बाल नीति गीता


[कहानी संग्रह]





रचयिता विश्राम यादव “विश्राम”

अवकाश प्राप्त विद्यालय उपनिरीक्षक

उत्तर प्रदेश


विश्राम यादव































आमुख


‘बालनीति गीता’ कहानी संग्रह पढ़कर गीता-गीत का स्मरण हो आता है, जहां युग पुरुष श्रीकृष्ण अर्जुन को आध्यात्मिक संदेश दिया है। मुंशी प्रेमचंद जी की कहानियों में यथार्थता का जो पुट है,उसकी सीधी सरल एवं कवित्पूर्ण अभिव्यक्ति रचनाकार की कहानियों में हुई है। जनजीवन में प्रचलित विविध कथाओं को आधार बनाकर लिखी जाने वाली यह कहानियां सचमुच लोकरंजन एवं लोकहित की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। भाषा की सहजता सरलता बोधगम्यता एवं भाव सम्प्रेषणीयता स्पृहणीय है। मां एक कहानी से जुड़ी हुई यह कहानियां जीवन जीने की कला का सम्यक निर्धारण करती हैं। मैं हिंदी कहानी के इतिहास में पुरातनता कि धरातल पर आधारित एक नया अध्याय का जाना चाहिए।


हिंदी भाषा और साहित्य की एक विद्यार्थी के रूप में मैं एवं कहानीकार श्रीयुत यादव जी एवं उनकी लेखनी का मङग्लाकांक्षी हूं, जो इस प्रकार की कहानियां लिखकर कल की आशा को विश्वास, मन को मुझे अली का हास एवं जीवन को नया विकास प्रदान करते हुए सतत प्रयत्नशील हैं।


डॉक्टर अवधेशनारायण मिश्र















दो शब्द


जन्म लेने के पश्चात् मनुष्य अपने शैशत भर एक कोरे कागज के रूप में रहता है।उस पर कुछ भी लिखा जा सकता है। उसे कच्चे घड़े की गीली मिट्टी जानिये, जिसे कोई भी रूपाकार दिया जा सकता है। शिशु किसी वृक्ष काबा कोमल विरवा है, जिसकी लचीली डालियों को, किसी भी दिशा में मरोड़ा जा सकता है। शिशु निरीह होता है, वह भावी जीवन के विविध स्वरूपों से सर्वथा अनभिज्ञ होता है। उसके ज्ञान-विकास के निमित्त, बढ़ती हुई अवस्था के साथ जीवन-शिक्षा के स्वरूपों में बराबर अन्तर होता जाता है।किशोरावस्था प्राप्त होते-होते उससे संभावित कुमार्गों पर जाने से बचाने के लिए कहानी का माध्यम अति उपयोगी सिद्ध हुआ है।कथालिकाओं के पटल पर कबिता के रंगों से अवगुणों के दुष्परिणामों का चित्र उभाङना कवि-तुली का उत्तम साधन है, जो बिना ह्रदय को प्रभावित किए नहीं रहता। ‘उधर मत जाओ’ कहने की अपेक्षा मार्ग के संकटों का दृश्य उपस्थित करना अधिक उपयोगी है।

इस नन्ही सी पुस्तक में सोलह कथालिकाओं द्वारा पराङ्मुख करने का उद्देश्य है। कथाओं में जीवन पथ पर चलने की प्रचूर प्रेरणा है।भाषा की सरलता, छन्दों की गेयता, पंक्तियों की लघुता आदि गुण बालकों के ज्ञान और रुचि को ध्यान में रखते हुए ही बनाए गए हैं। इसमें कहावतें और मुहावरों का स्वाभाविक प्रयोग भाषा को सुबह बनाता है। शिक्षित बालक, किशोर किंवा सभी लोगों के मनोरंजन के साथ नैतिक शिक्षा प्रदान करने को उसने सहज शक्ति है। प्रायः, कथाओं की अंतिम पंक्तियों में नैतिकताओं को स्पष्ट करने में कवि का भी यथेष्ट योगदान है।यदि आप स्वयं पढ़कर अपना मनोरंजन करेंगे और शिशुओं को सुना कर उनको लाभान्वित करेंगे तो मैं अपने समय एवं परिश्रम को सार्थक मानूंगा।


विश्राम यादव ‘विश्राम’





अनुक्रमणिका

क्रमांक पाठ पृष्ठ


१ उपदेश का हीरा न दो १

२ अयोग्य पदाधिकारी

कलह का परिणाम ६

जैसा देश, तैसा वेश १०

घमंडी का सिर नीचा १२

शत्रु मिताई १४

छल का फल १८

पाखंडी का भंडाफोड़ २१

बड़ों की नकल २४

१० चाटुकार लोमड़ी २७

११ सिंह की खाल २९

१२ लालच का अंधा ३३

१३ अनपढ़ से पाला ३५

१४ कौतकिया जुलाहा ३७

१५ तोता रटन्त शिक्षा ४०

१६ हँसना सीखो ४३

बाल -नीति -गीता


‘ईश-वंदना’


हे सर्वशक्तिमान ईश ! शक्ति दान दे ।

है ज्ञान का निधान मुझे आत्म-ज्ञान दे ।।

वह ज्ञान कि जिससे विमल प्रकाश पा सकूं।

जीवन के अंधेरे में सही राह जा सकूं ।।

वह शक्ति जिससे अपना नियत कर्म कर सकूं ।

होकर समर्थ दूसरों का कष्ट हर सकूं ।।

न ऊँच-नीच भेद हो, न जाति-धर्म का ।

हो भेद तो केवल हो, पाप-पुण्य कर्म का ।।

प्रभु ! जीव मात्र पर, ह्रदय में प्रेम प्यार दे ।

आचार में, व्यवहार में, मानव विचार दें ।।

उपकार स्वार्थहीन , स्नेहमय, पवित्र दे ।

कुछ दे न दे हे नाथ ! पर निर्मल चरित्र दे ।।


उपदेश का हीरा न दो

चाहता लस्सी हो, मट्ठे में नमक-जीरा न दो

दाँत से जर्जर को मघई पान का बीड़ा न दो ।।

यदि हो मोतियाबिन्द तो चश्मा दिखाओ मत उसे

मित्र दुर्जन को कभी उपदेश का हीरा न दो ।।


इस विषय में आप सुनिये एक छोटी सी कहानी

जाड़े के दिन थे, हवा थी, साथ में गिरता था पानी ।।

घर में भी कपड़ा लपेटे, लोग थर-थर काँपते थे ।

शीत से भयभीत, आगे आग रखकर तापते थे ।।


डाल का ले आड़ बैठा, पेड़ पर था एक बंदर ।

सिर तथा निज हाथ-पैरों को दबाये छाती अन्दर ।।

माथ से पानी टपकता, पोंछता था उसको रह-रह।

गनगनाता देह, अंग-अंग से था गिरता नीर बह-बह ।।

इंगुदी के उस अकेले पेड़ पर टीले के ऊपर ।

घोंसले लटके थे बहुतेरे वपा चिड़ियों के उस पर ।।

देख बंदर की मुसीबत, तरस आता था सभी को ।

बोलने का उससे साहस होना पाता था किसी को ।।

उस समय भी बे पखेरू नीड़ों में थे चहचहाते ।

बच्चे झूला झूलते थे, और बये थे गीत गाते ।।

देख कर आनंद उनका दुष्ट बन्दर जल रहा था ।

उनका सुख से झूलना उसको बहुत ही खल रहा था ।।


पास के खोंते थे मैं बैठा एक जोड़ा था बया का ।

गुड़गुड़ाता देख कपि को भाव अति उमड़ा दया का ।।

एक बोला, “ देखो तो कितना विमोही है विधाता ।

जाने किस अपराध से है वह इसे इतना सताता।।


घर नहीं है पास इसके , मान खन पता नहीं ।

कष्ट जितना सह रहा है, वह कहा जाता नहीं ।।

दूसरा बोला, “ मला भगवान का है दोष क्या ?

कर्म से चुका हुआ है, दूसरे पर रोष क्या ?

हे दिया परमात्मा ने आदमी का हाथ सुन्दर ।

कष्ट फिर क्यों है उठाता, हाथ-पैरों वाला बन्दर ।।

क्यों नहीं यह भी बना लेता है घर इंसान ऐसा ।

चोंच से ही घोंसला हमने बनाया है, यह कैसा ।।



कौन सी करता कमाई है, यह दो-दो हाथ पाकर ।

सारे दिन है फांदता पेड़ों पे मीठे फल चबाकर ।।

क्रोध उमड़ा आ रहा था, बात बन्दर सुन रहा था ।

सुधि नहीं थी शीत की, वह क्रोध से जल-भुन रहा था ।।

ठंड से व्याकुल था, लेकिन अब न बैठा रह सका वह ।

इससे आगे अपनी निंदा अब न बन्दर सह सका वह ।।

रख लिया खोंती, बड़ा कर्मी, बड़ा ज्ञानी बना है ।

व्यंग वानी बोलता है, कितना अभिमानी बना है ।।


क्या बिगड़ता है तुम्हारा मैं रहूं चाहे नी जैसे ।

मांगता तुझसे नहीं कुछ, कर रहा निन्दा तू कैसे ?

