Stories

'हरिया, चाय पियेगा?'

लेखक- मोहित सिंह

"हरिया, चाय पियेगा?" सोफे पर बैठे बैठे राजेश ने गाँव से आये मजदूर से पूँछा। राजेश सरकारी वन विभाग में क्लर्क है। भगवान की कृपा दूसरे रास्ते से इतनी बरसती है कि कोई कमी नहीं है। गाँव में कुछ जमीन है जिसे गाँव के ही कुछ भूमिहीन लोग खेती के लिए इस्तेमाल करते हैं। उससे भी कुछ आमदनी हो जाती है। हरिया वही "आमदनी" देने आया था।

"हाँ मालिक, पी लेंगे" हरिया ने भी जवाब दिया, वह कमरे के दरवाजे के पास उकडू मारे बैठा था।

"वो तिखाल में गिलास रखा है, उसे पानी से ऐसे ही धो ले" राजेश ने इशारे से दरवाज़े के ही पास बने तिखाल में रखे स्टील के गिलास की तरफ ऊँगली दिखाते हुए कहा। 

"दिव्या, जा बेटा, अंकल जी के लिए नल चला दे" राजेश ने अपनी बेटी को आदेश के स्वर में कहा।

वैसे तो राजेश अपनी बेटी से बहुत प्यार करता है मगर ये आदेश अति अनिवार्य था। उसके नल की पवित्रता का सवाल था। कैसी विडम्बना होगी, नल सारी दुनिया को धोता है और कहीं ऐसा ना हो जाये कि नल ही धोना पड़ जाये।

दूसरे सोफे पे राजेश का लड़का बैठा हुआ था। छुट्टियों में आया हुआ था। लड़का इंजीनियरिंग के दूसरे साल में था। बिजली चले जाने की वजह से टीवी बंद हो गया तो उसे बिना मन से उसी कमरे में रहना पड़ा।

वहां बैठे बैठे सोचने लगा, भाषा का भी अलग खेल है, पापा जानकर कभी " हरिया जी" ना कहते। मगर अंकल के साथ उन्हें "जी" कहना पड़ा। 

भाषा के फेर में उसे शब्दों में वो सम्मान मिला जिसे ना लेने वाला जानता था ना देने वाला। 

मैं और मेरी परछाई

लेखक- हृतिक रौशन

मुझे शिकायत है मेरी परछाई से,वो मेरी ठीक -ठीक आकृति नहीं बनाती। कभी मेरे कद से छोटी , कभी मेरे कद से बड़ी तो कभी दोनों पैरों के इर्द गिर्द एक गोल घेरा बना लिया करती है। मैं उससे छुपने को कभी पेड़ों की ओट का तो कभी दीवारों का सहारा लिया करता हूं, नजर घुमा कर देखता हूं तो वो मेरे सहारे को मुझ से जोड़ एक नई आकृति गढ़ रही होती है। मैं उससे भागता हूं,बेतहाशा,उससे कोसो दूर निकल जाना चाहता हूं पर हमेशा उसकी जिद्द मेरे पैरों में लिपटी हुई मिलती है। 

       मैंने उससे कई बार कहा कि ठीक -ठीक हिसाब क्यूं नहीं लगा लेती?, मैं जैसा हूं मुझे ठीक वैसा ही पेश क्यूं नहीं करती? उसने कुछ नहीं कहा,कभी नहीं कहा,चुपचाप मेरी आकृति बनाती रही ।

एक दिन मैं घर से नहीं निकला,आज मैं खुश था कि उससे मुलाकात नहीं होगी तभी खिड़की से झांकती रोशनी का एक टुकड़ा मेरे शरीर से आ लगा, पलट कर देखा तो दीवार पर मेरी आकृति थी। मैं उसके करीब गया,और करीब,और करीब,जितना करीब गया वो मुझसे दूर होते गई। मेरे अंदर एक अजीब सी टिस उठी उसके खो जाने की,मुझे समझ नहीं आ रहा था कि जिससे इतने दिनों तक भागता रहा उसके खो जाने पर इतना दुखी क्यों हूं? मैं भावों का गुणा -भाग नहीं करना चाहता था,मुझे समझ आ गया था कि उसका ज़िद्दीपन मुझे अच्छा लगने लगा है और उससे भागना मेरा खुद से भागना है। मैं फूट फूटकर रोने लगा एक बच्चे की तरह.. मैं बिल्कुल खाली हो जाना चाहता था उस रोज...

अबोली

लेखक- यशवंत कुमार

मोहल्ले में मैंने उसे पहले कभी देखा नहीं था | ऐसे तो पान और अखबार की खातिर, गिरधारी की दुकान में लोगों का मजमा लगा ही रहता था, पर इस आदमी की अजीब हरकतें बरबस ही ध्यान खींच ले रही थी| मैले- कुैले कपड़े, बिखरे और गंदे यान, बड़ी-बड़ी दादी और उसका झगड़ा कर लेते हुए रोज़ पान की दुकान के पास आना और करौब वाले बिजली के खम्भ के सहारे घंटों खड़े होकर सिगरेट पीना - पता नहीं क्यों मुझे खटक रहा था। इस आदमी की नियत सही नहीं है. इस बात को मेरी निगाहो ने कुछ दिनों में ही ताइ लिया | आदमी शक्ल से ही एक नंबर का लड़की-बाज़ लगता था। इस तरह के ही लोग अपनी हवस का शिकार मासूम लड़कियों को बनाते ठीक उसी तरह जैसे कुछ अनजान दरिंदों ने तीन महीने पहले अबोली को बनाया था। इस साल की सबसे सनसनीखेज खयर थी अबोली की, क्योंकि अब तक अपराधियों की शिनाख्त नहीं हो पायी थी. और उस पर से कभी लोगो का मोमबत्ती मार्ग तो कभी मीडिया वालों की सियासत-परस्त पेशगी। कोई बड़ी हस्ती का हाय लगता था इस बलात्कार और हत्या के पीछे तभी तो कोई पकड़ में नहीं आया अब तक।


अपने ही शहर में घटी इस घटना ने मन को क्षु्ध कर दिया था, आखिर में भी तो लड़की का बाप हूँ। शायद यही कारण है की इस लगड़े को मोहल्ले में देख कर बड़ा गुस्सा आ रहा था | एक बात तो मैं दावे के साथ कह सकता या की ये लगा हमारे मौसी दरोगा अवनीश सिंह की बहन अनुराधा पर आ जाए बैठा था, जिसे कॉलेज छोडने अवनीश रोज इस रास्ते से गुजरता या। हालांकि ताज्जुब मुझे इस बात का या कि ये आदमी अनुराधा पर गलत निगाह डाल कर के छते में हाथ डाल रहा था | अवनीश ने जिन्दा नहीं जाएगा |


फिर कुछ दिनों बाद वही हुआ जिसका मुझे अंदेशा था। उस लंग ने अतनीश के सामने अनुराधा पर फब्तियां कस दी- 'साहन्द। तेरी बहन बड़ी कड़क है साहब । कुछ-कुछ हो रिया है अपुन को। बेशर्मियत अपनी सारी हदों को लांध कर उसके चेहरे से लक रही थी। अवनीश की आँखें गुस्से से लाल हो उठी । उसने अपनी बुलेट रोक दी और उस लंगड़े को बीच सड़क पर घसीटते हुए लाकर लात और घूंसे बरसाने लगा | भीड़ जमा हो गयी सबकी आँखों में आक्रोश के अंगारे फूट रहे थें मानो लोगों को अबोली का कातिल मिल गया हो "मारो। और मारो ! जिंदा मत छोड़ो इस हैवान को। तरह-तरह के शोर वातावरण गुंजायमान हो उठे।


