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उमठ राजवंश (परिचय) :-
#मध्यप्रदेश#
● नरसिंहगढ़ नगर मध्य भारत के मध्य प्रदेश राज्य के राजगढ़ ज़िले में सोनार नदी के दाएं किनारे पर स्थित है।
● 1681 में स्थापित यह नगर नरसिंहगढ़ रियासत की राजधानी था। नरसिंहगढ़ पर मालवा के ख़लजी शासकों का शासन था। जिन्होंने यहाँ एक क़िले और मस्जिद का निर्माण कराया। नरसिंहगढ़ नगर एक झील के किनारे बसा हुआ है, जिसके पीछे एक पर्वतों की चोटी का क़िला और महल स्थित है। मराठों के शासनकाल में ये इसी नाम के परगने का मुख्यालय था।
● शहर को अपने घेरे में लेने वाली खूबसूरत विंध्याचल की पहाडिय़ों के साथ अतीत की कई खूबसूरत यादें भी जुड़ी हुई हैं। पहाड़ी के एक हिस्से पर उमठ-परमार राजवंश का करीब 316 साल पुराना किला अाज भी मौजूद है।
●इस किले से उमठ-परमार राजाओं ने रियासत में तो शासन किया ही। देश की आजादी के तुरंत बाद के दौर में इस किले से एक बेहद खूबसूरत याद भी जुड़ी। उन दिनों भारत की पहली रंगीन फिल्म आन की आउटडोर शूटिंग का ज्यादातर हिस्सा नरसिंहगढ़ और इसके आसपास के इलाकों में फिल्माया गया था। फिल्म सन 1949 में बननी शुरू हुई थी और सन 1952 में रिलीज हुई थी। इसमें नरसिंहगढ़ के किला, जलमंदिर, कोटरा के साथ देवगढ़, कंतोड़ा, रामगढ़ के जंगल, गऊघाटी के हिस्सों में फिल्म के बड़े हिस्से को शूट किया गया था। फिल्म को देश के पहले शोमेन मेहबूब खान ने बनाया था। जिनकी सन 1957 में रिलीज क्लासिक फिल्म मदर इंडिया विश्व सिनेमा के इतिहास का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। फिल्म में दिलीप कुमार, नादिरा, निम्मी, मुकरी, शीलाबाज, प्रेमनाथ, कुक्कू, मुराद ने प्रमुख भूमिकाएं निभाई थीं।
● इस किले का स्थापत्य आज भी अपनी खूबसूरती से सैलानियों का ध्यान खींचता है।
कुंवर चैन सिंह मध्य प्रदेश में भोपाल के निकट स्थित नरसिंहगढ़ रियासत के राजकुमार थे,
जो 24 जून 1824 को अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
1857 के सशस्त्र स्वाधीनता संग्राम से भी लगभग 33 वर्ष पूर्व की यह घटना कुंवर चैन सिंह को इस अंचल के पहले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के रूप में प्रतिष्ठित करती है।
मध्य प्रदेश सरकार ने वर्ष 2015 से सीहोर स्थित कुंवर चैन सिंह की छतरी पर गार्ड ऑफ ऑनर प्रारम्भ किया है।
सन 1818 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने भोपाल के तत्कालीन नवाब से समझौता करके सीहोर में एक हजार सैनिकों की छावनी स्थापित की। कंपनी द्वारा नियुक्त पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को इन फौजियों का प्रभारी बनाया गया। इस फौजी टुकड़ी का वेतन भोपाल रियासत के शाही खजाने से दिया जाता था। समझौते के तहत पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक को भोपाल सहित नजदीकी नरसिंहगढ़, खिलचीपुर और राजगढ़ रियासत से संबंधित राजनीतिक अधिकार भी सौंप दिए गए। बाकी तो चुप रहे, लेकिन इस फैसले को नरसिंहगढ़ रियासत के युवराज कुंवर चैन सिंह ने गुलामी की निशानी मानते हुए स्वीकार नहीं किया।
रियासत के दीवान आनंदराम बख्शी और मंत्री रूपराम बोहरा अंग्रेजों से मिले हुए थे। यह पता चलने पर कुंवर चैन सिंह ने इन दोनों को मार दिया। मंत्री रूपराम के भाई ने इसकी की शिकायत कलकत्ता स्थित गवर्नर जनरल से की, जिसके निर्देश पर पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को भोपाल के नजदीक बैरसिया में एक बैठक के लिए बुलाया। बैठक में मैडॉक ने कुंवर चैन सिंह को हत्या के अभियोग से बचाने के लिए दो शर्तें रखीं। पहली शर्त थी कि नरसिंहगढ़ रियासत, अंग्रेजों की अधीनता स्वीकारे। दूसरी शर्त थी कि क्षेत्र में पैदा होनेवाली अफीम की पूरी फसल सिर्फ अंग्रेजों को ही बेची जाए। कुंवर चैन सिंह द्वारा दोनों ही शर्तें ठुकरा देने पर मैडॉक ने उन्हें 24 जून 1824 को सीहोर पहुंचने का आदेश दिया। अंग्रेजों की बदनीयती का अंदेशा होने के बाद भी कुंवर चैन सिंह नरसिंहगढ़ से अपने विश्वस्त साथी सारंगपुर निवासी हिम्मत खां और बहादुर खां सहित 43 सैनिकों के साथ सीहोर पहुंचे। जहां पॉलिटिकल एजेंट मैडॉक और अंग्रेज सैनिकों से उनकी जमकर मुठभेड़ हुई। कुंवर चैन सिंह और उनके मुट्ठी भर विश्वस्त साथियों ने शस्त्रों से सुसज्जित अंग्रेजों की फौज से डटकर मुकाबला किया। घंटों चली लड़ाई में अंग्रेजों के तोपखाने ओर बंदूकों के सामने कुंवर चैन सिंह और उनके जांबाज लड़ाके डटे रहे।
ऐसा कहा जाता है कि युद्ध के दौरान कुंवर चैन सिंह ने अंग्रेजों की अष्टधातु से बनी तोप पर अपनी तलवार से प्रहार किया जिससे तलवार तोप को काटकर उसमे फंस गई। मौके का फायदा उठाकर अंग्रेज तोपची ने उनकी गर्दन पर तलवार का प्रहार कर दिया जिससे कुंवर चैन सिंह की गर्दन रणभूमि में ही गिर गई और उनका स्वामीभक्त घोड़ा शेष धड़ को लेकर नरसिंहगढ़ आ गया। कुंवर चैन सिंह की धर्मपत्नी कुंवरानी राजावत जी ने उनकी याद में परशुराम सागर के पास एक मंदिर भी बनवाया जिसे हम कुंवरानी जी के मंदिर के नाम से जानते हैं।
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