उत्तर- आज देश के नेता भी स्वदेशी वेश-भूषा, बोल-चाल से परहेज करने लगे हैं। अपने देश की सभ्यता-संस्कृति को बढ़ावा देने के बजाय पाश्चात्य (पश्चिमी) सभ्यता से स्वयं प्रभावित हो गए हैं।
उत्तर- कवि को भारत में स्पष्ट दिखाई पड़ता है कि यहाँ के लोग विदेशी रंग में रँगे हैं। खान-पान, बोल-चाल, हाट-बाजार अर्थात् सम्पूर्ण मानवीय क्रिया-कलाप में अंग्रेजियत ही अंग्रेजियत है। अतः कवि के अनुसार भारत में भारतीयता दिखाई नहीं पड़ती है।
उत्तर- स्वदेशी कविता का मूल भाव है कि भारत के लोगों से स्वदेशी भावना लुप्त हो गई है। विदेशी भाषा, रीति-रिवाज से इतना स्नेह हो गया है कि भारतीय लोगों का रुझान स्वदेशी के प्रति बिल्कुल नहीं है। सभी ओर मात्र अंग्रेजी का बोलबाला है।
उत्तर- जिन लोगों में दास-वृत्ति बढ़ रही है, जो लोग पाश्चात्य (पश्चिमी) सभ्यता संस्कृति की दासता के बंधन में बंधकर विदेशी रीति-रिवाज के बने हुए हैं, वैसे लोगों को कवि डफाली की संज्ञा देते हैं क्योंकि वे पाश्चात्य (पश्चिमी) सभ्यता, संस्कृति, विदेशी वस्तुओं तथा अंग्रेजी की झूठी प्रशंसा में लगे हुए हैं।
उत्तर- उत्तर भारत में एक ऐसा समाज स्थापित हो गया है जो अंग्रेजी बोलने में शान की बात समझता है। अंग्रेजी रहन-सहन, विदेशी ठाट-बाट, विदेशी बोलचाल को अपनाना विकास मानते हैं। कवि इसी वर्ग की आलोचना करता है।
उत्तर- प्रस्तुत पद में स्वदेशी भावना को जागृत करने का पूर्ण प्रयास किया गया है। इसमें भारतीय लोगों को स्वदेशी भाव के प्रति रुझान उत्पन्न करने हेतु प्रेरित किया गया है। अतः स्वदेशी शीर्षक पूर्णतः सार्थक है।
उत्तर- आज देश के नेता स्वदेशी वेश-भूषा, बोल-चाल से परहेज करने लगे हैं। अपने देश की सभ्यता-संस्कृति को बढ़ावा देने के बजाय पाश्चात्य (पश्चिमी) सभ्यता से स्वयं प्रभावित दिखते हैं। कवि कहते हैं कि जिनसे धोती नहीं सँभलती अर्थात् अपने देश के वेश-भूषा को धारण करने में संकोच करते हों, वे देश की व्यवस्था देखने में कितना सक्षम होंगे यह संदेह का विषय हो जाता है। जिस नेता में स्वदेशी भावना रची-बसी नहीं है, अपने देश की मिट्टी से दूर होते जा रहे हैं, उनसे देशसेवा की अपेक्षा कैसे की जा सकती है।
उत्तर- प्रस्तुत कविता "स्वदेशी" कवि 'प्रेमघन' द्वारा रचित किया गया है। इस कविता के माध्यम से लोगों में नवजागरण और देशप्रेम की भावना को जागृत किया गया है। कवि कहते है कि भारत में भारतीयता का सर्वथा लोप हो गया है।
भारत के लोग विदेशी रीति और वस्तु के दीवाने हो गए हैं। भारत में कोई भारतीय नहीं रह गया है। सभी परदेश की विद्या को महत्त्व देते हैं, उसके चलते उनकी बुद्धि भी विदेशी हो गई है। उन्हें तो विदेशी चाल-चलन ही पसंद आता है। सबको विदेशी पोशाक ही रुचती है।
अपनी भाषा छोड़कर सभी अँगरेजी भाषा की ओर भाग रहे हैं। बोलचाल, रहन-सहन, पहनावा आदि में कहीं भी भारतीयता नजर नहीं आती। हिंदुस्तानी नाम सुनकर सबको मानो लाज लगती है और भारतीय वस्तु से सभी परहेज करते हैं। बाजारों में भी अँगरेजी वस्तुएँ भरे हुए हैं।
अँगरेजी चाल पर घर बने हैं और शहर बसे हैं। राजनेताओं की नीति भी ढुलमुल है। सभी भारतीय मानसिक स्तर पर अँगरेजों के दास हो गए हैं। 'प्रेमघन' ने इसी पीड़ा की अभिव्यक्ति संकलित दोहों में की है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्तियाँ कवि 'प्रेमघन' की ‘स्वदेशी’ कविता की है । इन दोहों में राष्ट्रीय स्वाधीनता की चेतना को जागृत किया गया है। साथ ही नवजागरण का स्वर मुखरित किया गया है। उपर्युक्त पंक्तियों में कवि कहता है कि देखा जा रहा है कि यहाँ के लोगों में गुलामी के वातावरण में जीवन-यापन करने की आदत हो गई है। चारों ओर इसी का भाव मिल रहा है । खुशामद करना तथा झठी प्रशंसा करना, झूठे राग की डफली बजाना यहाँ के लोगों की संस्कृति बन गई है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हिन्दी साहित्य की पाठ्य-पुस्तक के कवि ‘प्रेमघन’ की द्वारा रचित ‘स्वदेशी’ पाठ से उद्धृत है। इसमें कवि ने कहा है कि भारत के लोगों से स्वदेशी भावना लुप्त हो गई है। विदेशी भाषा, रीति-रिवाज से इतना स्नेह हो गया है कि भारतीय लोगों का रुझान स्वदेशी के प्रति बिल्कुल नहीं है। सभी ओर मात्र अंग्रेजी का बोलबाला है।