बिखरे मोती 



रचयिता विश्राम यादव “विश्राम”

अवकाश प्राप्त विद्यालय उपनिरीक्षक 

उत्तर प्रदेश


विश्राम यादव









१        प्रार्थना

     २    भारत महिमा

                   ३    रहो सब एक हो करके

                          ४    शत बार हमारा नमस्कार !

               ५    मानव-स्वभाव-दया

                ६    ताल वृक्ष और कुआं

  ७    सद्भावना 

   ८    शिशु रक्षा

      ९    सहज-शोभा

     १०    सदव्यवहार

         ११    विरद की लाज

      १२    सत्संग-सभा 

          १३    प्यार की नीति

      १४   आर्त-पुकार 

  १५    गेह-नेह

                              १६    हमारा अपेक्षित राष्ट्र नायक

       १७    सुस्वास्थ्य

                १८    विद्याभ्यास करो 

                 १९    सपूत और कपूत 

            २०   वृद्धों की सेवा

                   २१   विद्या और विद्यार्थी

         २२    बचनावली 

      २३    मद्यपान

      २४       वाणी

    २५     नीति 

                                     २६      जय किसान ! जय जवान !! 


                                    भूमिका

  चाहे यह अनुभव सिद्ध अथवा प्रयोग सिद्ध सत्य न भी हो, किन्तु हिन्दी एवं संस्कृत साहित्य की पारम्परिक मान्यता चली आ रही है कि हंस नाम का एक विलक्षण पक्षी है जो मानसरोबर मील में विहार करता है और मोती चुगा करता है। इसके विषय में दूसरी धारणा यह भी है कि हंस, दूध और पानी के मिश्रण में से दूध को विलग करके खा लेता है। साहित्यकार के लिए तो उसके कल्पना जगत में यह मान्यतायें सत्य ही हैं और उत्तर   

सामग्री प्रदान करती हैं। आप हँस बनें, मोती अवश्य मिलेगा ।

   साहित्य में हम मोती का पटतर ज्ञान-प्रद सवितयों से देते हैं। "शैले-शैले न माणिक्य" के सिद्धांत के अनुसार सूक्तियां भी सर्वत्र नहीं मिलती और न इनकी ढ़ेरी  उपलब्ध होती है। बिखरे दानों के समान ये भी यत्र-तत्र ही प्राप्त होती हैं। इनका चयन करने के लिए पाठक को हंस बनना पड़ता है । जवाहिर का पारखी जौहरी होता है, शाक-वणिक नहीं। साहित्य सेवियों को केवल मनोरंजन को ही अभिलक्षित नहीं करना चाहिये। साहित्य का सच्चा उपासक धैर्य के साथ धूल में गड़ा हीरा और घूर में पड़ा हुआ सोना भी ढूंढा करता है । छिछली दृष्टि से नहीं, गहरी दृष्टि गढ़ानी पड़ती है। "जिन खोजा तिन पाइय गहरे पानी पैठ" वाली कबीर की सूक्ति सदा ध्यान में रखनी है।


   यह "बिखरे मोती" नामक छोटी पुस्तक भी ब्रह्मानन्द सहोदर का आनंद प्रदान करने की सामग्री भलें न प्रदान कर पायें किन्तु ज्ञानानन्द वो इसका स्वरू ही है । जीवन के विविध क्षेत्रों में इसकी व्यावहारिक सम्पदा पाठक को संतुष्ट क के लिए पूर्णतया सक्षम है। हां, यह भी सत्य है कि भोजन को स्वाद भूख के अनुप में ही किसी को अधिक और किसी को कम प्राप्त होता है।






                                १ प्रार्थना


 जिसके हैं अन्न जल से पहले हमारे तन 

 ले रहे हैं  सांस नित्य जिसके  पवन  में

 जिसका समान वात्सल्य पा रहे हैं सभी

 भेद नहीं हिंदू सिख पारसी यवन में

 ज्ञान स्वाभिमान सदाचार सौख्य संपदा की

 छाती गूंजती है सारे विश्व के  श्रवण  में

 मातृभूमि भारत के   एक  एक   कण  प्रती

  रहे  अक्षुण्ण अनुराग नाथ मन में ।।
















तमसो मा ज्योतिर्गमय


सारदे! यही है अभिलाषा, शतबार यही है एक विनय ।

 तमसो मा ज्योतिर्गमय! माँ! तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥ 


  आसक्ति नहीं है लक्ष्मी में, वैभव विलास की चाह नहीं।

     तब आराधन के कष्टो की, किंचित भी है परवाह नहीं ॥ 

                    अंधेरे में  हूँ टटोल रहा,  सुगम है राह नहीं। 

                    माँ दे प्रकाश भटकूं न कहीं, प्रतिभा की किरणे दे कतिपय ॥

                     तमसो मा ज्योतिर्गमय! मां! तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥


प्रतिभा, जिसका प्रकाश पाकर, ऋषिगण थे सत्पथ पर डोले ।

इस सृष्टि के खुले पाने पढ़, बहु गहन रहस्यो को खोले ॥ 

वेदों उपनिषदों को रचकर, कल्याण प्रदा वाणी बोले । 

जिस ज्योति सहारे आज है हम पा रहे प्रकृति पर नित्य विजय ॥

 तमसो मा ज्योतिर्गमय! माँ! तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥


दे रहा चुनौती अभी गगन, नक्षत्र हमें ललचाते हैं । 

           हम कहाँ जायेंगें तन सर तजकर, कुछ भेद नही हम पाते हैं ॥

   कितने गृह भाग्य बनाते हैं, वहु धूम केतु डरपाते है। 

       शंकाओं का हो समाधान हो ऐसा दिव्य समारि  उदय ॥ 

    तमसो मा ज्योतिर्गमय! माँ, तमसो मा ज्योतिर्गमय ॥














२ भारत महिमा


सकल संसार में, यह भूमि भारत सबसे न्यारी है। 

हम कितने भाग्यशाली है कि यह जननी हमारी हैं ॥


यहाँ कैलास शिखरों पर बजाया डमरु शंकर ने ।

जटा गवर में गंगा को बसाया पार्वती वर ने ॥


इसी पावन धरित्री मे दिया था जन्म सीता का । 

जगतगुरु कृष्ण ने इस पर पढ़ाया ज्ञान गीता का ॥


यही पैदा हुए हनुमान ऐसे वीर बलशाली।

 यह भारत की धरा है, देवताओ के प्रेसव बाली ॥

 

