श्री राम-भरत मिलाप

लखन राम सियँ सुनि सुर बानी।

अति सुखु लहेउ न जाइ बखानी॥

इहाँ भरतु सब सहित सहाए।

मंदाकिनीं पुनीत नहाए॥2॥

सरित समीप राखि सब लोगा।

मागि मातु गुर सचिव नियोगा॥

चले भरतु जहँ सिय रघुराई।

साथ निषादनाथु लघु भाई॥3॥

समुझि मातु करतब सकुचाहीं।

करत कुतरक कोटि मन माहीं॥

रामु लखनु सिय सुनि मम नाऊँ।

उठि जनि अनत जाहिं तजि ठाऊँ॥4॥

मातु मते महुँ मानि मोहि

जो कछु करहिं सो थोर।

अघ अवगुन छमि आदरहिं

समुझि आपनी ओर॥233॥

जौं परिहरहिं मलिन मनु जानी।

जौं सनमानहिं सेवकु मानी॥

मोरें सरन रामहि की पनही।

राम सुस्वामि दोसु सब जनही॥1॥

जग जग भाजन चातक मीना।

नेम पेम निज निपुन नबीना॥

अस मन गुनत चले मग जाता।

सकुच सनेहँ सिथिल सब गाता॥2॥

फेरति मनहुँ मातु कृत खोरी।

चलत भगति बल धीरज धोरी॥

जब समुझत रघुनाथ सुभाऊ।

तब पथ परत उताइल पाऊ॥3॥

भरत दसा तेहि अवसर कैसी।

जल प्रबाहँ जल अलि गति जैसी॥

देखि भरत कर सोचु सनेहू।

भा निषाद तेहि समयँ बिदेहू॥4॥

लगे होन मंगल सगुन

सुनि गुनि कहत निषादु।

मिटिहि सोचु होइहि हरषु

पुनि परिनाम बिषादु॥234॥

सेवक बचन सत्य सब जाने।

आश्रम निकट जाइ निअराने॥

भरत दीख बन सैल समाजू।

मुदित छुधित जनु पाइ सुनाजू॥1॥

ईति भीति जनु प्रजा दुखारी।

त्रिबिध ताप पीड़ित ग्रह मारी॥

जाइ सुराज सुदेस सुखारी।

होहिं भरत गति तेहि अनुहारी॥2॥

राम बास बन संपति भ्राजा।

सुखी प्रजा जनु पाइ सुराजा॥

सचिव बिरागु बिबेकु नरेसू।

बिपिन सुहावन पावन देसू॥3॥

भट जम नियम सैल रजधानी।

सांति सुमति सुचि सुंदर रानी॥

सकल अंग संपन्न सुराऊ।

राम चरन आश्रित चित चाऊ॥4॥

जीति मोह महिपालु दल

सहित बिबेक भुआलु।

करत अकंटक राजु पुरँ

सुख संपदा सुकालु॥235॥

बन प्रदेस मुनि बास घनेरे।

जनु पुर नगर गाउँ गन खेरे॥

बिपुल बिचित्र बिहग मृग नाना।

प्रजा समाजु न जाइ बखाना॥1॥

खगहा करि हरि बाघ बराहा।

देखि महिष बृष साजु सराहा॥

बयरु बिहाइ चरहिं एक संगा।

जहँ तहँ मनहुँ सेन चतुरंगा॥2॥

झरना झरहिं मत्त गज गाजहिं।

मनहुँ निसान बिबिधि बिधि बाजहिं॥

चक चकोर चातक सुक पिक गन।

कूजत मंजु मराल मुदित मन॥3॥

अलिगन गावत नाचत मोरा।

जनु सुराज मंगल चहु ओरा॥

बेलि बिटप तृन सफल सफूला।

सब समाजु मुद मंगल मूला॥4॥

राम सैल सोभा निरखि

भरत हृदयँ अति पेमु।

तापस तप फलु पाइ जिमि

सुखी सिरानें नेमु॥236॥

तब केवट ऊँचे चढ़ि धाई।

कहेउ भरत सन भुजा उठाई॥

नाथ देखिअहिं बिटप बिसाला।

पाकरि जंबु रसाल तमाला॥1॥

जिन्ह तरुबरन्ह मध्य बटु सोहा।

मंजु बिसाल देखि मनु मोहा॥

नील सघन पल्लव फल लाला।

अबिरल छाहँ सुखद सब काला॥2॥

मानहुँ तिमिर अरुनमय रासी।

बिरची बिधि सँकेलि सुषमा सी॥

ए तरु सरित समीप गोसाँई।

रघुबर परनकुटी जहँ छाई॥3॥

तुलसी तरुबर बिबिध सुहाए।

कहुँ कहुँ सियँ कहुँ लखन लगाए॥

बट छायाँ बेदिका बनाई।

सियँ निज पानि सरोज सुहाई॥4॥

जहाँ बैठि मुनिगन सहित

नित सिय रामु सुजान।

सुनहिं कथा इतिहास सब

आगम निगम पुरान॥237॥

