हम सभी को कौवा और कोयल में से, कोयल ही भाती है। मैं कभी-कभी सोचता हूँ, ऐसा क्यों है कि, हम अनायास ही कौवे से घृणा करतें हैं? आखिर कौवों ने ऐसी कौन सी मानव-सम्पदा को इतना भारी नुक़सान पहुचाया होगा?
बचपन में, संस्कृत की किताब में, एक कौवे और एक कोयल की कहानीं पढ़ी थी। हम सभी ने पढ़ी होगी! की, कोई कौवा अपनी नगरी छोड़ के जा रहा था, तभी वहां के एक कोयल से मिला, उसके पूछने पर उसने बताया कि वहां के लोग उसे पसंद नहीं करते, वो कहीं और जा रहा है। कोयल उसको सलाह देती है, कि, तुम अपनी वाणी में मिठास लाओ, केवल जगह बदल देने से लोग तुम्हे पसंद नहीं करने लगेंगे। और वो अंक, हमे ये शिक्षा देता था कि, हमे अपनी वाणी में मिठास रखनी चाहिए।
ये कहानीं मुझे बहुत ही चिंताजनक लगती है। पहली बात ये की, कौवा चाहे कितनी भी कोशिश कर ले, वो कोयल की तरह तो नहीं बोल सकता न। कौवा जैसा भी बोलता है, वही उसकी प्रकृर्ति है। वो कर्कश बोलता नहीं है, हमे कर्कश सुनाई देता है। फिर भी हम उसके पूर्णतः प्राकृतिक स्वभाव के लिए, पथ्थर मार कर भगा देतें हैं। क्यों? क्यों किसी को स्वभाविक होने की सजा मिलनी चाहिए?
चलिए, मैं इस कहनीं में एक और पन्ना जोड़ता हूँ। कौवे और कोयल का दूसरा पहलू। बात ये है की, कौवा और कोयल लगभग एक ही समय, अंडे देतें हैं। अचरज की बात ये है की, कोयल कभी कोई घोसला नहीं बनातीं। वो सालों भर बोल के एक-दूसरे कोयलों को लुभातीं हैं, और अंडे देतीं हैं। और कोई काम नहीं करतीं। मीठा बोलने, सहवास करने, अंडे देने, और बच्चों को बोलना सिखाने के अलावा छू-कर भी कोई काम नहीं करतीं। बोलना सीखने के बाद, बच्चे भी इसी प्रक्रिया के पुनरावृत्ति में लग जातें हैं।
समस्या ये है की, अब वो अपने अंडे कहाँ पालें? इसके लिए, वो अपनी तरह दिखने वाले पक्षियों के घोंसले में जा कर, कई बार उनके अंडे गिरा कर, वहां अंडे दे आतीं हैं। बच्चों के बोलने इतने बड़े हो जाने के बाद, एक दिन आ कर उन्हें उठा ले जातीं हैं। पता है! उनके बच्चों को पालने वाले पक्षियों में सबसे बड़ी प्रजाति कौवों की होती है। शोध के अनुसार, ये कौवे, कभी, अपने अंडे समझ कर, तो कभी, जानने-समझने के बाद भी मोह वश, तो कभी, कोयलों के झुंड से अपने अंडों को बचाने के डर से, इनको पालतें हैं। हर परिस्थिति में ये कौवे मुझे कोयलों से ज्यादा अच्छे लागतें हैं।
मुझे मीठा बोलने वाले लोग भी, कोयलों ही की भांति प्रतीत होतें हैं। हमें बचपन से ये सिखाना चाहिए कि वाणी जैसी भी हो हमारा कर्म अच्छा और विनम्र होना चाहिए। प्रकृति जैसी भी हो, प्रवृत्ति भली होनी चाहिए।
~राघव™
8 Oct 2017