कहा था डारविन ने हम मनुज बंदर के वंशज हैं।

यहाँ तो सिद्ध हैं- पूर्वज हमारे देव अंशज है ॥


हमारे पूर्वज ऋषि मुनि तपस्वी योगाभ्यासी थे । 

कोई था युग की ऋषि -मुनि ही यहाँ दशशत अठासी थे ॥


यहाँ की कन्दरओ में हुए गणित बहु ज्ञानी ।

नहीं गति ज्योति मंडल की भी जिनसे छूटो अनजानी ॥


उन्हीं तत्वज्ञ ऋषियो ने लिखा वेदों पुराणो को । 

समाया एक है सर्वेश हर प्राणी के प्राणो में ॥


हमारी सभ्यता प्राचीनतम इतिहास कहता है। 

महापुरुषों का आना भी समय पर होता रहता है ॥ 



महात्मा बुद्ध ने आकर दिया उपदेश प्यारा था।

"अहिंसा परमोधर्मः,, का जगत में गुंजा नारा था ॥


यहाँ आये गुरु नानक व संत कबीर से ज्ञानी । 

मिटाया  भ्रम मतान्तर का, पृथक कर दूध ओ पानी ॥


 महत्ता आत्म बल की देश के सम्मुख दिखा करके। 

किया आश्चर्य बापू जी ने आजादी दिला करके ॥


 'महाभारत' को रचकर व्यास ने यह तत्व बतलाया। 

नहीं ज्ञातव्य है कोई, जो इसमें है नहीं आया ॥ 


दयानंद शंकरादिक ने बढ़ाई ख्याति भारत की।

 प्रेमाणित कर दिया सर्वोच्चता सब भाँति भारत की ॥ 


जगत की मान्यता है, भूमि भारत सबसे न्यारी है।

 हम कितने भाग्यशाली है कि यह जननी हमारी है ॥






















३ रहो सब एक हो करके


रहा चिरकाल से भारत आकर्षण केन्द्र धन - कारण।

 किसी युग में नहीं था खनिज-जीवन धन भी साधारण ॥

 लुटेरे जिसके आये, पारसी मंगोल ईरानी ।

 वणिक वन पुर्तगाली, फ्रांसीसी, डच व बर्तानी ॥


इसे 'सोने की चिड़िया' वे कहा करते लुटेरे थे। 

नहीं कुछ अल्प संख्यक ऐसे धन लोलुप घनेरे थे ॥

उपासक ज्ञान वालों पर मिली जय भौतिकी बल को । 

यहीं पर बस गये कितने भुला निज जन्म स्थल को ॥


दमन करके अहिंसक ज्ञानियों, विज्ञान शूरो को ।

सरलता से मिली जय, डाकुओ नृशंस क्रूरों को ॥


बने शासक विदेशी, देश की सव सम्पदा छूटे | 

रमणियों के भी तन पर रह गये नहि आभरन छूटे ॥

 नहीं वे ले गये थोड़ी यहां से रतन धन गठरी । 

रही अवशेष मज्जा मांस वर्जित देश को ठटरी ॥


परस्पर द्रोह भरना औ लड़ाना था यह हथकंडा ।

इसी से तीन सौ वर्षों उड़ा इंगलंड का झंडा ॥


मिटाया फूट बापू ने स्वशासन भाव उपजाया। 

हुए हम एक जट, तब आज यह तिनरंगा फहराया ॥

 विगत वर्षों में जब टटरी पे थोड़ी मांस चढ़ आयी । 

तो कलिप्रय नेतृगण में आत्म-भक्षी भूख  बढ़ आयी ॥


हैं कुछ धर्माथ जो फिर फूट के विरवे लगाते हैं। 

यहाँ विघटन के विध्वंसक विविध अंकुर उगाते हैं ॥

 करो मत देश के टुकड़े, सुमति सुविवेक खो करके । 

मिलाकर कंधे से कंधा, रहो सब एक हो कर के ॥


































४ शत बार हमारा नमस्कार !


है जाति-धर्म निर्पेक्ष देश सरी विकसित मति का है काम।

हे राष्ट्र पिता अद्भुत कर्मा, ऋषि-मुनी धर्मा करुणावतार |

 युग पुरुष! तुम्हारे चरणों में, शतबार हमारा नमस्कार !!


चेतना नई देकर सरती मानवता का उद्धार किया।

 बन्धन सह बन्धन को काटा, पशुवल पर कठिन प्रहार किया ॥ 

आत्मिक शक्ति से भौतिकता की प्रबल सैन्य संहार दिया । 

दुधर्ष विदेशी सत्ता को धक्का दे सागर पार  किया ॥ 

परवशता पीड़ित भारत का उन्मुक्त किया अभ्युदय द्वार !

युग-पुरुष! तुम्हारे चरणों में, शतबार हमारा नमस्कार !!


निज  निराश शुभकर्मों से से भगवद्गीता संदेश दिया। 

कर सत्य-अहिंसा व्रत पालन, आचरित वेद उपदेश  किया ॥ 

 बहुमूल्य विदेशी   वस्त्रो को, तज सदरधारी वेश लिया। 

तकली चर्खा है स्वावलम्व का सिद्ध मंत्र निर्देश दिया ॥

 डूबती निराशा सागर में भारत नौका के कर्णधार ! 

युग पुरुष तुम्हारे चरणों में, शतबार हमारा नमस्कार !!


चिर छूआछूत का भूत भगा, कर दिया परिष्कृत हृदयधाम । 

था हेय शब्द कितना 'अछूत' पाया 'हरिजन' सा पूस नाम ॥ 

 तप-त्याग तुम्हारा लहराता है राष्ट्रध्वज बनकर ललाम ॥ 

 हे विश्वबंधुता सम्पोषक  विश्व बंध बापू उदार 

युग पुरुष तुम्हारे चरणों में शतबार हमारा नमस्कार !!


अवहेलित, शोषित  दलितों, जनता की पीड़ा पहिचाना। , 

उसकी दरिद्रता कारण, संस्कृति का  पिछड़ापन जाना ॥ 

कर एक रुपिणी शिक्षा को सदृश समाज व्यहार किया। 

पद आरक्षण की नीति सुझा, आमूल समाज सुधार किया ॥ 

कुण्टी-सेवा तक में लहरी, तब पतित पावनी स्नेह-धार । 

युग पुरुष तुम्हारे चरणों में, शतबार हमारा नमस्कार !!


जब नोखा में भड़की हिंसा की भीषण अग्नि ज्वाल । 

तुम दौड़ पड़े जा बुझा दिया संकट में अपने प्राण   डाल ।

 मत संप्रदाय निरपेक्ष प्रेम की रही तुम्हारी कंट नाल।

 "तुम जियो और जीन भी दो चरितार्थ कियायह नीति पाल 

 "हे राम, बोल तन त्यागा, गोली का दारुण प्रहार 

युग पुरुष तुम्हारे चरणों में बार हमारा नमस्कार !!


तब रामराज्य के सपने को हम तो साकार करें।

 हो एक वेशभूषा-भाषा, भावों को एकाकार करें ॥ 

सब के प्रति हो सद्भाव देश का एक वृहत् परिवार करें।

 दुख-सुख में कंधे मिले रहे, भाई सा प्रिय व्यवहार करें ।। 

आहार-विचार न भिन्न रहे हो एक हमारा संस्कार

 युग पुरुष तुम्हारे चरणों में शतवार हमारा नमस्कार !!


है किन्तु बड़ा दुर्भाग्य, वह रहो विविध मतों की धारा है। 

ऊपर परमाथी वाना है, हृदयों में स्वार्थ ही प्यारा है॥

 यह नारा था, भारत छोड़ो? यह भारत देश हमारा है।

 सत्ताधारी अब कहता है मत बोलो' राष्ट्र हमारा है। 

"भगवान सभी को सम्मति दें, फिर दुहरा दो अपनानुकार। 

युग-पुरुष तुम्हारे चरणों में, शतवार हमारा नमस्कार !!












५ मानव-स्वभाव-दया


नन्हा शिशु गिर कहीं विचल कर,

 जब है पीड़ा से चिल्लाता।

                              'उसे उठाकर धूल झाड़ दो ' 

  नहीं है किसके मन में आता ?

                             मानव हृदय स्वभाव यही है, 

 आरत देख द्रवित हो जाता।

                           जिसमें ऐसा भाव नहीं हो,

वह है व्यर्थ मनुष्य कहाता ।

                          होती है सबको प्रसन्नता,

दुखियारे का दुख हरने में।

                         निवलों, असहायों, वृद्धों की,

थोड़ी भी सेवा करने से।

                         ऊपर उठ जाता उपकारी, 

सुख पर नहीं मलीनता छाती। 

                        स्नेह छलकता है आंखों से,

निठुर कल्पना निकट न आती।

                       बहु उदात्त गुण आप विकसते,

नर चरित्र की फुलवारी में।

                       सौख्य-सस्य लहराया करती,

मानव की सुशील क्यारी में ।

गौतम बुद्ध नीति हैं उत्तन, रहो अहिंसा दया पुजारी ।

 तब 'विधान' बनोगे तुम भी, सचमुच मानव-पद अधिकारी ॥

 दया, दान, दम धर्म सार है, महामंत्र जो यह अपनाये। 

श्रद्धा सुयश सुलभ हो जग में, मानव-जन्म सफल हो जाये ॥






६ ताल वृक्ष और कुआं


किसी कुएँ के पास लगा था,  ताड़ का  वीटप भारी।

गिद्ध छोड़ जिस पर न बैठता था, कोइ नभचारी ॥


 एक बार उसने कुआं  को कहकर 'नीच' पुकारा । 

सह न सका  अपमान कूप ने उसे बहुत फटकारा ॥ 


'अरे कृतधनी ! तू है कितना और अज्ञानी ।

 भूल गया तू बड़ा हुआ है पी-पी मेरा पानी ॥


मेरी तेरी क्या तुलना है, मुझको को नीच बताया।

मूल्य निचाई गहराई का तू है   समझ न पाया ॥ 


नीचेही तल में मिलता है, मुक्ता सोना चानी । 

गुणकारी होता है अधिकाधिक नीचे का पानी ॥


 मेरा रस जीवन कहलाता, प्राणी  पी जीता है।

मादकता वश नाम गंवाला जो  तव रस पीता है ॥

 

