माँ
लेखक- रवीश मेहता
कोख में रखा है, उसने अपनी नौ महीने
आज तक जब भी रोया लगाया उसने अपने सीने।
जब जब भी मैं गिरा उसने पकड़ कर उठाया
जीवनदान भी दिया और जीवन जीना भी सिखाया।
मेरे चुप रहने से ही वो मेरा दुख पहचानती
मेरे दिल में क्या है वह सब कुछ है जानती।
निस्वार्थ सबके लिए बहुत कुछ कर जाती
एक है वो औरत कई भूमिका निभाती।
कभी उस शख्स का दिल न दुखाना
खुदा भी माफ नहीं करेगा कोई न चलेगा बहाना।
सच कहते हैं खुदा इस धरती पर खुद न आया
इसलिए अपने रूप में उसने "माँ" को बनाया।
वर्ष-सप्तकम्
लेखक- शुभम् जयस्वाल
कृषाण-कर्ण बूंद-गूंज हेतु ही तरस् रहे,
निदाध से निराश वन्ध्य-भू सुधा-सुधा जपे,
घटा घिरे घने व घोर, चन्द्र से छिपे चकोर, मारि-मेघनाद-लोल, टर्र-टर्र शल्लशोर् ,
घुमड् घुमड् घुमण्ड मण्डराए मेघमण्डली, अनन्त अन्ध यामिनी, अभीक भीम दामिनी,
सुशंस है सुरेन्द्र का, वसुन्धरा सुगन्धिता, विशुद्ध-वर्ष-घोषणा, शुभा-विभा दसों-दिशा,
तधित् तधा तधित् तधा, मयूर नाट-नाटिका सुगात्र-नेत्रमुष् , प्रसून-पात्र-पुष्प-वाटिका
विहार वारिधार, खेत-खात-जाह्नवी रमे, फुहार-सार मेघराग, बाल-बालिका रमे
किशोर-रश्मि, धूमरी, महेन्द्रचाप वे स्वयं, प्रणाम सोम-चक्र को व दण्डवत् करे शुभम्
स्त्री
लेखक- लवलीन गर्ग
कैसी ये पहेली है, न सुलझती है न उलझती है।
देखो तो सीधी-साधी सी, पढ़ने लगो तो बवाल लगती है।
बनाया है लगता किसी बहुत बड़े विद्वान ने, अन्यथा पुरूष में कहां इतनी समर्थता होती है।
ढूँढने जो मैं जवाब लगा उसका, स्त्री जैसी जान पड़ती है।
अंत में जब पूछा एक स्त्री से, पल में जवाब मिला, ये तो हर स्त्री की कहानी लगती है।
ज़िंदगी
लेखक- राधा कृष्ण कश्यप
ज़िंदगी नहीं है सीधी पटरी
उलझी हुई पहेली ये है,
सुलझाने की कोशिश छोड़ो
उलझी इसको रह जाने दो l
बातें कई जो चुभी हुई हैं
दिल के गहरे दामन मे,
दर्द की गठरी बांधना छोड़ो
बयाँ लबों को कर जाने दो l
अपने जब भी बनें पराये
टूटें जब जब प्यारे तारे,
ग़म पलकों पर थामना छोड़ो
आँसू इनसे झर जाने दो l
गिरते हुए का बनो सहारा
फिसल रहे का हाथ थाम लो,
रोते हुए के आँसू पोंछों
टूटे हुए को गले लगा लो l
अंधकार मे मिले जो कोई
उजियारे की आस लगाये,
हो मशाल गर तेरे हाथों
इक चिराग़ उनके घर में भी
चुपके से तुम कहीं जला दो l
हैं हम सभी पराये तेरे
मैं भी तेरा सब भी तेरे,
अकेलेपन की सिसकी छोड़ो
दिल को मुस्काना सिखला दो l
मैं खड़ा हूँ
लेखक- प्रणव माहेश्वरी
मैं खड़ा हूं,
बीमार हूं, ठंड कुछ अधिक है
तन कपकपा रहा है
बर्फ की सफेद चादर है
और चारों ओर बस छोटी-बड़ी पहाड़िया
जहां तक नज़र जाती है
बस बर्फ ही बर्फ है।
कोई जीव नहीं है
शायद मैं भी निर्जीव हूं