हो चले उपदेश देने, कर्म तुमको हूं दिखाता ।

थे हँसी मेरी उड़ाते, लो मजा उसका चखाता ।।

कट- कटा कर कूदा बन्दर, घोंसला सबका उजाड़ा ।

मर गए सारे पखेरू सह न पाए घोर जाड़ा ।।

तिलमिलाता क्रोध से, वह भी गिरा बल बुद्धि खोकर ।।

प्राण अपने भी गवाँये, चोट से बेहोश होकर ।।



दुर्जनों की मित्रता भी है नहीं संकट से खाली ।

केले को है छेदती, डाली कँटीली मिलने वाली ।।

है कभी अच्छा न होता दुर्जनों से बोल देना ।

उसके हित की बात बतलाना, है आपद मोल लेना ।।


















अयोग्य पदाधिकारी

सावन का पड़ रहा फुहारा । आधी रात घना अंधीयारा ।।

कभी बरसता रिमझिम पानी। सपना देख रही थी रानी ।।

साथ न कोई सखी सहेली । सुख से थी सो रही अकेली ।।

बोल रहा था कहीं पपीहा । टेर लगी थी पी-हा, पी-हा ।।


बोली सुनकर रानी जागी । उसकी नींद अधूरी भागी । ।

सपना भी रह गया अधूरा । नींद न पूरी स्वप्न न पूरा । ।

बोली रानी को अति भायी । नींद नहीं फिर उसको आई । । करवट लेते रैन बिहायी । भोर भया डुग्गी पिटवायी ।।


“एक चिड़िया रैन जगाती थी । पी-कहाँ पी-कहाँ गाती थी ।।

यदि कोई उसे जानता हो । रंग-रूप भले पहिचानता हो।।

तो जीवित उसे पकड़ लाये । लाकर रानी को दिखलाये ।।

सब से पहिले जो लायेगा । सोने का कंगन पायेगा” ।।


बहू बहेलिये तत्काल चले । ले-लेकर फन्दा जाल चले ।।

पेड़ों के पत्ते फूलों में । अमराई, बांस, बबूलो में ।।

सब ढूंढ ढूंढ करके हारे । ताली पिटे ढेले मरे ।।

दिन भर हरेक बन बन धाया । पर पपीहा हाथ नहीं आया ।।

थक गए दौड़कर चार पहर । खाली हाथों निराश होकर

तब एक के मन में यह आया । उल्लू ही एक पकड़ लाया

रंग दिया पंख उसके रचकर । पक्षी बन गया विचित्र सुधर

पहुंचा सबसे पहले लेकर । बोला रानी को अर्पित कर


पुरखों की पुण्य कमाई से । है मिला बड़ी कठिनाई से

दूसरा ना कोई पा सकता । दूसरा न कोई ला सकता

रानी पाकर अति हर्षाई । मन चाही वस्तु हाथ आई

पक्षी लग रहा अनोखा था । रानी ने कभी न देखा था

मुँहमाँगा उसका दाम दिया । कंगन सुनहरा ईनाम दिया ।।

वह घर हुलास के साथ गया । उल्लू रानी के हाथ गया ।।

उल्लू पिंजड़े में बंद हुआ । रानी को बहुत पसंद हुआ

सोने का कंठा पहनाया । सोने से पिंजड़ा मडवा आया

पक्षी का बड़ा दुलार किया । सहला-सहला कर प्यार किया ।।

आदर से उसको पुचकारा । सिटी दे देकर हुशकरा

फिर कहां की गाना गा बेटा । वह सुंदर गीत सुना बेटा

जो रात थे गाते गा बेटा । “पी-कहाँ ” की बोल सुना बेटा


रानी चुटकियाँ बजा हारी । बहु भांति उसे हुशका हारी

पर वह बेचारा क्या गाये ? उल्लू को गाना क्या आये

रानी अत्यन्त उदास हुई । अब पूरी तरह निराश हुई

अपनी गलती पर खेद हुआ । यह प्रगट सभी पर भेद हुआ

मंत्री ने देखा पहचाना । बोला ,यह क्या जाने गाना ।।

है जहां बसेरा हो जाता । लहराता बाग उजड़ जाता ।।

यह उल्लू कहलाता है । दिन में इसको न सुझाता है ।।

मैंने देखा बहुतेरा है । शुभ नहीं इसका बसेरा है ।।

जब अंधेरा हो जाता है । तब यह कचपची मचाता है।।

छोड़े यह उड़कर हट जाये। फिर निकट नहीं आने पाये।।

यह किसी भी काम न आयेगा । कचपच कर कान दुखायेगा ।।

थप्पड़ दे उसको हटवाया । रानी से भेद यह प्रगटाया ।।

ऐसे अयोग्य बहुतेरे हैं । जो ऊंची कुर्सी घेरे हैं ।।

जब परख की घड़ी आती है ! उनकी कलई खुल जाती है !!

आडम्बर की महिमा अपार ! बन का राजा बनता सियार !!

वह भी पहिचाना जाता है ! जब हुँआ हुँआ चिल्लाता है !!

पड़ता है तब उसको रोना ! पीतल लगता जिसको सोना !!

भगवान बचायें जालों से । उन नकली डिग्री वालों से !!

कलह का परिणाम

एक पेड़ पर नीड बना रहती थी मैना काली

श्रम हरति सीतल बयारि थी , मन हरति हरियाली

एक डाल के कोटर में , आ बसा कही से तोता

जिस पे लगा रही थी , काली मैंना अपना खोता


कोटर में तोते को जाते , देख जल उठी मैंना

कहा बतारी दुष्ट बना चाहता है काल - चबैना

बता पेड़ के कोटर में, तूने क्यों कदम बढ़ाया

किसकी अनुमति से तू बसने इस पर आया


नहीं पता पुश्तैनी है , इस पर अधिकार हमारा

कई पीढ़ियों से रहता आया परिवार हमारा

भला इसी में हैं तू ढूंढ़ले , अपना और ठिकाना

तू मतलब का यार, कठिन है तुमसे साथ निभाना




सुन मैंना की बात अकड़ कर , तोता भी टर्राया

किसका क्या अधिकार ? है तेरे बाप ने पेड़ लगाया ?

बहुत दिन रह चूंकि अकेले, में अब यहीं रहूंगा

तेरे ढेले का उत्तर , पत्थर से ही में दूंगा


समझ गई मैंना , सीधी अँगुली घी माहि कढ़ेगा

जितना ही में नरम पड़ेगी, सर पर और चढ़ेगा

झपट पड़ी तोते पे मैंना , कसकर चोंच चलाया

तोते ने मैदान न छोड़ा , चंगुल-चोंच मिलाया


चें-चें मैंना चिलायी , तैं-तैं तोता

झगड़ा सुनकर जग गया , नीचें विलाव था सोता

चुपकें-चुपकें चढ़ा पेड़ पर अति समीप नियराया

लड़ने की धुन में , आहट न किसी ने पायी


सहसा एक झपटा मारा , दोनों हाथ चलाये

एक-एक पंजे में उसके , तोता मैंना आये

झगड़ें का कारण पूछा जो , सारी घटना जाना

उसे मिल गया दोनों को खाने का भला बहाना





पहिले दोनों को समझाया, कहकर कोमल वानी

“मैंने जान लिया दोनों हो , झगड़ालू अभिमानी

मिलकर एक जगह पर रहना तुम्हे नहीं है भाता

अगर पेड़ पर दोनों रहते किसका क्या घट जाता”


प्रेम से मिलकर दोनों बसते, कितना अच्छा होता

हँसते-गाते चहका करते, सरे मैंना तोता

चहल-पहल राती दिन रहती लगता परम सुहाना

नीचें बैठा रही सुनता सुखप्रद मीठा गाना


एक दूसरे पर जब कोई विपद-आपदा आती

दोनों ही कुनबे बन सकते थे सुख-दुख के साथी

नीति यहीं है आप जियो, औरों को भी जीने दो

दे न सको तो छीनो मत , सबको खाने-पीने दो


किसी का घर उजाड़ कर बसना , बात बहुत छोटी

तुम भी आप उजड़ जाओगे , यदि मत होगी खोटी





लेकिन यह बढ़िया विचार तुम में न किसी को आया

मैंना तुही पहिले झगड़ी , ले उसका फल पाया

ऐसा कहते उस बिलाव ने गरदन पकड़ दबाई

बड़े जोर से काली मैंना चें-चें-चें चिल्लाई


अपनी गलती पर पछताती गई पेट में मैंना

बिखर गया धज्जी-धज्जी हो बेचारी का डैना

तोते ने मैंना को मरते अपनी आँखों देखा

किन्तु न सुधि अपनी होती थी लगता अनदेखा


देख रहा था तड़प -तड़प कर प्राण त्यागती मैंना

देख रहा था खाई जाती नोच-नोच क्र डैना

उसकी देख-देख यह दुर्गति मन में था खुश होना

पड़ा काल के पंजे में चेतत नहीं था तोता


उसकी उदरसात करके , तोते पर आँख उठाई

बोला, टर्रेबाज ! क्यों यहीं दाल तुम्हें थी भाई ?