मेरा उर कितना उदार है, नीरस हृदय लम्हारा। 

सुलभ नहीं हो सकता तुमको वह सम्मान हमार।।


दुर्गम रहने पर भी नभ में सब रस नर हारता है।

छुरी चलाकर तेरे मुख पर बरबस घट भरता है ॥


 भीड़ लगी रहती है दिन भर दरवाजे पर मेरे ।

 कोई पशु भी नहीं फटकता कभी सन्निकट तेरे ॥


आठों यान नक्त रहता है रस भण्डा हमारा |

कुछ भी चिन्ता नहीं, भले लुट जाये कोष धन सारा ॥ 


वितरित होता रहता है, जितना जल मेरे द्वारा ।

 जितने का तितना हो जाता है, भंडार हमारा।


यदि संचित करके कीं रखता, जल दूषित हो जाता। 

तब उठती दुर्गन्ध घृणा से पास न कोई आता ॥ 


दान किया करता है, चाहे जितना भी धन दानी ।

 बढ़ कर पूरा होता रहता, ज्यों कुएँ का पानी ॥


कभी न कहना नीच किसी को अरे ताट अज्ञानी ।

नीच न होता सागर, इतना कभी न पाता पानी ॥


























७ सद्भावना 


माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें

मध्य रण स्थल अर्जुन बोले, रथ प्रतिमुख लौटाये । 

पूज्यपाद गुरु, पूज्य पितामह, मातल, भ्राता sare। 

गुरुजन, परिजन, आत्मीय जन, वैत्रादिक सुत प्यारे ॥

 साले, श्वसुर सगे सम्बन्धी, स्नेही, सखा हमारे । 

सम्मुख खड़े हैं लोहा लेने, तन का moh विसारे ॥

 जिनके चरणों में सिर नाया, तिनका सिर न कटायें । 

माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ।


घोर नृशंस समर यह होगा, जग अपयश छापेगा ।

 वीर विहीन धरा यह होगी, देश उजड़ जायेगा ॥ 

धन जन हीन राज्य तब बीहड, क्या सुख उपजायेगा ? 

रुधिर - सिक्त अमृत भोजन भी कौन निगल पायेगा ? 

निज जन लागि दया के सागर ! जनि निज विरद घटायें

 माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ॥


सौंध भोग लालसा नहीं है कुटिया में रह लूंगा। 

श्रमिक वृत्ति भी अपना सकता, भिक्षाटन गह लूंगा ॥

 दीन वचन से युद्ध टले तो मैं सविनय कह दूंगा ।

 आत्म भर्त्सना कसक रही है, वह न कदापि सहूँगा ॥

 परम धर्म-संकट पीड़ित हूँ, शत्र सपदि हटायें । 

 माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ॥


करुणा- क्रन्दन विधवाओं का, श्रवण छेद डालेगा। 

वत्सा माताओं का स्वर, हृदय बेध डालेगा ॥ 

दिशि-विदिशायें रुदन करेंगी, करूण नाद सालेगा । 

नींद हरेंगे स्वप्न भयावह, उन्हें कौन टालेगा ॥ 

होगा रण-विपाक अति दारुण, उसे ध्यान में लायें । 

 माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ॥


हय-गज सांदन शालाओं में, स्यारिन रदन करेंगी। 

पति बिहीन नारियां निरंकुश हो स्वतंत्र बिगरेंगी ॥

 जन-जन कर जारजा सन्तानें, संकर वर्ण करेगी। 

  पिण्डोदक न पितर पायेंगे सतिया नरक पडेंगी ॥

 पूरु वंश की परम्परा पर, तात ! न कष लगायें ।

 माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ॥


उसकी मात्र कल्पना से ही, कांप रहा तन मेरा । 

खिसक रहा गांडीव हाथ से, यत्न किरोहु बहु तेरा ॥

 अति विकराल अनागत होगा, दीख रहा अंधेरा 

अभी न बिगड़ी बात अधिक है, है अब तलक सबेरा ॥

 अठारह अक्षौहिणी सेना की लिखा न करायें।

 माधव ! जनि कुल-कानि मिटायें ॥


है विश्वास शक्ति पर अपनी, तिस पर कृपा तुम्हारी ।

 क्या इसका उपयोग यही है, प्रलयंकर भयकारी ॥ 

इन्द्र कोप से ब्रज रक्षा की, वह क्यों नीति विसारी ।

 महा विलक्षण है गति तेरी, हे गोवर्धनधारी ॥

 एक बार फिर से विचार कर, निज अनुमति प्रगटायो ।

 माधव जनि कुल कानि मिटायें ॥












 हरिजन का उरशूल


तेरे मन्दिर की प्रतिमा पर चढ़ पाते मेरे फूल नहीं ।

 मेरे छोटे का जल होता, तेरी तृष्णा अनुकूल नहीं ॥ 

सिर पर मैं लेकर धर सकता, तेरे चरणों की धूळ नहीं । 

यह भाव आपका है हम पर क्यों उठेगा मन में शूल नहीं ॥


देख पेट भर अन्न हमारा, फटती आपकी छाती है । 

कुर्सी पर बैठा देख हमें, तन को द्वेषाग जलाती है ॥

 शासन सुलभ हमारी सुविधा असपर्धा उपजाती है ।

 क्यों है इतना द्रोह अकारण नहीं बात समझाती है ।
















८ शिशु रक्षा


मन भावनि सूरत शिशुओं की लगती यह कितनी प्यारी है। 

चुम्बक है सब के नयनों की, गति विधि ही सब से न्यारी है। 

यह जाति धर्म निर्पेक्ष जीव, है किसी से बैर विराग नहीं ।

 चीनी, जापानी, ईरानी, भारती का वर्ग-विभाग नहीं ॥ 


है पक्षपात-निर्लेप, किसी के प्रति विशेष अनुराग नहीं ।

 विषयों में कुछ आसक्ति नहीं, अति ही निरीह तनुधारी है । 

अब तक यह भाव विकार नहीं, क्या मेरी कौन तुम्हारी है।

 गतिविध ही शिशु की न्यारी है ॥


इन धूल लपेटे हीरों की, हे सहज छटा भोली-भाली ।

 शतदल, पाटल, मखमल से भी, कोमलता है मृदुता शाली ॥

 बोलने, डोलने, मुसकाने की हर चेष्टा है रसवाली ।

 मोहन की मोहक मुरली से बढ़कर प्यारी किलकारी है ॥

 नाचने-थिरकने-गाने पर न्यौछावर हर नर नारी है ॥

 गतिविध ही शिशु की न्यारी है ॥



शशि में यह सौम्य सुहास कहां ? मिसिरी में मधुर मिठास कहां ?

 सुमनों की खिलती कलियों में अधरों सा हास-विकास कहाँ ? 

खेलों के विश्व-विजेता को, विजयी शिशु सा उल्लास कहाँ ? 

परिह स हास में शिशुओं के मुसकाता रास बिहारी है ।

 यति भी इन पर बलि जाता है, संसारी तों संसारी है। 

गति-विधि ही सबसे न्यारी है ॥


है द्वेष-द्रोह का भाव नहीं है किसी से कपट दुराव नहीं। 

सोना माटी है एक भाव, दो रंगा है बर्ताव नहीं ॥ 

इन्द्रिय-प्रलोभनों का इन पर पड़ता है तनिक प्रभाव नहीं । 

इन सहज साम्यवादी जन को, जो राजा वही भिखारी हैं | 

जिस किसी से प्रेम लगाते हैं, हो जाता वह आभारी है ।

 गतिविध ही शिशु की न्यारी है ॥


अपना या व्यक्ति पराया भी, जो शिशु से प्यार जताता है। 

यह उसके हाथों बिक जाता, उसका अपना हो जाता है ॥

 कितने ही लोगों का बच्चा, इस जादू से खो जाता है। 

दृष्टान्त रूप में शूर-रत्न राधेय, कर्ण बलधारी हैं ॥ 

वह तुम पर मरमिट जायेगा, यदि सच्ची प्रीति तुम्हारी है। 

गतिविधि ही शिशु की न्यारी है ॥


तोतला, अधूरा, अस्फुट स्वर, हगता कितना मीठा मनहर | 

शिशु जो पद तल में रेंग रहा, शोभित कर सकता कभी शिखर ॥

 क्या पता था चरवाहा कान्हा, है गिरधारी केशव नटवर । 

कुछ ज्ञात नहीं हरि बहुरूपिया, गोलीत बना सनुधारी है ॥

 इस हेतु सकल शिशु की रक्षा का भार राष्ट्र पर भारी है ।

 गतिविधि ही शिशु की न्यारी है ॥


हरबर का विकास होता, जैसा अच्छा बनमाली हो ।

 अवसर शिशु हेतु अपेक्षित है, हो दीन कि वैभवशाली हो ॥ 

पूरी जो देश की मांग करे शिक्षा की बही प्रणाली हो ।

 इन विरबों के पनपाने की, हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है ।