बंगाल लहूलुहान हो चुका था | उसने लंगड़ाते हुए भागने की कोशिश की, पर कोशिश नाकाम रही। जमीन पर गिर घायल लगड़े पर अवनीश ने बेल्ट के बार की बौछार कर दी| बाल ! और बोल ! बाल के दिखा साले मेरी बहन के बारे में पर लंग तो जैस बेशर्मी का पुतला बना हुआ था | अधमरा होने के बावजूद उसकी उंगलिया अद्दै इशारे कर के अवनीश को भिका रही थी| अवनीश के जूते के प्रहार अब उसके चेहरे की एक- एक रैखा को छिन्न-भिन्न कर रहे थे। लंगड़े के मुंह से खून की धार फूट पड़ी और वो अचेत हो गया | उसकी कारगुजारियों की ये मजा काफी थी अनुराधा और भीड़ के चेहरों पर एक विजयी मुस्कान व्याप्त थी | ऐसा रक्षक भाई भगवान सबको दे । अवनीश ने भी अपने कपड़े दुरूस्त किये और वापस जाने लगा | समाज के एक नासूर को उसने धूल चटाई थी | भड़ भी अब छंटने लगी। आक्रोशित जनता के चेहरे पर संतोच था| साहन। होली का भाई साहब पहचाना मुझे ?


जमीन पर पड़े लंगड़े की दर्द भरी पुकार हवा में गूज उठी लोग जहाँ पर ये, वही पर ठिठक कर रुक गप, जइवत हो गए। सुन कर ही खून में उबाल आ गया न साहब।' लंगडे की दर्द से भरी हँसी दूर-दूर तक हवाओं घुलने लगी | लोग अवाक थे। समझना मुश्किल था कि लंगडा हँस रहा था या जार-जार रो रहा था। तूने तो सिर्फ सुना साहब। मैंने तो अपनी आँखों के सामने उसे लुटते हुए देखा। दर्द हुआ ना साहब! अरे साहब यह दर्द तो कब से दिल में दबाये बैठ हैं, जिसे आपने कानून की फाइलों में दबा दिया। আ हूँ


भीड को जैसे काटो , तो खून नहीं । यहाँ तो रक्षक ही असली भक्षक निकला अवनीश, अनुराधा से नज़रे चुरा रहा था । सत्य के बीज को सदा गया , भ्रष्टाचार के दलदल में पाया गया, पर ये मत्य के पौधे की जिजीविधा यी कि उसका बीज प्रस्फुटित हुआ। लंगवा अचेत हो चुका था पर उसके बोले एक- एक शब्द कर्णपटल पर मानौ विस्फोट कर रहें थें। अबोली पहले भी अबोली थी साहब। और कानून की फाइलों में भी अबोली बन कर रह गयीं।' 

फुटपाथ

लेखक- आकाश दीप सिंह

दिल्ली सुबह २ बजे , रेलवे स्टेशन के बा हर, एक चौक पर सर्द मौसम में , स्ट्रीट लाईट की आती रोशनी सेधुंध देखते  हुए , दो आदमी गाड़ियों का शो र सुनते-सुनते , फुटपाथ पर कहीं गुम से थे। उनके हाथ कड़क हुए जापते थे जैसे मजदूरी करते वक़्त बने हो। पर उनके नि चे लि या अख़बार उनके बारे में कुछ और ही बता रहा था । वो अपनी चप्पलों का सिरहाना बनाए , धूल से लिपती हुई लोई आपने ज़्यादातर शरीर पर लिपतकर सो ने का प्रयास कर रहे थे । जितना मुझे सुनाई दिया किउनमें से एक दुसरे की हालत देखते हुए बोलता है कि , " घर चल अब आजा! ठंड में मरना ना है।" दोसरा जवाब देता है कि ,"घर में पंखा ना हैं, ना दवाई के पैसे ! काहे का घर ! यह जगाहअच्छी ना है ?"पैसे नाहीं मिलत है घर मा सोने के।" इस जवाब से हम तिनों चुप से हो गए औरमुझे शायद उसकी बा त अच्छे से सुना ई नहीं दी क्यों कि इतनी सर्दी में पंखे की क्या जरूरत और फुटपाथ में सोने के पैसे कौन देता है ? मैं इन सवालों का होने ही वाला था कि हमारे बस कंडक्टर ने बस में आते हुऐ बोला कि ,"कोई सवारी बाहर तो नहीं है , बस का पानी बदल दिया है , २ मिनट में आगरा को निकलेंगें। " २ मिनट में उन दो आदमियों को ताकता रहा और कुछ पल वो मेरी तरफ़ भी देखें और मुझे भी इस देश के रेप कैस के सामान मानकर नज़र अंदाज़ कर दिया । फिर बस भी चल पड़ी और मैंने भी उन्हें कि सी अख़बार की ख़बर के तरह पराया कर दिया । मुझे नींद आई और जब तकरीबन ७ बजे आंख खुली तो मैंने अपनी सीट की खिड़की से देखा की कुछ ४-५ सरकारी डाक्टरों का दल फुटपाथ पर अपना एक दवा-खाना खोले बैठा था और सड़क हादसों में ज़ख़्मी लावारिश - गरीबों को दवा और कुछ रुपए बांट रहा थे। मैं बस से उतरा और मैंने कुछ कुतुबमीनार जितनी लंबी लाचार की कतार दबा खाने पास खड़ी देखी । मैं चाय पीने गिया और उस दिन का अख़बार लिया जिससे पड़ कर मैंने अपनी चाय ठंडी कर ली थी, लिखा था की , "सरकार बेरोज़गार मरे लोगों के परिवार को मुआवजा देने का फ़ैसला कर चुकी हैं और शिगर बिल लागू करेगी।" मानों मुझे उस आदमी की कहीं बातें , 'घर में पंखा और दबा न होना ' दोनों समझ आ चुकी हो । अतः मैं भी उसे एक दो पक की ख़बर सोचकर बस में चढ़ गया की इस सफर में जाने कि तने लोग सरकार का भरोसा कर फुटपाथ पर खड़े आगे और मिलेगे ।

