Music Theory
संगीत -
संगीत शब्द गीत शब्द में ‘सम‘ उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम‘ यानि सहित और ‘गीत‘ यानि गान। गान के सहित
अर्थात अंगभूत क्रियाओं ‘नृत्य‘ व वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। बोलचाल की भाषा में संगीत से केवल गायन ही समझा जाता है। शारंगदेव कृत संगीत रत्नाकर - में कहा गया है, गीतं वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते अर्थात् गायन, वादन एवं नृत्य इन तीनों का सम्मिलित रूप ही संगीत कहलाता है।
संगीत पद्धतियाँ -
प्राचीन काल में पूरे भारतवर्ष में संगीत की केवल एक ही पद्धति प्रचलित थी। परन्तु आजकल सम्पूर्ण भारत में संगीत की मुख्य दो पद्धंतियाँ प्रचलित हैं। उत्तरी या हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति तथा दक्षिणी अथवा कर्नाटकी संगीत पद्धति।
उत्तरी या हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति - मद्रास, मैसूर, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में जो संगीत पद्धति प्रचलित है, उसे उत्तरी या हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति कहते हैं।
दक्षिणी अथवा कर्नाटकी संगीत पद्धति -यह पद्धति केवल दक्षिण भारत में मद्रास, मैसूर, कर्नाटक तथा आन्ध्र प्रदेश में ही प्रचलित है। किन्तु संगीत जगत में गायन, वादन और नृत्य इन तीनों के समूह को संगीत कहते हैं।
संगीत के प्रकार -
भारतीय संगीत को हम मुख्य रूप से 3 भागों में विभक्त कर सकते हैं
1.शास्त्रीय संगीत 2.सुगम संगीत या भाव संगीत 3.लोक संगीत
1-.शास्त्रीय संगीत - जिस संगीत में शास्त्र के नियमों को ध्यान में रखकर स्वर, लय, राग और ताल आदि में बाँधकर राग को गाया बजाया जाता है, उसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं। नियमों से बँधे होने के कारण यह काफी विस्तृत है। इसके अन्तर्गत ख्याल, ध्रुपद, धमार आदि शास्त्रीय संगीत आते हैं।
2- सुगम संगीत या भाव संगीत - इस संगीत में शास्त्रीय संगीत के अनुसार कोई बन्धन नहीं होता। इसका मुख्य उदे्श्य जन-साधारण का मनोरंजन करना होता है। भजन, गीत, गजल, लोकगीत, फिल्मी गीत, शादी-ब्याह पर या विभिन्न उत्सवों पर गाया जाता है। इसमें शास्त्रीय नियमों का कोई बन्धन नहीं होता। इसमें शब्दों की प्रधानता होती है। ज्यादातर सुगम संगीत दादरा और कहरवा तालों में गाये जाते हैं।
ध्वनि -
ध्वनि की उत्पत्ति कम्पन से होती है। कम्पन, किसी भी वस्तु पर आघात करने से उत्पन्न होता है। जैसे तारों का कम्पन, तबला, ढोलक आदि वाद्यों में चमड़े के कम्पन से ध्वनि उत्पन्न होती है। इसी प्रकार पंखे की आवाज, पक्षियों का चहचहाना और गायन की आवाज ध्वनि है। इस प्रकार हम यह कह सकते हैं कि किसी भी प्रकार की आवाज,