सखा बचन सुनि बिटप निहारी।

उमगे भरत बिलोचन बारी॥

करत प्रनाम चले दोउ भाई।

कहत प्रीति सारद सकुचाई॥1॥

हरषहिं निरखि राम पद अंका।

मानहुँ पारसु पायउ रंका॥

रज सिर धरि हियँ नयनन्हि लावहिं।

रघुबर मिलन सरिस सुख पावहिं॥2॥

देखि भरत गति अकथ अतीवा।

प्रेम मगन मृग खग जड़ जीवा॥

सखहि सनेह बिबस मग भूला।

कहि सुपंथ सुर बरषहिं फूला॥3॥

निरखि सिद्ध साधक अनुरागे।

सहज सनेहु सराहन लागे॥

होत न भूतल भाउ भरत को।

अचर सचर चर अचर करत को॥4॥

पेम अमिअ मंदरु बिरहु

भरतु पयोधि गँभीर।

मथि प्रगटेउ सुर साधु हित

कृपासिंधु रघुबीर॥238॥

सखा समेत मनोहर जोटा।

लखेउ न लखन सघन बन ओटा॥

भरत दीख प्रभु आश्रमु पावन।

सकल सुमंगल सदनु सुहावन॥1॥

करत प्रबेस मिटे दुख दावा।

जनु जोगीं परमारथु पावा॥

देखे भरत लखन प्रभु आगे।

पूँछे बचन कहत अनुरागे॥2॥

सीस जटा कटि मुनि पट बाँधें।

तून कसें कर सरु धनु काँधें॥

बेदी पर मुनि साधु समाजू।

सीय सहित राजत रघुराजू॥3॥

बलकल बसन जटिल तनु स्यामा।

जनु मुनिबेष कीन्ह रति कामा॥

कर कमलनि धनु सायकु फेरत।

जिय की जरनि हरत हँसि हेरत॥4॥

लसत मंजु मुनि मंडली

मध्य सीय रघुचंदु।

ग्यान सभाँ जनु तनु धरें

भगति सच्चिदानंदु॥239॥

सानुज सखा समेत मगन मन।

बिसरे हरष सोक सुख दुख गन॥

पाहि नाथ कहि पाहि गोसाईं।

भूतल परे लकुट की नाईं॥1॥

बचन सप्रेम लखन पहिचाने।

करत प्रनामु भरत जियँ जाने॥

बंधु सनेह सरस एहि ओरा।

उत साहिब सेवा बस जोरा॥2॥

मिलि न जाइ नहिं गुदरत बनई।

सुकबि लखन मन की गति भनई॥

रहे राखि सेवा पर भारू।

चढ़ी चंग जनु खैंच खेलारू॥3॥

कहत सप्रेम नाइ महि माथा।

भरत प्रनाम करत रघुनाथा॥

उठे रामु सुनि पेम अधीरा।

कहुँ पट कहुँ निषंग धनु तीरा॥4॥

बरबस लिए उठाइ उर लाए कृपानिधान।

भरत राम की मिलनि लखि बिसरे सबहि अपान॥240॥

मिलनि प्रीति किमि जाइ बखानी।

कबिकुल अगम करम मन बानी॥

परम प्रेम पूरन दोउ भाई।

मन बुधि चित अहमिति बिसराई॥1॥

कहहु सुपेम प्रगट को करई।

केहि छाया कबि मति अनुसरई॥

कबिहि अरथ आखर बलु साँचा।

अनुहरि ताल गतिहि नटु नाचा॥2॥

अगम सनेह भरत रघुबर को।

जहँ न जाइ मनु बिधि हरि हर को॥

सो मैं कुमति कहौं केहि भाँति।

बाज सुराग कि गाँडर ताँती॥3॥

मिलनि बिलोकि भरत रघुबर की।

सुरगन सभय धकधकी धरकी॥

समुझाए सुरगुरु जड़ जागे।

बरषि प्रसून प्रसंसन लागे॥4॥

मिलि सपेम रिपुसूदनहि

केवटु भेंटेउ राम।

भूरि भायँ भेंटे भरत

लछिमन करत प्रनाम॥241॥

भेंटेउ लखन ललकि लघु भाई।

बहुरि निषादु लीन्ह उर लाई॥

पुनि मुनिगन दुहुँ भाइन्ह बंदे।

अभिमत आसिष पाइ अनंदे॥1॥

सानुज भरत उमगि अनुरागा।

धरि सिर सिय पद पदुम परागा॥

पुनि पुनि करत प्रनाम उठाए।

सिर कर कमल परसि बैठाए॥2॥

सीयँ असीस दीन्हि मन माहीं।

मनग सनेहँ देह सुधि नाहीं॥

सब बिधि सानुकूल लखि सीता।

भे निसोच उर अपडर बीता॥3॥

कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूँछा।

प्रेम भरा मन निज गति छूँछा॥

तेहि अवसर केवटु धीरजु धरि।