 हैं शिशु आशा के विन्दु, इन्हीं पर केन्द्रित दृष्टि हमारी है ।

 गति विधि शिशु की सब न्यारी है ॥









 

९ सहज-शोभा


रूप जिसको है दिया भगवान ने, 

व्यर्थ है उसको सजावट ऊपरी । 

जिसकी छवि की छिटकती सुरभित प्रभा, 

क्या अपेक्षा और है उस फूल को ||


सोने पै कलई है की जाती नहीं,

संगमरमर को है रंगना मूढ़ता ।

 व्यर्थ है कज्जल तुम्हें मृगलोचनी,

सहज शोभा की न मर्यादा घटा ॥


चाहे जितना भी सजायें गिद्ध को, 

बन नहीं सकता कभी वह मोर है । 

आभारण आभा हो कितनी भावनी,

सहज सुन्दरता की प्रियता और है ॥


मूढ़ तितली ! तू है हरती दौड़ कर,

रंग-बिरंगे फूल के किंजल्क को ।

पंख पर तेरे हैं जैसे बुंदकियाँ,

उनकी छवि को यह बढ़ा सकता नहीं ॥



रूप के ही साथ गुण भी हो कहीं,

 तब तो जानो वह सुगन्धित स्वर्ण है ।

रूप, रस है गन्ध तीनों आम में, 

क्यों न माना जाय सब से श्रेष्ठ फल ॥


सहज सुन्दरता बढ़ाने के लिए, 

आचरण की शुद्धता अभिप्रेत है । 

केश वस्त्र विशेष की परिकल्पना,

रूप छल है ज्ञानियों की दृष्टि में ॥























१० सदव्यवहार


यदि संयम तोरि चले रोगिया,

तब वैद्य कहां लौं पियूष पियावै ।

 मतिमंद निरान छात्र मिले,

तब शिक्षण की विधि काम न आवे ॥

जब ऊसर बंजर भूमि रहे,

कृषिकार कहाँ लौं प्रस्वेद बहावै । 

निज कंचन ही जब खोटा रहै, 

तव नाहक दोष सोनार लगावें ॥


यदि चाहते हो सब चाहें तुम्हें,

पहिले निज शीश झुकाया करो ।

अपकार किसी का बने तुमसे, 

न क्षमा माँगनेमें जाया करो |

कोई अल्प भला भी तुम्हारा करे,

आभार सदा प्रगटाया करो ।

विनईयी रह छोटा बनों सबसे, 

व्यवहार में शील निभाया करो ॥


यदि द्वारे तुम्हारे पधारे कोई, 

उठि आगे से लेने को जाया करो ।

कर जोरि समोद जुहार करो,

कल आसन देके बिठाया करो ॥

करि मंगल प्रश्न करो बतियां,

सत्कार में स्नेह जताया करो ।


बचनों से सुधा बरसाया करो,

चलते कर-कंठ मिलाया करो ॥






तुष्ट होत सूखा, भरपेट जब पावै अन्न,

 तुष्ट होता प्यासा, मृदु शीत जल पान से।

लोभ समाधान हेतु धन चाहिए अथोर, 

हरि भक्त तृप्त होत अल्प आत्मज्ञान से ॥

 ग्रह शान्ति हेत पूजा-पाठ दान प्रक्रिया है, 

प्रेम नष्ट होत सर्वस्व बलिदान से ।

विप्र तुष्ट होत नहीं, दक्षिणा अपार पाय, 

सज्जन अघाल सुविनीत सम्मान से |

शोभित न होत नर भव्य भूरि भूषणों से। 

हीरक जटित नग हाटक के हार से । 

तेल औ फुलेट, अंगराग, छत्र. लेपनों स े,

 अधर की लाली, केश मुकुल सिंगार से े ।।

कामदार क्षौम-परिधान, नये छादनों स े,

मूल्यवान विविध अनूप अलंकार से । 

होता है हृदय हार व्यक्ति 'विश्राम' कोई, 

प्यार, उपकार, सदाचार व्यवहार से ॥

सवैया- चाहते हों निभाना जो भायय तो,

 वह भाई भरत औं राम से सीखें ।

मित्रता पालनी है तो विप्र-सखा,

पार्थी-सार्थी घनश्याम से सीखें 

 बलिदान की भूख मिटाना चहें।

सरदार भगत धन्य नाम से सीखें

हरि भक्त बनो निष्काम चहैं,

अंजनी के छला हनुमान से सीखें ॥

सवैया

तुम भी जब जाओ किसी के यहां, अपने परिधान का ध्यान रहे ।

अभिमान की रेख न देख पड़े, उसके प्रति आदर मान रहे ॥

 कुछ ऐसी अपेक्षा करो न कभी, जिसमें व्यवधान-स्थान रहे ।

सत्कार की वस्तु रुचे जो नहीं, मुंह से उसका भी बखान रहे ॥

























११ विरद की लाज


अब्दुर्रहीम खानखाना जा रहे थे कहीं, 

पालकी सजी थी लगे सोलह कहार थे।

चल रहे पीछे आठ, जिनकी थी वारी नहीं,

अन्य आठ भारवाही स्कन्ध-बार थे ।

एक धृष्ट चारण से राह रोक नाथा शीश,

धरा लौह ढैया जहां पद सुकुमार थे। 

रोष हुआ दर्शकों को, देख के टकाये रहे 

खान मुसकाये क्या विचित्र व्यवहार थे।


खान मुसकान का न भेद कोई जान पाया,

आज्ञा मिली- 'आना कल कवि परिषद में ' 

चारण प्रसन्न हुआ, गया यथा काल वहां, 

कहा दो कवित्त खनिखाना के विरद में ॥

ढाई सेर सोना मिला, कल की क्रिया का फल, 

 खिल उठीं कंज-कलिकायें कवि हृद में ।

 धन्यवाद देके वह चारण अघाया नहीं,

टेकि चला माथा, खानखाना जी के पद में ॥


साश्चर्य बोल पड़े सभासद, एक साथ,

चारण की कौन हिय ग्राही ऐसी बानी थी।


दिया पारितोषिक, जो भीज ने दिया न कभी 

कवियों ने जिनकी उदारता बखानी थी ॥


खान ने दिखा के कहां, अय अढैया वही, का

बानी की न बात लाज नाम की बचानी थी।

चारण ने चरणों को मान्यता दी पारस की, 

पाता जो न हेम होती विरद की हानी थी॥


१२ सत्संग-सभा 


कवित्त

पूछा शर-शायी भीष्म से यह धर्मराज जी ने,

'क्या है दीर्घ जीवन रहम्य बतलाइये ।'

उत्तर मिला कि खुली हुई बहु पुस्तकें हैं, 

वेद सी पुनीत उन्हें पढ़िये पढ़ाइये ।

साधु-सज्जनों का सुचरित्र महापुरुषों का,

श्रद्धा-सूक्षमता से अवलोक अपनाइये । 

तत्प्रतिकूल पग आपके पड़ न यदि, 

होंगे दीर्घ जीवी विश्वास उर लाइये ||


सवैया


तब बोले युधिष्ठिर ऐसे नहीं,

चर्या अपनी ही बतायें हमें ।

अपने मुख अम्बुज से कहके,

निज जीवन पंथ सुझायें हमें ॥

हम आपके बालक, बालक हैं,

 कुछ बोले नहीं बहकायें हमें ।

हम में त्रुटि जो अभिलक्षित हो,

सुस्पष्ट उसे प्रगष्टायें हमें 


तब भीष्म जी बोले हो ज्ञानी महा, 

तुम में है चरित्र अभाव नहीं ।

सुनना ही जो चाहते हो तो सुनो, 

बहकाना है मेरा स्वभाव नहीं ॥

अब बोलने में भी है कष्ट मुझे,

रहा बाणी में पूर्व प्रभाव नहीं ।

निर्व्याज बताता हूँ तात! तुम्हें, 

अपना है किसी से दुराव नहीं ॥

नहीं खान सा काम का दास रहा,

कभी नारी पै आंख उठाई नहीं।

 नहीं मादक द्रव्य छुआ कर से,

उत्तेजक वस्तु भी खाई नहीं ॥


प्रिय स्वाद का प्रेमी रहा न कभी, 

निज जीभ चटोरी बनाई नहीं ।

नियमों के विरुद्ध चला न कभी,

मेरे पास विलासिता आई नहीं ॥


अपकार किसी का किया ही नहीं, 

अभिशाप किसी का भी पाया नहीं । 

अवमान किया नहीं अग्रजों का,

ईर्ष्याग्नि में देह जलाया नहीं ॥ 

अभिमान किया न कभी बल का, 

मन में षड् दोष बसाया नहीं ।


जिसे पाप उपार्जित जानता था,

उस अन्न को भूले भी खाया नहीं ॥

धर्म ग्रन्थ न कोई भी ऐसा रहा,

जिसका व्रत मैंने निभाया नहीं ।


रण कौशल कोई था छूटा नहीं,  

जिसमें लाघव पाया नहीं

हरि-भक्ति रही मन मेरे बसी,

प्रभु को पल मात्र भुलाया नहीं।

संक्षेप में जीवन-तत्व कहा, नहीं ।

सन्मार्ग से पैर हटाया नही ॥

(२)

