कुछ महीने पहले, मेरे घर सत्यनारायण भगवान की कथा थी। उसको सुनने एक 70-75 साल के एक ज्ञानी वृद्ध भी आये थे। वो आधी सदी पहले डबल MA किये, संस्कृत और अंग्रेजी में। उनसे मेरी भगवान के ऊपर बहस:
मैं:- देखिए बाबा, महाभारत-रामायण मैने भी पढ़ी ही है। दूसरे ग्रंथों की भी कथा कहानियां आपके जैसे ज्ञानियों के माध्यम से सुना ही है। पर इन सब कहानियों में बहुत सारी खामियां है। इनमे कुछ सही है, कुछ गलत। इस वजह से, बस इन किताबों के कह देने मात्र से, मैं कैसे मान लूं की भगवान हैं?
वृद्ध: हमने इतना विकास किया, विज्ञान, में प्रौद्योगिकी में, धर्मो में भी। पर हम आज तक ऐसा शस्त्र नहीं बना पाए जो वार कर के वापिस आ जाये। पर महाभारत में तो ऐसी चीजें थीं। तुम क्या कहोगे इस पर?
मैं:- देखिए, हम ऐसे हथियार बनाने के काफी करीब हैं, अभी-अभी कुछ सालों पहले reusable रॉकेट्स बनाये हमने। रॉकेट्स और ऐसे हथियार काफी मिलते-जुलते विज्ञान पर आधारित हैं। पर मैं महाभारत लिखने वाले अपने उन पूर्वजों का तारीफ करना चाहूंगा, जो इसकी कल्पना की। शायद तभी हम आज उसकी दिशा में बढ़ भी पा रहे। पर महाभारत की किताब मात्र तो इस बात का साक्ष्य नहीं हो सकती।
वृद्ध: बेटा, तुम्हारी शिक्षा और मेरी शिक्षा अलग-अलग वक़्त में हुई। तुम्हारे लिये साक्ष्य का अर्थ अलग है, और मेरे लिए अलग। विज्ञान की जिन बातों को आधार बना कर तुमने जो विकाश किया है, उन बातों का भी कोई साक्ष्य तो है नहीं। विज्ञान भी हर क्यों का उत्तर तो नहीं दे पाता, फिर हम उसको भी कैसे सच मान लें?
मैं:- ये सच है की, विज्ञान में भी अवधारणाएँ के कोई साक्ष्य नहीं हैं। पर विज्ञान तो खुद कहता है की मैं एक 'अनुमान' हूँ, बस एक अच्छा अनुमान। विज्ञान ये तो नहीं कहता कि हमे सब पता है, बल्कि ये कहता है, हमे इन चीजों का पता नहीं है, ये हो सकता है कुछ ऐसा हो, पर बाद में गलत सिद्ध हो सकता है। शायद यह सब कुछ भगवान ही बनाएं हो, पर जब तक हम पता लगा नहीं लेंगे, ऐसा कैसे कह सकते हैं?
वृद्ध:- संभवतः, हम दोनों को साक्ष्य के परिभाषा पर ही चर्चा कर लेनी चाहिए। मैने एक किताब मे पढ़ा ये पढ़ा कि, एक विमान है, जिसमे कितने भी लोग बैठे, एक जगह बनी रहती है। ये मेरे लिए एक साक्ष्य है। और इस साक्ष्य को आधार बना कर मैं कहानी में विश्वास कर सकता हूँ। तुम भी विज्ञान के अवधारणाओं में विश्वास ही करते हो। उनके सत्य होने का, तुम्हारे 'विश्वास' के अलावा और तो कोई साक्ष्य नहीं है।
मैं:- ये सच है, की अवधारणाओं का कोई साक्ष्य नहीं है, हमारे विश्वास के अलावा। पर सत्य, विश्वास और अंधविश्वास में अंतर होता है। हम कुछ मूलभूत चीजों पर विश्वास करते हैं, और उनको अवधारणा कहते हैं। फिर उन अवधारणाओं के आधार पर हम 'सत्य' की खोज करने का यत्न करते हैं। फिर, हम एक्सपेरिमेंटल जांच करते हैं, और गलत होने पर, उन विश्वासों पर पल रहे अवधारणाओं को गलत मान कर उन पर विश्वास करना बंद कर देतें हैं। जब की भगवान तो अंधविश्वास जैसा है, जिसके एक्सपेरिमेंटल जांच में फ़ेल होने के बाद भी हम खुद को धोखा देते रहते हैं, या फिर एक्सपेरिमेंट्स को ही गलत मान लेते हैं।
वृद्ध:- ह्म्म्म। बेटा बहुत सारी चीजों के साक्ष्य नहीं होते हैं, और उनके संबंधित प्रयोग भी कई बार नहीं किया जा सकता। जैसे कि तुम मंगल देव जी के ही पुत्र हो इसका तो कोई साक्ष्य नहीं है।
मैं:- विज्ञान पढ़ कर एक चीज का तो ज्ञान हुआ ही है, मुझे। की, साक्ष्य किन चीजों का ढूंढना है। हाला की इस बात का साक्ष्य आज के दौर में जुटाया जा सकता है, की मैं किसका लड़का हूँ, पर चलिए मान लेते हैं कि नहीं पता लगा सकते, क्यों कि इसका विज्ञान अभी-अभी कुछ दशकों पहले आया है। पर प्रश्न ये है कि, दुनिया का कोई भी व्यक्ति ये जान कर करेगा भी क्या? मुझे ये तो पता ही है ना कि मुझे किसने पाल-पोष कर बड़ा किया है। तो आपके शास्त्रों की भी माने तो यही मेरे पिता हुए। और यही मेरी माता। चाहे ये मुझे कहीं से उठा कर लाये हों। पर भगवान की तो कहानियां ऐसी हैं, कि जैसे आपको नहीं पता कि आपके पिता कौन हैं, तो आप मुझे ही अपना पिता मान लें, जब कि मैं आपसे छोटा हूँ।
वृद्ध:- ...
मैं:- बाबा, मुझे थोड़ा बुखार है, और मैने सुबह से कुछ खाया भी नहीं, मैं चलता हूँ। प्रणाम।
वृद्ध:- ठीक है बेटा, जीते रहो।