भारतीय समाज में सदियों से जारी असमानता, जाति आधारित भेदभाव और ब्राह्मणवादी व्यवस्था का सामना करने के लिए अनेक बुद्धिजीवियों ने अपनी आवाज़ उठाई है। कांचा इलैय्या शेपर्ड वैसे ही एक विद्रोही चिंतक, लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने Hindutva Mukt Bharat ki Or “हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर” के विचार के माध्यम से भारतीय समाज में गहरे पैठे भेदभाव को चुनौती दी है। यह किताब जाति, वर्ग, धर्म, अर्थशास्त्र और लिंग जैसे तमाम जटिल विषयों को “सबाल्टर्न” दृष्टिकोण से देखती है और उस वैकल्पिक भविष्य की खोज करती है, जहां सभी को समान आत्मसम्मान, अवसर और न्याय मिल सके।
पुस्तक के अलग-अलग अध्याय उन समाजशास्त्रीय संरचनाओं की जांच करते हैं, जो भारत की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक दशा को प्रभावित करते रहे हैं। यहां हम इन अध्यायों की व्यापक समीक्षा करेंगे, उदाहरण, संदर्भ और तर्कों के सहारे यह समझेंगे कि लेखक की सर्जनात्मक दृष्टि “हिंदुत्व मुक्त भारत” का सपना कैसे गढ़ती है।
प्रत्येक सभ्यता का मूल उन लोगों में निहित होता है, जो शिक्षा और ज्ञान का प्रसार निस्वार्थ भाव से करते हैं। भारतीय समाज में ऐसी अनेक जातियाँ और व्यक्ति हैं, जिनका मुख्य पेशा भले ही शिक्षा न रहा हो, लेकिन उन्होंने समुदाय में मुफ्त में ज्ञान वितरित किया है। यह किसान, कारीगर, बुजुर्ग और माँ जैसी भूमिकाओं में दिखाई देते हैं।
ग्रामीण भारत में “गुरु-शिष्य” परंपरा का जिक्र खूब होता है, लेकिन ब्राह्मणवादी युग में शिक्षा का अधिकार उन्हीं तक सीमित रहा जो ऊंची जातियों से थे। विपरीत इसके, बहुजन समाज के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी ‘अनौपचारिक शिक्षक’ की भूमिका निभाते आ रहे हैं – चाहे वह खेती-किसानी सिखाना हो, पशुपालन या हस्तशिल्प में निपुण बनाना हो, जल संबंधी ज्ञान हो या मौसम पहचानना। इनकी शिक्षाएँ न तो वेतन के लिए थीं, न मान-सम्मान या पद के लिए।
इन अदृश्य शिक्षकों की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे जीवनोपयोगी ज्ञान को अगली पीढ़ी तक पहुंचाने में अहम भूमिका निभाते हैं, लेकिन न तो उन्हें समाज में ‘शिक्षक’ का दर्जा मिलता है, न उनकी मेहनत को संस्थागत मान्यता। लेखक बतातें हैं कि शिक्षकों की यह परम्परा दलित-बहुजन समुदायों के भीतर नई पीढ़ी को आत्मनिर्भर, वैज्ञानिक और व्यवहारिक बनाती है — जो लौकिक विश्वविद्यालयों से बहुत आगे है।
वैज्ञानिकता का अर्थ केवल प्रायोगिक विज्ञान या प्रयोगशाला के भीतर के अविष्कारों से जाना जाता रहा है, किंतु गाँव के किसान, कुम्हार, लोहार, बुनकर आदि भी अपने-अपने क्षेत्र में वैज्ञानिक थे जिनका जिक्र कभी मुख्यधारा समाजशास्त्र या पाठ्यक्रम में नहीं होता।
लेखक जोर देकर कहते हैं कि भारत के बहुजन — जिन्होंने हल चलाना, पानी का प्रबन्धन, सिरेमिक्स, कताई-बुनाई, औजार व खेती की नई तकनीकों का निर्माण और अपनाना सीखा — असल वैज्ञानिक हैं। उन्होंने विज्ञान को अपने अनुभव, मूल्यों और ज़मीनी हकीकत से जोड़ा है। इनका नवाचार कभी पेटेंट नहीं हुआ, न ही इन्हें ‘वैज्ञानिक समाज’ द्वारा मान्यता दी गई।
