उत्तर- लेखक जातिवाद जैसी विडंबना की बात करते हैं। जो लोगों को एक ही पेशे में बांधे रखती है। जिसके कारण उनकी रूचि एवं क्षमता का हनन होता है, और किसी दूसरे पेशे को अपनाने पर भूखों मरने की नौबत आ जाती है। "जातिवाद" के पोशाकों की कमी नहीं है। उनके अनुसार, "आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है और जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है।"
इस विडंबना का स्वरूप इतना अधिक है, कि इसने ना जाने कितने घरों को बर्बाद किया है, और अभी भी कर रही है। वैदिक काल से अभी तक चली आ रही है। जातिवाद लोगों के मन में इस प्रकार बैठा है, कि ऊंच-नीच की भावना से लोग एक दूसरे को देखते हैं। और "यह श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रुप लिए हुए हैं।"
उत्तर- "जातिवाद" के पोशाकों की कमी नहीं है। उनके अनुसार, आधुनिक सभ्य समाज कार्य कुशलता के लिए श्रम विभाजन को आवश्यक मानता है, और जाति प्रथा भी श्रम विभाजन का ही रूप है इसलिए इसमें कोई बुराई नहीं है, और इस विभाजन से लोगों में वंशगत व्यवसाय में निपुणता आती है।
इस तर्क के संबंध में पहली बात तो यह आपत्तिजनक है कि जाति प्रथा श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रुप लिए हुए हैं, और उन्हें एक ही पेशे में बंधे रहने पर बाध्य करती है।
उत्तर- जातिवाद के पक्ष में दिए गए तर्कों पर लेखक डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी की निम्न आपत्तियां हैं:-
यह श्रम विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन भी करती है।
यह मनुष्य को एक ही पेशे में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है जिसके कारण उसके क्षमता और रुचि का हनन होता है।
इसके कारण लोगों में ऊंच-नीच की भावना पैदा होती है।
जाति प्रथा के कारण लोगों में बेरोजगारी बढ़ती जा रही है।
इससे हमारा दूषित होता है तथा लोग एक दूसरे को हीन भावना से देखते हैं।
उत्तर- जाति भारतीय समाज में श्रम विभाजन का स्वाभाविक रूप इसलिए नहीं कही जा सकती है क्योंकि यह श्रमिकों का अस्वाभाविक विभाजन ही नहीं करती बल्कि विभाजित वर्ग को ऊंच-नीच का भी बोध कराती है जो विश्व के किसी भी देश में नहीं है और आर्य मनुष्य को जीवन भर के लिए एक निश्चित व्यवसाय में बांध देती है जिससे उनकी रूचि का हनन होता है और बेरोजगारी बढ़ती है।
उत्तर- जातिप्रथा भारत में बेरोजगारी का एक प्रमुख और प्रत्यक्ष कारण बनी हुई है क्योंकि:-
यह मनुष्य को जीवन भर के लिए एक ही पेशे में बंधे रहने के लिए बाध्य करती है।
जातिप्रथा मनुष्य को पेशा (व्यवसाय) बदलने की अनुमति नहीं देती है जिसके कारण बेरोजगारी बढ़ती है।
मनुष्य की रुचि ना होने पर भी उसी कार्य को करने के लिए बाध्य करती है जिसके कारण कार्य कुशलता में कमी आती है।
आधुनिक युग में तकनीकी विकास के कारण कभी-कभी आश्चर्यजनक परिवर्तन हो जाता है, जिसके कारण पेशे बदलने की आवश्यकता होती है, परंतु जाति प्रथा इसकी अनुमति नहीं देती है। जिसके कारण भूखों मरने की नौबत आ जाती है और बेरोजगारी बढ़ती है।
उत्तर- लेखक आज के उद्योगों में गरीबी और उत्पीड़न से भी बड़ी समस्या जातिप्रथा को मानते हैं। जाति प्रथा एक ऐसी प्रथा है, जिसमें लोगों को ऊंच-नीच की भावना से देखा जाता है और एक ही पेशे में बंधे रहने पर विवश हो जाते हैं। उन्हें पेशे बदलने की अनुमति नहीं होती है। जिसके कारण बेरोजगारी आदि जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।
उत्तर- लेखक ने पाठ में निम्न प्रमुख पहलूओ से जाति प्रथा को एक हानिकारक प्रथा के रूप में दिखाया है:-
जाति प्रथा के कारण लोगों में ऊंच-नीच की भावना पैदा होती है। समाज में नीची जाति के लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता है। जिससे जातिवाद के नाम पर झगड़े होते हैं।
जाति प्रथा पर आधारित श्रम विभाजन भी स्वाभाविक नहीं है। यह श्रमिकों को जन्म से ही एक ही पेशे में बांध कर रख देती है। उन्हें अपना पेशा बदलने की अनुमति नहीं होती है।
इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावना तथा व्यक्तिगत रूचि का कोई महत्व नहीं होता है। एक तरह से जातिप्रथा लोगों की इच्छाओं का हनन करती है।
अरुचि होने के कारण लोग टालु काम करते हैं। जिसके कारण कार्य कुशलता में कमी आती है।
बेरोजगारी एवं भुखमरी जैसी समस्या उत्पन्न होती है।
उत्तर- सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के लिए लेखक ने निम्न विशेषताओं को आवश्यक माना है।
स्वतंत्रता:- लोकतांत्रिक देश के सभी नागरिकों को स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, जिसमें वह अपनी इच्छा से कहीं आ जा सकते हैं, किसी भी कार्य को कर सकते हैं।
समानता:- लोकतांत्र में सभी को समानता का अधिकार दिया गया है। किसी के प्रति किसी भी तरह का भेदभाव नहीं हो इसका ध्यान रखा गया है। जैसे– जाति, लिंग, रंग, रूप आदि सभी प्रकार से समान दर्जा दिया गया है।
बंधुत्व या भाईचारा:- सभी एक साथ मिलाकर रहे, एक दूसरे की रक्षा के प्रति सजग रहें, तथा एक दूसरे की सहायता करें। दूध और पानी का मिश्रण ही भाईचारे का सही रूप है।
लोकतंत्र केवल शासन की एक पद्धति ही नहीं है। लोकतंत्र मूलतः सामूहिक जीवनचार्य की एक रीति तथा समाज के सम्मिलित अनुभवों के आदान-प्रदान का नाम है। इसमें यह आवश्यक है कि अपने साथियों के प्रति श्रद्धा व सम्मान की भावना हो।