Be the Change you want to see in the World -- Mahatma Gandhi
कविता ३ : वहशीपन
मंजर है ये बरबादी का
अबलाओं की लुटी अस्मत का
मांओं की कातर पुकारों का
बहनों की सिसकारी का
कोई नहीं सुनने वाला
ये देश है अब गूंगे बहरों का।
मंजर है ये बरबादी का
अफवाहों का बाजार गरम है
नफरत की दुकान सजी है
रंगदारों का मान बढ़ा है
शरीफों की जुबान कटी है
गांधी बुद्ध की धरती पर
नंगा नाच है अब हिंसा का
मंजर है ये बरबादी का।
शतरंज की बिसात बिछी है
भीड़ तमाशबीन बनी है
अठ्ठहासों की गूंजों मैं
मासूमों की आवाज दबी है।
अब किया कुछ होना बाकी है
हिसाब कब होगा कर्मों का
ये दौर है अब मजमों का
मंजर है ये बरबादी का।
मंदिर में दीया जलाता हूँ
मस्जिद में भी सजदा करता हूँ
भगवान अब नही सुनता है
अल्लाह भी नहीं टकराता है
विश्वास कहां से ले आऊं,
ये किस्सा भी दफ़न हो जाएगा
मज़मून न फिर होगा तारीखों का
मंजर है ये बरबादी का।
द्वारा: निरपेक्ष कुमार