कितने सुन्दर पेड़ खड़े है सभी और सुखदाई

इसी डाल के लिए ठान ली क्यों यह घोर लड़ाई


तुम्हें समझ लेना था सुख से यहाँ न रह पायेगा

उस झगडाल मैंना से लड़ते जीवन जायेगा

किसी दूसरे कोटर में जा करते शान्त बसैरा

तब यह झगड़ा खड़ा न होता प्राण न जाता तेरा


तू ने तो हठ करके उस से बरबस लिया - लड़ाई

उलझ गया झगड़े में ऐसा काल न पड़ा सझाई

रे अविनीत ! तुम्हारे कारण मैंना मरी बेचारी

अब उसकी भी लगी तुम्हारे ही ऊपर हत्यारी


देखु इन्हीं अपराधों का तू भी बदला पायेगा

जैसे उसका प्राण गया है तेरा भी जायेगा

जैसी करनी रही तुम्हारी, तैसा ही फल पाया

अब न बचेगा इन् जबड़ों से कहकर दाँत दिखाया


चीख उठा पंखे फड़काये , तैं-तैं-तैं चिल्लाया

पंखे डैने नीच-नीच कर सुख से उसकी खाया

आपस में कर कलह मिट गये दोनों मैंना-तोता

सदा यही परिणाम परस्पर के झगड़ों का होता




हो जाता विध्वंस बात रिपओं की है बन आती

औषध बिना रोग कट जाता शीतल होती छाती

बुद्धिमान नर कभी नहीं आपस में कलह मचाते

सह लेते अपमान, निकट झगड़े के नहीं हैं जाते


दोहा - जहाँ सुलह तहँ सम्पदा , जहाँ कलह तहँ नास

शिक्षा यही हैं व्यास की कहिगे तुलसीदास













जैसा देश, तैसा वेश

पंडित जी थे बड़े पुजारी। कहलाते थे चन्दन धारी।।

यद्यपि थे वे ग्राम-निवासी। किन्तु रहा करते थे काश।।

लम्बी धोती, पोथी टीका। यह बना था पंडित जी का।।

संस्कृत के थे ज्ञाता भार। भाषा यही उन्हें थी प्यारी।।


गणना होती विद्वानों मे। आदर पाते यजमानों में।।

बेटा साथ रहा करता था संस्कृत कॉलेज में पढ़ता था

पंडित जी जब अवसर पाते स्वयं प्रेम से उसे पढ़ाते

पढ़ने का यह मंत्र बताया अपनी उपमा दे समझाया


अपना यह सिद्धांत बना लो संस्कृत भाषा को अपना लो

घर-बाहर जिससे भी बोलो संस्कृत बोलो जब मूँह खोलो

इससे संस्कृत ज्ञान बढ़ेगा जनता में सम्मान बढ़ेगा

अपना पिद्याभ्यास बढ़ेगा लोगों का विश्वास बढ़ेगा


पुत्र ने उनकी आज्ञा मानी लगा बोलने संस्कृत बानी

क्या कालेज क्या हाट नगर नौकर-चाकर से भी घर में

मजती गई मथा क्रम भाषा बढ़ती गई अधिक अभिलाषा

प्रायः सुनकर उसकी बोली करते बहुधा लोग ठिठोली

अंत बड़ा ही हुआ भयंकर निंदा हुई कहावत बनकर

पढ़ा लिखा वह मूर्ख कहाया पंडित जी ने प्राण गँवाया

पंडित जी थे घर पर आये लड़के को भी थे ले आये

गए कुए पर आप नहाने बेटा गया साथ नहलाने


बोल-बोल कर संस्कृत बानी देने लगा खींचकर पानी

पंडित जी ने खूब नहाया आसपास कीचड़ फैलाया

फैल गया जल बहुत पवटकर फिसलन हुई वहां पनघट पर

लगे फांदने तनिक उछलकर कुएं में गिर पड़े वीचलकर


सिर पर टूटा संकट भारी घबराया सूत आज्ञाकारी

प्रश्न सामने गूढ़ हो गया की कर्तव्य वीमूढ़ हो गया

एक व्यक्ति हल चला रहा था जाने क्या गुनगुना रहा था

चिल्लाया, हे-हे हल ग्राहे पिता पतत कूपे हल ग्राहे


हलवाहा कुछ समझ न पाया सुनकर कर के भी पास न आया

पंडित एक बार उतर आये सूत की शिक्षा पर पछताये

कहां मूर्ख झट बोल देहाती जल्दी बुला जान अब जाति

तब चिल्लाया दौड़ा भैया बाबू मरे न बाप रे मैया



हलवाहा आ उतरा तल में पंडित मिले न जीवित जल में

गत हो चुके थे पीकर पानी ले डूबी थी संस्कृत बानी

ग्राम निवासी दौड़े आये युवित लगा शव बाहर लाये

हलवाहा अति ही पछताया दुर्घटना का भेद बताया


कहां अगर में पहिले आता पंडित जी का प्राण न जाता

बातों में इनकी समझ न पाया सुनकर भी मैं पहुंच न पाया

पर अब पछताए क्या होता मूढ़ बना बालक था रोता

ग्राम निवासी थे पछताते तरह तरह की बात सुनाते


किसी ने दिया यह उपदेश “ जैसा देश तैसा वेश”

किया किसी ने व्यंग अमोल “देसी कुकुर विलायती बोल”


काबुल गए मुगल हो आए बोले अरबी बानी

आव-आव कही मर गए सिर हाने रखा पानी







घमंडी का सिर नीचा

जब तन-बल, धन बढ़ जाता। सर पर घमंड चढ़ जाता।।

प्राणी होता माध से अन्धा। करता है पागल सा धन्धा।।

चलता इतराता अकड़-अकड़। बातें करता है बढ़-बढ़ कर ।।

करता है अपने मन-मानी। सुनता न भले की भी बानी।।

जो हित की बात बताता है। वह उसको नहीं सुहाता है।।

सब से ही रार मचाता है। तब आँखों पर चढ़ जाता है।।

फिर अधिक नहीं रह पता है। वह कल कवल हो जाता है ।।

कैसे मिटता अभिमानी है। उसकी भी एक कहानी है।।


एक भैंसा था जंगल वाला। लगता था हाथी मतवाला।।

अभिमान बहुत ही था बल का। दुश्मन था भरी निर्बल का।।

घुमा करता मद-माता था। सब को पौरुष दिखलाता था।।

सामने जिसे पा जाता था। उसको ही सींग उठाता था।।

सब पशु उससे भय कहते थे। स्वच्छन्द न चरने पाते थे।।

पेड़ों मैं सींग रगड़ता था। टीलों से घंटो लड़ता था।।

सब सांड, हिरन थर्राते थे। बारह सिंगे घबराते थे।।

जब उसकी आहट पाते थे। कतराते, आँख बचाते थे।।


एक बार वह कहीं जाता था। एक बकरा भागा आता था।।

भैंसे ने उससे निहारा जब। दर कर रुक गया बेचारा तब।।

भैंसा बोलै , “मत डर मुझे। मैं बोलूंगा कुछ नहीं तुझे”।।

पुछा, “क्यों भागा जाता है। क्या पीछे कोई आता है”।।

बकरा बोला, ‘कुछ कह नहीं । मैं बता रहा हूं बात सही।।

है कुशल, न अब आगे जाओ। कतरा कर इधर निकल जाओ।।

बढ़ने मैं हैं प्राणो का डर। आगे सोता है शेर-वबर’।।


भैंसा बोला , " तू जा बच कर। क्या करेगा मेर शेर -वबर।।

मुझ से जब आंख मिलायेगा। वह पूछ दबा भाग जायेगा।।

तुम देखो अभी मैं जाता हूं। सींगों पे लटका लाता हूं।।

कहता अकड़ता हुआ बढ़ा। निधड़क जाता ही रहा चढ़ा।।

तब तक भागी हिरनी आई। बोली मत आगे जा भाई।।

लेता हैं आगे सिंह बबर। उसकी न कहीं पद जाये नजर।।


भैंसा, ''बोला मत टोंक मुझे। हैट राह छोंड़ मत रोक मुझे।।

उसने अपना ही हाथ ठाना। हिरानी की बात नहीं मान।।

वह गर्दन ताने चला गया। निज बल दिखलाने चला गया।।

हिरनी ने सोचा, हे भगवान। है बुद्धि हर लिया, दे बल-धन।।

है कल शीश पर मंडराता। कैसा ढकेल कर ले जाता।।

अब कोई बचा न पायेगा। बल का घमंड खा जायेगा।।

अपने को रोक न पता हैं। यह कल-गाल मैं जाता हैं।।


जब भैंसा और निकट आया। तब सिंह ने कुछ आरव पाया।।

इत बढ़ो गये भैंसा भाई। ली सिंह ने उधर अंगड़ाई।।

'फों-फों कर भैंसा बढ़ आया। तब क्रोध सिंह को चढ़ आया।।

तब उठ करके गुर्राया। भैंसे ने तेवर दिखलाया।।

फिर सिंह उछलने को छपका। भैंसा समझा डर कर बका।।

मारने को झूका, हुंकारा। केहरि उछल पंजा मारा।।

वह ऐंठी गर्दन झूल गई। भैंसा की शेखी भूल गई।।

रह गई व्यर्थ संगे मोटि। तड़पने लगी बोटी-बोटी।।

भैंसा अभिमानी ढेर हुआ। खा शिकम-सेर खुश शेर हुआ।।

गिद्ध-कौओं ने आंतड़ि खींचा। सिर हूंआ घमण्डी का नीचा।।









शत्रु मिताई

कूप एक था बना हुआ किसी ज़बान में

वन्य -जीव जहाँ डोलते थे सुनसान में

भेक परिवार एक रहता था कूप में

रहता था अन्धकार दिन की भी धूप में

झाड़-झंखाड़ भी कुऍं के आस पास थी

कुऍं के लिलार पे भी छाई हुई घास थी

एक मंडूक के पिछाड़े लगा साँप था

दर से अधीर हुआ भेक रहा काँप था

भागा-भागा आया,नहीं देख पाया कूप को

जा गिरा उसी में , हुता धोका मंडूक को

कूप वाले मेंढकों से , बीती गाई बात सब

बातन में दिन बीता , आई काली रात तब

याद पड़ी भेकी , लगा करने विआप तब

वह भी कुऍं में कूदी हो गया मिलाप तब

छूटा परिवार कभी रोते कभी गाते थे

बाहों में लपेट दोनों फूले न समाते थे

दम्पति का एक दूसरे से बड़ा प्यार था

प्यार का संसार, वहीं सुख का आधार था

पावस ते अण्डे फूटे , लार्वा निकल पड़े

सैंकड़ों ही बेटी बेटे कुऐं में उछल पड़े

दो-दो परिवार ! प्रश्न खड़ा था आहार का

टूटने सम्बन्ध लगा प्रेम व्यवहार का

दोनों ही कुटुम्बी जब कभी घात पाते थे

लुक-छिप एक दूसरे को लील जाते थे

कभी कल कोई पानी खींचने जो आता था

रस्सी के सहारे घड़ा नीचे लटकाता था

मेढक उसी पे कूद मन बहलाते थे

कभी घड़े के साथ वे भी कढ़ आते थे

ऐसा हुआ कुछ संयोग एक बार का

कढ़ा सरदार एक भेक परिवार का

चाहता था छिपना कहीं वह घनी घास में

वहीं बैठा हुआ था विशाल नाग पास में

देख के प्रसन्न हुआ , आ मिला आहार है

सोचा भूत-भावन की महिमा अपार है

व्यंग कर पुछा , 'भला कैसे यहाँ आप हें?'

बोलते नहीं हें , मन मारे चुपचाप हें ?

