भारतीय छंद
हरिगीतिका छंद
लें, जोड़ता हूँ हाथ देवी अब मुझे मत दीजिए
आकाशवाणी हो गई- “देवी इसे मत दीजिए
इस श्वेत कपड़े ब्लेक मन की सत्यता बतला रहे
फिर से करेगा नाश ये हम इसलिए जतला रहे
बस पाप का इसका घड़ा तो भर गया अब तारिये
इस लोक से निर्मुक्त हो, बरतन उठा के मारिये
अब रूप दुर्गा का बनो इस दैत्य का संहार हो
ये है गलत पर इस तरह संसार का उद्धार हो”
आकाशवाणी क्या सुनी देवी बनी फिर चण्डिका
ले हाथ में इक काठ की मोटी पुरानी डण्डिका
दो चार जमकर वार कर बोली यहाँ से भागना
इक नार अबला जग गई अब देश को है जागना
दोहा छंद
मेरा जीवन पी गया, तेरी कैसी प्यास ।
पनघट से पूछे नदी, क्यों तोड़ा विश्वास ।१।
मन में तम सा छा गया, रात करे फिर शोर।
दिनकर जो अपना नहीं, क्या संध्या क्या भोर ।२।
बैठे बैठे रो रही, बरगद की अब छाँव ।
कौन चुराकर ले गया, पंछी वाला गाँव ।३।
नटखट को फटकारियें, सोचें उसके बाद ।
जायेगी किस पे भला, अपनी है औलाद ।४।
उजड़े से सब खंडहर,....... कहते है इतिहास ।
सोच समझ के कीजिये, अपनों पर विश्वास ।५।