जो कानों को सुनाई पड़े, ध्वनि कहलाती है। कुछ ध्वनियाँ कर्णप्रिय होती हैं और कुछ कर्णप्रिय नहीं होतीं। कर्णप्रिय ध्वनि ही संगीत उपयोगी है। अर्थात जो ध्वनि कानों को प्रिय या मधुर लगे, उन्हीं ध्वनियों को हम संगीत में प्रयोग करते हैं। संगीत में मधुर ध्वनि को ही नाद कहते हैं।
नाद -
संगीत में मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं अर्थात वह ध्वनि जो कर्णप्रिय हो, मधुर हो, नियमित तथा स्थिर आन्दोलन संख्या वाली हो, उसे ही हम नाद कहते हैं। जो ध्वनि अमधुर, अनियमित तथा अस्थिर हो, उसे हम संगीत में प्रयोग नहीं कर सकते। दूसरे शब्दों में, संगीतोपयोगी मधुर ध्वनि को नाद कहते हैं।
नाद दो प्रकार के होते हैं - आहत नाद और अनाहत नाद
स्पर्श और घर्षण से जो ध्वनि उत्पन्न होती है, उसे आहत नाद कहते हैं तथा जो ध्वनि बिना आघात और बिना घर्षण के स्वयं ही उत्पन्न होती है, उसे अनाहत नाद कहते हैं। इस नाद का प्रयोग संगीत में नहीं होता। संगीत में आहत नाद का ही प्रयोग होता है।
नाद की तीन विशेषताएँ अथवा लक्षण मानी गयी हैं--
1. नाद का ऊँचा-नीचापन
2. नाद का छोटा-बड़ापन
3. नाद की जाति अथवा गुण
1. नाद का ऊँचा-नीचापन -
नाद की ऊँचाई-नीचाई उसकी आन्दोलन संख्या पर आधारित होती है। अर्थात् प्रति सेकेण्ड में अधिक आन्दोलन संख्या होने से नाद ऊँचा होता है और आन्दोलन संख्या कम होने से नाद नीचा होता है। अर्थात ऊँची आवाज की आन्दोलन संख्या ज्यादा होती है तथा नीची आवाज की आन्दोलन संख्या कम होती है। उदाहरण के तौर पर सा की आन्दोलन संख्या ग की आन्दोलन संख्या से कम होती है। ग की आन्दोलन संख्या म और प की आन्दोलन संख्या से कम होती है। इसलिए सा से ग ऊँचा तथा म और प से ग नीचा होता है। इसी को नाद का ऊँचा-नीचापन कहते हैं।
2. नाद का छोटा-बड़ापन-
जब हम कोई भी आवाज सुनते हैं तो या तो वह आवाज हमें जोर से सुनाई देती है या धीरे-धीरे सुनाई देती है। अगर हमें आवाज जोर से सुनाई देती है तो उसे “बड़ा नादश् और अगर कोई आवाज हमें धीरे सुनाई देती है तो उसे छोटा नादश् कहते हैं। अर्थात् छोटा नाद” कम दूरी तक और “बड़ा नाद अधिक दूरी तक सुनाई देती है।
3. नाद की जाति अथवा गुण-
जब भी हम कोई नाद सुनते हैं तो उसके साथ कुछ अन्य नाद भी उत्पन्न होते हैं, जिन्हें सहायक नादश् कहते हैं। सभी वाद्यों की आवाज एक-दूसरे से भिन्न होती है। तबला, सितार, हार्मोनियम आदि वाद्यों की आवाज सुनकर ही हम बता सकते हैं कि यह आवाज किस वाद्य की है। जिस प्रकार सभी व्यक्तियों की आवाज अलग-अलग होती है और हम केवल आवाज से ही पहचान लेते हैं कि यह आवाज किस व्यक्ति की है। इसी को नाद की जाति अथवा गुण” कहते हैं। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति की आवाज, प्रत्येक वाद्य की ध्वनि, नाद
आरोह -