जोरि पानि बिनवत प्रनामु करि॥4॥

नाथ साथ मुनिनाथ के

मातु सकल पुर लोग।

सेवक सेनप सचिव सब

आए बिकल बियोग॥242॥

सीलसिंधु सुनि गुर आगवनू।

सिय समीप राखे रिपुदवनू॥

चले सबेग रामु तेहि काला।

धीर धरम धुर दीनदयाला॥1॥

गुरहि देखि सानुज अनुरागे।

दंड प्रनाम करन प्रभु लागे॥

मुनिबर धाइ लिए उर लाई।

प्रेम उमगि भेंटे दोउ भाई॥2॥

प्रेम पुलकि केवट कहि नामू।

कीन्ह दूरि तें दंड प्रनामू॥

राम सखा रिषि बरबस भेंटा।

जनु महि लुठत सनेह समेटा॥3॥

रघुपति भगति सुमंगल मूला।

नभ सराहि सुर बरिसहिं फूला॥

एहि सम निपट नीच कोउ नाहीं।

बड़ बसिष्ठ सम को जग माहीं॥4॥

जेहि लखि लखनहु तें अधिक

मिले मुदित मुनिराउ।

सो सीतापति भजन को

प्रगट प्रताप प्रभाउ॥243॥

आरत लोग राम सबु जाना।

करुनाकर सुजान भगवाना॥

जो जेहि भायँ रहा अभिलाषी।

तेहि तेहि कै तसि तसि रुख राखी॥1॥

सानुज मिलि पल महुँ सब काहू।

कीन्ह दूरि दुखु दारुन दाहू॥

यह बड़ि बात राम कै नाहीं।

जिमि घट कोटि एक रबि छाहीं॥2॥

मिलि केवटहि उमगि अनुरागा।

पुरजन सकल सराहहिं भागा॥

देखीं राम दुखित महतारीं।

जनु सुबेलि अवलीं हिम मारीं॥3॥

प्रथम राम भेंटी कैकेई।

सरल सुभायँ भगति मति भेई॥

पग परि कीन्ह प्रबोधु बहोरी।

काल करम बिधि सिर धरि खोरी॥4॥

भेटीं रघुबर मातु सब

करि प्रबोधु परितोषु।

अंब ईस आधीन जगु

काहु न देइअ दोषु॥244॥

गुरतिय पद बंदे दुहु भाईं।

सहित बिप्रतिय जे सँग आईं॥

गंग गौरिसम सब सनमानीं।

देहिं असीस मुदित मृदु बानीं॥1॥

गहि पद लगे सुमित्रा अंका।

जनु भेंटी संपति अति रंका॥

पुनि जननी चरननि दोउ भ्राता।

परे पेम ब्याकुल सब गाता॥2॥

अति अनुराग अंब उर लाए।

नयन सनेह सलिल अन्हवाए॥

तेहि अवसर कर हरष बिषादू।

किमि कबि कहै मूक जिमि स्वादू॥3॥

मिलि जननिहि सानुज रघुराऊ।

गुर सन कहेउ कि धारिअ पाऊ॥

पुरजन पाइ मुनीस नियोगू।

जल थल तकि तकि उतरेउ लोगू॥4॥

महिसुर मंत्री मातु गुरु

गने लोग लिए साथ।

पावन आश्रम गवनु किए

भरत लखन रघुनाथ॥245॥

सीय आइ मुनिबर पग लागी।

उचित असीस लही मन मागी॥

गुरपतिनिहि मुनितियन्ह समेता।

मिली पेमु कहि जाइ न जेता॥1॥

बंदि बंदि पग सिय सबही के।

आसिरबचन लहे प्रिय जी के।

सासु सकल सब सीयँ निहारीं।

मूदे नयन सहमि सुकुमारीं॥2॥

परीं बधिक बस मनहुँ मरालीं।

काह कीन्ह करतार कुचालीं॥

तिन्ह सिय निरखि निपट दुखु पावा।

सो सबु सहिअ जो दैउ सहावा॥3॥

जनकसुता तब उर धरि धीरा।

नील नलिन लोयन भरि नीरा॥

मिली सकल सासुन्ह सिय जाई।

तेहि अवसर करुना महि छाई॥4॥

लागि लागि पग सबनि सिय

भेंटति अति अनुराग।

हृदयँ असीसहिं पेम बस

रहिअहु भरी सोहाग॥246॥

बिकल सनेहँ सीय सब रानीं।

बैठन सबहि कहेउ गुर ग्यानीं॥

कहि जग गति मायिक मुनिनाथा॥

कहे कछुक परमारथ गाथा॥1॥

लक्ष्मणजी, श्री रामचंद्रजी और सीताजी ने देवताओं की वाणी सुनकर अत्यंत सुख पाया, जो वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ भरतजी ने सारे समाज के साथ पवित्र मंदाकिनी में स्नान किया॥2॥

