क्या है!फर्स्ट टॉक इंडिया?

दी फर्स्ट टॉक इंडिया एक खीझ के पार जाकर एक बगावत का नतीजा है. अपने आसपास देखिए. बकौल ‘पीके’ इस गोले का आदमी सोचता कुछ है, बोलता कुछ है औऱ करता कुछ है. हमने इन तीनों को एक ही गोले में बंद करके हिला दिया और तय किया कि जैसे सोचते और बोलते हैं, वैसे ही लिखेंगे. न्यूज भी और व्यूज भी. और इनके पार बसी हर चीज भी.

फर्स्ट टॉक इंडिया देश की पहली ‘न्यू एज’ हिंदी न्यूज वेबसाइट है. ये मॉर्डन है, अपनी लैंग्वेज, एटीट्यूड और न्यूज क्राइटेरिया के चलते. ये दिन भर की चुनिंदा खबरें करती है, मगर उनके 360 डिग्री कवरेज के साथ. एक खबर की पूरी रिपोर्ट और एनालिसिस. साथ में क्विज, पोल, मीम, वीडियो जैसे एडिशनल फीचर्स.


क्या है हमारा यूएसपी

क्रिकेट सिर्फ हार-जीत का स्कोर नहीं. राजनीति सिर्फ नेताओं के बयान नहीं. और समाज सिर्फ अखबारों की ख़बरें नहीं. इसलिए हम किस्से सुनाते हैं. दुनिया के तमाम दिलचस्प किस्से, भौकाली तरीके से. ‘फर्स्टटॉक इंडिया’ की खासियत है इसकी भाषा. खास तौर पर जैसे यंगिस्तान बोलता है, ये खबरों को बिल्कुल वैसे लिखती है. इसकी जुबान पर देसी, अंग्रेजी सब तरह के शब्द बेधड़क आते हैं.

‘फर्स्टटॉक इंडिया’ हर खबर के पीछे नहीं लपकता. मगर जो खबर करता है, उसका नया एंगल लेकर आता है. और ये सेंसेशन वाली खबरें नहीं करता. बिकिनी शूट और अफेयरनुमा गॉसिप नहीं करता. जेंडर, कास्ट, सोशल जस्टिस को लेकर प्रोग्रेसिव और एग्रेसिव है.

हम खबर में सिर्फ न्यूज नहीं, व्यूज भी लाते हैं. और ये व्यूज सिर्फ बौद्धिक जारगन नहीं होते. इनमें पर्सनल एक्सपीरिएंस भी होते हैं, इससे न्यूज पढ़ने वाला एक नए ढंग से कनेक्ट फील करता है.

और बोनस में मिलेगा

मजेदार फैक्ट, किस्से, क्विज़, रिव्यू और दुनिया भर की जानकारी. जिसे पढ़कर आपको ‘फीलिंग गुड’ हो जाए और आप जरूरी जगहों पर जी-भर चौड़े हो सकें. टैबू सब्जेक्ट्स पर खुलकर बात. हिस्ट्री से मुलाकात. स्पेशल मौकों पर खास सीरीज. फिर चाहे वह प्रेमचंद का बर्थडे हो या ऑस्कर अवॉर्ड्स वाली फिल्मों की बात.

हम एडेल पर भी बात करते हैं और गुड्डी गिलहरी पर भी. हम नेटफ्लिक्स की लेटेस्ट रिलीज का भी रिव्यू करते हैं और पंजाबी फिल्में भी देखते हैं. हम अमेरिकन इलेक्शन की भी बात करते हैं और ग्राम पंचायत के चुनाव भी कवर करते हैं.

हम इंडिया, दैट इज भारत को रिप्रजेंट करते मीडिया ब्रांड हैं. जिसे अपने गांव-देहात और जड़ों पर फख़्र है. और जो दुनिया नाप लेना चाहता है.


हमारे बारे में

क्या कॉरपोरेट घरानों द्वारा चलाए जा रहे या पारिवारिक विरासत बन चुके मीडिया संस्थानों के बीच किसी ऐसे संस्थान की कल्पना की जा सकती है जहां सिर्फ पत्रकार और पाठक को महत्व दिया जाए? कोई ऐसा अखबार, टेलीविजन चैनल या मीडिया वेबसाइट जहां संपादक पत्रकारों की नियुक्ति, खबरों की कवरेज जैसे फैसले संस्थान और पत्रकारिता के हित को ध्यान में रखकर ले, न कि संस्थान मालिक या किसी नेता या विज्ञापनदाता को ध्यान में रखकर. किसी भी लोकतंत्र में जनता मीडिया से इतनी उम्मीद तो करती ही है पर भारत जैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में मीडिया के वर्तमान माहौल में संपादकों को ये आजादी बमुश्किल मिलती है. वक्त के साथ-साथ पत्रकारिता का स्तर नीचे जा रहा है, स्थितियां और खराब होती जा रही हैं.

पत्रकारिता में दिनोंदिन कई गलत प्रचलन सामने आ रहे हैं, जैसे खबरों को गैर-जरूरी तरीके से संपादित करना, पेड न्यूज, निजी संबंधों के लाभ के लिए कुछ खबरों को चलाना आदि. मीडिया संस्थान अब खबर तक पहुंचना नहीं चाहते, इसके उलट, उन्होंने पत्रकारिता की आड़ में व्यापारिक समझौते करने शुरू कर दिए हैं, कुछ महत्वपूर्ण सूचनाएं और खबरें जनता तक पहुंचती ही नहीं हैं क्योंकि मीडिया संस्थान उन्हें किसी व्यक्ति या संस्था विशेष को लाभ पहुंचाने के उद्देश्य से सामने लाना ही नहीं चाहते. धीरे-धीरे ही सही पर जनता भी इस बात को समझने लगी है कि पत्रकारिता खतरे में पड़ रही है. आमजन का मीडिया पर विश्वास कम हो रहा है. वही मीडिया जो लोकतंत्र का ‘चौथा स्तंभ’ होने का दम भरता था, अपनी विश्वसनीयता खोता जा रहा है.