मुझे व्यक्तिगत तौर पर लगता है कि हिजाब औरतों पर थोपा गया एक अभिशाप है। मुझे ये बात सिंदूर, घूंघट, बुर्का, गहनों के बारे में भी सच लगता है। पर बात ये है कि मैं किसी औरत को ये नही पहनने के लिए नही कह सकता। इसका मुझे कोई हक नही है। यदि औरतें इन अभिशापों के खिलाफ लड़ेंगी तो उनके रास्ते मे रोड़ा नहीं बनूँगा। यदि कुछ करने का काबिल हुआ और उन्हें जरूरत पड़ी तो साथ भी दूंगा उस लड़ाई में। पर ये लड़ाई उन्ही की है। उनको ही लड़नी पड़ेगी।
फिर हमें ये देखना बहुत जरूरी है कि हम किस से लड़ रहे हैं। जिसने आजादियों को छीन रक्खा हो उसी से उस आजादी के लिए लड़ना चाहिए। तभी उस लड़ाई के बाद वो आजादी हासिल हो सकेगी। यदि आपकी आजादी धर्म-गुरुओं और पुरुषों ने कब्जा कर रक्खीं हों तो आपको उन्ही से लड़ना पड़ेगा। यह कोई नई बात नही है। जैसे आप देखेंगे, तो निम्न वर्ग के जातियों की आजादी अंग्रेजों ने नही, पंडितों और पुरोहितों ने छीन रक्खीं थी। तभी अंग्रेजों के जाने के बाद भी उन्हें अपनी जंग जारी रखनी पड़ी। आपको उसी से लड़ना पड़ेगा जिसने आपकी आजादी छीन रक्खी हो। पर यह पूरा हिज़ाब की लड़ाई पुरुष ही औरतों के खिलाफ लड़ रहे हैं। बात साफ है कि यह कोई आजादी की लड़ाई नही है। यह हिंदुओं ने पुरुषों का चोला पहन लिया है और मुस्लिमों के खिलाफ लड़ रहे हैं। खास कर के ये ही पुरुष, औरतों की आजादियों के दुश्मन हैं।
यह कुधारणओं से बचने के दिन है। हम सभी को एक पक्ष चुनना ही पड़ेगा। और मैं इस हिन्दू-मुश्लिम के युद्ध मे औरतों का पक्ष चुनूँगा। उनको आज इन हिंदुओं से जम कर, आखिरी हद तक लड़ना चाहिए। कुछ इस कदर की वो लोग भी ये लड़ाई देख के डर जाएं जो उन्हें ये हिज़ाब पहनाएं हैं। कि उन्हें ये लगे, की ये औरतें यदि हिजाब जबरन उतारने वालों से लड़ सकती हैं तो पहनाने वालों का क्या हश्र होगा। की ये लड़ाई, उन सबके खिलाफ है जो औरतों के कपड़ों को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहें हैं। यह लड़ाई जबरजस्ती हिजाब पहनाने वालों से लड़ने के बराबर ही है। ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। रत्ती भर भी कोई अंतर नही है। थोड़ी भी नही। चलिए लड़ते हैं।