सुख से विराजें अभी स्वागत करूंगा मैं

आप हैं अतिथि अभी पेट में धरूंगा मैं

भेक बोला,'आपको ही ढूंढता मैं आता हूं'

नाम 'गंगदत्त' सत्य आप से बताता हूं

भोज हैं हमारे यहाँ , भीड़ लगी भारी है

आप भी पधारें वहाँ, प्रार्थना हमारी है

साथ ही विनय है , रखे मुझ पे दया सदा

मुझे ही न खायें, कभी आये जब आपदा

सर्प बोला ,"मेरी देव-योनि कही जाती है

धोखा-धड़ी मेरे यहाँ पाप मानी जाती है

तुम हुए मित्र , झूठी बात न कहूँगा मैं

जीवन में विश्वासघात न करूंगा मैं

गुरु से कपट , मित्र छल करता है जो

मरता है कुप्टरोगी अथवा दरिद्र हो

भागे गंगदत्त तब उछाल मारते चले

पीछे नागदेव घास-फूस फारते चले

गंगदत्त कूदे, कूप जल में समा गये

पीछे लगे नागदेव भी तुरन्त आ गये

देखा वहां खाने का अपार भण्डार है

पूरा अधिकार दूसरा न साझीदार है


शत्रु-परिवार गंगदत्त ने दिखा दिया

इन्हीं का लगायें भोग मित्र को सिखा दिया

गंगदत्त परिवार सुख-नींद सोता था

विपद सताया दूसरा कुटुम्ब रोता था

होते-होते एक दिन ऐसा तब आ गया

सारा शत्रु परिवार पेट में समा गया

तब नागदेव ने कहा , मैं अब क्या करूँ ?

किसे अब खाऊं कैसे पेट अपना भरूँ

गंगदत्त बोले , मेरा परिवार शेष है

रहना है व्यर्थ जब आप ही को क्लेश है

मुझे और भेकी छोड़ किसी को भी खाइये

आँख हम दोनों पर कभी न उठाइये

थोड़े ही दिनों में खाया पूरे परिवार को

सभी बने नाग-ग्रास छोड़ तीन चार को

देख गंगदत्त को महान संताप था

शत्रु की मिताई का अपार पश्चाताप था

अपने भी प्राण का लगा सदैव त्रास था

छोड़ेगा मुझे भी नहीं , पूर्ण विश्वास था

घड़े के सहारे भगा वह कूप छोड़ के

शेष पुत्र-पुत्रियों की माया-मोह तोड़ के

बाहर निकल भेक हुआ गत त्रास था

आस-पास कूप के ही करता निवास था

वारी पर बैठ कभी-कभी कूप झाँकता

कितने को खाया , कितने है शेष आँकता

एक दिन बोला नाग , भेक को निहार के

' भाई गंगदत्त ! कह प्यार से पुकार के

मित्र ! मैं तुम्हारे बिना परम अधीर हूं

कितना है कष्ट कुछ कहा नहीं जाता है

उदार की आग से शरीर दहा जाता है

गंगदत्त बोले , 'मैं कदापि नहीं आऊंगा

एक बार भूल हुई, नहीं दुहराऊंगा

आप की मिताई का अपार मुझे क्लेश है

दोनों परिवार में बचा न कोई शेष है

ऐसा परिणाम पहिले जो सोच पाता है

बैरी को बुलाके वंश ध्वंस न करता मैं

परिवार द्रोह में जो शत्रु को बुलाता है

होके जयचन्द पूरे वंश को मिटाता है






छल का फल

वन में करता राज एक था सिंह अकेला ।

बड़ा प्रतापी नाम पड़ा था '' वीर -बघेला ''।।

उससे थर्राते थे वन के प्रानी सार।

चलते निज-निज राह , सभी थे भय के मारे।।

सब सबको जीने देते , सुख से जीते थे।

सिंह और बकरे सट कर पानी पीते थे।।

बसने का अधिकार वहाँ सबको समान था

बड़ा चैन था वीर बघेला जब जवान था

समय बड़ा बलवान बाघ हो गया पुराना।

दूभर चलना हुआ , उछलना , दौड़ लगाना।।

शिथिल पड़ गया शासन , सहस सबके जागे।

नहीं समझने लगे किसी को अपते आगे।।

जो शिकार थे , वही बन गये , बड़े शिकारी।

लगे बताने अपने को भारी अधिकारी।।

सिंह नाम सुन मर जाती थी जिसकी नानी।

'तीस मर खां' बने लगे करने मन-मानी।।

बिल्ली भी बन गई, बाघ की मौसी खासी।

कमजोरी पर किन्तु छा गई निपट उदासी।।

आजादी मिल गई छली डाकू चोरों को।

करते मनो विनोद सताकर कमजोरों को।।

बन-बिलाव था एक बड़ा ही मोटा-ताजा।

बनता था वह सिंह गोत्र का 'बेटा राजा'।।

निबलो का था सहज-शत्रु , आत्माभिमानी।

उसकी कपट चातुरी की है एक कहानी।।

उस बन में था एक बड़ा चूहा धरनीधर।

थी आ गई बारात एक भारी उसके घर।।

मची हुई थी धूम बिबर के भीतर बाहर।

मना रहे थे ख़ुशी बराती उछल कूद कर।।

पहुंचा छली बिलाव , तभी घूमता वहाँ पर।

लगा रहे थे भोग बराती , बैठ जहां पर।।

आँख बचाकर , दबे पांव आकर नियरायां।

मारी एक छलांग , बिवर के मूंह पर आया।।

देखा मूषक-युथ , जीभ से टपका पानी।

गढ़ा बहाना तुरन्त, पकड़ खाने की ठानी।।

सूरत उसकी देख मच गई भगदड़ भारी।

भये दुखी तबही चुंहो की हिम्मत हारी।।

बदला वातावरण वहां छाया सन्नाटा।

उस बिलाव ने सबको यह कहकर डांटा।।

नहीं गई अब तक तुम सबकी बात पूरानी।

मना रहे है खुशी आज वन के सब प्रानी।।

राजा ने कालहि वन में डुग्गी पिटवा दी।

शासन है जनतंत्र, मिली सबको आजादी।।

वन-पशु हैं सब एक , एक परिवार हो गया।

इस शासन में निबलों का उद्धार हो गया।।

किसी के घर कुछ काम-काज शादी-विवाह हो।

करें सब सहयोग नहीं कुछ द्वेष-डाह हो।।

पायेंगे भरपूर मदद अब नए राज से।

लागु है कानून हो गया यहां आज से।।

इसी लिये मैं भी आया बनके रखवाला।।

मुझे बतायें यदि कुछ भी हो दाल में काल।।

मेरे रहते नहीं किसी की दाल गलेगी।

बन्द करा दूंगा न किसी की एक चलेगी।।

सुन कर उसकी डोंग, कहा यह धरनीधर ने।

हम सब को दें आप आपही जीने-मरने।।

सबसे बड़ी सहाय यहीं है आज हमारी।

हटें छोड़ कर द्वार , मैं कर लूँगा रखवारी।।

बन बिलाव बोला, मैं ड्यूटी कैसे छोडूं ?

कल जो बना विधान आज ही कैसे तोडूं ?

तब तक आते दिखे दो श्वान शिकारी।

उन्हें देखते ही भूली सारी मक्कारी।।

पूंछ गिरा , बोला बिलाव,'धरनी धर भाई।

अच्छा, लो मैं चला ,करो तुम व्याह-विदाई।।

धरनीधर बोला , " सुनिये तो बेटा राजा।

समाचार कुत्तों को भी तो दे दो ताजा।।

पाहुर लेते जाव , और ठहरो पल आधा।

पड़ सकती है , इन कुत्तों से मुझे भी बाधा।।

अब तो तुम्हें न इन कुत्तों से कोई दर है।

बना एक परिवार , भला अब कौ फिकर है।।

बोला छली बिलाव , बात है सत्य तुम्हारी।

जाती स्वाभाव न जाय,दूसरे श्वान शिकारी।।

ये कूकुर की जाती नहीं नाता जोड़ेंगे।

यदि ये देखे ,मुझे , न तव जीता छोड़ेंगे।।

चखा जिन्होंने खून , कभी उसको बिसरेंगे ?

