वो बिना मां-बाप के अकेले, डरे हुए, निराश, बेघर और बेसहारा हैं। वो बहुत कुछ बोलना चाहते हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।
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वो बिना मां-बाप के अकेले, डरे हुए, निराश, बेघर और बेसहारा हैं। वो बहुत कुछ बोलना चाहते हैं लेकिन कोई सुनने वाला नहीं है।
हमारे देश के अंदर जातिगत अधिकारों का प्रावधान है, भिखारियों के लिए भी अधिकार सुनिश्चित किए गए हैं। जीव जंतुओं के संरक्षण हेतु कई कानून बनाए गए हैं। पर क्या अनाथों के विषय में कभी किसी ने नहीं सोचा कि ये भी मनुष्य हैं, ये देश के नागरिक हैं इनको भी खुशहाल जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए इनको भी शिक्षित होने रोजगार पाने सम्मानपूर्वक जीवन व्यतीत करने का अधिकार मिलना चाहिए। क्योंकि अनाथों की कोई राजनीतिक आवाज नहीं है, कोई ऐसा नेता या मंत्री नहीं है जो अनाथ हो यदि वो उस दौर से गुजरा होता तो अवश्य ही वो अनाथों की आवाज बनता। अनाथों के लिए बोलने वाले कुछ ही हैं जो स्वयं उस पीड़ा को भोग रहे हैं, भाग्यवाद और संस्थागत उपेक्षा उन्हें एक बिखरी हुई राजनीतिक इकाई बना रही है, जो संविधान के तहत उन्हें दिए गए अपने अधिकारों के लिए लड़ने में अप्रभावी है।
योजना आयोग और सरकार ने कभी भी इन बच्चों का संरचित सर्वेक्षण नहीं कराया। हम सभी जानते हैं कि यह आंकड़ा बहुत अधिक हो सकता है!
हमारे देश की प्रगति की गाथा से छूटे हुए बच्चों की एक बड़ी संख्या के बारे में सरकार को कभी पता ही नहीं चला।
बिना किसी माता-पिता या प्रभावी अभिभावक के, अनाथ सरकार के बच्चे हैं। माता-पिता अपने बच्चों को उनकी शिक्षा, कोचिंग और नौकरी या व्यावसायिक प्रयासों हेतु धन खर्च करते हैं और साथ ही प्रोत्साहित करते हैं। किंतु अनाथों के भविष्य की चिंता कौन करे?
इन बच्चों को तो उचित प्रेम और स्नेह तक नही मिल पाता फिर आत्मविश्वास इनके अंदर कैसे उत्पन्न हो ?
इनका जीवन चिंताओं से ग्रसित, खाली पेट सोना और दुख के कठोर फुटपाथ में अस्तित्व के लिए लड़ना मात्र रह जाता है। क्या हमारे संविधान के तहत गारंटी के अनुसार अनाथों को उनके जीवन का मूल अधिकार प्रदान करने के लिए सरकार से मांग करना बहुत अधिक है?