हे भगवान मेरे पैर ठीक कर दो...
ये बोल के एक साढे-तीन साल का बच्चा रोने लगता है। मेरे एक मित्र को स्पाईन में कुछ दिक्कत है। वो फिजियोथेरेपी के लिए जातें हैं। वहीं पे ये बच्चा भी अपने एक पैर के किसी जन्मजात बीमारी से खराब हो जाने के वजह से आता है। बिचारे खुद बहुत परेशान हैं, पर बोल रहे थे कि, उसके भगवान से ये विनती करना सुन के रो पड़े।
किसी विषमता को जीतने के क्रम में सबसे बड़ी और क्रूर रुकावट होती है उसे स्वीकार करना। ये समझना कि इसके लिए मैं दोषी नहीं हूं। जन्मजात बीमारी के समस्या से मुझे खुद ही दो-चार होना पड़ा है। जब एक 15 बर्ष के teen को सभी अलग तरह से देखतें है, तो वो अंदर तक मर जाता है। वो उस उम्र में, बड़ी विपत्ति होती है। किसी से मिलने की इक्षा नहीं होती। रिस्तेदार आएं तो छुप जाने को मन करता है। कहीं किसी शादी वगैरह में, या ज्यादा लोगों के बीच जाने से डर लगने लगता है। मतलब वो आदमी का वैचारिक विकास बिल्कुल ही अलग होता है। मैं किसी विषय पे 90 लोगों की कक्षा में अकेले अलग विचार रखता हूँ तो वो इस लिए की बाकी 89 को मैं नहीं समझ पाया। घर के लोगों से, भाई-बहन से भी, वो आदमी दूर सा हो जाता है। लोग उसे समझ ही नहीं पाते और न वो लोगों को।
उसे वो हर चीज असंभव लगने लगती है जो और लोग आसानी से कर लेतें हैं। जैसे कि मेरे को लगता था कि मैं कभी स्विमिंग नहीं सीख पाऊंगा, और मैं अन्य लोगों इतना दौड़ नहीं पाऊंगा। शायद मैं अन्यों की तरह बातें भी नहीं कर पाता। वो, हम औरों के छमताओं को आंक ही नहीं पाते न कभी। हमेशा हर चीज में अपने ऊपर संशय बना रहता है।
वही संशय अभी भी बना रहता है। खुद के बड़े भाई की शादी में जाने के लिए मन बनाना पड़ता है। की, नए लोग मिलेंगे, क्या सोचेंगें मेरे बारे में। लोग मौसी-मांमा-बुआ करते रहतें हैं, ये तीन रिस्ते मिला के 6 रिस्तेदार हैं मेरे भी, पर कदाचित इन्ही संशयों में उलझ के दशकों से नहीं मिला किसी से। हो सकता है आपके लिए ये कहने-सुनने में साधारण सी बात लग रही हो, पर मेरे और मेरे जैसे दूसरे विकलांग लोगों के जीवन की ये समस्या सबसे क्लिष्ट होती है।
साल भर पहिले तक मेरे रूम में देवी देवताओं के कई सारे चित्र हुआ करते थे। स्नातक में था तो, मेरे हिन्दू धर्म के भगवान को समझने के स्रोतों से, जितना भी हो सका, समझने का प्रयास भी किया था। ये भगवान न; हमारे जैसे लोगों को सोने ही नहीं देता। हर बार दुःखी हो के रो देने पर विवश कर देता है। हर बार ये गाली देता है, हमारे पूरे चरित्र को। प्राण पी जाता है। जब आप बचपन से ही सुनतें हैं, की हमें अपने पिछले जन्मों के अच्छे-बुरे कर्मों के फल मिलतें हैं, तो आज की अपने दशा के वजह से खुद पे शर्म आना स्वभाविक है। ये भगवान ने न, मेरा वैचारिक शोषण किया है। हर बार जब कोई भगवान की पूजा-अर्चना करता है न, तो मेरा शोषण करता है। हर भगवान को मानने वाला जाने-अनजाने मेरा अपमान करता है।
रामायण-महाभारत के पाठ तो मुझे पढ़ाने की भूल न करना। तुम उसे भगवान को जानने के लिए पढ़े हो, और मैं दिन रात मेहनत कर के, खुद को जानने के लिए। इसी लिए तुम कभी तर्क जीत नहीं पाते। फिर मूर्खों की तरह कुतर्क गढ़ने लगते हो। की, मेरा मन, मैं भगवान को मानूँगा। क्या अंतर रह गया फिर तुम्हारे में और किसी जंतु में! तुम भगवान को मानने वालों, मनुष्य तो तुम हो ही नहीं। अभी तुम इवॉल्व ही नहीं हुए। मैं गाली तो दूंगा ही तुम्हारे भगवान को। तुम और तुम्हारे भगवान को मेरे प्रश्नों के असंभव अग्नि परीक्षा से गुजरना ही होगा। अथवा तुम मनुष्य कहलाने के लायक ही नहीं हो। तुम और तुम्हारे भगवान चोरकट, दुष्ट और बेवकूफ हो। कुतर्क गढ़ते हो जब तर्क में हार जाते हो। शर्म भी नहीं आती, कैसे मनुष्य हो?
मैं यू ही हमेशा गाली देते ही रहूंगा। चाहे इस वजह से मुझे कोई मार भी दे। मुझे ऐसे मूर्ख लोगों के बीच रह के करना भी क्या है। तुम्हारे भगवान और ये विश्वव्यापी मूर्खता तुम्हे मुबारक और मुझे मनुष्यता और मेरी आजादी।
~राघव
31 Jan 2018