समीर- एक कृतज्ञ जीवन कथा

लेखक- दीपक कुमार चौबे

सांप सीढ़ी का खेल हर कोई अपने बचपन या बड़े होने पे ज़रूर खेला होता है ।  समीर (काल्पनिक नाम) का जीवन भी कुछ इसी से मिलता जुलता था। इस खेल की तरह ही उसका जीवन कभी ऊपर तो कभी नीचे, कभी आगे तो कभी पीछे होता रहता था।  उसके जीवन के हर भाग का विस्तृत वर्णन तो मुश्किल है लेकिन उसके जीवन का प्रमुख भाग ज़रूर बताया जा सकता है। समीर चेन्नई में एक निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार में पैदा हुआ लेकिन उसकी परवरिश उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े छोटे से गाँव गोरखा में हुई क्युकी पिताजी भी किसी कारणवश छोटी सी नौकरी थी, छोड़कर गाँव खेती करने आ गए। उस गाँव को लोग "रर्रा का पूरा" कहते थे। ठेठ भोजपुरी में रर्रा का मतलब "गंवार" या "अशिष्ट" होता है।  समीर उन सब माहौल से बिलकुल अलग था, गोरा-चिट्टा, बेहद सुन्दर, और आकर्षक था। बचपन से ही उसे भारत के सफल और नायक जैसे लोगों के व्यक्तित्व को जानने और पढ़ने का शौक था, पढाई में मेधावी, सर्वोच्च स्थान पाने वाला छात्र था।  बस एक कमी थी की वो एक छोटे किसान का बेटा था जहाँ आमदनी न के बराबर थी। कुल मिलकर पूरा माहौल उसके विकास के प्रतिकूल था।  गाँवों में प्रथा होती है की किसी वरिष्ठ उत्तीर्ण छात्र की किताब कनिष्ठ को दी जाती है या विद्यालय से भी मेधावी को किताबें दी जाती हैं और फीस भी सरकारी विद्यालयों के माफ़ थे या बहुत कम थे। उसके घर पर सिर्फ शुरुआत में उसके माँ को उसके प्रतिभा पर भरोसा था लेकिन जैसे जैसे वो बड़ा होता गया, वैसे वैसे उसके मेधाविता के चर्चे आस पास के क्षेत्रों में होने लगे और उसके पिता को भी अपने बच्चे के वजह से खूब सम्मान मिलने लगा। उसे विश्वास होने लगा की ये अन्य से थोड़ा हटके है। हर परीक्षा में अव्वल और विद्यालय का दुलारा प्यारा छात्र बन चुका था। बारहवीं कक्षा तो इस गरीबी में किसी तरह उत्तीर्ण हो गया, अब उसे उच्च शिक्षा के लिए आर्थिक और नैतिक सहायता की आवश्यकता थी क्युकी उसे अब शहर जाना था और उसका भारत के एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय में दाखिला हो गया था। नैतिक सहायता तो परिवार से थी लेकिन आर्थिक असुरक्षा अब भी थी। माँ के कुछ जेवर बेचकर किसी तरह उसने उच्च शिक्षा में प्रवेश लिया। माहौल बिलकुल अलग, खुला, गाँव से बिलकुल अलग था।  गाँव के विद्यालय में लड़कियों की तरफ ऊँगली से इशारे करने पर सजा मिलती थी और यहां बाँहों में बाहें डालके घूमना आम बात। पढाई में तो एक से एक धुरंधर देश के कोने से आये थे। खैर पढाई की शुरुआत आर्थिक तंगी से हुई, धीरे धीरे दोस्त बने, लोगों से पहचान बनाई और उसे कुछ जगह पर निजी आंशिक समय के लिए शिक्षण कार्य मिल गया। संघर्ष, प्रेम और जीवन में मोड़ यहीं से शुरू होते है।सुबह दो वक़्त का (सुबह और दोपहर) खाना बनाके, सुबह खाके जाना, विश्वविद्यालय के भाषण (लेक्चर्स) सुनना, उसे दोहराना (नोट्स बनाना), शाम को शिक्षण और फिर रात में खाना बनाना और हर रोज़ यही करना।पढाई में मेहनती, शिक्षण में उसके छात्र और छात्रों के अभिभावक उससे प्रसन्न रहते थे, उनमे से एक छात्र (रमेश) मध्यम वर्गीय परिवार से था जिसके पिता एक चपरासी और माता गृहणी थी और एक बड़ी बहन (आरती) जो की बारहवीं उत्तीर्ण करके एक रिसेप्शनिस्ट के रूप में अल्प आय की नौकरी करती थी। आरती के आगे बढ़ने के सपने असहायता के मारे घुटने टेक चुके थे, बस एक लक्श्य था की भाई को पढ़ाना और पिता को सहारा देना। इसी बीच समीर का भी उनके घर पढ़ाने आना जाना लगा रहता था। घर की माली हालत देखकर समीर रमेश को निःशुल्क पढ़ाता था और दूसरी तरफ उसका खिचाव उसकी बहन आरती की तरफ होने लगा, आरती की सादगी और परिवार के प्रति समर्पण समीर को आकर्षित किया। समीर की सरलता, सुंदरता और उसका संघर्ष ने भी आरती को आकर्षित किया। जल्द दोनों एक दूसरे से प्रेम करने लगे और समीर के प्रेम प्रस्ताव को आरती ने स्वीकार कर लिया। दोनों एक दूसरे को समय देते और एक दूसरे को समझने लगे। समीर अब कुछ समय बाद अपने संघर्ष और दैनिक जीवन से ऊबता जा रहा था और अपने आई ऐ एस बनने के लक्श्य से दूर होता जा रहा था, वजह थी उसको पढाई के लिए समय कम मिलना और अधिक पैसों का बचत न होना। समीर ने स्नातक उत्तीर्ण क्र ली और अब तयारी की बारी थी। आरती ने उसकी परेशानी समझी और उसे सब छोड़कर अपने लक्श्य आई ऐ एस की तयारी की सलाह दी। आरती इसके लिए एक के बजाय दो जगह ज़्यादा समय क़ाम करने लगी और पैसों से न सिर्फ अपने परिवार बल्कि समीर के भी खर्चे देने लगी। कसम से अपने काम और रिश्तों के प्रति बहुत ईमानदार और मेहनती थी। समीर के मेहनत और आरती के साथ से समीर ने आई ऐ एस उत्तीर्ण कर ली और एक साल की ट्रेनिंग के लिए देहरादून चला गया और इस बीच उसने आरती और अन्य से कोई संपर्क नहीं रखा और एक साल बाद जब घर आया तो उसका घर और गाँव में धूम धाम से स्वागत किया गया।  हर जगह सम्मान का माहौल था। उसके रिश्ते के लिए उच्च वर्गीय सम्पन्न घराने से रिश्ते आने लगे।  न ही समीर ने आरती के बारे में घर वालों को कुछ बताया था और न ही आने के बाद आरती की कोई खबर ली थी। कुछ दिनों बाद जब समीर आरती के पते पर गया तो पता चला की वो और उसका परिवार गाँव चला गया। समीर ने आरती के गाँव का पता लगाकर जब घर पंहुचा तो सन्न रह गया, आरती बैसाखी के सहारे चल रही थी और उसका एक पैर कट चुका था। समीर ने इसका कारण जाना तो ज़ोर ज़ोर से रोने लगा। आरती ने समीर को बताया की उसके तयारी की खातिर आरती ने एक बड़ी रकम उधार ली थी जिसके क़िस्त चुकाने के लिए उसे दूर लोकल ट्रैन से सफर करके क़ाम पर जाना पड़ता था, उसी भागा दौड़ी में एक दिन उसका ट्रैन से संतुलन बिगड़ गया, गिर गई और हादसे में उसका पैर कट गया और आमदनी बंद होने की वजह से पूरा परिवार गाँव आ गया और बहुत गरीबी में जीवन यापन किया। समीर को ये सब सुनने के बाद पछतावा हुआ और उसने तुरंत आरती को विवाह का प्रस्ताव रखा, जिसे थोड़ी हिचकिचाहट के बाद आरती मान गई। समीर के परिवार को सब बताने के बाद परिवार ने दोनों की शादी करा दी और दोनों बहुत खुश हैं। इसके बाद समीर ने आरती को न सिर्फ स्नातक परास्नातक कराया बल्कि आरती को प्रतियोगी परीक्षा की तयारी में भी साथ दिया और आज समीर आई ऐ एस तो आरती ब्लॉक एजुकेशन अफसर है। 

ये धंधा निराला है

लेखक- मोहित सिंह

घर आते समय जब रास्ते में, लखन की साइकल का पेडल ही टूट गया तब उसे साइकल को अपनी जिंदगी की तरह

धक्का देकर आगे बढाना पड़ा। सोच रहा था कि अब ये ही एक घोड़ी थी अस्तबल में, सो भी धोका दे गयी। पैसा तो

जोड़ने का समय है और ये फ़िजूल खर्ची भी आ गयी। अगर लाली की शादी भोलेनाथ की करपा से तय हो गयी तो

साइकल की तो बहुत ज़रूरत पड़ेगी। और आँगन में कैसी लगेगी ये टूटी हुई साइकल अगर कोई लाली को देखने वाला

आया तो। मगर साइकल के पेडल का ये बीसवां ऑपरेशन है, इस बार डाक्टर नयी टांग लगा कर ही मानेगा। कम से