कवित्त

प्रश्न हुआ दूसरा कि कौन है कुठार वह,

 क्षीण होती आयु स्वास्थ्य-मूल कट जाती है।

होके रोग-पीड़ित मनुष्य अल्पायु होता, 

लगता है जीवन अवधि घट जाती हैं ॥ 

भीष्म ने बताया, माया कामिनी जिसे है छूती,

धर्म-बुद्धि पाप से दूर हट जाती है ।

 पाप है छाता, अपकृत्य है कराता घोर,

 जिसके फल-स्वरूप आयु घट जाती है ॥

(३)

एकदा था वाणी का विलास सत्संगियों का, 

एक ने कहा कि थोड़ा शुद्ध जल लाइये । 

दूसरे ने व्यंग किया, एक मात्र शुद्ध जल ? 

कैवा आप हेत, शुद्धतम जल चाहिए ॥

शुद्धतम-जल कौन होता है बता दें आप, 

हंसी की है बात नहीं, ठीक बतलाइये । 

आगई पहेली. सभी हो गये विचार मग्न, 

प्यासे ने कहा कि भला कोई तो बताइये ।


तब एक बोला, जान रहे आप सभी लोग,

कौन जल शुद्ध भला गंगा के समान है।

कहा दूसरे ने निर्दोष और शुद्धतम,

मेघ जल को ही बतलाता विज्ञान है ॥

तीसरे ने किया प्रतिवाद मेरी सम्मति में, 

मां के नयनों का जल शचिता निधान है।

किया समाधान एक ज्ञान धनी सज्जन ने,

शुद्धतम श्रम जल हारता किसान है ॥


द्रोणाचार्य जी ने प्रश्न क्रिया, शिष्य पांडवों से,

रक्षा किस की है, सद्धर्म नर-नारी का । 

बोले नकुल 'देह रक्षा, मूल सर्व-साधनों का',

कहा सहदेव ने कि ध्यान गिरधारी का ॥

 पार्थ ने कहा कि व्रत-रक्षा है महान धर्म,

भीम बोले 'अन्न' प्राणधार हर प्राणी का ।

 कहा धर्मराज ने 'चरित्र'- रक्षा श्रेष्ठतम,

 जिससे विहीन 'शून्य' 'मान देहधारी का ॥


बापू जी की प्रार्थना सभा में यह प्रश्न उठा, 

कल्याण प्रद त्याग क्या है बुद्धिमान का । 

बापू ने बताया मूल्य उसका द्विगुण होता,

त्याग करता है जो मनुष्य अभिमान का ॥


मान तिगुनाता, त्यागता जो ऊँच-नीच भेद,

जाति-धर्म-सम्प्रदाय आदि अज्ञान वा 

बन जाता वह सर्वांगपूर्ण मानव है, 

कर देता त्याग जो है हिंसा मद्य पान का ॥


सवैया-


( १ )


न ऋषी, न सुनी, नहिं ज्ञानी गुरू, 

नहीं देखा, नहीं कोउ जानत है

मरणोत्तर जीव है जाता कहां

अपनी मति से अनुमानत है

कोउ मुक्ति कहां, निर्वाण चहै, 

स्वर्ग बहिश्त बखानत ,

सुचरित्र बिना नहिं कोउ  सधै

 यह तथ्य  सबौ परमानत है


( २ )