संगीत में स्वरों के चढ़ते हुए क्रम को आरोह कहते हैं। “आरोह” का शाब्दिक अर्थ है चढ़ना। अर्थात् एक स्वर से उसके ऊँचे स्वरों तक चढ़ने को आरोह कहते हैं। अगर हम सा स्वर के बाद रे, रे के बाद ग, ग के बाद म ऐसे ही आगे बढ़ते जायें तो उसे आरोह कहते हैं। प्रत्येक राग मेंश् उस राग के चलन के अनुसार सबका आरोह अलग-अलग हो सकता है। जैसे--राग बिहाग का आरोह इस प्रकार है - े म ह ल न स च
अवरोह -
अवरोह का शाब्दिक अर्थ है उतरना। अर्थात संगीत में स्वरों के उतरते हुए क्रम को अवरोह कहते हैं। सभी रागों में आरोह के साथ अवरोह की क्रिया भी होती है। रागों में अवरोह उस राग के चलन के अनुसार होती है। जैसे--राग यमन का अवरोह इस प्रकार है -सां नी ध प ी गरे सा
पकड़ -
स्वरों का वह छोटा-से-छोटा समूह जिससे किसी एक राग की पहचान होती है, उस राग की पकड़ कहलाती है। प्रत्येक राग की पकड़ अलग-अलग होती है। “पकड़” का शाब्दिक अर्थ है पकड़ना यानि स्वरों के उस समूह से हम यह पकड़ सकें कि यह कौन-सा राग है। किसी भी दशा में दो रागों का पकड़ एक जैसा नहीं हो सकता।
जैसे - राग खमाज और बिहाग का पकड़ -
खमाज - ा पत्र ल न पत्रल हत्रन ल हत्रत म
बिहाग - े म ह ल हत्रन ी ह ल हत्रत म
जाति -
किसी भी राग में लगने वाले स्वरों की संख्या को उस राग की जाति कहते हैं। राग में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर लगते हैं।
5 स्वर लगने वाले रागों की जाति औडव
6 स्वर लगने वाले स्वरों की जाति षाडव
7 स्वर लगने वाले रागों की जाति सम्पूर्ण
चूँकि सभी रागों का आरोह-अवरोह एक जैसा नहीं होता, इसलिए आरोह-अवरोह के अनुसार इन तीनों जातियों के तीन-तीन प्रकार होते हैं। इस प्रकार कुल 9 जाति हो गयी है, जो इस प्रकार है -
औडव-औडव, औडव-षाडव, औडव सम्पूर्ण,
षाडव-षाडव, षाडव-औडव, षाडव-सम्पूर्ण,
सम्पूर्ण-सम्पूर्ण, सम्पूर्ण-औडव, सम्पूर्ण-षाडव।
वादी -
किसी भी राग में ‘वादी‘ स्वर का महत्व सबसे ज्यादा होता है। ‘वादी‘ स्वर को राग रूपी राज्य का राजा कहा जाता है। किसी भी राग में लगने वाले अन्य स्वरों की अपेक्षा वादी स्वर का प्रयोग उस राग में अधिक होता है। केवल वादी-सम्वादी के अन्तर से दो मिलते-जुलते रागों को अलग किया जा सकता है।
जिस अंग में वादी स्वर होता है, वह राग वही अंग प्रधान होता है। अर्थात् अगर वादी स्वर सप्तक के पूर्ण अंग में है तो वह राग पूर्वांग प्रधान राग होगा और अगर वादी सप्तक के उत्तर अंग में होगा तो वह राग उत्तरांग प्रधान राग होगा।
राग का चलन और राग का स्वरूप वादी स्वर पर ही केन्द्रित होता है तथा बार-बार वादी स्वर को दिखाकर और उस पर ठहर कर स्वर चमत्कार पैदा किया जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि दो रागों के स्वर अगर एक-दूसरे से मिलते हों तो वादी स्वर के अन्तर से उसमें भिन्नता आ जाती है।
उदाहरण के तौर पर राग देशकार और भूपाली दोनों के स्वर एक हैं, किन्तु दोनों का वादी स्वर अलग-अलग है। देशकार का वादी स्वर धैवत तथा भूपाली का गान्धार होने से दोनों रागों की चलन, समय और प्रकृति में अन्तर हो जाता है। इसी तरह राग मारवा और पूरिया में समान स्वर होने के बाद भी केवल वादी-सम्वादी के अन्तर से दोनों राग एक- दूसरे से भिन्न हो जाते हैं।
