Marma Science

मर्म विज्ञान

वेद ज्ञान का भण्डार है। भूतकाल वर्तमान व भविष्य का समस्त ज्ञान -विज्ञान एवं विद्याएँ इनमें समाहित हैं। अनन्त सम्भावनाओं से युक्त वैदिक ज्ञान आर्यावर्त से सम्पूर्ण विश्व एवं दिग्दिगंत तक फैला है। परन्तु विभिन्न सामाजिक, राजनैतिक कारणों से वैदिक ज्ञान का प्रचार- प्रसार बाधित होने से वैदिक ज्ञान की अनेक विद्याएँ लुप्त प्राय हो गई। पर यह सत्य है कि वेद में निहित ज्ञान किसी न किसी माध्यम से स्वत: प्रकाशित होता रहता है। यह समग्र रुप से कभी भी विनष्ट नहीं हो सकता।

वैदिक काल में प्रचलित शल्य कर्माभ्यास के अतिरिक्त क्षार सूत्र, अग्निकर्म, जलौकावचरण, कर्ण वेधन, मर्म विद्या जैसी अनेक शल्य चिकित्सा विषयक विधाओं को महर्षि सुश्रुत द्वारा प्रतिपादित किया गया है। अत्यन्त गूढ़, गोपनीय, आत्मरक्षार्थ, आत्मकल्याणार्थ, आत्म साक्षात्कारार्थ, रोग निवारणार्थ एवं सद्य: फलदायी शल्यापहृत सूत्रों पर आधारित 'मर्म विज्ञान' एवं 'मर्म चिकित्सा' का प्रयोग कर सम्पूर्ण विश्व को रोग रहित किया जा सकता है।

मनुष्य शरीर को धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष का आधार माना गया है। इस मनुष्य शरीर से समस्त लौकिक एवं पारलौकिक सिद्दियों को पाया जा सकता है। वहीं 'शरीर व्याधि मंदिर' भी कहा गया है। क्या रोगी एवं अस्वस्थ शरीर से इन चारों फलों की प्राप्ति सम्भव है? क्या रोगी इस शरीर को स्वस्थ रखने एवं इसको माध्यम बनाकर अनेक सिद्दियों को प्राप्त करने का कोई उपाय है? इस प्रश्न के उत्तर में 'मर्म विद्या' का नाम लिया जा सकता है।


मर्म का अर्थ एवं परिभाषा

'मृ' धातु में 'मनिन्' प्रत्यय लगाने से 'मर्म' शब्द बनता है, जिसका अर्थ है - जीव स्थान, संधि स्थान व तात्पर्य (आशय)।

आचार्य सुश्रुत के अनुसार, शरीर के वे बिन्दु जहाँ पर मांस, सिरा, स्नायु, अस्थि व संधि का संगम होता है, वे मर्म स्थान कहलाते हैं।

आचार्य डल्हण के अनुसार, ' मारयन्तीति मर्माणि ' अर्थात शरीर के जिन स्थानों पर आघात होने से मृत्यु सम्भव है, वे मर्म बिन्दु कहलाते हैं।

मर्म प्राण ऊर्जा के घनीभूत केन्द्र हैं। यहाँ पर स्वभावत: प्राणों की स्थिति होती है। अत: इन पर अभिघात होने पर नाना प्रकार के विकार उत्पन्न होते हैं। आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार, जिन स्थानों के पीड़ित होने से विभिन्न प्रकार की वेदनाएँ एवं कम्पन्न उत्पन्न होता है, वह स्थान मर्म स्थान कहलाते हैं।

मर्माघात होने पर संज्ञानाश, सुप्तत, भारीपन, मूर्च्छा, स्वेद, वमन, श्वास, विक्षिप्तता, शिथिलता, शीतलता की इच्छा, हृदय प्रदेश में दाह,अस्थिरता, बैचेनी आदि लक्षण उत्पन्न होते हैं।

मर्मों का वर्गीकरण

मर्मों की कुल संख्या 107 है। जिन्हें निम्न प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है -

1. षडंग शरीर के आधार पर

2. रचना / धातु भेद से

3. प्रभाव / परिणाम के आधार पर


1. षडंग शरीर के आधार पर

2 ऊर्ध्व शाखा (हाथ) - 11X2 = 22

2 अधो शाखा (पैर) - 11X2 = 22

1 धड़ -

पीठ - 14

छाती - 9

उदर - 3

1 ऊर्ध्वजत्रुगत -

गर्दन - 14

सिर - 23

2. रचना / धातु भेद से

  1. मांस मर्म - 11

  2. सिरा मर्म - 41

  3. स्नायु मर्म - 27

  4. अस्थि मर्म - 8

  5. सन्धि मर्म - 20


3. प्रभाव / परिणाम के आधार पर

  1. सद्य: प्राणाहर - 19

  2. कालान्तर प्राणाहर - 33

  3. विशल्यघ्न - 3

  4. वैकल्यकर - 44

  5. रुजाकर - 8

मर्मों का स्वरुप

सद्य: प्राणाहर मर्म 'आग्नेय' होते हैं। इन पर आघात होने से अग्नि गुणों के शरीर में आयु क्षीण होने से शीघ्र मृत्यु होती है।

कालान्तर प्राणहर मर्म 'सौम्याग्नेय' होते हैं। इन पर आघात होने से अग्नि गुण शीघ्र क्षीण हो जाते हैं, परन्तु सौम्य गुण धीरे-धीरे क्षीण होता है। अत: मृत्यु कुछ काल पश्चात होती है।

विशल्यघ्न मर्म 'वायव्य' होते हैं। इन मर्मों में शल्य के विध्द होने से अन्तर्वायु अवरुध्द हो जाती है। मर्म स्थान स्थित शल्य को निकाल देने से अन्तर्वायु के सहसा निकल जाने से मृत्यु सम्भव है, परन्तु शल्ययुक्त मनुष्य जीवित रहता है।