 सुचरित्र की संपति का जो धनी वह चारि पदारथ पावत 

 यह लोक में दुर्लभ शान्ति मिलै,

 शुभ लोक को पंथ सजावत है ॥ 

विकसै बल बुद्धि सुस्वास्थ्य मिलै,

 सस्नेह सर्व अपनाबत

हिय में  उपजै हरि भक्ति सही,

 कोउ औगुन पासन आवत है ॥


















१३ प्यार की नीति


प्यार के दो शब्द पड़कर कान में,

है देखी दिल की कली ।

बदल देते खिन्नता मसकान में, 

प्यार की यह नीति कितनी है भली ॥

भूल जाता शिशु है अपनी घाव को,

घूमते ही गाल गीला प्यार से ।

देखते मृदु वैद्य के बर्ताव को,

दर्द घट जाता कटा तलवार से |

प्यार के बदले में मिलता प्यार है, 

सुन उपजता देखकर दिलदार को ।

द्रोह के जग में न वह सुखसार है,

जो मिलता प्रेम-प्रिय परिवार को ॥

बीनला नि दुख की बा

प्यार का होता सहारा है बड़ा ।

कलह-मूलक महल-धन आगार से, 

अति सुखद है प्रेमियों का झोपड़ा ॥

 प्रेम से सूखा चना भी बांट कर,

खाने में मिलता निराला स्वाद है। 

विप्र के तंदुल चत्राने की कथा,

आज तक सहृदय जनों को याद है ॥ 

कोई भी हो सब से मिलिये प्यार से,

बाल में, व्यवहार में, सद्भाव हो ॥

    जीतिए विश्राम शिष्टाचार से, 

शील सविनय बैन का न अभाव हो ।






१४ आर्त-पुकार 


हो जगन्नियन्ता बासुदेव ! फिर पाञ्चजन्य का माद करो।

 वह धर्म तथा हरिजन-रक्षा का दृढ़ व्रत अपना याद करो ॥ 

संप्रति इस भारत भूतल पर, वि राल अधर्म छछाया है। 

आन्तरिक साधना लुप्त हुई, आडम्बर हृदय समाया है ॥

 पृथ्वी है पाप भार बोझिल, जनता है आर्त पुकार रही। 

कातर आंखों में आशा ले, है तेरी ओर निहार रही।

 आतंकवाद है कँपा रहा, हिसा का पारावार नहीं

 है दम्भ गरजता चोटी पर सब विविध वितंडावाद हरो ॥

 न विलंब करो हे वासुदेव ! फिर पाञ्चजन्य का नाद करो ।


न्यायालय है अब न्याय शून्य, अधिकारी भ्रष्टाचारी हैं। 

शिक्षक उपदेशक तक मण, अभियंता कपटाचारी हैं ॥

 नित आतताइयों के द्वारा, मानवता बेधी जाती है । 

अगणित दुर्योधन कंसों की अहमिति सर्वत्र सताती है ॥

 है प्रबल अराजकता, अधर्म, व्यभिचारी गेरुआधारी है

 इस विषम परिस्थित में भगवन ! रक्षित समाज मर्याद करो।

 अपने भक्तों का कष्ट हरो. फिर पाञ्चजन्य का नाद करो ॥


कानों में  गूंजे गीता स्वर, फिर सुप्त चेतना जग जाये

 जनता ईर्ष्या कटता तजकर, कर्तव्य मार्ग पर लग जाये । 

फिर वेद-ध्वनि नभ में गूंजे, फिर धर्मराज से ज्ञानी हों 

देवव्रत से बलिदानी हौ प्रख्यात कर्ण से दानी हों 

जी जाय अधमरी मानवता, हिंसा सुरसा के गालों से 

आतंकित भारत माता को हे नटवर ! विगत विषाद करो 

उन्माद हरो उत्साह भरो, फिर पाञ्चजन्य का नाद करो 

वह धर्म तथा हरिजन रक्षा का, दृढ व्रत अपना याद करो


१५ गेह-नेह


करता निवास जहाँ कोई खग-मृग नर,

 वही कहा जाता उस प्रानी का वतन है।

जितना ममत्व होता किसी का वतन से है, 

प्यारा उतना न उसे अपना भी तन है ॥

ज्योंही विलगाती एक सफी सलिल से है,

तड़प-तड़प प्राप्त करती निधन है।

जिस नर को न प्यार अपने वतन से है,

अधम अघी है, घोर उसका पतन है ॥


शिशु न मदित होत, जननी की क्रोड़ हू में,

जितना प्रवासी होत निज गेह आइकै ।

पंछी म डराते सारे दिन हैं दिगन्तर में,

 रैन में हैं चैन पाते नीडन में जाइकें ॥

गेह-नेह चुम्बक हौ कितना प्रवल होता,

पशु प्रमुदित आते घर धाइ धाइक ।

प्रान को ज्यों देह, त्योंही होत सर्वे गेह-नेह,

रहे थे विदेह हून, गेह को विहाइकै ॥ 


सभी प्राणियों के हेतु गृह अनिवार्य होत, 

गृह निर्माण सभी प्राणियों का धर्म है ।

पर-उपकार, लोक-सेवा हैं घनेरे पुण्य,

देश की सुरक्षा सा न कोई सत्कर्म है ॥ 

बलि 'विश्राम' जाता गेह बलिदानियों पै,

जिन्होंने बनाया इसे मानियों का मर्म है

वतन पे आँच देख, भाग जो बचाये प्राण,

उस नारकी के नर जीवन पैं शर्म है।





१६ हमारा अपेक्षित राष्ट्र नायक


प्रभु प्रजातन्त्र इस भारत को ऐसा नेता विश्वासी दो ।

 जो जन-वत्सल, जन-सेवक हो, जन श्रद्धा का अभिलाषी हो ॥ 


नेता जो भारत माता का आराधक शान्ति-पुजारी हो ।

 सारी जनता का प्यारा हो, सब जनता जिसको प्यारी हो ।


 है जाति धर्म निरपेक्ष राष्ट्र, जिसका प्रिय एक विशेष न हो। 

सबके प्रति हो सद्भाव, सहज, व्यत्तिगत बैर विद्वेष न हो ॥


 जिसकी गत जीवन कृतियों का, कुछ हुआ देश आभारी हो । 

जिसमें पुष्कल-चरित्र बल हो, जन अद्धा का अधिकारी हो । 


हो राष्ट्र-उन्नयन की क्षमता, उद्दीप्त प्रगति चिनगारी हो। 

बापू-नहरू की राष्ट्र भावना का उत्तराधिकारी हो ॥ 


जो त्याग मूर्ति नेता सुवाष सा सामी बलिदानी हो ।

 अवसर आने पर बन सकता, जो प्रतिरक्षा सेनानी हो । 


जो राजनीति का विद्यार्थी, विज्ञान बहुमखी ज्ञानी हो । 

जो प्रतिरोधों से झुके नहीं, नेता आत्माभिमानी हो ॥ !


जिसके नेत्रों में कांटे सा, चुभता नर भ्रष्टाचारी हो 

जिसके स्वभाव से घबराता, अन्यायी अत्याचारी हो ॥


आपात काल में हो सकता, जन-रक्षक गिरिवरधारी हो । 

उस शुभकर्मी के प्रति भैया ! शत सद्भावना हमारी हो ॥




१७ सुस्वास्थ्य


महाभाग्यशाली है, वह देहधारी, 

जो तन को सबल स्वस्थ, सुंदर बनाता ।


बड़े भाग्य से कोई नरदेह पाता 

 सकल प्राणियों का शिरोमणि कहाता ॥

 है मतिमान जो स्वस्थ तन को बनाता ।

 स्वतः ओज उसके दृगों में समाता ॥


निखरता है सौन्दर्य ऐसा मनोरम, 

जिसे देखकर देवता भी सिहाता । 

अनायास ही लोक प्रियता समाती, 

जो तन को सबल स्वस्थ सुंदर बनाता ॥


है शैशव संजोते पिता और माता । 

नियम और सयम है शिक्षक सिखाता ॥

 कुछ वातावरण से स्वयं सीख करके, 

मनुज आपही अपना बनता विधाता ॥


अडिग तब वह रहता है सन्मार्ग पर ही,

न इन्द्रिय प्रलोभन उसे खीच पाता । 

हैं कर्तव्य की चेतना जगती उसमें,

जो तन को सबल, स्वस्थ, सुन्दर बनाता ॥


न खोता समय तब अकर्मण्य रहकर, 

नहीं कल्मषी युग की धारा में बहकर,

 नहीं पीठ कठिनाइयों को दिखाता, 

है वह लक्ष्य पर जाता सब कष्ट सहकर ।


न अस्वास्थ्यकर अन्न से प्रेम करता, 

नहीं तामसी भोजनों पर लुभाता ।

 नहीं दुर्व्यसन कोई है पास आता, 

जो तन को सबल, स्वस्थ, सुन्दर बनाता ॥


न मदिरा विलासी, न विषयों का भोगी, 

जितेन्द्रिय बशी औ विचारों का योगी । 

नहीं काम-क्रोधाग्नि, ईर्ष्या जलाती,

 भला कैसे होगा पुरुष ऐसा रोगी ?