सम्वादी -
किसी भी राग में लगने वाले स्वरों में वादी स्वर के बाद दूसरा महत्वपूर्ण स्वर ‘सम्वादी‘ कहलाता है। सम्वादी स्वर का महत्व वादी से कम और अन्य स्वरों से ज्यादा होता है। इसीलिए इसे वादी रूपी राजा का मंत्री कहा जाता है, क्योंकि वादी-सम्वादी स्वरों का एक-दूसरे से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है और सम्वादी स्वर को वादी स्वर का परम सहायक माना जाता है। वादी और सम्वादी स्वरों के बीच चार या पाँच स्वरों का अन्तर होता है जिससे वादी-सम्वादी में षड़ज-मध्यम या षड़ज-पंचम भाव बना रहे। जैसे-राग कल्याण में ग और नी स्वर वादी-सम्बादी हैं जो पाँच स्वरों के अन्तर पर
स्थित है।
अनुवादी -
किसी भी राग में वादी-सम्वादी को छोड़कर उस राग में जितने भी स्वर लगते हैं, उन्हें अनुवादी स्वर कहते हैं। रागों में कम से कम पाँच और अधिक से अधिक सात स्वर लगते हैं। इस प्रकार दो स्वर वादी-सम्वादी के अलावा उस राग के शेष तीन, चार या पाँच स्वर अनुवादी स्वर कहलाते हैं।
जैसे - राग यमन कल्याण में ग-नि वादी सम्बादी हैं। इनके अलावा शेष सभी स्वर अनुवादी कहलाते हैं।
विवादी -
कभी-कभी गायक अथवा वादक रागों में सुन्दरता और मधुरता की वृद्धि के लिएनियमानुसार उस राग में लगने वाले स्वरों के अलावा जो स्वर राग में प्रयोग नहीं होते उनका प्रयोग राग में रंजकता लाने के लिए करते हैं। अर्थात् वादी-सम्वादी तथा अनुवादी स्वरों के अलावा राग में प्रयोग न होने वाले स्वरों का प्रयोग जब होता है तो उसे ही “विवादी” स्वर कहते हैं। जैसे--वृन्दावनी सारंग में सा रे म प और दोनों नी का प्रयोग होता है। इन स्वरों को छोड़कर शेष सभी स्वर इस राग के विवादी स्वर कहलाते हैं। विवादी स्वर को राग रूपी राज्य का शत्रु कहा गया है। विवादी स्वर का प्रयोग बड़ी
सावधानी से कम समय के लिए किया जाता है, वरना विवादी स्वर अनुवादी स्वर बन जायेगा। किसी भी एक राग का विवादी स्वर दूसरे राग का वादी-सम्वादी या अनुवादी हो सकता है।
अलंकार -
अलंकार का अर्थ है ‘आभूषण‘ या “गहना”। जिस प्रकार आभूषण मनुष्य की शोभा बढ़ाते हैं, उसी प्रकार गायन-वादन में अलंकार के प्रयोग से गायन-वादन की शोभा बढ़ती है। अलंकार नियमानुसार स्वरों के आरोह-अवरोह के चलन को कहते हैं। विद्यार्थियों की प्रारम्भिक शिक्षा अलंकार से ही प्रारम्भ होते हैं। विभिन्न तरह के अलंकारों का प्रयोग और अभ्यास विद्यार्थियों के स्वर ज्ञान और तैयारी में साधक होते हैं। जिस प्रकार आभूषण की कड़ियाँ आपस में जुड़ी होती हैं, उसी प्रकार विभिन्न प्रकार से उलट-पुलट कर आरोह तथा अवरोह में स्वरों की रचना अलंकार कहलाती है। अलंकार का