फिर सबको नदी के समीप ठहराकर तथा माता, गुरु और मंत्री की आज्ञा माँगकर निषादराज और शत्रुघ्न को साथ लेकर भरतजी वहाँ चले जहाँ श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी थे॥3॥।

भरतजी अपनी माता कैकेयी की करनी को समझकर (याद करके) सकुचाते हैं और मन में करोड़ों (अनेक) कुतर्क करते हैं (सोचते हैं) श्री राम, लक्ष्मण और सीताजी मेरा नाम सुनकर स्थान छोड़कर कहीं दूसरी जगह उठकर न चले जाएँ॥4॥

मुझे माता के मत में मानकर वे जो कुछ भी करें सो थोड़ा है, पर वे अपनी ओर समझकर (अपने विरद और संबंध को देखकर) मेरे पापों और अवगुणों को क्षमा करके मेरा आदर ही करेंगे॥233॥

चाहे मलिन मन जानकर मुझे त्याग दें, चाहे अपना सेवक मानकर मेरा सम्मान करें, (कुछ भी करें), मेरे तो श्री रामचंद्रजी की जूतियाँ ही शरण हैं। श्री रामचंद्रजी तो अच्छे स्वामी हैं, दोष तो सब दास का ही है॥1॥

जगत्‌ में यश के पात्र तो चातक और मछली ही हैं, जो अपने नेम और प्रेम को सदा नया बनाए रखने में निपुण हैं। ऐसा मन में सोचते हुए भरतजी मार्ग में चले जाते हैं। उनके सब अंग संकोच और प्रेम से शिथिल हो रहे हैं॥2॥

माता की हुई बुराई मानो उन्हें लौटाती है, पर धीरज की धुरी को धारण करने वाले भरतजी भक्ति के बल से चले जाते हैं। जब श्री रघुनाथजी के स्वभाव को समझते (स्मरण करते) हैं तब मार्ग में उनके पैर जल्दी-जल्दी पड़ने लगते हैं॥3॥

उस समय भरत की दशा कैसी है? जैसी जल के प्रवाह में जल के भौंरे की गति होती है। भरतजी का सोच और प्रेम देखकर उस समय निषाद विदेह हो गया (देह की सुध-बुध भूल गया)॥4॥

मंगल शकुन होने लगे। उन्हें सुनकर और विचारकर निषाद कहने लगा- सोच मिटेगा, हर्ष होगा, पर फिर अन्त में दुःख होगा॥234॥

भरतजी ने सेवक (गुह) के सब वचन सत्य जाने और वे आश्रम के समीप जा पहुँचे। वहाँ के वन और पर्वतों के समूह को देखा तो भरतजी इतने आनंदित हुए मानो कोई भूखा अच्छा अन्न (भोजन) पा गया हो॥1॥

जैसे *ईति के भय से दुःखी हुई और तीनों (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक) तापों तथा क्रूर ग्रहों और महामारियों से पीड़ित प्रजा किसी उत्तम देश और उत्तम राज्य में जाकर सुखी हो जाए, भरतजी की गति (दशा) ठीक उसी प्रकार हो रही है॥2॥ (*अधिक जल बरसना, न बरसना, चूहों का उत्पात, टिड्डियाँ, तोते और दूसरे राजा की चढ़ाई- खेतों में बाधा देने वाले इन छह उपद्रवों को 'ईति' कहते हैं)।

श्री रामचंद्रजी के निवास से वन की सम्पत्ति ऐसी सुशोभित है मानो अच्छे राजा को पाकर प्रजा सुखी हो। सुहावना वन ही पवित्र देश है। विवेक उसका राजा है और वैराग्य मंत्री है॥3॥

यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) तथा नियम (शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) योद्धा हैं। पर्वत राजधानी है, शांति तथा सुबुद्धि दो सुंदर पवित्र रानियाँ हैं। वह श्रेष्ठ राजा राज्य के सब अंगों से पूर्ण है और श्री रामचंद्रजी के चरणों के आश्रित रहने से उसके चित्त में चाव (आनंद या उत्साह) है॥4॥ (स्वामी, आमत्य, सुहृद, कोष, राष्ट्र, दुर्ग और सेना- राज्य के सात अंग हैं।)