पर मैं खड़ा हूं।
गला सूख रहा है
हाथ शिथिल हैं
पैर मानो बर्फ़ में धस रहे हों
संभवतः मैं सांस ले रहा हूं
पर मैं सीधे खड़ा हूं।
किंचित कोई तूफ़ान आने वाला है
या शायद हमला हुआ है
ये आवाज़ कहीं गोलियां चलने की तो नहीं
या कहीं भूस्खलन हुआ है
पर मैं तो खड़ा हूं।
मुझे यह तो ज्ञात नहीं कि
मै जीवित हूं या मृत हूं
मैं धरती पर हूं या आकाश में हूं
परन्तु यह ज्ञान जरूर है कि भारत की सीमा
पर मैं अभी भी खड़ा हूं।
(देश के जवानों को समर्पित)
अब समय संग हमें चलना होगा
लेखक- विजय राजावत
अपने मन में अंगार लिए,
और तन में घृणित प्यार लिए,
चाहे सुख दुख का विस्थापन हो
पर जीवन में त्यौहार लिए,
रिश्तों का अतुलित प्यार लिए,
धर्म कर्म का सार लिए,
मजहब में खोती जाती ये दुनिया
पर मानवता का उपहार लिए,
प्रकृति का शोषित भार लिए,
टूटे सपनों की मार लिए,
प्रेयसी को पुनि पुनि पाने को
आत्म नयन में संसार लिए,
हमें स्वयं अग्नि में जलना होगा,
अब समय संग हमें चलना होगा।। 1।।
जीवन में आना जाना है,
कुछ पल का ठौर ठिकाना है,
जब तक जीता है, मन से जी,
क्यूं सोचे, क्या खोना - पाना है,
सबको अपना यहां बनाना,
सबसे यहां तू प्रेम बढ़ाना,
जितना बोना, उतना पाना,
प्रेम वृक्ष का नियम पुराना,
इतिहास को तू अपनाना,
उससे नूतन भविष्य बनाना,
पर याद रहे वर्तमान हित,
कर्म ज्योति तू तीव्र जलाना,
इसी ज्योति से जाग को गलना होगा,
अब समय संग हमें चलना होगा।। 2।।
वैज्ञानिकता को अपनाते जाओ,
तर्क शक्ति से मनाते जाओ,
पर वजूद खोने की चाह ना हो,
अध्यात्म ज्योति जलाते जाओ,
खुद सीखो और सिखाते जाओ,
प्रेम मधु पिओ, पिलाते जाओ,
ये दुनिया बहुरंगी, बहुदृष्टिवादी,
जैसे देखो वैसे अपनाते जाओ,
जीवन से विछोह हटाते जाओ,
मन के सब मोह मिटाते जाओ,
दुनिया की ताकत से डर मत तू,
खुद में विद्रोह जगाते जाओ,
वरना दुनिया के हित में ढलना होगा,
अब समय संग हमें चलना होगा।। 3।।
तू श्रेय मार्ग पर बढ़ता जा,
तू प्रेय मार्ग को तजता जा,
जो पाना होगा, वो पाएगा तू
कर्म अग्नि में जलता जा,
नित योग, नियोग को रचता जा,
उपनिषद ज्ञान को वचता जा,
और कठिन कर्म पगडंडी पर तू
तू चढ़ता जा, बस चढ़ता जा,
तू भोग विलास से लड़ता जा,
इन्द्रियों को वश में करता जा,
जो ज्ञान सनातनी रहा सदा,
मत कामुकता में छलता जा,
वरना बैठे बैठे हाथ तुम्हें मलना होगा,
अब समय संग हमें चलना होगा।। 4।।
नैतिकता का ज्ञान अमर है,
जीत अमर है, हार अमर है,
नफरतों का दौर मिट जाएगा,
जीवन में बस प्यार अमर है,
सुख दुख का रहा समर है,
जीव ब्रह्म का रहा समर है,
क्या जीत हार से पाएगा तू,
जीवन मृत्यु का रहा समर है,
तेरा प्रेम ज्ञान सबसे प्रवर है,
जीव महान सबसे प्रवर है,
