हरेक धर्म के भगवान पुरुष ही होते हैं। Christianity, इस्लाम, बुद्धिज़्म, हिंदूइस्म, और Judaism मिला कर दुनिया के करीब 78% जनसंख्या का हिस्सा बनाते हैं। इनमे हिन्दू (करीब 15%) को छोड़ कर सभी मोनोलीथिक हैं, यानी एक ही भगवान हैं। और ये सभी केवल पुरुष हैं। हिन्दुवों में करोङो भगवान हैं, पर सबसे प्रमुख भगवान पुरुष ही हैं। दूसरे कम आबादी वाले धर्म का भी लगभग यही हाल है। कुछ ट्राइबल रीलीजन्स को छोड़ कर लगभग सभी के भगवान पुरुष ही हैं।
वस्तुतः औरतों ने कभी अपना कोई धर्म बनाया ही नही। यहां तक की, किसी भी सभ्यता में, ऐसा कभी कोई धर्म नही पनपा, जिसमे औरतों के जीवन मूल्यों को औरतों ने निर्धारित किया हो। हरेक धार्मिक गतिविधि किसी पुरुष ने बनाई है।
जब भी मैं ये बात कहता हूँ तो मेरे हिन्दू दोस्त भड़क जातें हैं। कहने लगते हैं हिन्दू धर्म मे, औरतों का बहुत सम्मान है। देवियां सर्वोपरि हैं, जैसे काली "मां", दुर्गा "माँ", "माँ" लक्ष्मी, या फिर ज्ञान की देवी "माँ" सरस्वती। पर सच यह है कि, देवियां भी औरतें ही हैं। उनका अपना कोई पहचान नही है। वो "माँ" है। वो पुत्री हैं, या फिर पत्नी। वो "वो" नहीं हैं। पुरुष भगवान के साथ ऐसा नही है। "भगवान" शिव को "पिता" शिव नही कहा जाता है। पिता कृष्ण भी या पिता राम भी नही। कोई नही कहता है। हां, परम पिता परमेश्वर जरूर कहा जाता है, पर परम माता परमेश्वर नही कहा जाता है। ये देवियां भी औरतें ही हैं। इनके जीवन मूल्यों को भी पुरुषों ने ही गढ़ा है।
औरतों का अपना कोई धर्म नही है, अपना कोई भगवान भी नही है, न मंदिर है, न मंत्र। न इनका कोई जाति है, न वर्ण, न युग, न ही कोई वंस। औरतों ने वंस को जन्म दिया है, चलाया नही है। ये सभ्यता की जननी हैं, पर निर्माता नहीं हैं। संरक्षक नही हैं। संचालक भी नहीं हैं। दूध पिलाया है, पर अन्नदाता नहीं हैं। प्रणेता नहीं हैं। विधाता नहीं हैं।