कम दो-सौ रुपये लेगा। ये सब सोच ही रहा था की रास्ते मे पीपल का पेड़ आ गया। किसी ने वहाँ एक चिकना पत्थर

रख दीया था करीब आठ महीने पहले। किसी ने उसपे दो पत्ते चारा के दिए और आज उसके करीब दो दुकाने खुल गयी

है चाट-पकोड़ेकी। साथ मे एक भविष्य बताने वाले पंडित जी की भी दुकान चल पड़ी है। लखन ने मन ही मन

सोचा, बिटिया को पढा के क्या मुसीबत पाल ली, ना तो कोई पढा लिखा लड़का खरीदने की औकात है और बिना पढे

को लाली नही मानती। उमर भी निकले ही जा रही है। क्या किताबों से ही व्याह करेगी। पेडल का खर्चा बड़ा है, चलो

पंडित जी ही पूँछते है, कब का व्याह लिखा है लाली के जीवन में। शायद तब तक पेडल का इिंतेजाम भी भोलेनाथ

करवा दे।

सौदा बुरा नहीं था।

"जय भोले की पंडित जी" लखन ने पुकारा।

"आओ जजमान" पंडित जी ने भी स्वागत किया।

"अरे पंडित जी, इतनी खातिर मत करो इस गरीब की, लक्ष्मी तो हमसे पीढ़ियों से नाराज़ है"

"अरे लखन, हम सब जानते है, हमारा वश होता तो तुमसे एक फूटी कौड़ी भी ना लेते, मगर शास्त्रों मे लिखा है की

बिना दक्षिणा के कोई पूजा संपन्न ही नहीं होती"

"शास्त्रों में अगर ये न भी लिखा हो, फिर भी मैं अपनी जेब खाली कर दूिं, मगर लक्ष्मी से कहो जेब मे आए तो सही।

अभी के चलिए ये पांच रुपये ही पड़े हैं, इतने मे बस एक ही सवाल का जवाब दे दो पंडित जी"

"अरे लखन, पाँच रुपये मे तो चपतर आँख भी नही खोलते, और थोड़ा बड़ी राशि रखोगे तो कम से कम लक्ष्मी को

कदखेगा तो सही की यहाँ कोई जेब भी है"

"पंडित जी अब हमारी और लक्ष्मी की क्या जिरह है, वो तो बाद मे देखेंगे बस ये बता दो की बेटी की शादी कब तक हो

जाएगी?" लखन ने पांच रुपये जेब से निकालते हुए कहा।

"दान पेटी मे डाल दो जो भी है, हमे पैसों का कोई लालच नही। गणित कह रहा है की बेटी की शादी अगले छह महीने

में हो ही जानी चाहिए वरना फिर इस जनम मे कोई मुहूर्त बन ही नहीं रहा"

लखन के तो मानो पैरो के नीचे से ज़मीन ही खिसक गयी, "छह महीने? कहाँ से आएगा इतना पैसा?"

पंडित बोले, "अगर तीन हज़ार खर्च करने की हिम्मत हो तो मुहूर्त को बदला जा सकता है, तू भला आदमी है, तुम्हारे

लिए अट्ठाइस-सौ में करवा देंगे"

लखन ने पहले पांच रुपये के बारे में सोचा, फिर पेडल के बारे मे सोचा, फिर बेटी के बारे मे सोचा और बोला, "अगले

छह महीने कोशिश कर ही लेते हैं पंडित जी, रही भोले की करपा तो सब ठीक ही होगा"

 

"देख लो लखन, उमर भर बेटी को घर बिठा कर खिलाने की कीमत अट्ठाईस-सौ से तो ज्यादा ही पड़ जायेगी"

"चलो पंडित जी, जय भोले की" और लखन निकल गया अपनी साइकल को लुढकते हुए आगे.

 

"अट्ठाईस-सौ ही तो बेटी ने भी माँगे थे मास्टरी की राशि के लिए, क्या चमत्कार है भोले का, अगर किस्मत बदलनी है तो वहाँ ना बदलूँ? मास्टर हो जाएगी तो कोई मास्टर ही ढूंढ लेगी, पीढ़ियां सुधर जाएँगी। अट्ठाईस-सौ में अगर भाग्य ही बदलना होता, तो पंडित ही क्यों इस पीपल के नीचे बैठे होता" और फिर लखन अपनी बेटी को लाल जोड़े में कल्पना करते हुए मुस्कुरा कर आगे निकल गया.


कथाकार की कथा

लेखक- प्रज्ञादीप्त घोष

एक छोटा-सा कमरा जहाँ एक तरफ खाट और दूसरी तरफ मेज और कुर्सी पड़ी हैं। एक अलमारी भी है पर उसका वजूद साफ नहीं हैं। उससे कपड़े ऐसे निकले हुए हैं मानो झाँक रहे हों कि भई इस कमरे में होता क्या है? फर्श पर पड़े कई कागज मुड़े जैसे किसी ने गुस्से में उन्हें फाड़ के फेंका हुआ हो। सफाई एक ऐसी सुविधा है जो ये कमरा वर्षों से ढूँढ रहा है। जमीन में चिप्स के अनेक पैकेट और किसी में तो चीटियों को खजाना भी मिल जाता है। और इसी कमरे में एक हीरा । वो चमकता हुआ हीरा  जिसकी चमक पुरी दुनिया ने देखी है पर चमक के पीछे का शख्स किसी ने देखा नहीं। भारतवर्ष का विख्यात लेखक "अपरिचित " और नाम किसी को नहीं पता पुरे देश में अनेक फेन हैं उनके । देश के सबसे विख्यात रूमानी लेखक हैं, अपरिचित । 

सुबह की किरण जैसे - तैसे कमरे में घुस गए। नमी भरी मौसमी हवा कमरे के पर्दों को बच्ची की तरह झूला रही भी । और मेज पर बैठा एक युवा। एक बनयान और एक हॉफ पेंट । आँखो में चश्मा जो उनके नीचे के काले धब्बे छुपाने की निष्फल कोशिश कर रहे हैं । रोज सुबह सुबह डाकिया आता हैं और इसे सुना कर जाता हैं। " रोज का तेरा ये झक-झक , पूरी दुनिया डिजिटल हौ गई। ईमेल के जमाने में अभी भी तेरा चिट्टी आता जाता है " । और हर रोज की तरह आज भी अपरिचित ने एक प्यारी सी मुस्कान से उन्हें भुला दिया। वह जाकर मेज पर बैठा और पहली चिट्ठी उठाया और मानो उसकी साँसे रुक सी गई। उसमें लिखा था “प्रिय अपरिचित , आखिर कितने दिनों तक अपने नाम से भागोगे आर्यन ।

 

तुम्हारी रेबती।”

 

वह आधा ही पढ़ पाया था और सुन्न सा रह गया। वर्तमान का पर्दा जी बिती हुई बात छुपा रही थी एकाएक हट गया। कल ही की तो बात हैं। वो घुंघराले बाल , आंखों पे चश्मा , चेहरे पर हसीन मुस्कान और हाथों में ढ़ेर सारे किताब लेकर (हुँह) एक लड़की कोलेज के लाईब्रेरी में आर्यन को आकर बोली “क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूं?” यू तो आर्यन लाब्रेरी का कीड़ा था पर फिर भी अब उसे आने का एक और बहाना मिल गया। देखते ही देखते उसे रेबती से प्यार भी हो गया । अपनी जीवन में अपने किताबों से ओर उसे एक दुनिया भूल गई थी । एक दिन बात न कर पाने पर वह चिड़चिड़ा उठता था । उन्हीं दिनों की बात है आर्यन की पर्सनल डायरी को रेबती ने उठा लिया और पढ़ने लग गई। उसने आर्यन की तरफ मुड कर बोला, ओ माई गॉड , आर्यन तुम इतना अच्छा लिख लेते हो, तुम कर क्या रहे हो किताबें लिखो , यू विल बी फेमस" । आर्यन शर्मा के बस मुसका दिया । रेबती ने पुछा , " उन कहानियों में अनामिका कौन हैं वैसे ? आर्यन का चेहरा शर्म सी लाल लाल टमाटर सी हो गई थी। रेबती ने पूछा मजाकिया ढंग से “बोलो बोलो तो आर्यन ने कहा समय आने पर अनामिका से मिलवा दूंगा।" आर्यन की मन में चिंता सी भी थी कि आखिर कितने दिन तक छुपा पाऊँगा ये सच ।कभी न कभी तो सच बताना ही होगा आखिरकार । पर हमेशा वह कल कह कर टालता गया।

