एक लड़की है कुछ 5-10 साल की। उसकी मम्मी मर जाती है। उसके पापा कुछ दिनों में दूसरी शादी कर लेतें हैं। फिर कुछ दिनों में वो लोग उसको घर से निकाल देतें हैं। कुछ दिन भटकने के बाद पुलिस उसको पा जाती है। पुलिस वाले उसे कोई लड़कियों के अनाथालय में कहीं भेज देतें हैं। क्या करते वो! अपने घर तो नहीं ले जाते! अनाथालय में कुछ साल रहने पे उसको पता लगता है कि, वहां सेक्स रैकेट चलता है। लड़कियों को भेजा जाता है कहीं-कहीं कभी-कभी। कुछ दिनों बाद, वो जैसे-तैसे जान बचा के भाग जाती है। फिर पुलिस के पास पहुचती है। पुलिस अनाथालय वालों को पकड़ लेती है। पुलिस वाले रो देतें हैं उसकी कहानी सुन कर। पर और क्या कर सकतें हैं वो!
मैं सुबह 8 बजे लैब जाता हूँ। न्यूज़ पढ़ता हूँ। और अंदर तक मर जाता हूँ। सोचता हूँ, क्यों हुआ ये सब उस लड़की के साथ! कौन वास्तविक दोषी है! सभी को बारी-बारी से दोषी ठहराता हूँ। पुरुषों को। हिंदुओं को। मुश्लिमों को। नेताओं को। पुलिस को। चोर को। वो कार चलाने वाले को जिसमे वो लड़कियां बैठ के जातीं होंगी। उस कार में बैठने वाले को। और फिर खुद को। कोई तो अपना दोष मान लो।
यदि उस लड़की की माँ के जगह बाप मर गया होता तो, उसकी माँ भीख मांग लेती पर शायद उसको घर से नही भगाती। शायद घर बेच देती पर उसे अपने आँचल में छुपा लेती। एक पुरुष को क्या लगता है बच्चों को जन्म देने में। या शायद वो भी उसको छोड़ के किसी और से शादी कर लेती। ये भगवान, या कुरान क्यूँ नहीं लड़ते उसके लिए। क्यूँ मर जाते हो तुम सब बे। तुम सब उसके पिता को अच्छे से क्यूँ नहीं डराते बे।
मैं। मैं अब कल से न्यूज़ नहीं देखूंगा। उठूंगा, पढूंगा या नौकरी करूँगा फिर सो जाऊंगा। मुझे सुबह 8 बजे के पढ़े न्यूज पे रात को दो बजे सोच में नहीं पड़ना अब। मैं भी मेरे अंदर मर गया अब।