उत्तर- जब बिरजू महाराज के बाबूजी की मृत्यु हुई, तो उनके घर में इतना भी पैसा नहीं था कि वे अपने बाबूजी की तेरहवीं कर सकें। इसके लिए उन्होंने दस दिन के अंदर दो प्रोग्राम किये। तब जाकर कुछ रुपये इकट्ठे करके उनकी तेरहवीं की गयी। अतः ऐसी हालत में नाचना और रुपये इकट्ठे करना उनके जीवन का सबसे दुखद समय था।
उत्तर- बिरजू महाराज के गुरु उनके बाबूजी थे। बिरजू महाराज को तालिम उनके बाबूजी ने ही दिया था। उनके बाबूजी अच्छे स्वभाव के थे। वे अपने दुख को कभी व्यक्त नहीं करते थे। उनको कला से बहुत प्रेम था।
उत्तर- बिरजू महाराज अपना सबसे बड़ा जज अपनी माँ को मानते थे क्योंकि जब वे नाचते थे तो उनकी कमी या अच्छाई उनकी माँ देखती थी और बताती थी। उनकी कमियों को पूरा करने में उनकी माँ का बहुत बड़ा योगदान था। इसलिए बिरजू महाराज अपना सबसे बड़ा जज अपनी माँ को मानते थे।
उत्तर- बिरजू महाराज नृत्य की कला में माहिर थे। वे बचपन से ही नाचने का अभ्यास करते थे। वे नृत्य कला में इतने माहिर थे कि उनका नृत्य देश भर में सम्मानित था। वे सिर्फ रुपये के लिए नृत्य नहीं करते थे बल्कि कला-प्रदर्शन भी उनका लक्ष्य था।
उत्तर- पुराने नर्तक कला प्रदर्शन करते थे। वे साधन के अभाव में भी उत्साह से भी नृत्य करते थे। कम जगह में गलीचे पर गड्ढे, खाँचे, इत्यादि के बावजूद बेपरवाह होकर कला प्रदर्शन करते थे, लेकिन आज के कलाकार मंच की छोटी-छोटी गलतियों को ढूंढते है तथा केवल रुपये के लिए कला प्रदर्शन करते है।
उत्तर- बिरजू महाराज सितार, गिटार, हारमोनियम, बाॅंसुरी, इत्यादि वाद्ययंत्र बजाते थे।
उत्तर- बिरजू महाराज का जन्म लखनऊ में हुआ था। अतः लखनऊ बिरजू महाराज का जन्म स्थान था और रामपुर में बिरजू महाराज का अधिक समय व्यतीत हुआ था, जिसके कारण उनको रामपुर से विकास का सुअवसर मिला था।
उत्तर- बिरजू महाराज के प्रमुख शार्गिदों में रश्मि बाजपेयी, दुर्गा, तीर्थ प्रताप प्रदीप, फिलिप मेक्लीन इत्यादि थे। उनके बारे में बताया गया है कि वे लोग भी बिरजू महाराज की तरह तरक्की कर रहे है तथा प्रगतिशील बनें हुए है।
उत्तर- कलकत्ते के एक कॉन्फ्रेंस में बिरजू महाराज ने नृत्य किया। उनके इस नृत्य की प्रशंसा कलकत्ते के पूरे अखबारों में छपी, जहाँ उनके नृत्य की बहुत अधिक प्रशंसा लोगों ने की। इस घटना से उनके जीवन में एक नया मोड आया और उस समय से बिरजू महाराज अपने जीवन में आगे बढ़ते चले गए।
उत्तर- बिरजू महाराज बचपन में शंभू महराज के साथ नाचा करते थे। वे शंभू महाराज के साथ सहायक बनकर कला के क्षेत्र में विकास किये। शंभू महाराज उनके चाचा थे, जिनका मार्गदर्शन बिरजू महाराज को बचपन से मिला।
उत्तर- उनके चाचा शंभू महाराज और बाबूजी के साथ नाचते हुए बिरजू महाराज को पहली बार प्रथम पुरुस्कार मिला।