सदा सबसे है नम्र व्यवहार रखता,

नहीं पाप की जो है कौड़ी कमाता । 

न दुष्कर्म में होगी प्रवृत्ति उसकी,

जो तन को सबल, स्वस्थ, सुन्दर बनाता ॥


विताता है जीवन जो हँसता हँसाता,

न व्यवहार में दिल किसी का दुखाता । 

है इस लोक में रहता जीवन सफल हैं, 

है परलोक में भी वह शुभ धाम पाता ।


यहां पर नहीं कोई उसको दबाता, 

न यमराज का भय उसे है सताता ।

महा भाग्यशाली है वह देहधारी,

जो तन को सवल, स्वस्थ, सुन्दर बनाता ॥










१८  विद्याभ्यास करो 


विद्यार्थी ! विद्याभ्यास करो! अभ्यास करो, अभ्यास करो

है कालिदास का महामन्त्र, अभ्यास करो, अभ्यास करो


अभ्यास दक्षता लाता है । 

परिपक्व ज्ञान उपजाता है ॥

अभ्यासी सरकस का हाथी ।

कर बांध खड़ा हो जाता है ॥ 


मुंह मोड़ो कभी नहीं श्रम से, इस जादू में विश्वास करो

आलस तज सतत प्रयास करो, अभ्यास करो अभ्यास करो ।


अंकुश दे चित एकाग्र करो ।

मतिकुंठा रगड़ कुशाग्र करो ॥

मत एक बार पढ़ कर छोड़ो,

वहु बार पाठ कंठाग्र करो ॥


रह जन-संसदि से दूर सदा, एकान्त देश में वास करो

मत व्यर्थ हास-परिहास करो, विद्यार्थी विद्याभ्यास करो।


ज्ञानार्जन लक्ष्य तुम्हारा हो,

ज्ञानी- विज्ञानी प्यारा हो,

मन में न अहं अँधियारा हो,

सृत शील- विनय की धारा हो ।


'तमसो मा ज्योतिर्गमय' यही, याचना ईश के पास करो

उज्ज्वल व्यक्तित्व विकास करो, विद्यार्थी विद्याभ्यास करो।


आलस्य रहित स्वाध्यायी बन, 

अपने प्रति उत्तरदायी बन ।

जीवन में अध्यवसायी बन,

विद्वानो का अनुयायी बन ॥


सदग्रन्थों, ज्ञानी गुरुओं का, भूले न कभी उपहास करो  

बहुमूल्य समय मत नास करो, विद्यार्थी विद्याभ्यास करो


असफल हो किन्तु निराश न हो,

सक्रिय रह कभी हताश न हो,

तुम दुर्व्यसनों के दास न हो,

तुमको प्रिय विषय बिलास न हो।

मि पाठ्य विषय में रुचि रखकर, विद्या का रुचिर प्रकास करो।

स संगति में न निवास करो। विदयार्थी विद्याभ्यास करो ॥


अभ्यास बड़ा गुण-दाता है,

विद्या-अनुराग बढाता है,

अभ्यास बिना गुरु गुड़ रहता,

चेला चीनी हो जाता


अभ्यासी एकलव्य जैसा, अपने ऊपर विश्वास करो ।

बाधा से जन न उदास करो, अभ्यास करो अभ्यास करो ॥


जब लगन तुम्हारी पायेगी ।

विदया धात्री हो जायेगी ॥

तब हाथ पकड़कर उन्नति की

चोटी पर वह पहुचायेगी ॥


पहिले श्रम-सीकर से सींचो, तब तक से फल की आस करो । 

'विश्राम' की भी शुभ सम्मति है, अभ्यास करो अभ्यास करो ॥




असफल विद्यार्थी

जिन्होंने न सीखी कला. चंचला लुभाती रही,

किया अनुराग नहीं नाम के भी जप से ।

पियान मधुर प्रेम-प्याला राग-रागिनी का, 

अधर तपाते रहे बोला, चाय कप से ॥

क्रीटकों में, सैनिकों में, रुचि उपजाई नहीं, 

क्रिया काल-क्षेप, चित्रपट गप-शप से | 

नष्ट कर जीवन औ धन अभिभावकों का,

सीस ताने खड़े हैं वे ताड़ के विटप से ॥





























१९ सपूत और कपूत 

सपूत

जिसके चरित्र से पिता को हो प्रभूत सुख,

 ऐसे मां के लाल को सपूत परमानिये

 गुणी और ज्ञानी करे कुल-मर्याद-वृद्धि,

उस बंस-भूषण को श्रेष्ठ सुत जानिये ॥

छोक हितकारी, यशी, बशी जो कमाये नाम,

 ऐसे धर्म चेला को, खपूत-रत्न मानिये ।

जन-मन-मानस सराल आये-देश काज,

पितु भवसिन्धु-पोत उसको बखानिये ॥


कपूत


जिसने पसीने की कमाई कभी बाई नहीं,

रह के परोपजीवी पाला निज तन को ।

चोरी, बेइमानी, घूसखोरी, ठगी, बाटपारी,

किया लूट-पाट, छीना, हरा पर-धन को ॥

लोक की न लाज, परलोक का न रहा त्रास,

बल के भरोसे भूला मंगल भवन को ।

मात-पितरों की सुधि न लिया कृतघ्नता से,

 जीवन का सार जाना कंचन-कुचन को ॥

विधि ने दिया था बुद्धि, आये अविवेक नहीं,

सुपथ पै राखे मन-गज बलशाली को ।

रोक राखे इन्द्रियों को, जग के प्रलोभनों से,

भूलेहून भूले, गुण ग्राहक कपाली को || ,

 उससे कपूत कौन होगा भला भूतल पै,

छोड़ा बेलगाम चित्तवृत्ति मतवाली।

•होके वृद्ध रोग ग्रस्त, त्रस्त यम यातना से,

 टेरला क्या अन्त में कपूत ! मुंहमाली को |


 २० वृद्धों की सेवा

 