 

ऐसा करते करते कॉलेज के आखरी दिन भी आ गए । रेबती जिसे अभी तक शक हो चुका था उसने आर्यन से  सीधा पूछा “यह अनामिका कौन है ? क्या मैं ही हूं अनामिका?” आर्यन ने कई बार सोच कर खा था " की वी कह देगा पर फिर वो हार गया । उसे खो देने का डर उससे कहने से रोक दिया । पर रेवती नहीं मानने वाली थी । उसने गुस्से में आकर कह दिया,” मैें एक झुठे मक्कार इंसान से दोस्ती नहीं कर सकती ।” कह कर वो निकल गई । शायद वी आर्यन का पीछे से आकर मना लेने की इंतजार भी कर रही थी। पर आर्यन उसे खो देने के डर से ही टूट गया दुख न देने की कवायद से ही उसे दूर हो गया। चार बरस बीत चुके है इस बात की और अब आर्यन अपरिचित " के नाम से रेबती का सपना पूरा कर रहा है। और अब की बार उसने अपने प्यार को स्वीकार लिया और "कथाकार की कथा” नाम से किताब लिख ही डाली। आखिरी पन्ने पर लिखा था “रेबती मैं झूठा नहीं हूँ, पर में तुमसे बहुत प्यार करता हुं।” इन्हीं ख्याली दुनिया से निकलकर आर्यन ने चिट्ठी उठाई और रेबती से कहा , यही वो चिट्ठी जिसने मुझे इजहार करने पर मजबूर किया" यह कहकर आर्यन ने चिट्ठी अपने कमीज़ की जेब में रख ली और रेबती को गले से लगा लिया ।

छक्का

लेखक- हितेन्द्र कुमार

संभवतः आपको धोनी का वह वर्ल्डकप वाला छक्का याद होगा | युवराज के वो छह छक्के अब भी आपके जेहन में ताजे होंगे । पर मैं उन छक्कों में से नहीं हूँ। मैं वह छक्का हूँ जिससे आपकी मुलाक़ात ट्रेनों में होती हैं। कुछ लोग तो उस विचित्र प्रकार की ताली को मेरी पहचान बताते हैं। जी हाँ मैं वही छक्का हूँ, जिसे आप कभी हिजड़ा, खुसरा, कोज्जा,यूनक्स, किन्नर और कई अजीबो-गरीब नाम से सम्बोधित करते हैं।


मैं एक दिन ईश्वर के भवन में कुछ काम करने गयी थी तभी मेरे कानों में बहस होने की आवाज़ सुनायी दी। मैं चुपके से सभा में हो रही बातों को सुनने लगी । स्त्री जाति और पुरुष जाति में बहस छिड़ी हुई थी कि कौन श्रेष्ठ हैं। बात बढ़ती ही जा रही थी तभी ईश्वर ने मुझे आवाज़ लगायी। मैं ईश्वर के चरण स्पर्श करके स्त्री और पुरुष के मध्य वाली कुर्सी में बैठ गयी।


"आप इन्हे जानते हैं?" ईश्वर ने मेरी ओर इशारा करते हुये स्त्री और पुरुष से पूछा।


"इन्हे कौन नहीं जानता ! यह पुरुष जाति के नाम में एक कलंक हैं। पुरुष ने जवाब दिया | 'ये तो वही हैं, जो पुरुष तो हैं, परन्तु स्त्रियों जैसा बर्ताव करती हैं।" स्त्री ने कहा।


"हाँ यह वही हैं, जिसका उपहास करने में आपकों थोड़ी भी झिझक नहीं होती। स्त्री और पुरुष में लड़ाई इसी वजह से होती हैं क्योंकि वे एक दूसरे के भावनाओं को नहीं समझते । यह स्त्री और पुरुष के मध्य की स्तिथि से सम्बन्ध रखती हैं। यह पुरुषों के समान कठोर भी हैं वही स्त्रियों के समान सहनशील और कोमल भी है। स्त्री! तुम इनकी स्त्रीत्व प्रकृति का उपहास कर स्वयं की कोमलता का उपहास करती हो मैंने पुरुष और स्त्री को प्रजनन के लिये ही अलग अंग प्रदान किये है. इसके अलावा स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। हर इंसान के अंदर स्त्रीत्व और पुरुषत्व का गुण होता है। पुरुष लोक लज्जा के भय से अपने अंदर के स्त्रीत्व को दबाने का प्रयास करता है। स्त्री चाहकर भी पुरुषत्व के गुण को प्रकट नहीं करती, क्योंकि उसे समाज में सुशील स्त्री की छवि बरकरार रखनी होती है। स्त्री और पुरुष सदियों से अपने आपकों श्रेष्ठ बताने के लिये लड़ते आये है, परन्तु वास्तव में श्रेष्ठ तो यह है। भगवान भोलेनाथ ने अर्धनारीश्वर का रूप इसलिये धारण किया ताकि इंसान समझ सके कि जिसमें स्त्री और पुरुष, दोनों के गुण हैं, वही पूर्ण हैं।" ईश्वर ने कहा।


ईश्वर के यह कहने पर स्त्री और पुरुष अपना सिर झुकाये बैठे हुये थे मैं मौन बैठे हुये यही सोचती रही कि अंततः मुझे न्याय मिल गया। 

डायरी २०१९

लेखक- जितेश सेठ

नमस्ते मित्रों मेरा नाम डायरी है। मैं किसी भी सामान्य कॉपी कि तरह हूँ, पर मेरी खासियत यह है कि मैं लोगों के दिलों के ज्यादा करीब रहती हैं। मेरा नाता किसी एक इंसान से जुड़ जाता है और फिर में उनके सीने से चिपका रहता है। कई बार तो बाकी दुनिया को मेरे वजूद कि खबर ही नहीं होती और कई बार, मेरे मालिक के कुछ निजी रिश्तेदार मुझसे हूबहू होना अपना अधिकार समझते हैं, और मेरे मालिक की अनुमति के बिना ही मुझे पढ़ लेते हैं। यह तो था मेरी प्रजाति का परिचय। चलिए मैं अब अपने बारे में कुछ बता दें। मेरा जन्म अगस्त 2018 में