उत्तर- नृत्य की शिक्षा के लिए पहले-पहल बिरजू महाराज दिल्ली में स्थित हिन्दुस्तानी डांस म्यूजिक संघ से जुड़े और वहाँ कपिलाजी के संपर्क में आए।
उत्तर- संगीत भारती में आरंभ में बिरजू महाराज को 250 रुपये मिलते थे। वे उस समय दरियागंज में रहते थे। वहाँ से वे प्रत्येक दिन 5 या 9 नंबर का बस पकड़ कर संगीत भारती पहुँचते थे। संगीत भारती में इन्हें प्रदर्शन करने का कम अवसर मिलता था। अतः इससे दुखी होकर उन्होंने संगीत भारती की नौकरी छोड़ दी।
उत्तर- अपने विवाह के बारे में बिरजू महाराज बताते है कि उनकी शादी 18 साल की उम्र में हो गयी थी। उस समय विवाह करना उनको अच्छा नहीं लगा लेकिन उनके बाबूजी के मृत्यु के बाद माँ के कारण उनको शादी करनी पड़ी। उनको जल्दी में शादी करना नुकसानदायक हुआ क्योंकि विवाह के वजह से उनको नौकरी करनी पड़ी।
उत्तर- रामपुर के नवाब की नौकरी छूटने पर हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया क्योंकि 6 साल के उम्र से ही वे नवाब साहब के यहाँ नाचते थे, जिससे उनकी अम्मा परेशान रहती थी। उनके बाबूजी ने भी नौकरी छूटने के लिए हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाने के लिए कहा था। इसलिए रामपुर के नवाब की नौकरी छूटने पर बिरजू महाराज ने हनुमान जी को प्रसाद चढ़ाया।
उत्तर- जब बिरजू महाराज के बाबूजी की मृत्यु हुई, तो उनके घर में इतना भी पैसा नहीं था कि वे अपने बाबूजी की तेरहवीं कर सकें। इसके लिए उन्होंने दस दिन के अंदर दो प्रोग्राम किये। तब जाकर कुछ रुपये इकट्ठे करके उनकी तेरहवीं की गयी। अतः ऐसी हालत में नाचना और रुपये इकट्ठे करना उनके जीवन का सबसे दुखद समय था।
उत्तर- बिरजू महाराज कथक नृत्य के महान कलाकार हैं। उनका जन्म लखनऊ के जफरीन अस्पताल में 4 फरवरी, 1938 को हुआ। वे घर में आखिरी संतान थे। तीन बहनों के बाद उनका जन्म हुआ था। छह साल की उम्र में ही बिरजू महाराज रामपुर के नवाब साहब के यहाँ जाकर नाचने लगे। बाद में वे दिल्ली में हिंदुस्तानी डान्स म्यूजिक में चले गए और वहाँ दो-तीन साल काम करते रहे। उसके बाद वे अपनी अम्मा के साथ लखनऊ चले गए।
बिरजू महाराज के पिताजी अपने जमाने के प्रसिद्ध नर्तक थे। जहाँ-जहाँ उनका प्रोग्राम होता था, वहाँ-वहाँ वे बिरजू महाराज को अपने साथ ले जाते थे। इस तरह बिरजू महाराज अपने पिताजी के साथ जौनपुर, मैनपुरी, कानपुर, देहरादून, कलकत्ता (कोलकाता), बंबई (मुंबई) आदि स्थलों की बराबर यात्रा किया करते थे। आठ साल की उम्र में ही बिरजू महाराज नृत्यकला में पारंगत हो गए। बिरजू महाराज को नृत्य की शिक्षा उनके पिताजी से ही मिली थी।