वृद्धों की करुण कहानी है। इनकी सेवा फलवानी है।

 से शीघ्र विलुड़ने वाले हैं, थोड़े दिन की मेहमानी है ॥


वह हृष्ट-पुष्ट वलशाली तन है घुल कर शक्ति विहीन हुआ ।

 रमणी मनमोहक आकर्षक, वह रूप विरूप मलीन हुआ || 

उन सुगठित पीन भुजाओं की, चमड़ी झूलती पुरानी है। 

चलना फिरना भी दूभर है वो में भी हैरानी है ॥ 

वृद्धों की करुण कहानी है ।


इन्द्रियों की रानी आंखें वे, निस्तेज प्रकाश विहीन हुई । 

थी कंज-खंज-मृग-मीनोपन, धँस कर कीचड़ में लीन हुई ॥

 उन अमी हलाहल-मद वाली आँखों से आता पानी है । 

छाया रहता है धुंधलापन, सर्वत्र सदा बीरानी ॥

वृद्धों की करुण कहानी है ॥


आँखों की तो यह दुर्गति है, कानों में वधिरापन आया ।

 काले घुंघराले केशों में सन जैसा दुधियापन छाया ॥

है अष्टावक्र शरीर हुआ, यह खोई हुई जवानी है। 

कटि कुबड़ी कर में कुबड़ी है, नर तीन पैर का प्रानी है ॥ 

वृद्धों की करुण कहानी है ॥


वे दाँत जो हीरक विक्रम थे. सुन्तर मुक्ताहल माला थे। 

हँसने में प्रभा छिटकती थी, विखराते रुचिर उजाला थे |

 सब राठा-रुला कर विदा हुए, तोतली निकलती वानी है। 

मर्कट सी मन की आकृति है, वे कंचे रोटी खानी है ॥ 

वृद्धों की करुण कहानी है ॥



हो गये तंत्र हैं सभी शिथिल हो गये अपंग अंग सारे । 

हो गया व्याधि का मंदिर तन, संयम-उपचार सभी हारे ॥ 

स्वजनों का सहा सनेह गया, आज्ञा में आनाकानी है।

 हित-मित्रों का व्यवहार घटा, वह भूली प्रीति पुरानी है ।

 वृद्धों की करुण कहानी है ॥


विरला ही बूढ़ा मिलता है, जो छोटों की पूजा पाता । 

पुलकित होता है सेवा से, शुश्रूषा की प्रियता गाता ॥ 

परिचर्या से प्रसन्न होकर देता अशीस कल्याणी है । 

सम्मान सहित इच्छानुकूल, पा जाता भोजन पानी है। 

 वृद्धों की करुण कहानी है ॥


हैं भाग्यवान वे नर नारी, जो इनसे स्नेह लगाते हैं । 

चरणों की सेवा में रहकर, अनुभव भण्डार कमाते हैं । 

जिसके मन मंदिर में बसता, बूढ़ा ज्यों शम्भु-भवानी है। 

वह पुरुष श्रेष्ठ है स्वयं पूज्य, आदर्श गुरु विज्ञानी है ॥ 

वृद्धों की करुण कहानी है ॥


ये विषय-वासना वर्जित हो, अब बने देव तनधारी है।

 इनके सब दुर्गुण दूर हुए, ये श्रद्धा के अधिकारी है ॥ 

समदर्शी है, सबके शुभेच्छु, फलदायक निश्छलबानी है । 

इन ज्ञानधनिक की शुभ सम्मति, शिक्षा-दीक्षा अपनानी है ॥ 

वृद्धों की करुण कहानी है ॥











२१ विद्या और विद्यार्थी


विद्यार्थी! बतला सकते हो क्या जीवन लक्ष्य तुम्हारा है ।

क्या वह सच पूरा हो सकता, तेरी शिक्षा के द्वारा है || 

निर्लक्ष्य पढ़ाई ऐसी है, जैसे निर्लक्ष्य गमन करना ।

 मानो चलना ही काम रहा, ठुकराना गिरना फिर बढ़ना ॥


पढ़ने का लक्ष्य हमारा हो, वह ज्ञानार्जन हम कर पायें । 

जीने की शिष्ट कला सीखें, कुछ कृति छोड़े जब मर जायें ॥ 

सामने परिस्थिति जो आये, उसको अनुकूल बना पायें।

 मर्यादा पूर्वक आयु कटे, उस श्रेष्ठ मार्ग को अपनायें ॥


है विद्यार्जन का चरम लक्ष्य, इस भव सागर को तर जाना ।

 औरों के तरने हेतु सुलभ, कुछ उत्तम साधन कर जाना ॥ 

केवल जीविका कमा लेना, विद्या का लक्ष्य बनाओ मत ।

 मिल गई उपाधि बड़ी-छोटी, संतोष इसी से लाओ मत ॥


ऋषियों ने विद्योपार्जन में, जब लन्वा समय खपाया था । 

तब ग्रह-नक्षत्रों की गति का, ज्योतिष का ज्ञान कमाया था ॥ 

भंडार अपरमित छोड़ गये, वेदों उपनिषदों में भारी । 

अध्यात्म ज्ञान, ईश्वर-निष्ठा का, मानव है चिर आभारी ॥


स्वाध्याय में करो प्रमाद नहीं, आजीवन कुछ पढ़ते जाओ ।

 विद्याओं का है अन्त नहीं पढ़ते जाओ बढ़ते जाओ ॥

 जिस विषय में रुचि स्वाभाविक हो, उसका अध्ययन सुगम होगा। 

तब जीवन सफल बनाने को, वह सर्वोत्तम माध्यम होगा |






२२ बचनावली 


प्रभु की जन रक्षा

 सौ कौरव एकहि हन्यो, मरे न पांडव पाँच । 

रथ पै बैठे हरि रहे, काहु न लागी आंच ॥


अट्ठारह अक्षेहिणी, सेना रही थी खाँच |

पै अंडा भरदूल को, नेकन लागी आँच ॥ 


दहकल अवाँ कुम्हार को, भाँडा रह्यो न काँच

क्रीड़त बच्यो विडाल शिशु, लगी न तन में आँच ॥


बँध्यो तपाये खम्भ में, शरणागत शिशु साँचः । 

प्रभु की माया मध्य में, नेकहु लगी न आँच ॥


घंटा तोरि गयंद को, अंडा लियो बचाय । 

संकट ऐसो कौन है, प्रभु पै टारि न जाय ॥


 टूटि पर्यो हरि चक्र गहि, भक्त उबारन काज ।

 प्रन राख्यौ गांगेय को, परिहरि निज व्रत लाज ॥ 



तेहि जन वत्सल सरन तजि, पर को करे भरोस, 

वह जो विपदा में पर, कहो कौन को दोस ॥


सर्वोत्तम प्रभु प्रेम रस, पर रस नहीं सुहात ॥ 

लिप्सा नहीं तो दुख कहाँ ? सुखमम समय विहात ।।



नींद रैन नहि चैन दिन, चातक पिउ न भुलात । 

त्यों भक्तन के चित्त से, प्रभु को ध्यान न जात ॥


हटाई पराई आत्मा, चाहे अपनो क्षेम । 

दोऊ साथ न नीबहैं, पर पीडन प्रभु-प्रेम ॥



























२३ मद्यपान


मदिरा प्यावे और को करे जो मदिरा पान । 

निज कर काटे आप तन तीनों समान ॥


 माप से मदिरा कहे. सोहि सेब कुपाय | 

नहिं जानत है सिह को, शोणित रहा चखाय ॥ 


अंसुरी धरि पंखुरी घरे, पुनि को सा । 

मदिरा पिया पिशाचिनी, जीवन के संग जाय ॥


 बढ़त बढ़त ज्यों व्याज के, धन को मूल नसाय।

 महा-व्यसन जेहिं क्रम, तेहि क्रम आयु खोटाय ॥


 अवगुन चार महान हैं, वित्त, वृत्त बित्नसात ।

 गनो मिति परिहरत अटपट आवत बात ॥ 


उपजत घातक रोग बहु, औषध करे न काम ।

 महाप घुल-घुल के सरत, जो भी खरचै दाम ॥ 


यदि बरजे माने नहीं सुने न नेक सलाह । 

जानहु मदिरा मीच हूँ, पर्कार लई है बाँह ॥ 


मदिरा पान छिपे नहीं, मंद से आवे बास 

ताहू को दम घुटत है, जो बैठत है पास ॥ 

जहाँ सुरा त सुन्दरी, दोनों का ही मेल । 

व्यक्ति विनाश को, है पर्याप्त अकेल ॥ 


एक वार लगि कंठ सों जाह प्राण के साथ । 

जो चाहे स्याण निज, मदिरा छुवै नाथ ॥

२४  वाणी


प्रभु प्रति प्राणी को दियो, साधन-शक्ति सुपास। 

पायो तीन विशेष नर, प्रतिभा, वाणी, हारा ॥ 


वाणी में है युगल बल, सुख-दुख दोऊ देत । 

एक वचन आरति हरत, एक प्राण हरि लेत ॥ 


बाण कटु वचन दोड़ में, बचन प्रखरतर होय | 

बाण निवारण त्राण है, बचन बचाव न कोय ॥


 बाण भलो नहिं कटु बचन, दारुण दुहुन सुभाव ।

 पूजि जात व्रण बाण को, जात न वाणी-घाव ॥ 


तरुण हृदय सालत यथा, तरुणी तिरछे नैन । 

बेधत हैं सब को हियो, तीखे तिरछे वैन ॥ 


मौन भला तेहि बोल ते, छेदै श्रोता कान ।

 कोमल बाणी बोलिये, दुहुँ सुख होय समान ॥


 व्यंग न करती द्रौपदी, दुर्योधन न रिसात। 

तब नहिं उपजत ताहि उर, चीर हरन की बात ॥ 


बिना विचारे बचन का, अभिमत फल नहि होय । 

कुंभ करण वरदान हूँ, नास्यो घातक सोय॥ 


बचन तुषारहु ते अधिक, शीतल औ प्रिय होत। 

जिसे कान में परत ही, उपजत उर सुख स्रोत ॥ 


व्यर्थ बचन मत बोलिये, मृषा, कटुक्र, अनखाय। 

सत्यहु सोई भाखिये, श्रोता चित न दुखाय ॥


 मीठी बोली कोकिला, सबही प्यारी होय ।

 कर्कश काक-उलूक- स्वर, सुन्यो न चाहत कोय ॥ 


जरै चटोती जीभ वह, नहिं हरि भजन सहाय ।

 चाटुकारिता प्रिय लगे, नाम जपत अलसाय ॥ 


काली कोयल काक सी, नहीं रूप, शुभ-गोत । 

मृदु भाषण के कारणे, सबै मोहनी होत । 


वीणा को स्वर सनत ही, हिरनी भई अधीर । 

तीर अहेरी को राह्यो, नहीं प्रेम की पीर ॥















२५ नीति 

जो चाहे ओजन घुटै, बड़े आयु सम्मान ।

 तजै तीय सम्मति, कुसँग, क्रोध, लोभ, अभिमान ॥ 

प्रिया पतिव्रता, प्रियवदा, स्वार्थ-हीन जेहि मित्र । 

तेही सम विरला ही सुखी, प्रतिवेशी सुचरित्र ॥ 


पुरुष जहाँ हैं, उद्यमी, सहनशील, मतिमान ।

 तहाँ न कबहूँ धन घटत, सुमति बन्धुता, मान ॥ 

सती, सुशीला, शिक्षिता, जहाँ संयमी नारि । 

शान्ति, प्रेम, सुख, संपदा, तहाँ विराजत चारि ॥ 


तन में बल, मन राम है, चित्त सतत संतोष । 

परिजन सहज सनेहमय, का कुबेर को कोष ॥ 

भावत नहीं मिलिन्द को, ज्यों चम्पे की वास ।

 जाकी जासों रति नहीं, सो न जात तेहि पास । 

रसिया नैननि फोरि के, सूर सन्त मे सिद्ध । 

दूर दृष्टि से क्या भया, डंगर हेरत गिद्ध ॥ 

कुल बोरि कन्या मरै, मरै बैल गरियार । 

घर फोरी, खल किंकरी, भेदिया कपटी यार ॥

 यदि सम्पति भगवान दे, तो दे हृदय उदार । 

सकृति, ख्याति कमाइ ले. रहनो है दिन चार ॥ 

दुर्जन-सज्जन भेद नहिं, रूप, रंग, आकार । 

एकहि पर अपकार प्रिंय, एकहि पर उपकार ॥ 

सन्त बत्रन भावै नहीं, हरि-चरचा न सुहाय । 

बरु तासों बहिरो भलो, कुबचन सुनो न जाय ॥ 

वीणा धुनि स्रवननी परी, मृगी उठी अकुलाय । 

वादक को तन सौंपि कै, शब्द सनी नियराय ॥

 कबहुँ न कहिये भूलि के, झूठा है संसार । 

यहाँ आइ नर करत है, पाप जुण्य बाजार ॥

 कुलटा, कलही, कर्कशा, अनियन्त्रित स्वाधीन । 

चिंता, त्रपा, दरिद्रता, सदा सहेली तीन ॥
























२६ जय किसान ! जय जवान !! 

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जय किसान ! जय नव जवान !! यह शास्त्री जी का नारा है।

 भारत- प्रधानमंत्री पद से, जिस नेता ने ललकारा है ॥

 जादू है अक्षर-अक्षर में, स्वर में अमृत की धारा है। 

श्री लाल बहादुर शास्त्री का, यह नारा कितना प्यारा है ॥


हे स्वावलम्ब का महामन्त्र, इसका प्रभाव ही न्यारा है ।

 कानों में पड़करके इसनें, चेतना नई उद्गारा है !! 

कर दिखलाया जो चमत्कार, सबने हो चकित निहारा है। 

मिलकर भुखमरी मिटाने का संकल्प देश ने धारा है ॥


जी तोड़ किसान जटे कृषि पै, उत्पादकता में वृद्धि हुई । 

परमुखापेक्षता रही नहीं, भोज्यान्नों की समृद्धि हुई ॥ 

वह देश प्राण तो रहा नहीं, चिर जीवित लेकिन सारा है। 

जो रहा रहेगा, सम्प्रति भी, भारत का सुदृढ़ सहारा है।


आवाज गरजती है इसमें, स्वाधीन देश के नेता की । 

दुर्जय-संग्राम-विजेता की, संघर्षी राष्ट्र प्रणेता की । 

संकट में भारत जनता का गिरता उत्साह उभारा है ।

 शास्त्री जी का यह नारा क्या, दिव्यास्त्र अमोघ हमारा है ॥


बन्दे मातरम् !