जो क्रम आरोह में होता है, वही क्रम अवरोह में भी होना चाहिए। अलंकार के नित्य-प्रति अभ्यास से वाद्यों पर अँगुलियाँ काफी तेजी से घूमने लगती है तथा गायन के विद्यार्थियों का गला काफी तैयार हो जाता है। कुछ अलंकार सीधे होते हैं तथा कुछ अलंकार काफी कठिन। विद्यार्थियों को पहले सीधे-सीधे अलंकार का अभ्यास करना चाहिए और बाद में फिर कठिन अलंकारों का अभ्यास करना चाहिए। अलंकार अलग- अलग रागों में भी रागानुसार बनाकर भी अभ्यास किया जाता है। लेकिन राग में अलंकार बनाते समय राग में जो स्वर लगते हैं, उन्हीं स्वरों को उस राग में प्रयोग करना
चाहिए और जिस क्रम में आरोह किया जाय, उसी क्रम में अवरोह भी करना चाहिए। विभिन्न तरह के अलंकारों को पलटा भी कहते हैं। अलंकार स्थायी, आरोही, अवरोही और संचारी चारों वर्णों में बनाये जाते हैं। अलंकारों का प्रयोग तानों में भी होता है, जिसे अलंकारिक तान कहते हैं।
स्वर -
संगीत में प्रयोग होने वाले 22 नादों को जिन्हें हम श्रुति कहते हैं, उन्हीं 22 श्रुतियों में से 2 श्रुति जिनका परस्पर अन्तर स्पष्ट रूप से पहचाना जा सके, उन्हें स्वर” कहा गया। ये 42 स्वर शुद्ध, कोमल और तीव्र मिलाकर बनते हैं, फिर उन्हीं
42 स्वरों में से सात शुद्ध स्वर अलग किये गये जिन्हें सप्तक कहा गया और उनके नाम हैं--सा रे ग म प ध और नि। इस प्रकार स्वरश् और श्श्रुतिश् दोनों नाम अलग- अलग हैं, किन्तु दोनों एक ही हैं। जिन श्रुतियों का प्रयोग हम संगीत में करते हैं, उन्हें स्वर और जिनका नहीं करते, उन्हें श्रुति कहा जाता है। इस प्रकार 22 श्रुतियों का विभाजन सात ख्वरों में विद्वानों ने इस प्रकार की है
“चतुश्चतुश्चतुश्चैव षड़ज मध्यम पंचमा
द्वै द्वै निषाद गांधारो, त्रिस्तीरिषीभधैवतो
अर्थात सा, म और प को चार-चार श्रुति पर, रे और ध को तीन-तीन श्रुति पर और ग तथा नि को दो-दो श्रुति के अन्तर पर रखा गया। इस प्रकार शाखत्रकारों ने 22 श्रुतियों में से सात श्रुति चुना और उन्हें ही श्स्वरश् की संज्ञा दी। सात शुद्ध स्वरों के अलावा चार कोमल और एक तीव्र स्वर मिलाकर 12 स्वर निश्चित किये गये। चार कोमल स्वर रे ग ध नि और एक तीव्र स्वर म कुल मिलाकर बारह स्वर क्रमशः इस प्रकार हैं- मकतहिलीनरपासच इस प्रकार एक सप्तक में 12 स्वर होते हैं।
शुद्ध स्वर अपने निश्चित स्थान पर स्थिर रहते हैं, जबकि कोमल या तीव्र स्वर अपने निश्चित स्थान से थोड़ा उतर जाते हैं या चढ़ जाते हैं। इस प्रकार जब कोई स्वर अपने निश्चित स्थान (शुद्ध अवस्था) से थोड़ा नीचे होते हैं तो उन्हें कोमल स्वर तथा जब शुद्ध अवस्था से थोड़ा ऊपर चढ़ जाते हैं तो उन्हें तीव्र स्वर कहते हैं। शुद्ध सात स्वर-सा रे ग म प ध नि, चार कोमल स्वर-रे ग ध नि और एक तीव्र स्वर-म कुल मिलाकर बारह स्वर हैं।
चल स्वर-सा और प के अलावा पाँच स्वर-रे ग म ध नि अपने निश्चित स्ािान से थोड़ा नीचे या थोड़ा ऊपर हटते रहते हैं। अर्थात् जब कोई स्वर अपने स्थान से नीचे आते हैं तो उन्हें कोमल और कोई स्वर अपने स्थान से थोड़ा ऊपर जाते हैं तो उन्हें तीव्र स्वर कहते हैं। इसी को ‘चल स्वर‘ कहते हैं।