बच न सका मैं हाय !आ गये ,अभी धरेंगे।।

आ पहुंचे त्यों श्वान , एक ने गला दबाया।

दौड़ा था बग टूटे, वपुरा भाग न पाया।।

चीथ दिया दोनों कुत्तों ने उसकी छाती।

देख रहे थे सभी तमाशा खड़े बराती।।

समधी धरनीधर तो देख , फूला न समाया।

कितना सुन्दर फल निज छल खेलने पाया।।



पाखंडी का भंडाफोड़


पांडे बाबा बड़े पुजारी। मने जाते पंडित भारी।।

लाल-लाल कंधे पर झोल। पोथो पत्रा ठाकुर भोला।।

कर्मकांड का ज्ञान बहुत था। बड़ा नाम सम्मान बहुत था।।

जिस घर पांडे बाबा जाते। पुष्कल दान-दक्षिणा पाते।।


जिस घर शुभ अवसर आते। पंडितजी बुलवाये जाते।।

रशि-मुहूर्त विपाक बताते। कथा वांचते , पाठ सुनाते।।

भाग्य देखते, बहुत हटाते। ग्रह-बाधा प्रभाव विघटाते।।

कंठी देते , शिष्य बनाते। पांडे जी बहु भाती कमाते।।


ठग-विद्या-धन धरा जोड़कर। लक्ष्मी बैठी पॉंव तोड़कर।।

किन्तु नहीं फली पाप कमाई। सतति एक न अच्छी पाई।।

बहिरा एक , एक सुन काना। एक पुत्र था ऐंचा-ताना।।

ऐंचा-ताना बड़ा आवारा। पांडे जी का पूत दुलारा।।


नाम परमसुन्दर 'संतोष'। रोम-रोम में भरा था रोष।।

घर से जब पढ़ने को जाता। कहीं बीच ही में रह जाता।।

पकड़ के जब पहुँचाया जाता। लड़कों का सामान चुराता।।

झूठा बोलता सोलह आने। उसके पास थे बहुत बहाने।।


जब था कभी खेलने जाता। कमजोरों को पार रुलाता।।

खेल में करता बड़ी रोआनी। देता नहीं था अपनी दानी।।

दुष्टों से रखता था मेल। सदा बिगाड़ा करता खेल।।

कभी न बात पिता की मानी। कर जाता था आना कानी।।


खेल था एक पतंग उड़ाना। काम था भाता भैंस चरना।।

खेला करता गुल्ली-डंडा। नेता बन फहराता झंडा।।

एक खेल का सुनिए हाल। लेकर गॉंव के बाल-गोपाल।।

खेल रहा था नदी के पास। गाढ़ी एक चरती थी घास।।


बच्चा मार कुलॉंच रहा था। थान पीकर के नाच रहा था।।

नटखट पन संतोष को आया। 'खरहा-खरहा' कह चिल्लाया।।

डंडा एक खींच कर मारा। उलट गया बच्चा बेचारा।।

अन्य साथियों ने भी पीटा। टाँग पकड़ कर खूब घसीटा।।


साँझ भई लड़के घर आये। घटना का वृत्तान्त सुनाये।।

अपने घर संतोष भी आया। अपनी करनी नहीं बताया।।

और बालकों के घर वाले। जाकर बच्चा देखे भाले।।

चिन्ता हुई सभी को भारी। लगी बालकों को हत्यारे।।

नक्षत्रा जी जो बतलायें। करके , हत्या पाप मिटायें।।

सब पांडे के पास पधारे। मुँह लटकाये , चुप्पी मारे।।

डरते ही डरते यह बोले। भेद गदह-छौने का खोले।।

लडके गधे का बच्चा मारे। बने हुए हैं सब हत्यारे।।


दंड-भोग अब भरना होगा। पाप दूर करना ही होगा।।

उतजोग जो आप बतलाये। करके हत्या-पाप हटायें।।

पांडे बोले , '' हे भगवान! गधे की हत्या गऊ सामान।।

मैं बतलाता हं उपचार। हत्या से कर लो उद्धार।।


कशी ये गंगा-असनान/अस्नान। प्रति हत्यारा दो गोदान।।

पाँच सीधा ब्राह्मण को रोज। दसवें दिन दो मन का भोज।।

जो भी नकद दक्षिणा देंगे। आँख बन्द कर हम ले लेंगे।।

पूजा-हवन सभी कर देंगे। नया वस्त्र तो सब ही देंगे।।


किस किस ने थे बच्चा मारा। बालक कौन मुख्या हत्यारा।।

थोड़ा कष्ट उसे सहना है। दो दिन बिना अन्न रहना है।।

बोल उठा तब एक सयान। नहीं आपने अब तक जाना।।

पाहिले था संतोष ने मारा। उन्हीने औरों को ललकारा।।


जो करना हो उन्हें बता दें। भली-भांति कहके समझा दे।।

आगे जो-जो आप करेंगे। वैसे ही सब लोग करेंगे।।

तब पांडे जी बोले , 'भाई ! तभी क्यों न यह बात बताई।।

वहां था बीटा जब सन्तोष/संतोष। गधा मारने का क्या दोष।।


गदहा मरा काल का मारा। एक भी नहीं है हत्यारा।।

मौत लिखी थी इसी बहाने। तभी न सब बच्चा पहिचाने।

उताजोग का काम नहीं हैं। हत्या इसका नाम नहीं है।।

हों निश्चिन्त सभी घर जाओ। लड़कों को मत दोष लगाओ।।


व्यंग बाण तब एक ने छोड़ा। पांडे जी का भन्डा फोड़ा।।

नक्षत्रा का सूत ' संतोष '। तब क्या हत्या तब क्या दोष ?

अपने पर जब आ जाती है। सारी निति विसर जाती है।।

चतुराई सब उनकी ताड़े। नाम पड़ा पाखण्डी पांडे।।







बड़ों की नकल

सड़क किनारे था बरगद का एक बड़ा सा पेड़ पुराना।

वहीं पास में, लहराता था , राजा का पोखरा सुहाना।।

थके तपे राही, रुक जाते थे , शीतल छाया में आकर।

बड़ी शान्ति सी मिल जाती थी , निर्मल जल सरवर में पाकर।।


लगाती ठण्डी हवा, पसीना मर जाता था , उनके तन का।

डर उठती थी जलन , ताप भी मिट जाता था थोड़ा मन का।।

जब तक जी चाहता छहाते, आने-जाने वाले राही।

भजन करते , कपडे धोते , मन बहलाते , नहाते राही।।


करते थे कल्लोल विविध पक्षी , बरगद का फल खाते थे।

दूर-दूर से प्यासे पक्षी , पशु पानी पीने आते थे। ।

मछली , मेंढक आदि जलचरो पर अपनी शनि दृष्टी जमाये।

सारस, बगुले आदि बहुत से खग रहते मुनि ध्यान लगाये।।


सड़क पार था एक कूप भी , मीठे जल का ऊंचा सुन्दर।

चुनी चने चबाने वाले बनिये भी थे तीन चार घर ।।

बहुधा गाड़ीवान , दुपहरी वहां बिताते बैल खोलते।

सुख से सानी-पानी करके थके बैल भी पैर मोड़ते।।


यदा-कदा बरगद के नीचे , मोची एक दुकान जमाता।

जूते सीता , बैलों-घोड़ों की खुर में था नाल लगाता ।।

नाल मारने में माहिर था , कभी नहीं पड़ता था कच्चा।

ढूंढा करते ग्राहक उसको , हाथ था उसका हलका-सच्चा।।


ऐसा हुआ एक दिन जब वह मोची नाल लगाने आया।

पाँच सात घोड़े बैलों का सुख से उसने काम बनाया।।

तभी एक मोटा सा मेढक, निडर शत्रु से , बाहर आकर।

देख रहा था सारा कौतुक , बड़े प्रेम से आँख गड़ा कर।।


नाल जड़ाने का ,उसके मन में भी, भरी शौक समाया।

काँटा-कीचड में चलने का , यह उपाय अति उसको भाया।।

संध्या होते , मोची ने जब घर के लिए उठाया झोला।

लम्बी कूद लगाता पहुंचा , सम्मुख होकर मेढक बोला।।


भाई रुको , नाल जड़ने का , मुझको भी दाम बता दो।

मेरे भी चारों पैरों में बढ़िया-बढ़िया नाल लगा दो।।

मोची हँसा,कहा,'बतलाओ , तुम्हे नल का भला काम क्या ?

बहुत बढ़ा है पास तुम्हारे , भला लूट का मिला दाम क्या ??


तेरे वश की बात नहीं , इन तलओं में नाल जड़ना।

घोड़े-बैलों बड़े जानवरों में उचित है होड लगाना।।

मेढक भाई ! नाल जड़ाने में तेरा कल्याण नहीं है।

प्राणो का महान संकट है , बढ़ने वाला मान नहीं है।।


बात कर रहा हित की तेरे , स्वार्थ नहीं है किंचित मेरा।

तुमको है यह नहीं सुहती, निश्चित ही है काल ने घेरा।।

रहो,रहा करते हो जैसे , चार दिनों का काट लो जीवन।

जग में मत उपहास कराओ मर्यादा का करके उलंघन।।

मेढक बोला काम क्यों नहीं ऊँचा हो करके बोलूंगा।

बिना धड़क कांटे-कुश में भी उछल-कूद करता डोलूँगा।।

साँप नेवले दूर भगेंगे खटपट करेगी नाल हमारी।

अपने कुल में नाम बढ़ेगी कट जायेंगी बाधा साडी।।


समझ रहे हो क्या तुम मुझको मैं इतना अज्ञान नहीं हूं।

मन मैं कद में छोटा हूं घोड़ो सा बलवान नहीं हूं।।

पर हित-अनहित जान रहा हूं रोड़ा बनो न राह में मेरे।

अपना ज्ञान पास में रखो पर उपदेश कुसल बहुतेरे।।



जो कहता हूं उसे करो तुम क्यों करते हो चिंता मेरी ?

पैसा लो अपने घर जाओ बे मतलब करते हो देरी।।

समझ गया मोची मूढ़ो उचित नहीं है बहस बढ़ाना।

इसका तर्क काटना होगा पत्थर पर तलवार चलाना।।


अब इस में दो राय नहीं है इसका काल अति निकट आया।

मति विपरीत हुई है पूरी मान नहीं सकता समझाया।।

दोष-पाप कुछ रहा न मेरा पाप है इस से पैसे लेना।

मतिमानों की नीति नहीं है बे मांगे शुभ सम्पति देना।।


यदि मैं इसका कहना न मानूं मुझको द्रोही ठहरायेगा।

अपने हठ पर तुला हुआ है निज करनी का फल पायेगा।।

ऐसा निश्चय कर मोची ने लिया हाथ में कील हथौड़ी।

कहों तो आओ नाल जड़ाओ लूँगा एक न झंझि कौड़ी।।


मेढक कूड़ा उलटा पद कर एक पैर आगे फैलाया।

त्यों मोची की गिरी हथौड़ी पिदुल उठा हिल डोल न पाया।।

छटक गई आँखें सिर कुचला प्राण-पखेरू उड़कर भागे।

बिथर गया मोटा तन उसका छोड़ कहानी जग के आगे।।



मोची धर कंधे पार झोला अपने घर की राह सिधारा।

यह पागल पैन सुनके उसका श्रोताओं ने ठट्टा मारा।।

बोल पड़े विश्राम व्यंग से मित्र आप कुछ बुरा न मने।

बड़े बड़ों से होड़ लगाकर मेघची चली थी नाल जड़ाने।।


















चाटुकार लोमड़ी

मान में था एक बूढ़ा स्यार। बुढ़िया स्यारिन बच्चे चार।।

इतने में ढूंढता शिकार। पहुंचा सिंह मान के द्वार।।

सूरत देखा डरा परिवार। बच्चे रोयें , कांपे स्यार/सियार।

क्या जाने मान में आजाये। भूखा सिंह हमें खा जाये।।


किया स्यार-स्यारिन ने राय। बचने का पा गये उपाय।।

बोल उठा चिल्ला के स्यार। बच्चे क्यों कर रहे विचार।।

स्यारिन बोली भरके साँस। मांग रहे हैं शेर का माँस।।

भगा सिंह दबा कर कान। प्राण बचाओ हें भगवान !!