जग में बेहतर तू बन सकता है,
तेरा दर्शन ध्यान सबसे प्रवर है,
अपनी मेहनत से भाग्य बदलना होगा,
अब समय संग हमें चलना होगा।।5।।
छिपा ही सही
लेखिका- यशी जैन
जो दिल में है,
वो जुबान में नहीं
बातें कुछ ऐसी हैं,
जो जज़्बातों में ही सही
जो मन में है,
वो आँखों में नहीं
अल्फ़ाज़ कुछ ऐसे हैं,
जो इस कागज़ में ही सही
जो धड़कनों में है,
वो लफ़्ज़ में नहीं
प्यार कुछ ऐसा हैं,
जो इस गुलाब में छुपा ही सही
जो रोम में है,
वो आंसुओ में नहीं
दर्द कुछ ऐसा हैं,
जो सूखे पत्तों में ही सही
मैं मजदूर हूँ
लेखक- हितेन्द्र कुमार
कुछ मज़बूरी में कहते हैं कि मैं देश की आँखों का नूर हूँ,
पर सच में मेरे हालात कुछ और हैं, जी हाँ मैं मज़दूर हूँ।
अपनी माँ के आँचल को छोड़ जाने का मुझे शौक नहीं है,
मेरी मजबूरियां कुछ नहीं समझते हैं, जी हाँ मैं मजबूर हूँ।
कुछ का पैसों से बड़ा नाम है, मेहनत मेरा दूसरा नाम है,
मेहनत से ही मेरी आन बान शान है, जी हाँ मैं मशहूर हूँ।
मैं एक क़दम पीछे कर दूं तो यह दुनिया रुक सकती है,
स्वार्थी होना मेरी पहचान नहीं है, जी हाँ मैं अकरूर हूँ |
मैं मेरे मालिक का गुलाम हूँ, मेरी सांस उनकी जागीर है।
उनके इशारों में नाचना मजबूरी है, जी हाँ मैं लंगूर हूँ।
मेरे दिन-रात काम करने से यह दुनिया बेहतर हो रही है,
पर मेरे हाथ पैर और सिर दुखते हैं, जी हाँ मैं रंजूर हूँ।
कष्ट और पीड़ाओं के संग मेरी जिंदगी चलती रहती है,
पर हर हाल में मुस्कुराना आता है, जी हाँ मैं मसरूर हूँ।
कुछ मज़बूरी में कहते हैं कि मैं देश की आँखों का नूर हूँ,
पर सच में मेरे हालात कुछ और हैं, जी हाँ मैं मज़दूर हूँ।
देखकर भारत वर्ष की हालत अपने मन को मार रहा हूँ
लेखक- विजय प्रताप सिंह
आज खड़ा मैं चौराहे पर बस चारों ओर निहार रहा हूँ
देखके भारत वर्ष की हालत अपने मन को मार रहा हूँ
क्या यही सपना देखा था भगत सिंह की फांसी ने
क्या इस भारत को चाहा था उस बापू संन्यासी ने
जहाँ रोज झगड़ा होता मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में
जहाँ प्रतिभा को रौंदा जाता जातिगत आधारों में
जहाँ राष्ट्रीय प्रतीकों का भी सरेआम खंडन होता है
और राजनीति में गुंडों का भी अभिनंदन होता है
मै तो अमर शहीदों की टूटी हुई मजार रहा हूँ
देखके भारत वर्ष की हालत अपने मन को मार रहा हूँ ।।1।।
लोकतंत्र मे तानाशाही का दौर दिखाई देता है
भ्रष्टाचार का मौसम आदमखोर दिखाई देता है
अन्नदाता स्वयं यहाँ पर भोजन को मोहताज है
और हिन्दू सभ्यता पर अब पाश्चात्य का राज है
हिंसा की लाखों लाशें हैं कश्मीर की वादी में
रोज एक कड़ी जुड़ती है भारत की बर्बादी में
मैं सत्ता के लिए बिका हुआ अखबार रहा हूँ