बिरजू महाराज जब साढ़े नौ साल के थे तब उनके पिताजी की मृत्यु हो गई। चौदह साल की उम्र में वे लखनऊ गए। वहाँ उनकी भेंट कपिलाजी से हुई। उनकी कृपा से बिरजू महाराज ‘संगीत-भारती’ से जुड़े। बिरजू महाराज वहाँ चार साल रहे। स्वच्छंदता नहीं होने के कारण बिरजू महाराज ने वहाँ की नौकरी छोड़ दी। लखनऊ आकर वे भारतीय कला केंद्र से संबद्ध हो गए। वहाँ उन्होंने रश्मि नाम की एक लड़की को नृत्यकला में पारंगत किया। कलकत्ते में (कोलकाता में) इनके नृत्य का आयोजन हुआ। वहाँ की दा मडला न इनकी खब प्रशंसा की। उसके बाद उनका प्रोग्राम मबई में हुआ और इस तरह वे भारत के विभिन्न प्रसिद्ध महानगरों और नगरो में नृत्य करने लगे । दिन-प्रतिदिन उनकी ख्याति बढ़ने लगी।
मध्य यौवन में ही इन्हें काफी प्रसिद्धि मिल गई । उन्होंने 27 साल की उम्र में ही दुनिया भर में अनेक नृत्य किए और खूब नाम और पैसा अर्जित किया। निश्चय रूप से बिरजू महाराज भारतीय कला के जीवंत प्रमाण हैं। अपने नृत्य आयोजनों से उन्होंने देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा तो मनवाया ही है, साथ ही साथ भारतीय कला एवं संस्कृति की भव्यता की प्रस्तुति से उन्होंने सारी दुनिया में भारत का सिर ऊँचा किया है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हिन्दी पाठ्य-पुस्तक के "जित-जित मैं निरखत हूँ" शीर्षक से उद्धृत है। यह शीर्षक हिन्दी साहित्य की साक्षात्कार विधा है। इस पंक्ति से बिरजू महाराज ने अपने गुरुस्वरूप पिता की कर्तव्यनिष्ठा एवं उदारशीलता का यथार्थ चित्रण किया है।
इस पंक्ति से पता चलता है कि बिरजू महाराज के पिता ही उनके गुरु थे। उनके पिता में गुरुत्व की भावना थी। बिरजू महाराज अपने गुरु के प्रति असीम आस्था और विश्वास व्यक्त करते हुए अपने ही शब्दों में कहते हैं कि यह तालीम मुझे बाबूजी से मिली है। गुरु दीक्षा भी उन्होंने ही मुझे दी है। गण्डा भी उन्होंने ही मुझे बाँधा। गण्डा का अभिप्राय यहाँ शिष्य स्वीकार करने की एक लौकिक परंपरा का स्वरूप है।
उत्तर- प्रस्तुत पंक्ति हिन्दी साहित्य पाठ्यपुस्तक के ‘जित-जित मैं निरखत हूँ’ से ली गई है। यह शीर्षक हिन्दी साहित्य की साक्षात्कार विधा है।
इस व्याख्यांश में बिरजू महाराज गुरु के रूप में शिष्य के प्रति निश्छलता और वात्सल्यता की भावना का वर्णन करते हुए कहते हैं कि उनमें किसी प्रकार की स्वार्थपरता एवं व्यावसायिकता नहीं थी। उनकी भावना शिष्य के प्रति सहानुभूतिपूर्ण थी। उनमें इस प्रकार की भावना नहीं थी कि संपूर्ण ज्ञान में से कुछ अपने पास रखें और कुछ शिष्य को दें बल्कि उन्हें लगता था कि जो कुछ मेरे पास है वह केवल मेरे बेटे के लिए नहीं बल्कि सभी शिष्य और शिष्याओं को समान रूप से समाप्त करने के लिए है। मतभेद का लेश मात्र भी भावना उनके हृदय के किसी कोने में उपस्थित नहीं थी।