हम सब ना, एक रेस दौड़ने लगे हैं। हम सब तेज भागने लगे हैं, साथ भागने की जगह। पहले गांवों में, किसी का घर ढूंढने के लिए, गूगल मैप की जरूरत नही पड़ती थी। आज हम सब अपने भाईयों से भी अनजान हैं। पता नही, क्या हुआ हम सब को। हम क्यों पीछे छोड़े जा रहे हैं सभी को! तभी तो परिवार टूट रहे हैं। आज से कुछ 50 साल पहले तक ही, या तो पूरा घर को खाना मिलता था, या सब भूखे सोते थे। आज एक ही घर मे, एक ही छत के नीचे कोई बच्चा कुपोषित रह जाता है, और कोई सोने की थाली में खाना खा रहा होता है। हम पता नही कब इन सब चीजों से कम्फ़र्टेबल हो गए। हम सब इतना भाव-शून्य कब हो गए।
जरूर हम सब ने, बहुत तरक्की की है, और भगवान करे कि हम यू ही या इस से भी ज्यादा तरक्की करें। पर हमने ये तरक्की कुछ मूल जीवन मूल्यों को बेच कर के करने की न जाने क्या आन पड़ी।
ऐसा लगता है कि हर कुछ टूटने का कुचक्र चल चुका है। हम अब एक दूसरे से नफरत करने लगे हैं। खुद के भाई, बहनों से, बच्चों से, दोस्तों से, अपरिचितों से भी।
हम सब एक दूसरे से बिछड़ के किसी बुलंदी पर पहुच कर पस्त हो रहे हैं। ये रिस्ते ही तो हैं जो हमे यहां तक लाएं हैं। एक गॉंव लगता है एक बच्चे को पालने में। और बर्बाद करने में भी। शायद जीवन मे अब थोड़ा ठहरने की जरूरत है। ठहर के थोड़ा उनकी उंगलियां थामने की जरूरत है, जो इस दौड़ में हम से हार गए हैं।