देखकर भारत वर्ष की हालत अपने मन को मार रहा हूँ ।।2।।
हर मुश्किल का हल केवल तब निकल पाएगा
जब हर दीन धर्म से बड़ा ये देश माना जाएगा
दोगुली मीडिया को सत कर्म साधना होगा
युवा शक्ति को बन पटेल देश बाँधना होगा
राजनीति न दलदल है सबको आना चाहिए
हर व्यक्ति को पुनः नवभारत बनाना चाहिए
मैं महापुरुषों के आचरणों की दरकार रहा हूँ
देखकर भारत वर्ष की हालत अपने मन को मार रहा हूँ ।।3।।
गाथा
लेखक- विक्रम अय्यर
डाली से वह उग आता है
हवा में ध्वजा सा लेहराता है
केंद्र बसी है शांत व धीरज
मोती हो जो सीप भीतर
दृश्य होता क्षणभर हेतु
दिखता जैसे धूमकेतु
रेशमी डोर हैं कोमल नूतन
सजें हैं उस पर बूंद हैं शबनम
सृष्टि द्वारा बना यह जाल
प्रगति कारण वह बेहाल
युग-युग आशा में बैठी
कब आनी है मक्खी- चींटी?
आखिरकार आता एक निर्दोष
चलता - उड़ता नि:संकोच
एक पाँव स्पर्षता रेशम से
तुरंत फसता नूतन डोर से
भोजन पूजा अब प्रारंभिक
चरखे - चक्रण से समर्पित
आवरण करते उस लाचार का
डोर जो प्राण खींचते उसका
यमराज होता हाज़िर द्वार पर
आहे करते बुलावा पुकारकर
मकड़ी अवतार धारण करके
श्वास खींचता चलते - चलते
आखरी सांस से जैव निकलती
स्वर्ग में रब से मिलने जाती
कोश में बंधा शव है समान
मकबरे में जो सिपाही महान
सृष्टि की एक गाथा अद्वितीय
अविस्मरणीय कथा हुई दृश्य
हिन्दी हमारी पहचान है
लेखक-रूपेश कुमार
सूरज की पहली किरण है, हिन्दी
शाम में ढलती सूरज की लालिमा है, हिन्दी
यह हर चेहरे की मुस्कान है ।
गर्व से कहो , हिन्दी हमारी पहचान है ।
हिन्दी क्या है ? एक बच्चे से पूछ लेना
वो माँ कहेगा , बस इतना सुन लेना
यह हर बालक की पहली जुबान है
गर्व से कहो हिन्दी हमारी पहचान है ।
हर भाषा से ऊपर भावों को इसने समेटा है
चर्चा शुक्ल की हो या सुभद्रा की,
सब इसी के बेटा हैं
परदेश में कोई पता पूछे,
तुम हिन्दी में बातें कर लेना
वो समझ जाएगा तुम्हारे दिल में हिन्दुस्तान है
गर्व से कहो , हिन्दी हमारी पहचान है।
हिन्दी भारत माता का शृंगार है
यह एक दिवस नहीं, युगों का त्योहार है
हम हिंदुस्तानी हैं और हिन्दी हमारी भाषा है
हाँ, अंग्रेजी लिखते -पढ़ते जरूर हैं हम
पर हिन्दी हमारी व्यवहार में ।
यह हर बालक-बूढ़े की मुस्कान है
गर्व से कहो , हिन्दी हमारी पहचान है।
हिन्दी, हिन्दुस्तान का स्वाभिमान है
हिन्दी हमारी अखंडित एकता की पहचान है
अंतरराष्ट्रीय पटल पर यह झंडा फहराएं
जनमानस का यही अरमान है।
गर्व से कहो , हिन्दी हमारी पहचान है।
मिलन
लेखक- प्रणव निटुरकर
उनकी आँखों से जब मेरी आँखें जुड़ गईं
उनकी अदाएं, खूबसूरत पर्दा सी बन गईं
जिसके पीछे छिपी एक गुमनाम खामोशी
उन्हें वो दुनिया से अलग कर गई
एक ऐसा कुआं..