पहुँचा एक जगह सुनसान। वही लोमड़ी की थी मान।।

काँप रहा था थर-थर शेर। हाँफ रहा था दौड़ के शेर।।

देख लोमडिं बाहर आई। पुछा करके बहुत ढिठाई।।

काँप रहे क्यों वन के राजा। क्या है समाचार कुछ ताजा।।


व्याकुल व्याघ ने यह बतलाया। वन में जन्तु भयानक आया।।

बना के रहता है वह मान। बे देखे न सका पहिचान।।

ज्यों में पहुँचा मान के पास। बच्चे मांगे बाघ का मांस।।

में सुन डरा , न बाहर आये। पकड़ मुझे ही ढेर बनाये।।


मिल जाये शिकार मुँह-मांगा। सुनते बेतहास मैं भागा।।

लुकते-छिपाते यहाँ हूं आया। अभी को धीरज मैं ने पाया।।

फंसा मामिला है बे जोड़। भागना पड़ेगा जंगल छोड़।।

नहीं दीखता है कुछ चारा। मैं हूं बिलकुल हिम्मत हारा।।


कहा लोमडीं ने सिर तान। धीरज धरै आप श्रीमान।।

जान राही हूं मैं वह मान। वन में मुझसे क्या अनजान।।

देखा एक नहीं सौ बार। उसमे तो है बुढ़वा स्यार।।

उस गीदड़ की कौन विसारत। उससे क्या डरने की बात।।

चलिये चलकर अभी दिखाऊँ। कान पकड़ कर बाहर लाऊँ।।

मांस शेर की इतनी सस्ती। मांगे स्यार ! क्या उसकी हस्ती।।


आपके ऊपर धौंस जमाई। इतनी बुद्धि कहांसे पाई।।

अभी अभी पहचाऊंगी मैं। उसको मजे चखाऊँगी मैं।।

"ऐसी बात हैं" ? बोला शेर। आगे बढ़ो , करो मत देर।।

में तो अभी तलक डरता हूं। तनिक नहीं सहस करता हूं।।


बढ़ी लोमडीं माफ़ी मांग। अपने बाघ की बाधी टांग।।

उससे भय का कौन सवाल। आप को ताके , कहाँ मजाल।।

लियें सिंह को दौड़ी आई। बकती लम्बी -चौड़ी आई।।

पहुंची नहीं थी मान के द्वार। कड़क के बोला बुढ़वा स्यार।।


"यह आ रही लोमड़ी आज। लगती नहीं इसे है लाज।।

कहके गई थी लाने चार। लेकर लौटी एक शिकार।।

तड़प रहे है बच्चे भूखे। ; सुन कर प्रान सिंह के सूखे।।

समझा था लोमड़ी की चाल। लाई मुझे बजाते गाल।।


उलटे पांव फिरा झट शेर। लखा न फिर पीछे मुँह फेर।।

चूर हुआ लोमड़ी का हाड। सिंह ने खाया क्रोध से फाड़।।

फुट गया सिर हो दो खंड। मिला चाटुकारी का दंड।।

त्वरित बुद्धि से लेकर काम। बुढ़वा स्यार बचा विश्राम।।

गर्जन सुनकर मर जायेगा। बिल से नहीं निकल पायेगा।।

नहीं सामने आ पायेगा। कभी न आंख मिला पायेगा।।




सिंह की खाल

सुनिये एक गधे का हाल। पाया कहीं सिंह की खाल।।

नहीं ओढ़ने मैं की देर। लगाने लगा भयानक शेर।।

भारी भरकम मोटा-तजा। जैसे हो जंगल का राजा।।

अब जो पड़ते इसके आगे। डरकर लुकते-छिपते भागे।।


झुक-झुक करने लगे सलाम। राजा साहब बाजा नाम।।

देख सिंह भी हिम्मत हार। एक खोह की राह सिधारा।।

गदहा तब घमंड से फूला। अपने गदहेपन को भूला।।

सोचा समय सुनहला/सुनहरा आया। भाग्य ने अपनी पलटा खाया।।


नहीं भेद अपना खोलूँगा। राजा साहब बन डोलूँगा।।

गदहों का सम्मान करूंगा। मैं पद का अभिमान करूंगा।।

सूखा का साज समाज चलेगा। कुछ दिन गदहा राज चलेगा।।

ज्यों-त्यों कर योन कुछ दिन बीता। उसने गर्दभ राज घसीटा।।


सोचा की दरबार बुलाऊं। सबको अपनी शान दिखाऊं।।

कोई नया विधान बनाऊं। मैं भी थोड़ा नाम कमाऊं।।

बात एक दिन मन में आई। जलसे की डुग्गी पिटवाई।।

लगा पोखर पर दरबार। जुटे भेड़िये , शशक सियार।।


सूअर ,भालू , भैस , नाग। सिंह , तेंदुए, चीते , बाघ।।

घोड़े , ऊंट , हिरन,गजराज। गिद्ध , क्रोंच , सरस,बक,बाज।।

पशु पंछी जो भी सुधि पाये। सब दरबार देखने आये।।

पहिले राजा भी नियराये। नहीं लाज से सम्मुख आये।।

जुटा हुआ था सकल समाज। जंगल में मंगल था आज।।

गरदन तने पहिने ताज। गर्दभ-राजा रहे विराज।।

यह देखो, ईश्वर की माया। भेद नहीं उसका खुल पाया।।

लादी ढोया , डंडे खाया।। उसके सर पर मुकुट बाँधाया।।


हठी ने पहिनाया हार। बजीं तालियां , कर जयकार।।

स्वागत गान गधों ने गाया। चिपों-चिपों शोर मचाया।।

ख़ुशी के मरे राजा फूला। पद की मर्यादा को भूला।।

अपना लम्बा मुंह फैलाया। उन्हीं की राग में राग मिलाया।।


चीता बोली , 'क्या अंधेर। यही कहाता समय का फेर।।

देखो यह अवसर की बात। तुरकी, सही गधी का लात।।

तब तक तेदुआ उठा दहाड़। हाथी एक उठा चिग्घाड़।।

हक्कों-हक्कों बोला सांड। कांप उठा गर्दभ का हाड।।


उस पर छाया हरी त्रास। दम घुट गई , टंग गयी सांस।।

समझा भेद गये सब जान। कभी न बच पायेगे प्रान।।

ये न कभी जीता छोड़ेंगे। सब हड्डी-गोडुडी तोड़ेंगे।।

अपनी करनी पर पछताया। माया में पड़ प्रान गंवाया।।


अब क्या करू ! कहाँ भग जाऊ। कैसे अपने प्रान बचाऊं।।

कुछ पड़ता था नहीं सुझाई। सहसा एक बुद्धि यह आई।।

इधर मचा था हा-हा कार। गदहा भागा मुकुट उतार।।

नहीं उलट कर पीछे देखा। खाल उतार आड़ में फेंका।।


तब फिर आई उसको सांस। आँखों में भर आई आस।।

अब न कोई पहिचान सकेगा। भेद न कोंई जान सकेगा।।

बिगड़ गाया पूरा दरबार। कहा है राजा ! मची पुकार।।

कहां गया वह छलिया चोर। पता लगाओ चारो ओर।।


इधर-उधर जब टोह लगाई। खाल सिंह की फेंकी पाई।।

कोई जन्तु न पड़ा दिखाई। निकल भगे थे गर्दभ भाई।।

प्रगटा सिंह सामने आया। अपनी दुर्गति पर पछताया।।

"देख छिपा क्यों भरी ढाँचा। मेरी आँखों में भय नाचा।।



लगा वहीं फिर से दरबार। चलने लगी पूर्व सरकार।।

सिंह ने पहिना अपना ताज। करने लगा पूर्ववत राज।।

भए प्रसन्न सफल दरबार। निज-निज पद पाए अधिकारी।।

बोले ' हे प्रभु ! दया दिखाओ। बहु रुपियों से देश बचाओ।।


इधर भगा गदहा घर आया। गदही की वृत्तान्त सुनाया।।

सुनकर उसने अति सुख पाया। आंसू भरकर गले लगाया।।

कहा गधे ने प्रभु सुन लेना। सपने में भी राज न देना।।

नहीं गधों के वाश का राज। बाँध कफ़न सो पहिने ताज।।











लालच का अंधा


एक दिन पावस में वह वर्षा हुई , आठ ही घंटे में जल ही जल हुआ।

छोटे-छोटे नाले नदियाँ हो गए होड लेने सिंधु से सरिता चली।।

ताल भी सागर से लहराने लगे , सूखा स्थल सारा जग भय हो गया।

बाह चले तालाब सीमा तोड़कर , जल प्रलय का दृश्य भूतलपर हुआ।।


नगर की गलियों में पानी भर गया , मच गया सर्वत्र हाहाकार सा।

बह चले सामान पनकों से निकल , तीव्र धारा में लगे सब खेलने।।

गेह तटवर्ती अनेकों ढह गये, सड़को के ऊपर भी धाराये चलीं।

जीते प्राणी भी थे कितने वह रहे , प्राण का संकट था धरने में उन्हैं।।


फिर भी कितने माझी अपनी नाव ले , साहसी तैराक दोनों तीर के।

आ डटे तट पर बड़े उत्साह से , डूबने वालो की रक्षा के लिए।।

जौनपुर के पूल की एक दुकान से , कम्बलों का थोकबह बहके चला।

कितने ललचे उनको बहते देखकर , तैरकर कितने पकड़ने भी चले।।


एक भालू भी था बहता आ रहा , खाके लहरो के थपेड़े चूर था।।

हाथ-पैरों का बन्द था , प्राण की आशा न थी बेचेत था।।

उसको भी देखा किसी मल्लाह ने , समझा कंबल ही है बहता आ रहा।

तैर कर झपटा पकड़ने के लिए , हाथ में गर्दन पड़ी उस रीछ की।।


डूबता भालू सहारा पा गया, हाथ पकड़ा बा पूरे मल्लाह का।

खींचलाना या छुड़ाकर भागना , थी नवश की बात बचकर धारसे।।

रीछ के ही साथवह भी बह चला , प्राण की आशा थी अब जाती रही।

लोग चिल्लाने किनारे से लगे , छोड़ दो कंबल जी तुम आओ चले।।


रोके वह बोलै करूँ तो क्या करूँ ! है न कंबल छोड़ता मजबूर हूं।।