मोह रूपी राजा को सेना सहित जीतकर विवेक रूपी राजा निष्कण्टक राज्य कर रहा है। उसके नगर में सुख, सम्पत्ति और सुकाल वर्तमान है॥235॥

वन रूपी प्रांतों में जो मुनियों के बहुत से निवास स्थान हैं, वही मानो शहरों, नगरों, गाँवों और खेड़ों का समूह है। बहुत से विचित्र पक्षी और अनेकों पशु ही मानो प्रजाओं का समाज है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥

गैंडा, हाथी, सिंह, बाघ, सूअर, भैंसे और बैलों को देखकर राजा के साज को सराहते ही बनता है। ये सब आपस का वैर छोड़कर जहाँ-तहाँ एक साथ विचरते हैं। यही मानो चतुरंगिणी सेना है॥2॥

पानी के झरने झर रहे हैं और मतवाले हाथी चिंघाड़ रहे हैं। मानो वहाँ अनेकों प्रकार के नगाड़े बज रहे हैं। चकवा, चकोर, पपीहा, तोता तथा कोयलों के समूह और सुंदर हंस प्रसन्न मन से कूज रहे हैं॥3॥

भौंरों के समूह गुंजार कर रहे हैं और मोर नाच रहे हैं। मानो उस अच्छे राज्य में चारों ओर मंगल हो रहा है। बेल, वृक्ष, तृण सब फल और फूलों से युक्त हैं। सारा समाज आनंद और मंगल का मूल बन रहा है॥4॥

श्री रामजी के पर्वत की शोभा देखकर भरतजी के हृदय में अत्यंत प्रेम हुआ। जैसे तपस्वी नियम की समाप्ति होने पर तपस्या का फल पाकर सुखी होता है॥236॥

तब केवट दौड़कर ऊँचे चढ़ गया और भुजा उठाकर भरजी से कहने लगा- हे नाथ! ये जो पाकर, जामुन, आम और तमाल के विशाल वृक्ष दिखाई देते हैं,॥1॥

जिन श्रेष्ठ वृक्षों के बीच में एक सुंदर विशाल बड़ का वृक्ष सुशोभित है, जिसको देखकर मन मोहित हो जाता है, उसके पत्ते नीले और सघन हैं और उसमें लाल फल लगे हैं। उसकी घनी छाया सब ऋतुओं में सुख देने वाली है॥2॥

मानो ब्रह्माजी ने परम शोभा को एकत्र करके अंधकार और लालिमामयी राशि सी रच दी है। हे गुसाईं! ये वृक्ष नदी के समीप हैं, जहाँ श्री राम की पर्णकुटी छाई है॥3॥

वहाँ तुलसीजी के बहुत से सुंदर वृक्ष सुशोभित हैं, जो कहीं-कहीं सीताजी ने और कहीं लक्ष्मणजी ने लगाए हैं। इसी बड़ की छाया में सीताजी ने अपने करकमलों से सुंदर वेदी बनाई है॥4॥

जहाँ सुजान श्री सीता-रामजी मुनियों के वृन्द समेत बैठकर नित्य शास्त्र, वेद और पुराणों के सब कथा-इतिहास सुनते हैं॥237॥

सखा के वचन सुनकर और वृक्षों को देखकर भरतजी के नेत्रों में जल उमड़ आया। दोनों भाई प्रणाम करते हुए चले। उनके प्रेम का वर्णन करने में सरस्वतीजी भी सकुचाती हैं॥1॥

श्री रामचन्द्रजी के चरणचिह्न देखकर दोनों भाई ऐसे हर्षित होते हैं, मानो दरिद्र पारस पा गया हो। वहाँ की रज को मस्तक पर रखकर हृदय में और नेत्रों में लगाते हैं और श्री रघुनाथजी के मिलने के समान सुख पाते हैं॥2॥

भरतजी की अत्यन्त अनिर्वचनीय दशा देखकर वन के पशु, पक्षी और जड़ (वृक्षादि) जीव प्रेम में मग्न हो गए। प्रेम के विशेष वश होने से सखा निषादराज को भी रास्ता भूल गया। तब देवता सुंदर रास्ता बतलाकर फूल बरसाने लगे॥3॥

भरत के प्रेम की इस स्थिति को देखकर सिद्ध और साधक लोग भी अनुराग से भर गए और उनके स्वाभाविक प्रेम की प्रशंसा करने लगे कि यदि इस पृथ्वी तल पर भरत का जन्म (अथवा प्रेम) न होता, तो जड़ को चेतन और चेतन को जड़ कौन करता?॥4॥

