ये कहाँ आ गये हम

लॉ​​क अनलॉक होने लगा , जिंदगी की गाड़ी पटरी पर सरकने लगी, लोगों का बेफिक्री अंदाज़ जिंदगी को धुआं बनाकर फूंकने के लिए तैयार है .मौत के दरवाजे पर कोरोना ने तांडव मचा रखा है और लोगों की मूर्खता के कारण पूरा समाज व विश्व आज अपना अस्तित्व खोने के कगार पर है .लोगों की मूर्खता के कारण मौत सबको अपने आगोश में ​​लेने के लिये कोरोना के रूप में अपने पैर पसार रही है.

प्रतीत होता है जैसे कोरोना काल में लोगों का मानसिक संतुलन ही बिगड़ने लगा है मानवता शर्मसार हो रही है . हम प्रकृति के साथ- साथ बेजुबान जानवरों के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं. अंदर का आदि मानव जैसे बाहर आ रहा है . खोखली झूठी मानसिकता को ढोते ढोते जैसे हमारी हमारी जर्जर काया ही थकने लगी है.

अनाचार, अराजकता का विकराल दानव समाज मानव जाति का अस्तित्व निकलने के लिए तैयार है . एेसे में राजनीतिक गलियारे भी गर्मा रहे हैं. आखिर कब तक फौज , पुलिस व कानून आपके पैरों में बेड़ियां डालकर शिकंजा कसेगा ? क्या हमारा जमीर मर गया है ? जब तुमने प्रकृति को बर्बाद किया, तुमने पशुओं से उनका आसरा छीना है प्रकृति पर वार किया है तो क्या वे अपने अस्तित्व को बचाने का प्रयास नहीं करेंगे?

लेकिन हमें तो जैसे मारने की आदत हो गई है . कभी बेजुबान प्राणी को सतायेगे तो कभी अादमी ही आदमी के खून का प्यासा हो रहा है. एक अनदेखा वायरस जिससे हम इतने घबरा गए हैं कि हम अपना मानसिक संतुलन खोने लगे है ? हम स्वयं को सर्वोपरि मानकर सब कुछ मिटाने के लिए आमादा है ? प्रकृति में कई प्रजातियां विलुप्त हो गई है. डायनासोर जैसे विलक्षण प्राणी की तरह बाघ, चिड़िया, गोरैया, हाथी भी एक दिन लुप्त हो जायेगें . वन पर कब्जा करके हमने वन्य प्राणियों के जीवन को खतरे में डालके शहर गाँव बसाए है . जब आपसे कोई आपका आसरा छीन लेगा तो आप क्या करेंगे ? हमें तो बस मौका चाहिए अपनी ताकत दिखाने का फिर वह चाहे प्रकृति हो या बेजुबा प्राणी, नदियां हो या चांद हमें तो हर जगह जाना है . मनुष्य प्रजाति हिंसा कर रही है तो क्या हुअा यह हमारा अधिकार है हमें फर्क नहीं पड़ता? शायद इसिलिये कोरोना के साथ जीवन को मौत से लडने के लिये छौड दिया गया है. चारों तरफ घूमने कोरोना से आप जंग कैसे जीतते है यह आप पर निर्भर है.

लेकिन हम अपने भूतकाल से अभी भी सबक नहीं लेना चाहते हैं . हम वही गलतियां कर रहे हैं. हमें स्वयं को सर्वोपरि मानकर अट्टहास लगाने की आदत सी हो गई है . जब अस्तित्व खत्म हो जाएगा, जब मानव जाति की यह दुनिया ही खत्म होगी तब हम किस पर अट्टहास करेंगे ?


हर तरह लूट चोरी हिंसा की खबरें अक्सर सुनने को मिल रही है . बेरोजगारी बढ़ गई है जिस के अासरे से हमारे घर के चूहे जलते थे आज वह आसरा उनसे छीना जा रहा है. हर तरफ मारामारी है, सरकार सब पर भारी है. विश्वास भरोसे की नीव भरभरा कर गिर रही है. विश्व के यही हालात हैं कि जो सलूक हम जानवरों को साथ करते थे आज वही सभ्य समाज में हो रहा है. भूख की तड़प हमें भी रास्ते पर ले जा रही हैं. जैसे केरल की हथेली अपनी व अपने बच्चे का अस्तित्व बचाने के लिए बाहर भोजन को तलाश रही थी ,तो असामाजिक तत्वों द्वारा बम से भरा अनानास खिलाना क्या असामान्य व अत्याचार नही है ?वही हाल कुछ मानव जाति का भी होने लगा है . मार काट, हिंसा की खबरे अाम हो गई है.


समाचार के रुख बदलने लगे हैं. अचानक कोरोना को भूलकर सियासत गर्म होने . मानव भूल करे तो वह गलती से मिस्टेक बन जाती है लेकिन पशुओं का आसरा छीनो तो वह आदमखोर बन जाते हैं . फिर हम किस श्रेणी में आते है? हम क्या बन रहे हैं ? अब सरकार ने भी लोगों को उनके हाल पर छोड़ दिया है. क्या हम अपने अस्तित्व के विनाश की है कहानी स्वयं नहीं लिख रहे हैं ?


सरहदें एक नया अध्याय लिखने के लिये तैयार है. कुछ आतंकी मुल्क अपनी फितरत नही बदल रहे है. विश्व विजय का ख्वाब उनके सीने चौडे कर रहा है, लेकिन जब दुनिया खत्म हो जायेगी तब क्या करेगें ?


स्वार्थ उबल रहा है सबको अपनी पड़ी है लेकिन प्रकृति भी अडी है. वह खूब लाड- लड़ैया कर रही है . अम्फान , चक्रवात, तूफान, कोरोना सब आपके दरवाजे दस्तक दे रहे है. समय भी परीक्षा लेता रहा है. एक वायका याद आ रहा है कि कोरोना से पहले जब लड़कियां मुंह ढक कर घर से बाहर निकलती थी तो लोगों को मौका मिला था नारी पर उंगलियां उठाएं. पर आज इस काल ने सभी के मुंह पर पट्टी बांधी है . यहां से एक नए युग का प्रारंभ हो गया है.


अाज पूरा विश्व एक ही हाशिये पर खडा है. पाश्चात संस्कृति की तरह हम भी घरों मे अकेले जीवन यापन करने के लिये विवश है. अाज हमें मानसिक व शारिरिक रूप से स्वस्थ होना होगा वर्ना वह दिन दूर नही जब बिखरी हुई लाशों के ठेर में हम तबाही के नये अध्याय के साक्षी बनेगें भी या नही. अब सरकार से ज्यादा हमारी नैतिक जिम्मेदारी है कि हम अपने अस्तित्व को मिटने से बचाएं. बस मेरा एक दोहा कहना चाहती हूँ.

भटक रहे किस खोज में , क्या जीवन का अर्थ

शेष रह गई अस्थियाँ, यत्न हुए सब व्यर्थ

जान है तो जहान है .

शशि पुरवार