अचल स्वर-जो स्वर अपने स्थान पर अडिग होते हैं वे न तो कोमल और न ही तीव्र होते हैं, उन्हें अचल स्वर” कहते हैं। श्साश् और श्प” ये स्वर अचल स्वर कहलाते हैं।
सप्तक -
‘सप्तक‘ का अर्थ होता है सात अर्थात् सात शुद्ध स्वरों के समूह को ‘सप्तक‘ कहते हैं। ये सात स्वर हैं--सा रे ग म प ध और नि। सप्तक में सातों स्वर एक के बाद एक क्रम से आते हैं तथा प्रत्येक स्वरों की आन्दोलन संख्या अपने पिछले स्वर के आन्दोलन संख्या से आगे बढ़ती जाती है। जैसे -सा की आन्दोलन संख्या 240, रे 270, ग 300, म 320, प 360, ध 405 और नि 450 तथा तार सा की आन्दोलन संख्या 480
मुख्य रूप से तीन प्रकार के सप्तक प्रयोग में आते हैं -
मन्द्र सप्तक
मध्य सप्तक
तार सप्तक
मध्य सप्तक-मध्य सप्तक का अर्थ है बीच का सप्तक। इस सप्तक के स्वरों की आवाज न तो अधिक ऊँची होती है और न ही अधिक नीची। ज्यादातर गायक और वादक इस सप्तक का उपयोग अन्य सफप्तकों की अपेक्षा अधिक करते हैं। इन स्वरों के लिखने के लिए किसी भी चिह्न का प्रयोग नहीं करते। चूँकि यह सप्तक मन्द्र सप्तक से ऊँची और तार सप्तक से नीची यानि दोनों सप्तकों के मध्य में होती है। इसीलिए इसे मध्य सप्तक कहते हैं।
मन्द्र सप्तक -इस सप्तक की आवाज मध्य सप्तक के आवाज से नीची होती है। यह सप्तक मध्य सप्तक की आधी होती है। अर्थात् मध्य सप्तक के प्रत्येक स्वर से मन्द्र सप्क के प्रत्येक स्वर की आवाज दुगुनी नीची होती है। जैसे--मध्य सप्तक के पंचम की आन्दोलन संख्या 360 है तो मन्द्र सप्तक के पंचम की आन्दोलन संख्या 360 की आधी यानि 480 होगी। इन स्वरों को लिखते समय स्वरों के नीचे एक बिन्द लगा देते हैं। जैसे - े ु न?
तार सप्तक-तार सप्तक की आवाज मध्य सप्तक के आवाज की दुगुनी ऊँची होती है। मध्य सप्तक के बाद तार सप्तक आता है तथा तार सप्तक के प्रत्येक स्वर की आवाज मध्य सप्तक के उसी स्वर की आवाज की दुगुनी ऊँची होती है। जैसे - अगर मध्य सा की आन्दोलन संख्या 240 है तो तार सा की आन्दोलन संख्या 240 की दुगुनी यानि 480 होगी, अगर मध्य सप्तक के रे की आन्दोलन संख्या 270 हे तो तार सफ्तक के रे की आन्दोलन संख्या 270 की दुगुनी यानि 540 होगी। इस सप्तक के स्वरों को लिखते समय स्वरों के ऊपर एक बिन्दु लगा देते हैं। जैसे - च ख्ष्
गमक
आजकल आधुनिक संगीत में गमकश् का प्रयोग गायन और वादन दोनों में देखने को मिलता है। “गमक का प्रयोग धुपद गायन तथा ख्याल गायन और वाद्यों में प्रयोग होता है। गमक का प्रयोग करते समय हृदय पर जोर पड़ता है। संगीत रत्नाकर में गमक की परिभाषा इस प्रकार दी है- स्वरस्य कंपो गमकः श्रोतृ-चित सुखावहः।
अर्थात स्वरों के ऐसे कम्पन को गमक कहते हैं जो सुनने वालों के चित्त को प्रसन्न करता है