प्रेम अमृत है, विरह मंदराचल पर्वत है, भरतजी गहरे समुद्र हैं। कृपा के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने देवता और साधुओं के हित के लिए स्वयं (इस भरत रूपी गहरे समुद्र को अपने विरह रूपी मंदराचल से) मथकर यह प्रेम रूपी अमृत प्रकट किया है॥238॥

सखा निषादराज सहित इस मनोहर जोड़ी को सघन वन की आड़ के कारण लक्ष्मणजी नहीं देख पाए। भरतजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के समस्त सुमंगलों के धाम और सुंदर पवित्र आश्रम को देखा॥1॥

आश्रम में प्रवेश करते ही भरतजी का दुःख और दाह (जलन) मिट गया, मानो योगी को परमार्थ (परमतत्व) की प्राप्ति हो गई हो। भरतजी ने देखा कि लक्ष्मणजी प्रभु के आगे खड़े हैं और पूछे हुए वचन प्रेमपूर्वक कह रहे हैं (पूछी हुई बात का प्रेमपूर्वक उत्तर दे रहे हैं)॥2॥

सिर पर जटा है, कमर में मुनियों का (वल्कल) वस्त्र बाँधे हैं और उसी में तरकस कसे हैं। हाथ में बाण तथा कंधे पर धनुष है, वेदी पर मुनि तथा साधुओं का समुदाय बैठा है और सीताजी सहित श्री रघुनाथजी विराजमान हैं॥3॥

श्री रामजी के वल्कल वस्त्र हैं, जटा धारण किए हैं, श्याम शरीर है। (सीता-रामजी ऐसे लगते हैं) मानो रति और कामदेव ने मुनि का वेष धारण किया हो। श्री रामजी अपने करकमलों से धनुष-बाण फेर रहे हैं और हँसकर देखते ही जी की जलन हर लेते हैं (अर्थात जिसकी ओर भी एक बार हँसकर देख लेते हैं, उसी को परम आनंद और शांति मिल जाती है।)॥4॥

सुंदर मुनि मंडली के बीच में सीताजी और रघुकुलचंद्र श्री रामचन्द्रजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो ज्ञान की सभा में साक्षात्‌ भक्ति और सच्चिदानंद शरीर धारण करके विराजमान हैं॥239॥

छोटे भाई शत्रुघ्न और सखा निषादराज समेत भरतजी का मन (प्रेम में) मग्न हो रहा है। हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि सब भूल गए। हे नाथ! रक्षा कीजिए, हे गुसाईं! रक्षा कीजिए' ऐसा कहकर वे पृथ्वी पर दण्ड की तरह गिर पड़े॥1॥

प्रेमभरे वचनों से लक्ष्मणजी ने पहचान लिया और मन में जान लिया कि भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। (वे श्री रामजी की ओर मुँह किए खड़े थे, भरतजी पीठ पीछे थे, इससे उन्होंने देखा नहीं।) अब इस ओर तो भाई भरतजी का सरस प्रेम और उधर स्वामी श्री रामचन्द्रजी की सेवा की प्रबल परवशता॥2॥

न तो (क्षणभर के लिए भी सेवा से पृथक होकर) मिलते ही बनता है और न (प्रेमवश) छोड़ते (उपेक्षा करते) ही। कोई श्रेष्ठ कवि ही लक्ष्मणजी के चित्त की इस गति (दुविधा) का वर्णन कर सकता है। वे सेवा पर भार रखकर रह गए (सेवा को ही विशेष महत्वपूर्ण समझकर उसी में लगे रहे) मानो चढ़ी हुई पतंग को खिलाड़ी (पतंग उड़ाने वाला) खींच रहा हो॥3॥

लक्ष्मणजी ने प्रेम सहित पृथ्वी पर मस्तक नवाकर कहा- हे रघुनाथजी! भरतजी प्रणाम कर रहे हैं। यह सुनते ही श्री रघुनाथजी प्रेम में अधीर होकर उठे। कहीं वस्त्र गिरा, कहीं तरकस, कहीं धनुष और कहीं बाण॥4॥

कृपा निधान श्री रामचन्द्रजी ने उनको जबरदस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया! भरतजी और श्री रामजी के मिलन की रीति को देखकर सबको अपनी सुध भूल गई॥240॥

मिलन की प्रीति कैसे बखानी जाए? वह तो कविकुल के लिए कर्म, मन, वाणी तीनों से अगम है। दोनों भाई (भरतजी और श्री रामजी) मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को भुलाकर परम प्रेम से पूर्ण हो रहे हैं॥1॥

कहिए, उस श्रेष्ठ प्रेम को कौन प्रकट करे? कवि की बुद्धि किसकी छाया का अनुसरण करे? कवि को तो अक्षर और अर्थ का ही सच्चा बल है। नट ताल की गति के अनुसार ही नाचता है!॥2॥

