उत्तर- गुरु की कृपा से ब्रह्म-प्राप्ति की युक्ति की पहचान हो पाती है। ब्रह्म से साक्षात्कार करने हेतु लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, निदा आदि से दूर होना आवश्यक है, जो गुरु की शिक्षा से प्राप्त होती है। अतः ब्रह्म-प्राप्ति की इसी युक्ति की पहचान गुरुकृपा से हो पाती है।
उत्तर- जिस वाणी से राम नाम का उच्चारण नहीं होता है, वह वाणी विष के समान हो जाती है।
उत्तर- हरि रस से कवि का अभिप्रायः भगवान राम की भक्ति से है। राम नाम की महिमा का बखान करते हुए कहते हैं कि भगवान के नाम से बढ़कर अन्य कोई धर्मसाधना नहीं है। भगवत् कीर्तन से प्राप्त परमानंद को हरि रस कहा गया है।
उत्तर- गुरुनानक ने इस पद में पूजा-पाठ, कर्मकांड और बाह्य वेश-भूषा की निरर्थकता सिद्ध करते हुए सच्चे हृदय से राम-नाम के स्मरण और कीर्तन का महत्त्व प्रतिपादित किया है क्योंकि राम नाम के कीर्तन से ही व्यक्ति को सच्ची शांति मिलती है और वह इस दुखमय जीवन के पार पहुँच पाता है।
उत्तर- जो प्राणी काम, क्रोध, लोभ, मोह इत्यादि सांसारिक विषयों की आसक्ति से रहित होता है, वैसे प्राणियों में ही ब्रह्म का निवास होता है।
उत्तर- कवि राम नाम के बिना जगत् में यह जन्म व्यर्थ मानता है।
उत्तर- पुस्तक-पाठ, व्याकरण के ज्ञान का बखान, तीर्थ-भ्रमण, जटा बढ़ाना, तन में भस्म लगाना इत्यादि कर्म कवि के अनुसार नाम-कीर्तन के आगे व्यर्थ हैं।
उत्तर- प्रथम पद में कवि के अनुसार ग्रंथों का पाठ करना, भस्म रमाकर साधुवेश धारण करना, तीर्थ करना, कमण्डलधारी होना, वस्त्र त्याग करके नग्नरूप में घूमना कवि के युग में धर्म-साधना के रूप रहे हैं।
उत्तर- नानक के पद में वर्णित राम-नाम की महिमा आधुनिक जीवन में प्रासंगिक है। हरि-कीर्तन सरल मार्ग है जिसमें न अत्यधिक धन की आवश्यकता है, न ही कोई बाह्य आडम्बर की। यदि भगवत् नामरूपी रस का पान किया जाये तो जीवन में उल्लास, शांति, परमानन्द, सुख तथा ईश्वरीय अनुभूति को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है।
उत्तर- प्रस्तुत कविता में कवि ईश्वर की निर्गुणवादी सत्ता को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य दुख को दुख नहीं समझता है अर्थात् दुःखमय जीवन में भी समानरूप में रहता है उसी का जीवन सार्थक होता है।
जो मनुष्य न किसी की निंदा करता है, न किसी की स्तुति करता है, लोभ, मोह अभिमान से दूर रहता है, न सुख में प्रसन्नता जाहिर करता है और न संकट में शोक उपस्थित करता है तथा मान-अपमान से रहित होता है वही ईश्वर भक्ति के सुख को प्राप्त कर सकता है।
उत्तर- पाठयपुस्तक में गुरु नानक के दो पद संगृहित हैं: 'रामनाम बिनु बिरथे जगि जनमा' और 'जो नर दुख में दुख नहिं माने।' प्रथम पद में गुरु नानक ने बाहरी वेश-भूषा, पूजा-पाठ और कर्मकांड के स्थान पर निश्छल-निर्मल हृदय से रामनाम के कीर्तन पर जोर दिया है।
गुरु नानक ऐसा मानते हैं कि रामनाम कीर्तन से ही व्यक्ति को स्थायी शांति मिल सकती है और उसके सारे सांसारिक दु:ख-दर्द मिट सकते हैं। दूसरे पद में गुरु नानक ने कहा है कि सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद आदि में एक समान उदासीन रहते हुए हमें अपने मानसिक दुर्गुणों से ऊपर उठकर अंत:करण को विशुद्ध और निर्मल रखना चाहिए।