हुआ था। मैंने अपने जीवन के पहले चार मास एक दुकान में बिता दिए, एक इंसान की चाह में जिसकी वेशभूषा का मुझे कोई अनुमान न था। दिसंबर आले आते मेरे सारे भाई-बहन मुझे अलविदा कह चुके थे मैंने एक घर मिलने की उम्मीद छोड ही दी थी, जब मेरी मुलाक़ात उस से हुई। श्री मान का नाम तो मुझे अभी ज्ञात नहीं था, परंतु उस की आँखो में एक चमक दिखाई पड़ी। वह अपने मन में अपनी अगली डायरी की एक पूर्ण छवि लाया था। उसने मुझे परखा, मेरे पन्ने पलट पलट कर जांच करी, और उस के मुख पर एक मीठी मुस्कान रूप लेने लगी। मुझे अपनी बढाई करने में कोई शर्म नहीं। मेरे पास वे सब खूबियाँ थी जिस की तलाश में वह व्यक्ति दुकान में आया था - रविवार के लिए पूरे पन्ने, बुकमॉर्क के लिए एक सुंदर गुलाबी रस्सी, चमड़े की चादर और हर महीने से पहले एक विस्तृत प्लैनर। मुझे विश्वास था कि आज मैं अपने नए घर की ओर सफर तय करूंगा ही। इस सब के बाद भी उसने मुझे वापिस रख दिया। मेरा दिल घबराया, और मुझे लगा कि मेरे साथ छल हुआ है। मैं उस को देखता रहा। उसने एक एक कर के पाँच और हायरियों से आँखे लड़ाई। सच कहूँ तो वह मुस्कान मुझे फिर से नजर नहीं आई। मैं दिल थाम के बैठा रहा, उस का पीछा करता रहा। अचानक से उस के चेहरे पर एक बदलाव आया, जैसे कि उसने निर्णय ले लिया हो। वह मेरी ओर एक बार फिर आया, और इस बार मेरी भावनाओं के साथ खेल नहीं खेला। मुझे उठाया, और दुकानदार को मेरी कीमत दे कर घर की ओर बढ़ गया।


मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उस के हाथों में मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी अनुभवी व्यक्ति के पास जा रहा हूँ, जो मझ से रोज़ बातें करेगा, मुझे अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाएगा। मेरी भविष्यवाणी सही निकली, क्योंकि घर पहुँचते ही उसने एक पेन निकाला, और मुझे अपना परिचय दियाः "प्रिय डायरी मेरा नाम अशोक है। मैं एबीसीडी कॉलेज में बी टेक डिग्री के तीसरे वर्ष का छात्र हूँ। मेरी जिंदगी में


तुम्हारा स्वागत है। अशोक जी। मुझे भी आप से भेंट कर के अच्छा लगा।



अशोक जैसा दोस्त सारी डायरिया को मिले। उस के अनुशासन का कोई जवाब नहीं। पिछले तीन महीनों में २-३ दिन से ज्यादा दिन नहीं होंगे, जब मेरी उस से बात न हुई हो। रोज रात खाने के बाद वह मेरे पास बैठता है, और मुझे अपने दिन की द्वार्तान बनाता है। उस के जीवन मैं इतने सारे शौक है कि एक एक की खबर रखना हम दोनों के लिए मुश्किल पड़ जाता है, पर मेरी याददाश्त के कारण वो भी सारी चीज़ों का ख्याल रख पाता है। वह पढ़ाई में अव्वल है. फुटबॉल टीम का कप्तान है, और कॉलेज की सबसे खूबसूरत लड़की, कामिनी, उसकी प्रेमिका है।

अशोक प्रातः ६ बजे मैदान पहुंच जाता है। वह ही तो अपनी टीम का मार्गदर्शक है, उसके बिना तो उन सब के पास कोई दिशा नहीं। उसके बाद वह नाश्ता कर के कक्षा में जाता है। अशोक अपने खाने का पूरा ध्यान रखता है, और आज कल के बच्चों की तरह "बैंक" में पैसे बर्बाद नहीं करता। उसे गणित का खूब धाव है. और गणित के अध्यापक को उससे। अशोक से जलते है बाकी सब विद्यार्थी, क्योंकि वे अशोक को मात नहीं दे सकते। अशोक उनके बारे में तो सोचता भी नहीं - वह अपना ध्यान अपने मित्रों पर देता है, जो खुशी-खुशी उससे पढ़ने आते हैं। वह सप्ताह में दो दिन पास कि बस्ती में जाकर बच्चों को भी पढाता जीवन के पल पल का सही उपयोग तो कोई उससे सीखे।


सब अशोक से बहुत प्रेम करते हैं, खास कर के कामिनी। वह रोज़ उसके फेसबुक पर आयी तस्वीरों की व्याख्या मुझे देता है। मैं कामिनी की सुंदरता से अपरिचित नहीं - अशोक ने उसकी एक तस्वीर मुझे दी हुई है संभालने के लिए। कामिनी जीव विज्ञान की छात्रा है, और इस लिए अशोक और वह कक्षा में साथ नहीं रह पाते, मगर अशोक उसके लिए दिन में समय जरूर निकलता है। अशोक खुद को शाहरुख और कामिनी को काजोल बोलता है! मुझे लगता है कि उनकी जोड़ी को कोई कठिनाई नहीं आ सकती।



जून एक को पहली बार मैंने एक नया शब्द मुना 'डोटा', और तब से लगता है कि कुछ और बचा ही नहीं है। जिस तरह से वह डोटा की बात करता है. लगता है वह नया खिलाड़ी तो नहीं है इस खेल का। अब तो मैं अशोक के कण कण को समझ चुका हूँ। आज कल उसकी जिंदगी में कुछ रोमांचक चल भी नहीं रहा। कभी-कभी ऐसा लगता है कि एक लेखक के जीवन में काफी ऊँच-नीच होती रहती है। कहाँ तो कई दिनों अशोक कलम से कामिनी के राजा रवि वर्मा जैसे चित्र बना देता था, और कहाँ कई हफ्त बीत गए उसके एक भी जिक्र के बिना।


कई दिनों तो अशोक ने डोटा के बारे में ही मेरा पूरा पन्ना भर दिया। कुछ दिन ऐसे भी बीते हैं जब अशोक ने लिखा, 'कल डोटा खेलने के कारण डायरी नहीं लिख पाया।" अशोक, यह तो ठीक बात नहीं हुई। मुझे अशोक की जुबान के बारे में भी सब पता चल गया है। पिछले 30 दिनों में उसने १५ पिज्जा, १३ पास्ता, २८ बोतल कोका कोला और ३५ आलू के पराठे खाए। खाने का इतना शौकीन है, पर फिर मुझे दुख से बताता है कि उसे कुछ पकाना नहीं आता। उसके पेट में बाए सारे पकवान का श्रेय जोमाटो और बॉक्स-एट को जाता है। अशोक ने ने सिर्फ यह सब खाया, पर आश्चर्य की बात यह है कि उसने मुझे एक-एक चीज़ का हिसाब भी दिया। वह नियमित तौर पर मुझे कहानियाँ तो सुनाता है, पर सच कहा जाए तो मैं अब थोड़ा ऊब चुका हूँ। रोमांच और रोमांस की कमि लगने लगी है।


लो, रोमांच की कमी का उदधारण क्या दे दिया, अशोक लो मेरे पास एक तूफान ले आया। कामिनी और अशोक के रिश्ते में भेद आ गए हैं। कामिनी ने अशोक को, "मेरा पीछा छोड़ दो कहा! कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? यह सब क्या हो रहा है? अशोक को संदेह है कि कामिनी और सारे अध्यापक उसके खिलाफ़ एक षडयंत्र रच रहे हैं, और बदले की भूख में वह उसको फेल करने का भी प्रयास करेंगे। अशोक को कामिनी ने फेसबुक पर ब्लॉक कर दिया, और मुझ से भी कामिनी की तस्वीर छीन ली गई! क्या इस दुनिया में याे रखना भी एक गुनाह है?


यह सब मेरी समझ से बाहर है। मैं दावा करता हूँ कि अशोक से अधिक रहस्यमय व्यक्ति कोई नहीं। मेरा सफर लगभग खत्म होने वाला है, और मैं अशोक को गहराई से समझ नहीं पाया। कहा गया वह अशोक जो रोज़ दस नई चीजों में भा लेता था?