ब्राह्मणवादी समाज में वैज्ञानिक ज्ञान पुस्तकों, वेदों, शास्त्रों, संस्कृत में सिमटकर रह गया। वहीँ बहुजन समाज ने व्यावहारिक विज्ञान को जीवन और उत्पादन के स्तर पर विकसित किया – जैसे प्राकृतिक पूंजी, जैव-विविधता, परंपरागत औषधियां, फसलों की रोटेशन तकनीक, जल संचय आदि।
भारतीय समाज में ‘सैनिक’ केवल देश की सीमाओं की रक्षा करनेवाले व्यक्ति के रूप में देखा जाता है। किंतु लेखक इसे एक ‘उत्पादक’ की भूमिका से जोड़ते हैं — क्योंकि असल में खेतों, खनिजों, निर्माण-स्थलों पर श्रम करने वाले, संसाधनों का उत्पादन करने वाले लोग भी तो सैनिक हैं।
बहुजन समाज के लोग नई तकनीकें लागू करने, कठिन श्रम करने और देश के आधारभूत ढांचे को बनाने में हमेशा आगे रहे हैं। ये वे ‘सैनिक’ हैं, जिनके योगदान को कोई गिनता तक नहीं। राष्ट्र की अर्थव्यवस्था, खाद्य सुरक्षा, निर्माण, जैव विविधता आदि सब इन्हीं के दम पर चलती है।
इतिहास गवाह है – जब भी देश संकट में आया, युद्ध-आपदा-आकाल हो, यही उत्पादक सैनिक आगे आकर समाज को सम्भालते रहे हैं। इसके बावजूद राष्ट्रीय विमर्श में इन्हें हमेशा हाशिए पर डाल दिया गया।
भारतीय नारीवाद अक्सर शहरी, उच्च जाति, विशेषकर ब्राह्मणवादी महिलाओं के संदर्भ में चर्चा का केंद्र रहा है। कांचा इलैय्या के अनुसार, दलित-बहुजन महिला का संघर्ष न केवल लिंग के आधार पर, बल्कि जाति और वर्ग के अन्यायों के भी विरुद्ध है।
बहुजन महिलाएँ अपनी अस्मिता के लिए रोजाना संघर्ष करती हैं — खेतों-खलिहानों में, घरों में, घरेलू हिंसा, श्रमशोषण और लैंगिक भेदभाव के बीच। वे अपने श्रम, कौशल और रणनीतिक दृढ़ता के बल पर परिवार और समाज को पालती हैं। उनकी नारीवाद की परिभाषा, मुख्यधारा नारीवाद से भिन्न, श्रम, आत्मनिर्भरता और समानता पर आधारित है।
यह सबाल्टर्न नारीवाद तत्कालीन ब्राह्मणवादी-पितृसत्ता की आलोचक भी है, जो महिलाओं को केवल देवी, पतिव्रता, या शिल्पकार की भूमिका में सीमित कर देता है। लेखक का मानना है कि सच्ची समानता के लिए इस नारीवाद को मान्यता मिलनी चाहिए।
आधुनिक चिकित्सा प्रणाली आने से पूर्व भारत में स्वास्थ्य, औषधि और चिकित्सा की समृद्ध लोक परम्पराएं थीं। दलित-बहुजन समाज में ऐसे अनेक वैद्य, हकीम और पारंपरिक चिकित्सक हुए, जिन्होंने जड़ी-बूटियों, घरेलू नुस्खों और अनुभवजन्य ज्ञान से बीमारियों का इलाज किया।
यह 'अपारंपरिक चिकित्सा' समाज के लिए सुलभ, किफायती और व्यावहारिक रही। इन चिकित्सकों का ज्ञान उनके रोजमर्रा के अनुभव, प्रकृति के साथ संवाद और अग्रजों की दीक्षा से उपजा था।
लेखक इसका उल्लेख करते हुए यह भी बताते हैं कि ब्राह्मणवादी समाज में आयुर्वेद, सिद्ध और अन्य चिकित्सा पद्धतियों को पवित्रता, जाति और संस्कृत से जोड़कर उच्च जाति की बपौती बना दिया गया। वहीं, बहुजन डॉक्टरों का ज्ञान व्यावहारिक और जनता के लिए था।
भारत में भोजन, पोषण और उत्पादकता की चर्चा हमेशा सांस्कृतिक पूर्वाग्रह के साथ होती रही है। मांस और दूध, विशेषकर मांसाहार, को जाति व्यवस्था में अपवित्र मानकर बहिस्कृत किया गया।