जिसकी गहराई नापी न जा सके
एक ऐसी रोशनी...
जो बंद आँखें भी देख सकें
एक ऐसा समंदर जो
शांत भी है और बेचैन भी
एक ऐसी दुनिया जो
है तो असली पर है नकली भी
ये मैं ही तो हूं या
मेरा एक वहम है?
पास होकर भी दूर बोलो
क्यों तुम और हम हैं?
विचारों की झांकी
लेखिका- विदुषी शर्मा
वर्तमान में चुनाव है,
विकल्पों पर भूतकाल का प्रभाव है।
यादें जोड़ूँ तो बनती एक राह है,
पर हर याद में एक सफर-एक मंज़िल का स्वाद है।
सोच में एक धुआँ-सा भविष्य,
जिसे ठोस बना गुण दे दूँ : मन में ये चाह है।
इस कमरे को कैलाश सा जानू,
एक ही अपनी तपस्या मानू -
‘सारे अपने सोच के पहलू देख पाऊँ’
सैंकड़ों नदियाँ बहती ज्ञान की,
इस धरती पर पूरे साल हैं।
पिये हम दोनों जल एक ही नदी का,
फिर भी वह ज्ञानी महान है।
सोचा मैंने फिर ऐसा -
जल में सिर्फ ज्ञान है,
आराम से पीना,संतोष भी लेना
ही बनाता उसे महान है।
कुछ साल पहले मिली ये तिकड़ी,
काल्पनिक-अकाल्पनिक इमारतें बनी-गिरी।
मौका देखकर ‘क्यों’ है आता,
मेरे विचार और कर्म ले जाता।
‘क्यों’का जब मैं भाषण सुन आऊँ,
‘क्या’की सहायता फिर पाऊँ।
आक्रमण के लिए लक्ष्य जब तैयार,
‘कैसे’की रणनीति का बस इंतज़ार।
फिर छाये घने बादल संशय के -
“इस तिकड़ी के साथ ने मुझको
क्या दिखलाई ‘सही’राह है ?”
हिन्दी
लेखिका- अनुराधा गर्ग
ऐसा नहीं कि हिंदी दिवस के कारण ही हिंदी पर बोलना चाहती हूं मैं,
अपितु आज हर हिन्दुस्तानी का दिल टटोलना चाहती हूं मैं।
हिंदी ना धर्म है, ना जात है, ना ही इसमें काले- गोरे का पक्षपात है ।
ना इसमें ऊंच नीच का भेद भाव है, बल्कि यह तो हमारी आत्माओं का बजता हुआ साज है।
जब पहली बार लड़खड़ाती ज़बान से, शब्दों का परिचय हुआ,
तो मातृभाषा से मां का भी आह्वान हुआ।
इसमें ममत्व है, भावुकता है, सम्मान है
यही भाषा तो सभी भारतीयों के अपनत्व का परिमाण है।
मेरी मातृभाषा का समृद्ध साहित्य भंडार हैं।
इसमें काव्य है, कविताएं हैं, सुविचार है।
इसमें सादगी, संस्कृति और संस्कार है,
तभी तो ये मेरे देश की एकता का आधार है।
यह एकता, अखंडता का स्वप्न भी करती साकार है।
फिर क्यूं करते हैं हम इसे दरकिनार हैं।
आज की परिस्थिति यां भी कर रही मातृभाषा पर प्रहार हैं।
तो आओ आज मिलकर यह संकल्प करें,
कुछ मातृभाषा का भी ध्यान धरें,
कुछ उसका भी प्रचार करें, कुछ उसका भी प्रसार करें,
हम सब हिंदी भाषी हैं यह कहने में अभिमान करें।
हम सब हिंदी भाषी हैं यह कहने में अभिमान करें।
नाम है शतरंज ,पर्याय है संभावना।
लेखक- हृतिक रौशन
है यह हम सभी की कहानी..
नाम है शतरंज,पर्याय है संभावना।
हाथी,घोड़े, ऊंट,बादशाह का है बोलबाला राज्य में
और हर तरफ है दबदबा और मान वजीर का।
प्यादा, इसपे पूछता है छोटा ही क्यूं मैं रहूं?