५ 


मुझे आज एक चिट्ठी मिली, जो कि अशोक को कॉलेज से मिला है। मैं क्या ही बताऊँ, आप खुद देख लीजिए

 

अशोक सिंह कमरा १९०, होस्टल १


दिनांक: नवंबर २०, २०१५


अशोक जी.


आपके खिलाफ कंप्लेंट जारी की गई है। आप पर आरोप है कि आपने अपनी सहपाठी मिस कामिनी को उत्पीडित किया है। उनकी जानकारी और अनुमति के बिना आपने उन की तस्वीरों को छापा। आपने उनका हर कक्षा में पीछा किया, और उन्हें असभ्य नामों से पुकारा। आप के गणित अध्यापक ने आपको क्षमा मांगने के लिए कहा तो आप ने उन पर भी अप शब्दों का प्रयोग किया। कृपया यह समझ लें कि हम इस कॉलेज में औरतों के साय हिंसा को बहुत गंभीरता से लेते हैं। इस पत्र को अपनी आखिरी चेतावनी समझिए। आपका शैक्षिक रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है, और आप पहले ही ३ विषयों में असफल हो चुके हैं। आपका मामला देखते हुए हम ने नीचे दिए गए निर्णय लिए हैं: १. यदि आप मिस कामिनी के २०० मी से ज्यादा करीब आए २. यदि आप आगे और किसी भी विषय में असफल हुए, तथा ३. इस साल के अंत तक पिछले विषयों में सफल न हुए तो आप को कॉलेज से निष्कासित कर दिया जाएगा। आप से अनुरोध है कि २ दिन में मिस कामिनी के लिए एक क्षमा पत्र लिखे, तथा उनकी कोई भी वस्तु, फोटो आदि कॉलेज के कार्यालय में यह सब जमा कर दें।


सुरेंद्र शर्मा,


डीन एबीसीडी कॉलेज, नई दिल्ली


मुझे लो विश्वास ही नहीं हो रहा। क्या में ठीक पढ़ रहा हूँ? क्या यह चिट्ठी मेरे मित्र अशोक को ही लिखी गई है? किस पर भरोसा करे मै? क्या अशोक मुझ से झूठ बोल रहा था अभी तक? क्या कामिनी उसे पसंद भी करती थी? अगर यह झूठ है. तो क्या अशोक ने कभी मुझे कोई सत्य भी बोला है? यदि मेरे पास अशोक से बात करने का कोई तरीका होता, तो मैं उससे यह सब सवाल पुछ्ता। पर, मैं सिर्फ उम्मीद कर सकता हूँ कि वह अपनी सफाई मुझे खुद देगा। मुझे जान ने का हक है, कि क्या मेरे साथ धोखा हुआ?


पर लगता है मेरी आशाओं को उनकी मंजिल नहीं मिलेगी। सफाई तो छोड़ो, जब से यह पत्र मुझे दिया गया. अशोक ने मुझ से बात करना ही छोड़ दिया। कहाँ हो तुम, अशोक? आज दिसंबर ३१ है। क्या तुम मुझे आज भी नहीं मिलोगे? 

डायरी २०१९

लेखक- जितेश सेठ

नमस्ते मित्रों मेरा नाम डायरी है। मैं किसी भी सामान्य कॉपी कि तरह हूँ, पर मेरी खासियत यह है कि मैं लोगों के दिलों के ज्यादा करीब रहती हैं। मेरा नाता किसी एक इंसान से जुड़ जाता है और फिर में उनके सीने से चिपका रहता है। कई बार तो बाकी दुनिया को मेरे वजूद कि खबर ही नहीं होती और कई बार, मेरे मालिक के कुछ निजी रिश्तेदार मुझसे हूबहू होना अपना अधिकार समझते हैं, और मेरे मालिक की अनुमति के बिना ही मुझे पढ़ लेते हैं। यह तो था मेरी प्रजाति का परिचय। चलिए मैं अब अपने बारे में कुछ बता दें। मेरा जन्म अगस्त 2018 में


हुआ था। मैंने अपने जीवन के पहले चार मास एक दुकान में बिता दिए, एक इंसान की चाह में जिसकी वेशभूषा का मुझे कोई अनुमान न था। दिसंबर आले आते मेरे सारे भाई-बहन मुझे अलविदा कह चुके थे मैंने एक घर मिलने की उम्मीद छोड ही दी थी, जब मेरी मुलाक़ात उस से हुई। श्री मान का नाम तो मुझे अभी ज्ञात नहीं था, परंतु उस की आँखो में एक चमक दिखाई पड़ी। वह अपने मन में अपनी अगली डायरी की एक पूर्ण छवि लाया था। उसने मुझे परखा, मेरे पन्ने पलट पलट कर जांच करी, और उस के मुख पर एक मीठी मुस्कान रूप लेने लगी। मुझे अपनी बढाई करने में कोई शर्म नहीं। मेरे पास वे सब खूबियाँ थी जिस की तलाश में वह व्यक्ति दुकान में आया था - रविवार के लिए पूरे पन्ने, बुकमॉर्क के लिए एक सुंदर गुलाबी रस्सी, चमड़े की चादर और हर महीने से पहले एक विस्तृत प्लैनर। मुझे विश्वास था कि आज मैं अपने नए घर की ओर सफर तय करूंगा ही। इस सब के बाद भी उसने मुझे वापिस रख दिया। मेरा दिल घबराया, और मुझे लगा कि मेरे साथ छल हुआ है। मैं उस को देखता रहा। उसने एक एक कर के पाँच और हायरियों से आँखे लड़ाई। सच कहूँ तो वह मुस्कान मुझे फिर से नजर नहीं आई। मैं दिल थाम के बैठा रहा, उस का पीछा करता रहा। अचानक से उस के चेहरे पर एक बदलाव आया, जैसे कि उसने निर्णय ले लिया हो। वह मेरी ओर एक बार फिर आया, और इस बार मेरी भावनाओं के साथ खेल नहीं खेला। मुझे उठाया, और दुकानदार को मेरी कीमत दे कर घर की ओर बढ़ गया।


मेरी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था। उस के हाथों में मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी अनुभवी व्यक्ति के पास जा रहा हूँ, जो मझ से रोज़ बातें करेगा, मुझे अपने जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनाएगा। मेरी भविष्यवाणी सही निकली, क्योंकि घर पहुँचते ही उसने एक पेन निकाला, और मुझे अपना परिचय दियाः "प्रिय डायरी मेरा नाम अशोक है। मैं एबीसीडी कॉलेज में बी टेक डिग्री के तीसरे वर्ष का छात्र हूँ। मेरी जिंदगी में


तुम्हारा स्वागत है। अशोक जी। मुझे भी आप से भेंट कर के अच्छा लगा।



अशोक जैसा दोस्त सारी डायरिया को मिले। उस के अनुशासन का कोई जवाब नहीं। पिछले तीन महीनों में २-३ दिन से ज्यादा दिन नहीं होंगे, जब मेरी उस से बात न हुई हो। रोज रात खाने के बाद वह मेरे पास बैठता है, और मुझे अपने दिन की द्वार्तान बनाता है। उस के जीवन मैं इतने सारे शौक है कि एक एक की खबर रखना हम दोनों के लिए मुश्किल पड़ जाता है, पर मेरी याददाश्त के कारण वो भी सारी चीज़ों का ख्याल रख पाता है। वह पढ़ाई में अव्वल है. फुटबॉल टीम का कप्तान है, और कॉलेज की सबसे खूबसूरत लड़की, कामिनी, उसकी प्रेमिका है।

