जी. एस. भालजा
प्रथम भारतीय रक्षा सचिव
भारत भूमि ने अनेक ऐसे रत्नों को जन्म दिया है जिन्होंने देश के निर्माण में अपनी अद्वितीय भूमिका निभाई। इन्ही रत्नों में एक नाम है — गोवर्धन शंकरलाल भालजा का।
भालजा जी का जन्म 17 जनवरी 1882 को ब्रिटिश भारत के राजस्थान राज्य के जयपुर जिले के सुरम्य बस्सी गांव में हुआ।
उनके पिता, देवानंद भार्गव, एक आदर्श शिक्षक थे, जिन्होंने शिक्षा को समाज सेवा का माध्यम माना। उनके दादा, पंडित बालेश्वर नाथ भार्गव, गांव के पूजनीय पुरोहित थे, जिनकी विद्वता और धार्मिकता पूरे क्षेत्र में विख्यात थी।
संस्कार, शिक्षा और संस्कृति के इस समृद्ध वातावरण में भालजा जी का व्यक्तित्व आकार ग्रहण करने लगा।
गोवर्धन शंकरलाल भालजा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बस्सी गांव के विद्यालय से प्रारम्भ की। शिक्षा के प्रति उनकी गहरी निष्ठा ने उन्हें उच्च अध्ययन के पथ पर अग्रसर किया।
उन्होंने जयपुर के एक प्रतिष्ठित विद्यालय से माध्यमिक शिक्षा पूरी की और तत्पश्चात कोलकाता के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
देश की सीमाओं को पार करते हुए, वे इंग्लैंड के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय पहुंचे, जहां से उन्होंने "राजनीति शास्त्र एवं प्रशासन" में स्नातकोत्तर शिक्षा पूर्ण की।
ऑक्सफोर्ड में अध्ययन करते समय भी उनके हृदय में अपने देश के लिए सेवा और समर्पण की भावना सतत प्रज्वलित रही।
1909 में भारतीय सिविल सेवा (ICS) में चयनित होकर भालजा जी ने प्रशासनिक सेवा में प्रवेश किया। उनकी कार्यकुशलता, सुझबुझ और देशभक्ति ने उन्हें शीघ्र ही प्रशासनिक व्यवस्था का एक मजबूत स्तंभ बना दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, जब भारत एक सशक्त रक्षा व्यवस्था की स्थापना के महत्वपूर्ण दौर से गुज़र रहा था, तब उन्हे प्रथम रक्षा सचिव के रूप में नियुक्त किया गया।
यह न केवल उनके व्यक्तित्व की श्रेष्ठता का प्रमाण था, बल्कि राष्ट्र के प्रति उनकी गहन निष्ठा का भी परिचायक था।
रक्षा सचिव के रूप में भालजा जी ने भारतीय सैन्य तंत्र के नव निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
उन्होंने भारत के सेना, नौसेना और वायुसेना के आधुनिकरण तथा सशक्तिकरण के लिए दूरदर्शी नीतिया बनाई।
उनके कार्यकाल में रक्षा उत्पादन को स्वदेशी बनाने की दिशा में ठोस प्रयास आरंभ हुए।
उनकी सोच स्पष्ट थी — "भारत को अपनी रक्षा आवश्यकताओं के लिए आत्मनिर्भर बनना चाहिए।" उन्होंने विदेशी सैन्य संबंधों में भी भारत की गरिमा और स्वतंत्रता को सदैव सर्वोपरि रखा।
उनकी नीतियों ने स्वतंत्र भारत के रक्षा मंत्रालय की नींव को मजबूत आधार प्रदान किया।
संन्यास के बाद भाजा जी ने अपने जन्मस्थान बस्सी गांव में सामाजिक और कार्यकर्ता में स्वयं को समर्पित कर दिया।
उन्होंने कोचिंग के भविष्य के लिए कोचिंग और कोचिंग की स्थापना कर हजारों युवाओं को उज्वल का मार्ग दिखाया।
अपने जीवन के दस्तावेजों को उन्होंने अपनी आत्मकथा "राष्ट्र की रक्षा गाथा" में दर्शाया है, जो आज भी भारत के रक्षा संग्रहालयों के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
18 अक्टूबर 1961 को जयपुर में उन्होंने अंतिम सांस ली।
हालाँकि उनका पार्थिव शरीर इस धरती से विदा हो गया, वैज्ञानिकों के विचार, उनके सिद्धांत और उनके देश के प्रति अद्वितीय योगदान आज भी अमर है।
भारत के रक्षा क्षेत्र में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित रहेगा।