Poetry

आसमान में उड़ते पंछी,

जो हवा से लड़ते जाते।

वो गगन के पार जा कर,

मंजिले खुद के बनाते।।


वे जो प्रेरणा के हैं आशा,

नाम उसका हम है लेते।

वे वो उड़ते जोश हैं जो,

पंख फैला दुनिया समेटे।।


सूखी टूटी टहनियों से,

खुद नयी दुनिया सजाते।

डाल पर बैठे स्वर में,

दृढ़ता के गीत गाते।।


वे हैं वो जो रात्रि को भी,

सूर्य बिन सवेरा बनादें।

जीत की वे इक तलब से ,

आशा की फिर लौ जलादें।।

यह ज़िन्दगी जो भँवर जाल है ,

यह ज़िन्दगी ही मृत्यु काल है।

समय रथ पर जो तू है सवार ,

यह सारी समय की ही चाल है।


घिरी अन्धकार में तेरी वीरता ,

तेरी निष्ठा ही एक मशाल है ।


वो अनजानी सी राह पर निकले ,

सारी दुनिया का बस यही हाल है ।


लकीरों वाली तेरी किस्मत ,

तेरे कर्मों का ही परिणाम है ।


उम्मीद सुखी रूखी सी ही सही ,

तेरे सपनों का बस वही ढाल है ।

तेरी रेखा कृति देख कर ,

हमने तो यह जाना है ।

अपने मन को लेखकर ,

तुमने मानवता को बाँटा है ।।


क्यों काटी तुम ने ये सरहद ,

क्यों तुमने धरती है बाँटी ।

नदियाँ पर्वत सब बाँट दिए ,

अपने मतलब के भाँती।।


आँखों में भर कर आँसू ,

एक बार तो मेघा भी बोली ।

बाँटी तो फिर भी बाँटी ,

क्यों बाँटी लड़ने को गोली ।।


रंग दिए इन खेतों को ,

नीली पीली कई रंगों से ।

अम्बर भी देख अब बँट गए ,

उन उड़ते लहराते पतंगों से ।।

भुजाएँ तेरी वीरता ,

युद्ध की तू सारथि ।

है मृदंग की शोर में ,

रगों रगों में क्रांति।।


दुष्ट प्रवाह निकट है वे ,

संघर्ष तेरी युग से है।

उस बूँद से तू क्या डरे ,

प्रचंड तू तो खुद में है ।।


प्रबल है तेरी दृढ़ता ,

सफलता है पुकारती ।

फिर नयी सी भोर में ,

दिलों दिलों में भारती ।।


पाँव तले ज्वलत है वे ,

कदम तो ये थम से हैं ।

इस युग की तू क्यों सुने ,

बुलंद स्वर तू खुद में है ।।

काली घनी सी रात में ,

काल सा वो बढ़ गया ।

तुझे रोकना था जिसे ,

वो तेरे मस्तक चढ़ गया ।।


कर रहा दमन तू उनपर ,

जो हताश बैठे सह गए ।

देना है हिसाब सबका ,

जो आंसुयें है बह गए ।।


छल कपट से घिरे ,

कोटि कोटि भर गए ।

तेरे काँधे पर टिके ,

भार सत्य के गिर गए ।।


इक कदम तू बढ़ा ,

ले आज तू इक सपत ।

करदे तू नाश उनका ,

जो पाप आरहे निकट ।।


है युद्ध की पुकार ये ,

नगाड़ सुन बज गए ।

खुद को तू संभाल ले ,

रणभूमि देख सज गए ।।


हर इक स्वर तू सुन ,

ये आत्मा की दहाड़ को।

भीतर दबे ज्वाला से ,

पिघला दे तू पहाड़ को ।।

संसार के मस्तक पर चढ़ कर ,

मैं जन गण का गान करू।

यमुना के तट पर खड़ा ,

मैं भारत का गुण गान करू।।


सात समंदर पार भी ,

मैं हिन्दुस्तान का मान करू।

चन्द्रमा हो या हो मंगल ,

झंडे गाड़ अभिमान करू।।


जो सदा सिखाता देश हमारा ,

हर मानव का सम्मान करू ।

चाणक्य हो या हो द्रोणा ,

हर शिक्षक को शिर्ष प्रणाम करू।।


पर्वत हो जिसका शीश मुकुट ,

मैं कैसे न उस पर अभिमान करू।

संसार के मस्तक पर चढ़ कर ,

मैं कैसे न जन गण का गान करू।।

न कर ऐसे नादानी तू ,

तू फिर से बिखर जाएगा।

पत्थर की खोज में तू ,

तू मूरत को तोड़ आएगा।।


न कर धोका ख़ुद से तू ,

तू नज़रों में फिर गिर जाएगा।

दुनिया की मोह में तू ,

तू खुद को कहीं भूल आएगा।।

जिंदगी बनाने के ख़्वाब में जीना भूल आये,

खुशियाँ की तलाश में हँसना भूल आये।

घर बनाने चले थे बड़ा ,

पता चला की घर ही भूल आये।।

कैसे तारीफ करू उस बारिश की,

जिसने ग़मों की मोतियों को पानी बना दिया।

कैसे खफा करूँ उन बूंदों से,

जिन्होंने मुश्किल में भी हँसना सिखा दिया।।