भरतजी और श्री रघुनाथजी का प्रेम अगम्य है, जहाँ ब्रह्मा, विष्णु और महादेव का भी मन नहीं जा सकता। उस प्रेम को मैं कुबुद्धि किस प्रकार कहूँ! भला, *गाँडर की ताँत से भी कहीं सुंदर राग बज सकता है?॥3॥ (*तालाबों और झीलों में एक तरह की घास होती है, उसे गाँडर कहते हैं।)

भरतजी और श्री रामचन्द्रजी के मिलने का ढंग देखकर देवता भयभीत हो गए, उनकी धुकधुकी धड़कने लगी। देव गुरु बृहस्पतिजी ने समझाया, तब कहीं वे मूर्ख चेते और फूल बरसाकर प्रशंसा करने लगे॥4॥

फिर श्री रामजी प्रेम के साथ शत्रुघ्न से मिलकर तब केवट (निषादराज) से मिले। प्रणाम करते हुए लक्ष्मणजी से भरतजी बड़े ही प्रेम से मिले॥241॥

तब लक्ष्मणजी ललककर (बड़ी उमंग के साथ) छोटे भाई शत्रुघ्न से मिले। फिर उन्होंने निषादराज को हृदय से लगा लिया। फिर भरत-शत्रुघ्न दोनों भाइयों ने (उपस्थित) मुनियों को प्रणाम किया और इच्छित आशीर्वाद पाकर वे आनंदित हुए॥1॥

छोटे भाई शत्रुघ्न सहित भरतजी प्रेम में उमँगकर सीताजी के चरण कमलों की रज सिर पर धारण कर बार-बार प्रणाम करने लगे। सीताजी ने उन्हें उठाकर उनके सिर को अपने करकमल से स्पर्श कर (सिर पर हाथ फेरकर) उन दोनों को बैठाया॥2॥

सीताजी ने मन ही मन आशीर्वाद दिया, क्योंकि वे स्नेह में मग्न हैं, उन्हें देह की सुध-बुध नहीं है। सीताजी को सब प्रकार से अपने अनुकूल देखकर भरतजी सोचरहित हो गए और उनके हृदय का कल्पित भय जाता रहा॥3॥

उस समय न तो कोई कुछ कहता है, न कोई कुछ पूछता है! मन प्रेम से परिपूर्ण है, वह अपनी गति से खाली है (अर्थात संकल्प-विकल्प और चांचल्य से शून्य है)। उस अवसर पर केवट (निषादराज) धीरज धर और हाथ जोड़कर प्रणाम करके विनती करने लगा-॥4॥

हे नाथ! मुनिनाथ वशिष्ठजी के साथ सब माताएँ, नगरवासी, सेवक, सेनापति, मंत्री- सब आपके वियोग से व्याकुल होकर आए हैं॥242॥

गुरु का आगमन सुनकर शील के समुद्र श्री रामचन्द्रजी ने सीताजी के पास शत्रुघ्नजी को रख दिया और वे परम धीर, धर्मधुरंधर, दीनदयालु श्री रामचन्द्रजी उसी समय वेग के साथ चल पड़े॥1॥

गुरुजी के दर्शन करके लक्ष्मणजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी प्रेम में भर गए और दण्डवत प्रणाम करने लगे। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दौड़कर उन्हें हृदय से लगा लिया और प्रेम में उमँगकर वे दोनों भाइयों से मिले॥2॥

फिर प्रेम से पुलकित होकर केवट (निषादराज) ने अपना नाम लेकर दूर से ही वशिष्ठजी को दण्डवत प्रणाम किया। ऋषि वशिष्ठजी ने रामसखा जानकर उसको जबर्दस्ती हृदय से लगा लिया। मानो जमीन पर लोटते हुए प्रेम को समेट लिया हो॥3॥

श्री रघुनाथजी की भक्ति सुंदर मंगलों का मूल है, इस प्रकार कहकर सराहना करते हुए देवता आकाश से फूल बरसाने लगे। वे कहने लगे- जगत में इसके समान सर्वथा नीच कोई नहीं और वशिष्ठजी के समान बड़ा कौन है?॥4॥

जिस (निषाद) को देखकर मुनिराज वशिष्ठजी लक्ष्मणजी से भी अधिक उससे आनंदित होकर मिले। यह सब सीतापति श्री रामचन्द्रजी के भजन का प्रत्यक्ष प्रताप और प्रभाव है॥243॥

दया की खान, सुजान भगवान श्री रामजी ने सब लोगों को दुःखी (मिलने के लिए व्याकुल) जाना। तब जो जिस भाव से मिलने का अभिलाषी था, उस-उस का उस-उस प्रकार का रुख रखते हुए (उसकी रुचि के अनुसार)॥1॥