दलित-बहुजन समाज मुख्यतः मांस, दूध और उसके उत्पादों का बड़ा उपभोक्ता और उत्पादक रहा है। भारत के गोपालक, मांस विक्रेता, पशुपालक और डेयरी उद्यमी — यही समाज के वे लोग हैं जिनके श्रम के सहारे देश की ‘प्रोटीन अर्थव्यवस्था’ खड़ी है।
इसका सामाजिक, आर्थिक, और पोषण महत्व अनदेखा किया जाता रहा है। लेखक कहते हैं, यदि भारतीय समाज को कुपोषण से मुक्ति, बालिका-मृत्यु, स्त्री स्वास्थ्य में सुधार लाना है तो मांस और दूध के अर्थशास्त्र को स्वीकारना और उसे मुख्यधारा में शामिल करना होगा।
“इंजीनियरिंग” शब्द सुनते ही आधुनिक, विश्वविद्यालयी शिक्षा प्राप्त नागरिक का स्मरण होता है, किंतु देश का वास्तविक ढाँचा बनाने वाले, परंपरागत तकनीक जानने वाले, जैसे धोबी, कुम्हार, बढ़ई, लोहार, राजमिस्त्री, आदि सदियों से मौजूद हैं।
इन्हीं गुमनाम अभियंताओं ने सड़कें, पुल, कुएं, तालाब, मकान, बर्तन, औजार, कृषि उपकरण आदि बनाए। उनके नवाचार, रचनात्मकता और प्रयोगशीलता को कभी गणना के लायक नहीं समझा गया।
कांचा इलैय्या के अनुसार “प्रौद्योगिकी” (Technology) का स्थानीय रूपात्म अंतर भारत में इन्हीं बहुजन अभियंताओं की देन है। गाँव, नगर, नगरपालिकाओं से लेकर महानगरों तक इन्हीं का तकनीकी कौशल जीवन का आधार रहा है।
भारतीय खाद्य उत्पादन पूरी तरह से बहुजन श्रमिकों, किसानों पर आधारित है। खेतिहर मजदूर, बुआई, कटाई, परिवहन, बाजार पहुँचाना — यह सब उन्हीं के दम पर चलता है। किंतु भ्रम फैलाने वाली खाद्य संस्कृति और बाजारवाद में इनका श्रम छुप जाता है।
वर्तमान में भारत को कृषि प्रधान, अन्नदाता का देश कहा जाता है लेकिन खाद्य उत्पादकों को कभी समुचित सम्मान, आय-सुरक्षा, तकनीकी समर्थन या निर्णय लेने का अधिकार नहीं मिलता। यह विरोधाभास भारतीय गणराज्य की सबसे बड़ी त्रासदियों में से एक है।
पुस्तक में बतलाया गया है कि खाद्य उत्पादन को महज़ बाजार आधारित उत्पाद मानने के बजाए, सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जिसमें माटी, मानसून, श्रम, जातीयता, परंपरा सब शामिल होते हैं।
यह अध्याय बेहद तीक्ष्ण है। लेखक ब्राह्मणवादी-बनिया वर्ग को “सामाजिक तस्कर” कहते हैं — उनका तर्क है कि इस वर्ग ने सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक संसाधनों पर ‘गुप्त कब्ज़ा’ कर लिया है।
शिक्षा, नौकरियाँ, सरकारी योजनाएँ, जमीन, बाजार, धर्म, मीडिया आदि सभी संस्थाओं पर ब्राह्मण-बनिया नियंत्रण है, जिससे बाकी बहुजन समाज को हाशिए पर जोड़ दिया गया।
इलैय्या का सवाल है — क्या यह नियंत्रण “सामाजिक तस्करी” नहीं? यह अदृश्य लूट और वर्चस्व समाज में गहरे भेदभाव को जन्म देता है।
कांचा इलैय्या द्वारा गढ़ा गया “आध्यात्मिक फासीवाद” शब्द भारतीय सामाजिक संरचना के ब्राह्मणवादी-केंद्रित धार्मिक नियंत्रण और मानसिक दमन की ओर इशारा करता है।
भारत में हजारों जातियाँ, संस्कृतियाँ, देवी-देवता, मत-मतांतर, त्योहार, परंपराएँ पाई जाती हैं, लेकिन धार्मिक पवित्रता और आध्यात्म का ठेका कुछ विशेष जातियों के पास रहा है।
ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने वेद, उपनिषद, संस्कृत, कर्मकांड, पवित्रता-अशुद्धता, धार्मिक ‘कट्टरता’ आदि को मुख्यधारा बना कर बहुजन आबादी के आध्यात्मिक अधिकारों को छीन लिया। यह ‘मनुप्रणीत’ लोकतंत्र तक के भीतर गहरे रूप में घुस गया है।
लेखक के अनुसार, समाज को अगर सचमुच आध्यात्मिक स्वतंत्रता चाहिए, तो इसे ब्राह्मणवादी प्रतिबंधों से मुक्त होना पड़ेगा।
इतिहास, साहित्य, संस्कृति, धार्मिक ग्रंथ, शिक्षा — सबकी धारा ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण से गढ़ी गई है। जो भी विचारक, लेखक या बुद्धिजीवी प्रचलित सोच के विरोध में जाता है, उसे हाशिए पर डाल दिया जाता है, उसका सामाजिक बहिष्कार किया जाता है।
कांचा इलैय्या ऐसे लोगों को “बौद्धिक गुंडे” कहते हैं — ये वे हैं जो सत्ता संरचना की रक्षा के लिए मनमुताबित साहित्य, इतिहास और समाजशास्त्र गढ़ते हैं और असहमति को कुचलते हैं।
पुस्तककार का तर्क है कि यह ‘बौद्धिक गुंडागर्दी’ सामाजिक न्याय, वैज्ञानिक सोच और लोकतांत्रिक संवाद की राह में सबसे बड़ी बाधा है।
भारत आज अपने इतिहास के सबसे जटिल दौर से गुजर रहा है — जातीय संघर्ष, आर्थिक असमानता, धार्मिक कट्टरता, भीड़ हिंसा, आरक्षण के विरोध आदि जैसे प्रकरण गवाही देते हैं कि समाज के भीतर गहरा असंतोष, अशांति और अंतर्विरोध पल रहा है।
कांचा इलैय्या इस अध्याय में चेताते हैं कि अगर यह असंतोष संवाद, वैज्ञानिक सोच और समावेशी लोकतंत्र की ओर नहीं मोड़ा गया तो भारतीय समाज एक “गृहयुद्ध” जैसी परिस्थिति का शिकार हो सकता है।
वह मानते हैं कि “हिंदुत्व” की विचारधारा — जो बहुसंख्यकवाद, पुरातनता एवं जातिवाद पर टिकी है — अपने षड्यंत्रों और अंतर्विरोधों से स्वयं तिनका-तिनका टूटती नजर आ रही है।
संपूर्ण पुस्तक की परिणति एक सकारात्मक संदेश में होती है — कि भारत को अगर सचमुच उन्नत, लोकतांत्रिक और न्यायपूर्ण बनाना है तो उसे ब्राह्मणवादी जातिवाद, सांस्कृतिक वर्चस्व और धार्मिक अंधविश्वास के जंजाल से बाहर आना होगा।
दिलचस्प बात यह है कि लेखक किसी रक्तपात या कट्टरवाद की जगह, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, श्रम के सम्मान, और समावेशी संस्कृति पर ज़ोर देते हैं। वह पुस्तक का समापन इन अंशों में करते हैं:
एक बहुजनवादी समाज की कल्पना जो खेती, श्रम, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा और समाज निर्माण में सबसे आगे रहे।
सभी के लिए समान अधिकार, बिना जाति, धर्म या लिंग के भेद।
मनुवादी सोच के विकल्प के रूप में तर्कशील, मानवतावादी, प्रगतिशील भारत।
“हिंदुत्व मुक्त भारत की ओर” कोई केवल नारा या किताब नहीं है, बल्कि यह एक वैकल्पिक सामाजिक मॉडल है, जिसमें दलित-बहुजन चेतना, वैज्ञानिक सोच और श्रम को सर्वोच्चता दी गई है।
कांचा इलैय्या की यह पुस्तक उन सवालों को सामने लाती है जिन्हें मुख्यधारा ने दशकों तक या तो दबाया या अनदेखा किया है। यह बहस को आगे बढ़ाती है कि समावेशी, समतावादी भारत की राह जाति, वर्ग और धार्मिक वर्चस्व से मुक्ति के बिना संभव नहीं।
यह किताब, शिक्षक, विद्यार्थी, जागरूक नागरिक, सामाजिक कार्यकर्ता और हर उस व्यक्ति के लिए जरूरी है, जो भारतीय समाज में न्याय, समानता और मानवता की वास्तविक स्थापना चाहता है।