मैं हूं बच सकता नहीं हे भाइयो , प्राण जाते है दोहाई पंच की।।


नावें झट छूटी बचाने के लिए , आ गया घबराओ मत धीरज धरो।

दे सहारा बाँस ओ पतवार का , लग्गियों से खींचने बाहर लगे।।

नव जवानो ने परस्पर मेल से , कर दिया दोनों को बाहर यत्न कर।

देखने दौड़ उमड़कर कौतुकी अधमरे उस रीछ और मल्लाह को।।


फाड़कर ऑंखें सभी थे ताकते, ये शिथिल बचत वे दोनों पड़ें।

भालू के पंजे में जकड़ी बाँह थी , मुलमुला करके था माझी ताकता।।

रीछ को दूर से सब देखते भय के मरे थे नहीं जाते निकट।

था लगा भय की न उठ जाये अभी प्राण ले सकता है पंजा मार कर।।



धीरे-धीरे एक घंटा गत हुआ पलक मुलकी आँख भी आधी खुली।

चेतना जगने लगी उस रीछ की कान से मक्खी उड़ाने वह लगा।।

सब यही थे चाहते भगवान से, रीछ छोड़े हाथ हट कर दूर हो।

कुछ किया अपनाथा हो सकता नहीं योजना कोई लगे सब सोचने।।


एक ने ढेला चला दूर से नाव पर से लग्गी मारी एक ने।

किन्तु वह चुप चाप सब सहता रहा धीरे धीरे शक्तिकुछ बढ़ने लगी।।

एक ढीठा नब युवक भला उठा डरते -डरते थोड़ा आगे को बढ़ा।

भालू उसका था तमाशा देखता तिलमिलाता था भरा आक्रोश मैं।।


पहुँच के भीतर युवक जब हो गया ताना बल्लम रीछ पर आघात को।

तब तो भालू से न चुप रहा गया झपट कर पंजा चलाया जांघ पर।।

वह युवक भहरा पड़ा भयभीत हो रान से शोणित के सोते बहचले।

रीछ उसकी पीठ पर सवार था किन्तु मुंहमारा नहीं ठिठका रहा।।


मानों उसके मान कर उपकार को रीछ ने चाहा न उसको मारना।

देखिये उस हिंस के आभार को छोड़ उसको वह बढ़ा वीरान में।।

दोनों को घर ले गए तब कौतुकी सुचना पाया समूचे गांव ने।

दोनों के परिवार वाले आ गये चाहे उनको रखलूँ छाती फाड़कर।।



आत्मियो के नयन शितल हुए देख करके उनको जीता जगत।

प्रेम से उनको उठा घर ले गए देवताओ को मनौती मानते।।

खेद करता था प्रगट मल्लाह वह मुझको लालच ने बना अंधा दिया।

मैंने समझा कंबल काले रीछ को लेना चाहा जान पर भी खेलकर।।


लोभ यह विश्राम ऐसा शत्रु है जो कहता पातकों का भूल है।

प्राण के भी लोभ की सुधि भूल कर , आदमी करता भयानक भूल है।।













अनपढ़ से पाला


बन में रहते थे दो यार। एक ऊंट और एक सियार।।

दोनों में थी गाढ़ी छनती। बहुत दिनों से आई बनती।।

मिलकर करते गलत कमाई। चोर-चोर मौसेरे भाई।।

स्यार रहा मतलब का यार। दिखलाता था झूठा प्यार।।


बाटे करता ठाकुर सोहाती। ऊंट बहादुर के मन-भाती।।

चूरा-चूरा चीजे ले आता। खरबूजे-तरबूज खिलाता।।

ऊंट भी अपना स्नेह दिखाता। बिठा पीठ पर सैर कराता।।

नाले-नदी भी पार कराता। समधी-ससुर के घर ले जाता।।


सोते जगते रहते साथ। चाहे दिन हो चाहे रात।।

एक बार की है यह बात। भादौं मास उजाली रात।।

कहा स्यार ने भैय्या ऊंट। पका है मेरे खेत में फुट।।

खेत हैं मेरा जहां सेवान। चारो ओर खुला मैदान।।


जब जवान था हट्टा-कट्टा। मैंने लिखवाया था पट्टा।।

हाकिम यहाँ था तब अंग्रेज। लिखवाया था दस्तावेज।।

तभी का हूं में बी ए पास। नहीं छीलता रहा हूं घास।।

तभी था सीखा ऊंट-सवारी। यह मुझको है सबसे प्यारी।।


वहां न है कुछ दर की बात। चलिये खायें ठाट के साथ।।

तुरंत पीठ पर हुआ सवार। डिंग मारता चला सियार।।

ऊंट भी चला बढ़ाता पैर। जाने में कुछ , लगी न देर।।

रात अँजोरिया चमकी रेत। पड़ा दिखाई फुट का खेत।।

दोनों पद खेत पर टूट। खाने लगे प्रेम फुट।।

मिली हुई थी पूरीं छूट। इनको पड़ी हुई थी लूट।।

पेट भर गया शीघ्र स्यार का। उसे तो भय था लगा मार का।।

ऊंट प्रेम से चबा रहा था। धीरे-धीरे उठा रहा था।।


स्यार का उधर गया जो ध्यान। देखा आता हुआ किसान।।

बाहर भगा चौकड़ी मार। बचा आंख से छलिया स्यार।।

किया भी नहीं कुछ संकेत। ऊंट को खाते छोड़ा खेत।।

ऐसा समय था जब भी आता। अपना प्रान बचा भग जाता।।


था निश्चिन्त चबाता फुट। नहीं खेत से निकलता ऊंट।।

तब तक तो आ गया किसान। लगा मारने डंडे तान।।

पड़ा मुसीबत में बेचारा। स्यार को चारों ओर निहारा।।

किन्तु मित्र का पता न पाया। तब व्याकुल होकर चिल्लाया।।


आप कहां हो भाई स्यार ! यहां पड़ रही है मुझे पर मार।।

झट पैट जाओ , दौड़ के आओ। अपना दस्तावेज दिखाओ।।

तब चिल्लाकर बोला स्यार। जल्दी भागो ;सहों न मार।।

क्या अंधों के लिए उजाला। आज पड़ा अनपढ़ से पाला।।


वह क्या दस्तावेज पढ़ेगा। मार मार कर जी ले लेगा।।

लड़का भी आ रहा जवान। उस से भी बढ़कर है वान।।

पढ़ा लिखा दर्जा दस पास। कोई फरक नहीं है ख़ास।।

नहीं जानता हिंसा-पाप। वह है अनपढ़ का भी बाप।।










कौतकिया जुलाहा

गहमर गॉंव नगर से दूर। बहुत बड़ी वस्ती मशहूर।।

सीधे-सादे भोले-भाले। बहुत तरह के उद्यम वाले।।

ब्राह्मण , क्षत्रिय , गोंड, कहा। कोइरी,काछी, भूँज , सोनार।।

बढ़ई, बारी, बरई बनिया। बास्ते थे कुछ जोलहा धुनिया।।


कुम्भकार औ धोबी-नाई। आपस में थे भाई-भाई।।

छोटे-मोटे रख सामान। करते थे दो एक दुकान।।

नमक, तेल गुड़ चीनी धनिया। बेचा करता लक्खी बनियां।।

लक्खी बनियां था बदनाम। लेता ड्योढ़ा - दूना दाम।।


अच्छे-अच्छे को ठग लेता। सौदा कभी न सुच्चा देता।।

जिसे था पा जाता मतिहीन। लेता दाम एक का तीन।।

ठगी बेईमानी छल चोरीं। करके था भर लिया तिजोरी।।

धनके मद में रहता चूर। था हो गया बड़ा मगरूर।।


सब के ऊपर रॉब जमाता। बड़े-बड़ों को डांट बताता।।

नीची कभी निगाह न करता। किसी की भी परवाह न करता।।

कभी एक डाकू था आया। उसे था लक्खी ने धमकाया।।

उसने बहुत बुरा था माना। बदला लेने का है ठाना।।


पास गांव का था चौराहा। रहता था महमूद जुलाहा।।

लूंगी गमछा , मोटिया धोती। बुन कर रहा कमाता रोटी।।

था नव युवक बड़ा मस्ताना। गाया करता फ़िल्मी गाना।।

वह भी था लक्खी से हरा। धुडकी सुन लेता बेचारा।।

द्रोह आग दिलमे जलती थी। लेकिन कुछ न दाल गलती थी।।

लक्खी नहीं था दबाने वाला। सब के ही मुँह पर था ताला।।

किसी से नहीं मृदु व्यवहार। नहीं मित्रता दिल से प्यार।।

हुई एक दिन घटना ऐसी। गहमर में थी भई न जैसी।।


जेठ मास की खड़ी दुपहरी। लेते लोग थे निद्रा गहरी।।

लिए साथ में घोडा हाथी। बने-ठने दस बीस वराती।।

संड-मुसंडा एक गिरोह। लेकर के लक्खी की टोह।।

आकर उतरा गहमर ग्राम। चौराहे पर लिया मुकाम।।


कुँए की थी जगत सुहानी। बैठ गए पीने को पानी।।

रही घनी बरगद की छाया। शीतल पवन , बड़ा सुख पाया।।

डाका डाले किसी बहाने। युक्ति सोचने लगे छौंहाने।।

गया एक लक्खी के द्वार। "लक्खी-लक्खी !"किया पुकार।।


लक्खी ने दरवाजा खोला। फिर जा बैठ पलंग पर बोला।।

क्या लेना है ? कैसे आये। क्यों सोते से मुझे जगाये।।

डाकू ने झट नोट दिखाई। बोला , क्रोध मत करो भाई।।

और लोग है साथ हमारे। सब व्याकुल है प्यास के मारे।।


करना नहीं है मुझे मोल। दो किलो चीनी दो तोल।।

लक्खी उठकर बाहर आया। इधर-उधर कर कुछ विलमाया ।।

जान-बुझ था देर लगाता। डाकू को था गुस्सा आता।।

कहा, मत करो आना कानी। चीनी दो हम पिए पानी।।


निकल रही है प्यासों जान। मत हैरान करो श्रीमान।।

लक्खी की यह बात न भाई। उसने उलटे डाँट सुनाई।।

जल्दी करूं क्या डर के मारे ? हम है नहीं गुलाम तुम्हारे।।