जहां सब हैं शक्तिशाली वहां एक ही क्यूं चलूं?
बखूबी समझता है शतरंज प्यादे की इस उलझन को,
कहता प्यादे से कि तू सर्वशक्तिमान है
तू है वो जो पढ़ सके दुश्मन की चाल
मार सके जो शत्रु पक्ष
और झेल सके जो पहला वार।
मत तोड़ खुद को जब भी किस्मत ने अकेला छोड़ा
तू भी वजीर बन जाएगा अगर धैर्य रखो थोड़ा।
तू एक भले चलता है,पर चलता है तू सीध में
एक अहम हिस्सा बनकर उभरेगा तू जीत में
उसकी बातें सुनकर प्यादा चलता है सीध में
विश्वास है इतना कि लड़ जाएगा भीड़ से
वो एक फिर से चलता है,चलता है वो सीध में
और सीमाओं को लांघकर,वो बदलता है वजीर में।
एक प्यादे की वजीर बनने की है संभावना
नाम है शतरंज ,पर्याय है संभावना।
है यह हम सभी की कहानी,
नाम है ज़िन्दगी,पर्याय है संभावना।
एक राह नई
लेखिका- साक्षी दुर्गे
कुछ अल्फाज जो बेबस हैं
ऐसे हालात जो अपनी कहानी से अनजान हैं।
गीता कुरान की कश्ती में ना ही सवार ;
कोई है, जो बनना चाहे पर्वर ।
नादान सी हथेलियां कहीं दामन छुड़ाने लगीं ,
किनारे ना कर पाए, बचपन संग बटोरी हुई एक पहेली ।
भेद है या है भ्रम
मौसम दर मौसम सांझा हुए कई कर्म ,
हसरत में हैं ख्वाहिशें कई ;
मंजिल की खोज में तन्हा हुई है आज एक राह नई ।
खालीपन के ख़याल
लेखिका- मीशा कत्याल
ये कविताएँ लिखना,
मेरी बेरोजगारी को शोभा नहीं देता।
बिना रोज़ी और कल के,
ये शब्दों की हुर्रियत बेकार है।
कहते हैं न कोई खुशी
न कोई गम मुस्तकिल होगा।
वो भूख की मिसाइल से मिले नहीं अब तक।
पर जनाब ज़र का डांस भी तो ऐसा है की गरीबी छिप जाती है।
जिजीविषा बदन की कमज़ोरी बनकर
बस रोज़ सुला देती है।
पर अभी,
इस वक्त,
ये कविताएँ लिखना,
मेरी बेरोजगारी को शोभा नहीं देता।
वो बैठी थी अकेली
लेखक- गितेश मसराम
वो बैठी थी अकेली दुनिया से परे
नज़रें मिलते ही दिल में समा गई
पल चल रहे थे हाथों मे हाथ लिए
उन पलों में हमें दुनिया नजर आ गई
जो पहचान पाया उसकी खूबसूरती को
वो धीरे धीरे उसी में समाता गया
क्या नूर झलक रहा था उसके चेहरे से
मैं उसी ओर अपने कदम बढ़ाता गया
क्या सुकून था उसकी बाहों में
जिंदगी भर इन्हीं में मैं सोना चाहता था
दुनिया थी तैयार मुझे गले से लगाने के लिए
फिर भी मेरा मन उसी के आंसू रोना चाहता था
वह चार पल का साथ उसका
मुझे हर पल जीने की ताकत देता था
अनजाने में भोली सी सूरत दिखाकर
मेरे दिल को मुझी से चुरा लेता था
आंखों से बहता एक एक आंसू
मुझे तुम्हारे और करीब ले जाता था
उन अश्कों से बना हुआ शीशा
मुझसे मेरी ही पहचान करा देता था
कौन थी वह मेरी मोहब्बत जो मुझे
खुदाई, माई, यारी परछाई दे जाती थी
जब रहती थी कायनात हमसे रूठी हुई
तब कायनात के करीब हमें तन्हाई ले जाती थी।
मैंने वक्त बदलते देखा है
लेखक- अनन्दिता अदक
मैंने कशिश को मोहब्बत ,फिर नफरत में बदलते देखा है,