वैकल्यकर मर्म 'सौम्य' गुण युक्त होते हैं। सोम स्थिर एवं शीतल है, अतः प्राणों का अवलम्बन करता है।

रुजाकर मर्म 'वायव्य' व आग्नि गुण युक्त होते हैं। अत: इन पर आघात होने से वेदना अधिक होती है।

मर्मों के नाम


षडंंग शरीर के आधार पर मर्मों के नाम -


ऊर्ध्वशाखागत मर्म

- हाथ के मर्म (22)

तलहृदय - 2

क्षिप्र - 2

कूर्च - 2

कूर्च शिर - 2

मणिबन्ध - 2

इन्द्रवस्ति - 2

कूर्पर - 2

आणि - 2

ऊर्वी - 2

लोहिताक्ष - 2

कक्षाधर - 2

अधोशाखागत मर्म

- पैर के मर्म (22)

तलहृदय - 2

क्षिप्र - 2

कूर्च - 2

कूर्च शिर - 2

गुल्फ - 2

इन्द्रवस्ति - 2

जानु - 2

आणि - 2

ऊर्वी - 2

लोहिताक्ष - 2

विटप - 2

अन्तराधिगत मर्म (26)


पृष्ठ के मर्म (14)

कुकुन्दर - 2

कटिकतरुण - 2

नितम्ब - 2

पार्श्वसन्धि - 2

वृहति - 2

अंसफलक - 2

अंस - 2


छाती के मर्म (9)

हृदय - 1

स्तनमूल - 2

स्तनरोहित - 2

अपलाप - 2

अपस्तम्भ - 2


उदर के मर्म (3)

नाभि - 1

गुद - 1

वस्ति - 1

ऊर्ध्वजत्रुगत मर्म (37)


गर्दन के मर्म (14)

नीला - 2

मन्या - 2

मातृकाएँ - 8

कृकाटिका - 2


सिर के मर्म (23)

विधुर - 2

अपांग - 2

आवर्त - 2

उत्क्षेप - 2

शंख - 2

फणा - 2

स्थपनी - 1

श्रृंगाटक - 4

सीमन्त - 5

अधिपति - 1

मर्मों का परिमाप

  • उर्वी, कूर्चशिर, विटप, कक्षाधर, पार्श्वसंधि, स्तनमूल - 1 - 1 अंगुल

  • मणिबन्ध, गुल्फ - 2 - 2 अंगुल

  • कूर्पर, जानु - 3 - 3 अंगुल

  • हृदय,वस्ति, नाभि, गुद, श्रृंगाटक, सीमन्त, नीला, मन्या, मातृकाएँ, कूर्च, - 1 मुष्टि

  • शेष सभी - अर्द्धांगुल ( ½ अंगुल )

मर्मों का विवरण

ऊर्ध्वशाखागत (हाथों के) मर्म

अधोशाखागत (पैरों के) मर्म

अन्तराधिगत (धड़ के) मर्म

ऊर्ध्वजत्रुगत (सिर व गर्दन के) मर्म

मर्म चिकित्सा के सामान्य नियम एवं सावधानियां

1. सामान्यतया लेटी अवस्था में (शवासन की स्थिति में) मर्म चिकित्सा करना है।

2. रोगी की वय, बल, वेदना सहन करने की शक्ति, मन: स्थिति व मर्म के प्रकार को ध्यान में रखकर मर्म चिकित्सा की जानी चाहिये।

3. प्रारम्भ में मर्म बिन्दुओं पर हल्का दबाव देना हैं, बाद में शारीरिक क्षमता के अनुरुप दबाव बढ़ाया जा सकता हैं।

4. मर्म चिकित्सा के दौरान कसे हुये कपड़े, टाई, बेल्ट, जुराब, नी कैप, आदि हटा देना चाहिये।

5. चिकित्सा के दौरान रोगी को लम्बा श्वास प्रश्वास लेने को कहते हैं।

6. चिकित्सा के दौरान होने वाली वेदना को आश्वासन व मन को हटाकर दूर किया जा सकता है।

7. अत्यधिक रोगावस्था में मर्म चिकित्सा को प्रभावित भाग से सुदूरवर्ती मर्म स्थानों से प्रारम्भ करना चाहिये। बाद में प्रभावित भाग की चिकित्सा की जानी चाहिये। सूजन की अवस्था में उसके समीपवर्ती मर्म स्थानों को उपचारित करने से लाभ मिलता है।

8. स्त्रियों में मासिक धर्म व गर्भावस्था के दौरान चिकित्सा नहीं दी जानी है। वह स्त्री स्वयं 'स्व मर्म चिकित्सा' कर सकती है।

9. स्त्रियों में मर्म चिकित्सा बाईं ओर से व पुरुषों में दाईं ओर से करनी चाहिये।

10. मर्म चिकित्सा की समाप्ति पर मर्म बिन्दुओं को चिह्नित कर देना चाहिये, ताकि रोगी बाद में उन बिन्दुओं को स्वत: उपचारित करता रहे।


मर्म चिकित्सा की विधि

* आवाहन * पूजन * विसर्जन

  • सामान्यत: मर्मों को अंगूठे एवं तर्जनी / मध्यमा / अनामिका द्वारा दबाव देना चाहिये।

  • मर्मों को हृदय गति के अनुसार उददीपत किया जाता है।

  • किसी भी मर्म स्थान को 0.8 sec. से अधिक समय तक दबाव नहीं देना चाहिये।

  • प्रत्येक मर्म स्थान को एक बार में 15 – 18 बार दबाया जा सकता है।