उत्तर- 'मेरे बिना तुम प्रभु' कविता का केन्द्रीय भाव है कि जीव और ईश्वर का संबंध अटूट है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं रह सकता। जीव में ईश्वर का वास है। भक्त के बिना भगवान का भी अस्तित्व नहीं है।
उत्तर- कवि अपने को भगवान का भक्त मानता है। भक्त की महत्ता को स्पष्ट करते हुए कवि ने भक्त को जलपात्र और मदिरा कहा है क्योंकि जलपात्र में संग्रहित होकर भगवान अपनी अस्मिता प्राप्त करता है।
उत्तर- कवि को आशंका है कि जब ईश्वरीय सत्ता की अनुभूति करानेवाला प्रतीक आधार या भक्त नहीं होगा तब ईश्वर की पहचान किस रूप में होगी? मानव किस रूप में ईश्वर को जान सकेगा इस प्रश्न को लेकर कवि आशंकित है।
उत्तर- कवि के अनुसार भगवत्-महिमा भक्त की आस्था में निहित होता है। भक्त भगवान का, दृढ़ाधार होता है लेकिन जब भक्तरूपी आधार नहीं होगा तो स्वाभाविक है कि भगवान की पहचान भी मिट जाएगी। अर्थात् भगवान का लबादा गिर जाएगा।
उत्तर- प्रस्तुत कविता में कहा गया है कि बिना भक्त के भगवान भी एकाकी और निरुपाय हैं। उनकी भगवत्ता भी भक्त की सत्ता पर ही निर्भर करती है। व्यक्ति और विराट सत्य एक-दूसरे पर निर्भर हैं।
उत्तर- कवि भगवान की कृपादृष्टि की शय्या है। कवि के नरम कपोलों पर जब भगवान की कृपादृष्टि विश्राम लेती है, तब भगवान को सुख मिलता है, आनंद मिलता है । अर्थात् भक्त भगवान का कृपापात्र होता है और भक्तरूपी पात्र से भगवान भी सुखी होते हैं।
उत्तर- इस कविता में कहा गया है कि मानव के अस्तित्व में ही ईश्वर का अस्तित्व है । मानवीय जीवन में ईश्वरीय अंश होता है। परमात्मा की अदृश्यता को जीवात्मा दृश्य करता है। ईश्वर की झलक जीव के माध्यम से देखी जाती है।
उत्तर- कविता में कवि भक्त के रूप में भगवान को सम्बोधित करता है ।कवि अपने में भगवान की छवि को देखता है और कहता है कि हे भगवान ! मैं भी तुम्हारे लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण हूँ जितना तुम मेरे लिए।
उत्तर- प्रस्तुत कविता में कहा गया है कि बिना भक्त के भगवान भी एकाही और निरुपाय हैं। उनकी भगवत्ता भी भक्त की सत्ता पर ही निर्भर करती है। भगवान जल हैं तो भक्त जलपात्र है।
भगवान के लिए भक्त मदिरा है। बिना भक्त के भगवान रह ही नहीं सकते। भक्त ही भगवान का सबकुछ हैं और भक्त के लिए भगवान सबकुछ हैं । भक्त की भक्ति को पाकर परमात्मा आनंदित होता है और परमात्मा को प्राप्त करके भक्त परमानंद को प्राप्त करता है। यही अन्योन्याश्रय संबंध भक्त और भगवान में है।
उत्तर- प्रस्तुत कविता कवि 'रेनर मारिया रिल्के' द्वारा रचित किया गया है। भक्त कवि रिल्के अपने प्रभु से प्रश्न करता है— प्रभु, जब मेरा अस्तित्व ही नहीं रहेगा, तब तुम क्या करोगे? मैं ही तुम्हारा जलपात्र हूँ, मैं ही तुम्हारी मदिरा हूँ। जब जलपात्र टूटकर बिखर जाएगा और मदिरा सूख जाएगी या स्वादहीन हो जाएगी तब प्रभु तुम क्या करोगे?
कवि अपने प्रभु से कहता है कि मैं तुम्हारा वेश हूँ, तुम्हारी वृत्ति हूँ। मैं ही तुम्हारे होने का कारण हूँ। तुम मुझे खोकर अपना अर्थ खो बैठोगे। मेरे अभाव में तुम गृहविहीन हो जाओगे। तब तुम निर्वासित-सा अपना जीवन बिताओगे। तब तुम्हारा स्वागत कौन करेगा?
प्रभु मैं तुम्हारे चरणों की पादुका हूँ। मेरे बिना तुम्हारे चरणों में छाले पड़ जाएँगे; तुम्हारे पैर लहूलुहान हो जाएँगे। तुम्हारे पैर मेरे बिना कहीं भ्रांत दिशा में भटक जाएँगे। कवि अपने आराध्य से कहता कि जब मेरा अस्तित्व ही नहीं रहेगा, तब तुम्हारा शानदार लबादा गिर जाएगा।
तुम्हारी सारी शान मेरे होने पर ही निर्भर है। मैं नहीं रहूँगा तो तुम्हारी कृपादृष्टि को सुख कहाँ से नसीब होगा? कवि अपनी आशंका व्यक्त करता हुआ कहता है कि मेरे बिना प्रभु शायद ही कुछ रह सकें।
उत्तर- प्रस्तुत पद्यांश में कवि ने भक्त को भगवान की अस्मिता माना है। भगवान का वास्तविक स्वरूप भक्त में है। भक्त भगवान का सबकुछ है। भगवान का रूप, वेश, रंग, कार्य सब भक्त में निहित है। भक्त के माध्यम से ही भगवान को जाना जा सकता है, उनके अस्तित्व की अनुभूति की जा सकती है।
कवि कहता है कि हे भगवन, मेरा अस्तित्व ही तुम्हारी पहचान है। मैं नहीं रहूँगा तो तुम्हारी पहचान भी नहीं होगी। भक्त के बिना भगवान की कल्पना नहीं ही की जा सकती।