किसी अजनबी को बेहद करीबी , फिर गैर में बदलते देखा है,
किसी के प्यार को उम्र भर का इंतजार बनते देखा है।
किसी को इश्क में तो किसी को बेवफाई में शायर बनते देखा है,
तो कभी किसी दिल-टूटे आशिक को उसी की माशूका की तबाही का कारण बनते देखा है।
दोस्तों को दुश्मनों में तो दुश्मनों को दोस्त में बदलते देखा है,
रास्ते के पत्थर को भगवान बनते देखा है,
मैंने अपने गांव को भी शहर में बदलते देखा है,
मैंने बारिश से बीजों को पौधों में बदलते देखा है,
यूं कभी छोटे किस्से को खूबसूरत कहानी में बदलते देखा है।
कली को फूल बनते फिर मुरझाते देखा है,
जिस्म को पल भर में राख में बदलते देखा है,
बचपन की दोस्ती को खुदगर्जी में बदलते देखा है,
रिश्तों को मानो नुकसान- फायदे के तराजू में तोलते देखा है,
अरे मैंने तो अपनों को ही रास्तों में कांटे बिछाते देखा है।
मैंने सूरज को चमकते पर रात में तारों के झिलमिलाने से,
उसी सूरज को भी कहीं छुप जाते देखा है,
राजा को भी रंक में बदलते देखा है,
मैंने महलों को भी खंडहर में बदलते देखा है,
मैंने सूरत वहीं पर सीरत को बदलते देखा है,
यह क्या कम था कि मैंने वक्त के साथ लोगों के खुदा को भी बदलते देखा है।
ऐ-खुदा यह तेरा कैसा दिखावटी संसार है,
घुटन सी होती है कभी डर भी लगता है
पर मैं हूं बंदा तेरा -जो आज भी जी रहा है दिल में वही इंसानियत लिए,
अपनेपन का परवाना बेशुमार दिल में मोहब्बत लिए बस जिसने वक्त को बहुत करीब से बदलते देखा है
पर ऐ-जमाने वालों एक गुजारिश है,
जरा एहतियात बरतो कहीं बदलने की यह गुस्ताखी ,हम भी ना कर बैठें।
राहत इंदौरी
लेखक- हितेन्द्र कुमार
ऐ वफ़ात, मैं देख रहा हूँ तू मेरे दरवाजें में कब से खड़ी हैं,
लगता हैं इंद्र को भी मेरी शायरी सुनने की सुध चढ़ी हैं |
ऐ वफ़ात, चलो मैं तुम्हारी भी एक ख्वाहिश पूरी कर दूँ ,
ताउम्र वैसे भी लोगों की फरमाइश में शायरियाँ पढ़ी हैं |
शायद जन्नत के लोगों के मन में हैं मुझे सुनने की बेक़रारी,
तभी मुझे ले जाने जो गाड़ी भेजी वो सितारों से जड़ी हैं|
दुनियावालों, चलता हूँ, तुम्हे मेरी नज्मों के साथ छोड़कर,
क्या करुँ,मेरी मौत के लिए मुकम्मल पहले से यही घड़ी हैं|
मेरी मौत पर हिन्दू भी रोता हैं और मुसलमान भी रोता हैं,
समझ गया की मज़हब-ए-इश्क़ सब मज़हबो से बड़ी हैं |
'राहत' की शायरियों से मिलते रहें तुम्हारे दिल को राहत,
मैं हँसते-हँसते जा रहा हूँ और तुम्हे मेरी मौत की पड़ी हैं |
आकाश
लेखक- विक्रम अय्यर
अंतराल की कोई मर्यादा नहीं
दूर दूर तक सीमा नहीं
अलंकार में जैसे हो हीरे
नभ में सजे हैं चमकीले
चंद्रकोर इस माले का लटकन
विशालता का केंद्र कलेजा - धड़कन
मार्ग उज्ज्वल स्पष्ट करती
जब होती केवल निराशा - रात्री
अचानक! उल्का चमक उठता है
जैसे सन्नाटे में हो गुफ्तगू।