अशोक प्रातः ६ बजे मैदान पहुंच जाता है। वह ही तो अपनी टीम का मार्गदर्शक है, उसके बिना तो उन सब के पास कोई दिशा नहीं। उसके बाद वह नाश्ता कर के कक्षा में जाता है। अशोक अपने खाने का पूरा ध्यान रखता है, और आज कल के बच्चों की तरह "बैंक" में पैसे बर्बाद नहीं करता। उसे गणित का खूब धाव है. और गणित के अध्यापक को उससे। अशोक से जलते है बाकी सब विद्यार्थी, क्योंकि वे अशोक को मात नहीं दे सकते। अशोक उनके बारे में तो सोचता भी नहीं - वह अपना ध्यान अपने मित्रों पर देता है, जो खुशी-खुशी उससे पढ़ने आते हैं। वह सप्ताह में दो दिन पास कि बस्ती में जाकर बच्चों को भी पढाता जीवन के पल पल का सही उपयोग तो कोई उससे सीखे।


सब अशोक से बहुत प्रेम करते हैं, खास कर के कामिनी। वह रोज़ उसके फेसबुक पर आयी तस्वीरों की व्याख्या मुझे देता है। मैं कामिनी की सुंदरता से अपरिचित नहीं - अशोक ने उसकी एक तस्वीर मुझे दी हुई है संभालने के लिए। कामिनी जीव विज्ञान की छात्रा है, और इस लिए अशोक और वह कक्षा में साथ नहीं रह पाते, मगर अशोक उसके लिए दिन में समय जरूर निकलता है। अशोक खुद को शाहरुख और कामिनी को काजोल बोलता है! मुझे लगता है कि उनकी जोड़ी को कोई कठिनाई नहीं आ सकती।



जून एक को पहली बार मैंने एक नया शब्द मुना 'डोटा', और तब से लगता है कि कुछ और बचा ही नहीं है। जिस तरह से वह डोटा की बात करता है. लगता है वह नया खिलाड़ी तो नहीं है इस खेल का। अब तो मैं अशोक के कण कण को समझ चुका हूँ। आज कल उसकी जिंदगी में कुछ रोमांचक चल भी नहीं रहा। कभी-कभी ऐसा लगता है कि एक लेखक के जीवन में काफी ऊँच-नीच होती रहती है। कहाँ तो कई दिनों अशोक कलम से कामिनी के राजा रवि वर्मा जैसे चित्र बना देता था, और कहाँ कई हफ्त बीत गए उसके एक भी जिक्र के बिना।


कई दिनों तो अशोक ने डोटा के बारे में ही मेरा पूरा पन्ना भर दिया। कुछ दिन ऐसे भी बीते हैं जब अशोक ने लिखा, 'कल डोटा खेलने के कारण डायरी नहीं लिख पाया।" अशोक, यह तो ठीक बात नहीं हुई। मुझे अशोक की जुबान के बारे में भी सब पता चल गया है। पिछले 30 दिनों में उसने १५ पिज्जा, १३ पास्ता, २८ बोतल कोका कोला और ३५ आलू के पराठे खाए। खाने का इतना शौकीन है, पर फिर मुझे दुख से बताता है कि उसे कुछ पकाना नहीं आता। उसके पेट में बाए सारे पकवान का श्रेय जोमाटो और बॉक्स-एट को जाता है। अशोक ने ने सिर्फ यह सब खाया, पर आश्चर्य की बात यह है कि उसने मुझे एक-एक चीज़ का हिसाब भी दिया। वह नियमित तौर पर मुझे कहानियाँ तो सुनाता है, पर सच कहा जाए तो मैं अब थोड़ा ऊब चुका हूँ। रोमांच और रोमांस की कमि लगने लगी है।


लो, रोमांच की कमी का उदधारण क्या दे दिया, अशोक लो मेरे पास एक तूफान ले आया। कामिनी और अशोक के रिश्ते में भेद आ गए हैं। कामिनी ने अशोक को, "मेरा पीछा छोड़ दो कहा! कोई इतना निर्दयी कैसे हो सकता है? यह सब क्या हो रहा है? अशोक को संदेह है कि कामिनी और सारे अध्यापक उसके खिलाफ़ एक षडयंत्र रच रहे हैं, और बदले की भूख में वह उसको फेल करने का भी प्रयास करेंगे। अशोक को कामिनी ने फेसबुक पर ब्लॉक कर दिया, और मुझ से भी कामिनी की तस्वीर छीन ली गई! क्या इस दुनिया में याे रखना भी एक गुनाह है?


यह सब मेरी समझ से बाहर है। मैं दावा करता हूँ कि अशोक से अधिक रहस्यमय व्यक्ति कोई नहीं। मेरा सफर लगभग खत्म होने वाला है, और मैं अशोक को गहराई से समझ नहीं पाया। कहा गया वह अशोक जो रोज़ दस नई चीजों में भा लेता था?


५ 


मुझे आज एक चिट्ठी मिली, जो कि अशोक को कॉलेज से मिला है। मैं क्या ही बताऊँ, आप खुद देख लीजिए

 

अशोक सिंह कमरा १९०, होस्टल १


दिनांक: नवंबर २०, २०१५


अशोक जी.


आपके खिलाफ कंप्लेंट जारी की गई है। आप पर आरोप है कि आपने अपनी सहपाठी मिस कामिनी को उत्पीडित किया है। उनकी जानकारी और अनुमति के बिना आपने उन की तस्वीरों को छापा। आपने उनका हर कक्षा में पीछा किया, और उन्हें असभ्य नामों से पुकारा। आप के गणित अध्यापक ने आपको क्षमा मांगने के लिए कहा तो आप ने उन पर भी अप शब्दों का प्रयोग किया। कृपया यह समझ लें कि हम इस कॉलेज में औरतों के साय हिंसा को बहुत गंभीरता से लेते हैं। इस पत्र को अपनी आखिरी चेतावनी समझिए। आपका शैक्षिक रिकॉर्ड भी अच्छा नहीं है, और आप पहले ही ३ विषयों में असफल हो चुके हैं। आपका मामला देखते हुए हम ने नीचे दिए गए निर्णय लिए हैं: १. यदि आप मिस कामिनी के २०० मी से ज्यादा करीब आए २. यदि आप आगे और किसी भी विषय में असफल हुए, तथा ३. इस साल के अंत तक पिछले विषयों में सफल न हुए तो आप को कॉलेज से निष्कासित कर दिया जाएगा। आप से अनुरोध है कि २ दिन में मिस कामिनी के लिए एक क्षमा पत्र लिखे, तथा उनकी कोई भी वस्तु, फोटो आदि कॉलेज के कार्यालय में यह सब जमा कर दें।


सुरेंद्र शर्मा,


डीन एबीसीडी कॉलेज, नई दिल्ली


मुझे लो विश्वास ही नहीं हो रहा। क्या में ठीक पढ़ रहा हूँ? क्या यह चिट्ठी मेरे मित्र अशोक को ही लिखी गई है? किस पर भरोसा करे मै? क्या अशोक मुझ से झूठ बोल रहा था अभी तक? क्या कामिनी उसे पसंद भी करती थी? अगर यह झूठ है. तो क्या अशोक ने कभी मुझे कोई सत्य भी बोला है? यदि मेरे पास अशोक से बात करने का कोई तरीका होता, तो मैं उससे यह सब सवाल पुछ्ता। पर, मैं सिर्फ उम्मीद कर सकता हूँ कि वह अपनी सफाई मुझे खुद देगा। मुझे जान ने का हक है, कि क्या मेरे साथ धोखा हुआ?


पर लगता है मेरी आशाओं को उनकी मंजिल नहीं मिलेगी। सफाई तो छोड़ो, जब से यह पत्र मुझे दिया गया. अशोक ने मुझ से बात करना ही छोड़ दिया। कहाँ हो तुम, अशोक? आज दिसंबर ३१ है। क्या तुम मुझे आज भी नहीं मिलोगे?