गुरु नानक कहते हैं कि रामनाम के बिना इस संसार में जन्म होना व्यर्थ है। रामनाम के बिना हम विष खाते हैं और विष ही बोलते हैं। अर्थात् रामनाम के बिना हमारा खाना जहर के समान होता है और हमारी वाणी जहर के समान होती है।
पुस्तक पढ़ने, शास्त्रों पर चर्चा करने और संध्याकालीन उपासना करने से हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती। राम के बिना हम विभिन्न जंजालों में उलझकर मर जाते हैं। जीवन में स्थायी शांति धार्मिक बाह्याडंबरों और तीर्थाटन करने से नहीं प्राप्त होती, रामनाम के जपने से ही प्राप्त होती है।
गुरु नानक कहते हैं कि जो नर दुःख में दु:ख नहीं मानता, सुख-दुःख में जो उदासीन रहता है, प्रीति और भय जिसके लिए एकसमान हैं, सोना और मिट्टी में जो भेद नहीं करता; वह नर गुरु की कृपा प्राप्त करता है और उसे ही प्रभु के सान्निध्य का सुख मिलता है।
उत्तर- प्रस्तुत पद्यांश कवि गुरुनानक देव द्वारा रचित 'राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा' पाठ से उद्धृत है।
उपर्युक्त पंक्तियों में संत कवि नानक कहते हैं कि जिसने आशा-आकांक्षा और सांसारिक मोह-माया का त्याग कर दिया है, जिसके जीवन में काम-क्रोध के लिए कोई स्थान नहीं है, उसकी अंतरात्मा में ब्रह्म का निवास होता है।
उत्तर- प्रस्तुत पद्यांश हमारी पाठ्य-पुस्तक हिंदी साहित्य के महान संत गुरुनानक के द्वारा लिखित 'राम नाम बिनु बिरथे जगि जनमा' से ली गई है। यहाँ कवि राम नाम की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं।
कवि कहते हैं कि राम-नाम के बिना, संध्यावंदन, तीर्थाटन, रंगीन वस्त्रधारण, यहाँ तक कि जटा बढ़ाकर इधर-उधर घूमना, ये सभी भक्ति-भाव के बाह्याडम्बर है।। इससे जीवन सार्थक कभी भी नहीं हो सकता है। राम-नाम के बिना बहुत-से सांसारिक कार्यों में उलझकर व्यक्ति अपनी जीवन समाप्त कर लेता है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक हिंदी साहित्य के संत कवि गुरुनानक द्वारा रचित 'जो नर दुख में दुख नहिं मानै' शीर्षक से उद्धृत है। प्रस्तुत पंक्ति में संत गुरु नानक उपदेश देते हैं कि ब्रह्म के उपासक प्राणी को हर्ष-शोक, सुख-दुख, निंदा-प्रशंसा, मान-अपमान से परे होना चाहिए।
कवि कहते है कि झूठी मान, बड़ाई या निंदा-शिकायत की उलझन मनुष्य को ब्रह्म से दूर ले जाता है। ब्रह्म को पाने के लिए, सच्ची मुक्ति के लिए हर्ष-शोक, मान-अपमान से दूर रहकर, उदासीन रहते हुए ब्रह्म की उपासना करना चाहिए।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हमारी पाठ्य-पुस्तक के महान संत कवि गरु नानक के द्वारा रचित 'जो नर दुख में दुख नहिं मानै' पाठ से उद्धत है। इसमें कवि ब्रह्मा की सत्ता की महत्ता को बताते हैं।
प्रस्तुत पंक्ति के माध्यम से कवि कहना चाहते हैं इस मानवीय जीवन में ब्रह्म को पाने की सच्ची युक्ति, यथार्थ उपाय करना आवश्यक है। जिस प्रकार पानी में पानी मिलकर एकसमान हो जाता है, उसी प्रकार जीव जब ब्रह्म के सान्निध्य में जाता है तब ब्रह्ममय हो जाता है। जीवात्मा एव परमात्मा में जब मिलन होता है तो दोनों का भेद मिट जाता है।