उन्होंने लक्ष्मणजी सहित पल भर में सब किसी से मिलकर उनके दुःख और कठिन संताप को दूर कर दिया। श्री रामचन्द्रजी के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं है। जैसे करोड़ों घड़ों में एक ही सूर्य की (पृथक-पृथक) छाया (प्रतिबिम्ब) एक साथ ही दिखती है॥2॥

समस्त पुरवासी प्रेम में उमँगकर केवट से मिलकर (उसके) भाग्य की सराहना करते हैं। श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को दुःखी देखा। मानो सुंदर लताओं की पंक्तियों को पाला मार गया हो॥3॥

सबसे पहले रामजी कैकेयी से मिले और अपने सरल स्वभाव तथा भक्ति से उसकी बुद्धि को तर कर दिया। फिर चरणों में गिरकर काल, कर्म और विधाता के सिर दोष मढ़कर, श्री रामजी ने उनको सान्त्वना दी॥4॥

फिर श्री रघुनाथजी सब माताओं से मिले। उन्होंने सबको समझा-बुझाकर संतोष कराया कि हे माता! जगत ईश्वर के अधीन है। किसी को भी दोष नहीं देना चाहिए॥244॥

फिर दोनों भाइयों ने ब्राह्मणों की स्त्रियों सहित- जो भरतजी के साथ आई थीं, गुरुजी की पत्नी अरुंधतीजी के चरणों की वंदना की और उन सबका गंगाजी तथा गौरीजी के समान सम्मान किया। वे सब आनंदित होकर कोमल वाणी से आशीर्वाद देने लगीं॥1॥

तब दोनों भाई पैर पकड़कर सुमित्राजी की गोद में जा चिपटे। मानो किसी अत्यन्त दरिद्र की सम्पत्ति से भेंट हो गई हो। फिर दोनों भाई माता कौसल्याजी के चरणों में गिर पड़े। प्रेम के मारे उनके सारे अंग शिथिल हैं॥2॥

बड़े ही स्नेह से माता ने उन्हें हृदय से लगा लिया और नेत्रों से बहे हुए प्रेमाश्रुओं के जल से उन्हें नहला दिया। उस समय के हर्ष और विषाद को कवि कैसे कहे? जैसे गूँगा स्वाद को कैसे बतावे?॥3॥

श्री रघुनाथजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित माता कौसल्या से मिलकर गुरु से कहा कि आश्रम पर पधारिए। तदनन्तर मुनीश्वर वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर अयोध्यावासी सब लोग जल और थल का सुभीता देख-देखकर उतर गए॥4॥

ब्राह्मण, मंत्री, माताएँ और गुरु आदि गिने-चुने लोगों को साथ लिए हुए, भरतजी, लक्ष्मणजी और श्री रघुनाथजी पवित्र आश्रम को चले॥245॥

सीताजी आकर मुनि श्रेष्ठ वशिष्ठजी के चरणों लगीं और उन्होंने मन माँगी उचित आशीष पाई। फिर मुनियों की स्त्रियों सहित गुरु पत्नी अरुन्धतीजी से मिलीं। उनका जितना प्रेम था, वह कहा नहीं जाता॥1॥

सीताजी ने सभी के चरणों की अलग-अलग वंदना करके अपने हृदय को प्रिय (अनुकूल) लगने वाले आशीर्वाद पाए। जब सुकुमारी सीताजी ने सब सासुओं को देखा, तब उन्होंने सहमकर अपनी आँखें बंद कर लीं॥2॥

(सासुओं की बुरी दशा देखकर) उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ मानो राजहंसिनियाँ बधिक के वश में पड़ गई हों। (मन में सोचने लगीं कि) कुचाली विधाता ने क्या कर डाला? उन्होंने भी सीताजी को देखकर बड़ा दुःख पाया। (सोचा) जो कुछ दैव सहावे, वह सब सहना ही पड़ता है॥3॥

तब जानकीजी हृदय में धीरज धरकर, नील कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, सब सासुओं से जाकर मिलीं। उस समय पृथ्वी पर करुणा (करुण रस) छा गई॥4॥

सीताजी सबके पैरों लग-लगकर अत्यन्त प्रेम से मिल रही हैं और सब सासुएँ स्नेहवश हृदय से आशीर्वाद दे रही हैं कि तुम सुहाग से भरी रहो (अर्थात सदा सौभाग्यवती रहो)॥246॥

सीताजी और सब रानियाँ स्नेह के मारे व्याकुल हैं। तब ज्ञानी गुरु ने सबको बैठ जाने के लिए कहा। फिर मुनिनाथ वशिष्ठजी ने जगत की गति को मायिक कहकर (अर्थात जगत माया का है, इसमें कुछ भी नित्य नहीं है, ऐसा कहकर) कुछ परमार्थ की कथाएँ (बातें) कहीं॥1॥