डाकू सुनकर के भी बात। चुप था खड़ा लगाये घात।।


लक्खी लाया चीनी तोल। डाकू ने तानी पिस्तौल।।

कहा , अभी लेता हूं प्रान। तुमने किया बहुत हैरान।।

नहीं लगेगा टाल-मटोल। चलकर अभी तिजोरी खोल।।

हम हैं दिन-दुपहर के डाकू। आया है दाल यहाँ उड़ाकू।।


सिटी दी आ धमके साथी। छोड़ छाँह में घोडा हाथी।।

लक्खी डरा तिजोरी खोला। उस लूटकर डाकू बोला।।

यदि तुमको हैं प्यारा प्रान। सब दिखलाओ भरी दुकान।।

जो भाया डाकुओं ने लूटा। भली भाँति लक्खी को कुटा।।


हाथ बांध घर भीतर लाये। बाहर से जंजीर चढ़ाये।।

रोया-पीटा शोर मचाया। कोई नहीं झाँकने आया।।

उलटे मन में ख़ुशी समाई। बहुत ठगे थे लक्खी भाई।।

लेकर के सब ताला-ताली। किया दुकान माल से खाली।।


बने आदमी , लक्खी बनियाँ। बिसर गयी सारी चौकड़िया।।

लाद दिया हाथी घोड़ों पर। दृष्टी पड़ी अंकुश कोड़ों पर।।

फिर कोड़ें दस-पांच लगाये। लक्खी की शेखी भुलवाये।।

मार-पीटकर भीतर डाला। लगा दिया भी अपना ताला।।


चैन नहीं महमूद था पाता। बे देखे था रहा न जाता।।

ज्योंहों डाकू हुए सवार। दौड़ के पहुंचा लक्खी द्वार।।

त्यों सरदार ने उसे निहारा। गरम हो गया उसका पारा।

दौड़ पड़ा घोड़े से कूद। कांप उठे बच्चा महमूद।।


उसको भी मारा दस कोड़ा। तब यह कहता गहमर छोड़ा।।

" करगह छोड़ तमसे जाय। नाहक मार जुलाहा खाय।।

तोता रटन्त शिक्षा


बालक बाबा बड़े सुजान। पढ़ा था सभी वेद पुराण।।

उन्हें हुआ था सच्चा ज्ञान। सब जीवों पर दया समान।।

कुटी पर रहे वृक्ष रसाल। लदी हुए थी फलों की डाल।।

उस पर रहते बहुधा तोते। चहका करते जगते सोते।।


मीठे मीठे वे फल खाते। बाबा उन्हें थे नहीं उड़ाते।।

दुहराते गुरु-नानक बानी। बचपन की विख्यात कहानी।।

"राम की चिड़िया , राम का खेत। खालो चिड़िया भर-भर पेट"।:

तोते फल खाते मनमाना। उनके सुख का नहीं ठिकाना।।


ऐसा है जग का फरमान। समय न जाता सदा समान।।

बाज एक दिन कहीं से आया। एक झुंड तोतों का पाया।।

झपट एक को पंजा मारा। "टें- टें " कर गिर पड़ा बेचारा।।

व्याकुल हो झटपटा रहा था। डैनों को फड़फड़ा रहा था।।


देख संत को करुणा आई। उसके ऊपर दया दिखाई।।

बड़े प्यार से दौड़ उठाया। लेकर छाती से चिपकाया।।

बाज से बचा लाख हर्षाया। रखने को पिंजड़ा मंगवाया।।


दूध-भात फल उसे खिलाते। अच्छी अच्छी बात पढ़ाते।।

तोता पड़ता "सीताराम। सीताराम , राधेश्याम।।

बाबा सुन सुन कर सुख पाते। कहीं से आते, उसे पढ़ाते।।

एक बात तब मन में आई। उसके हित की बात सिखाई।।


जब यहाँ बहेलिया आवे। और नलकी फांस लगावे।।

नीचे विखराये दाना। ललचाना मत , उड़जाना।।

तोते को गाना भाया। दिन भर उसी को दुहराया।।

दो दिन में गाने आया। बाबा फुला न समाया।।


तोते को बहुत सराहा। फिर गाना सुनना चाहा।।

ज्योंही चुटकियां बजाया। सुग्गे ने गीत सुनाया।।

जब यहाँ बहेलिया आवे। और नलकी फांस लगावे।।

नीचे विखराये दाना। ललचाना मत , उड़जाना।।


जाना अब है यह पक्का। खायेगा कभी न धक्का।।

तोते का सर सहलाया। अपना मन भी बहलाया।।

उस पेड़ के सभी तोते। सुनते वे भी खुश होते।।

यह गाना सबको आया। सीखा अति ही सुख पाया।।


जब एक उसे था गता। हर एक साथ दुहराता।।

पर भाव है क्या गाने का। कोई तोता जाने क्या।।

वे राग मिलाकर गाते। इतने से खुश हो जाते।।

बाबा भी थे सुख पाते। सुनने से थे न अघाते।।


एक रोज बहेलिया आया। और नलकी-फाँस लगाया।।

सब मिलकर थे तब गाते। देखते थे फाँस लगाते।।

नीचे दाने छितराया। सब के मन लोभ समाया।।

फिर दूर हैट गया व्याधा। तब रही न कोई बाधा।।


नलकियों पे बैठे फुले। उलटे हो हो कर झूले।।

फिर छोड़ न उनको पाये। लटके पंखे फैलाये।।

टें- टें,टें- टें चिल्लाये। भारी चीत्कार मचाये।।

दूसरे भी पक्षी आये। सब के हो दिल भर आये।।


सुन बहेलियें ने आना। बन गया काम सुख माना।।

तब आड़ से आया बाहर। झोले का मुँह फैलाकर।।

झपटा , देखने को आया। हर नलकी उलटी पाया।।

जिसके समीप था जाता। जी छोड़ सुआ चिल्लाता।


सब के ही पंख मरोड़ा। भर लिया प्रेम से झोला।।

बाबा ने अति दुःख माना। हो गया व्यर्थ सिखलाना।।

गाते थे मिलकर गाना। वह कितना रहा सुहाना।।

यदि मतलब समझा होता। तब एक न फँसता तोता।।


प्रवचन सुनते बहुतेरे। सुन्दर उपदेश धनेरे।।

दूसरों को भी बतलाते। पर स्वयं नहीं अपनाते।।

अनगिन हैं ऐसे गायन। गाते गीता रामायण।।

कहलाते पंडित ज्ञानी। बोलते ज्ञान की बानी।।


आ चरित नहीं कर पाते। वे शिक्षित मूढ़ कहाते।।

उनकी शिक्षा है रोती। ज्यों कृपण-कोष में मोती।।









हँसना सीखो

अति आकर्षक रँगी रँगाई , वह दुकान थी पंसारी की।

भरी हुई अच्छे सौदों से , छवि थी न्यारी अलमारी की।।

भीड़ लगी रहती थी दिन भर , ग्राहक बालक नर नारी की।

जोह में खड़े जो रहते , सौदा लेने की बारी की।।


प्रायः उस पर बैठा करता , बनिया बेटा नवजवान था।

करता था व्यवहार एक सा , हर ग्राहक उसको समान था।

नई जवानी की उमंग थी , करता रहता हंसी ठिठोली।

दिल बहलाव किया करते थे , आ-आ कर उसके हमजोली।।


था हँसोड़ नित हसता रहता , बोलै करता हँसी की बानी।

लेकिन करता कभी नहीं था , सौदा देने में बेईमानी।।

बे मतलब की बात भी उसके , मुँह से कभी निकल आती थी।

जो गंभीर प्रकृतिवालों को, लग जाती न उन्हें भाती थी।।


एक बार उसकी दुकान पर , फौजी एक सिपाही आया।

उसकी हंस कर बातें करना , व्यर्थ बोलना उसे न भाया।।

पूंछा, 'क्या दुकान में गुड़ है ?' बोला,"हाँ गुड़सुड़ बहुंतेरा "।

सैनिक को यह लगा न अच्छा , उस बनिये की और तरेरा।।

एक रूपया फेंक के बोला , इसका अच्छा 'गुड़' दे-देना।

लगा तौलने , तब फिर मांगा, उतने ही का 'गुड़ ' दे-देना।।

इधर निहारा तब फिर बोला , एक रुपये का 'बहुतेरा'।

जल्दी करो दो तीनो सौदा , नाहक समय न लेना मेरा।।


बनिया बेटा बहु खिसियाया , करने लगा जो हीं-हीं -हीं -हीं।

एक रूपया फेक के बोला , यह भी देना -'हीं-हीं-हीं-हीं '।।

समझ में आई गलती अपनी , चुप मुँह ताका बोल न पाया।

तब सैनिक ने गाल पे उसके, एक तमाचा कड़ा लगाया।।


कहा एक था सौदा पुछा , तुमने मुझको तीन बताया।

अब तीनों का दाम दे दिया , तब चौथे का नाम आया।।

उसका भी है मूल्य दे दिया , क्यों मेरा मुँह ताक रहे हो।

ज्यादा तो कुछ नहीं मांगता , कैसी बगले झांक रहे हो।।


बेटा ! बैठे हो दुकान पर , पहिले ग्राहक को पहिचानो।

किससे क्या बोलना उचित है , ढंग बात करने का जानो।।

ग्राहक आते सौदा लेने , सब न तुम्हारे हमजोली।

समय-समय पर अच्छी लगती , है सबको ही साथ ठिठोली।।


जहाँ है लेखा जोखा होता , वहाँ न दिल बहलाव उचित है।

होता एक स्वभाव न सबका , नहीं एक बर्ताव उचित है।।

बात सही है , हँस देने से , रंज है थोड़ा काम हो जाता।

किन्तु सदा हो हसने वाला , तोह मनुष्य है मुर्ख कहलाता।।


हँस-हँस कर बातें करने से, मान बात का घटजाता है।

हँस देने पर , कुछ कह करके , उसका अर्थ उलट जाता है।।

उचित नहीं 'विश्राम ' किसी को , वे मौके है दाँत दिखाना।

लज्जा की है बात बंधुओ ! हँसने तक का ढंग सिखाना।।