पठानकोट से मेरे एक अनजाने मित्र (जो इस बीच पुराने मित्र हो चुके हैं) प्रीतम भगत ने मोबाइल पर बताया कि बुद्ध की माता कोली (कोरी) समुदाय से थीं.
मेरी दिलचस्पी बढ़ी. इस बात की खोज करते हुए नेट पर एक ऐसे आलेख तक पहुँचा जो कोली समुदाय के बारे में था. इस आलेख की शुरुआत एक जाने-पहचाने वाक्य से हुई थी कि - ‘हम कौन हैं? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे?’ मैं यहाँ उक्त आलेख के कुछ अंश ही दे रहा हूँ. पूरा आलेख कोली समुदाय के इतिहास का बढ़िय़ा लेखा-जोखा देता है.
यह देखने वाली बात है कि कोली समुदाय भी अपना इतिहास सिंधुघाटी सभ्यता के उसीज़माने में ढूँढता है जहाँ आज के लगभग सभी वंचित समुदाय पहुँचते हैं. इससे इतिहास समझी जाने वाली उस पौराणिक कथा का गुब्बारा फट जाता है कि तथाकथित असुरों, राक्षसों (सिंधुघाटी सभ्यता के मूलनिवासियों) और सुरों (जो यूरेशिया से वाया ईरान यहाँ आए थे) के बीच कोई सौहार्दपूर्ण समझौता हुआ था. यह वास्तव में एक लंबे युद्ध और संघर्ष के बाद की भीषण त्रासदी थी जो भारत में ग़ुलामी प्रथा की सच्चाई कहती है.
ऐसी पौराणिक कहानियाँ हैं जो संकेत करती हैं कि सुरों ने असुरों को गुलाम बना लिया था. ये वही गुलाम लोग हैं जो विभिन्न जातियाँ में बाँट दिए गए थे और वे जातिप्रथा (श्रमिकों/कमेरों का वर्गीकरण) समाप्त करने के लिए आज तक संघर्षशील हैं. जातिप्रथा का अर्थ ही यही है कि किसी की जाति जानों और उसे उठने से रोकने के लिए पूरा ज़ोर लगा दो. इन्हें अन्य पिछड़े वर्ग, अनुसूचित जातियाँ और अनुसूचित जनजातियाँ कहा जाता है. इन्हें मानवाधिकारों के बारे में जानकारी कम ही है. यह तथ्य है कि भारत के मूलनिवासी गुलाम बना लिए गए थे और सदियों से वे अमानवीय स्थितियों में रहने के लिए मजबूर किए गए हैं. इनकी अधिकतर आबादी गाँवों में रहती है. अगडी जातियाँ शेष विश्व कोभारत की ऐसी तस्वीर दिखाती हैं मानो भारत से गुलामी मिट गई है. समता आ गई है. छुआछूत को समाप्त कर दिया गया है आदि. लेकिन यह सच्चाई से बहुत है. दुनिया तथ्यों को जानती-समझती है.
इस बीच एक ब्लॉगर डोरोथी ने अपने एक कमेंट के द्वारा बताया था कि पूर्वी भारत की कोल जनजाति भी अपना उद्गम सिंधुघाटी सभ्यता को मानती है. इस बारे में मुझे एक लिंक मिला- ‘दि इंडियन इनसाइक्लोपीडिया’ जिसे इस आलेख में 'Other Links’ के अंत में दिया गया है. इसमें पर्याप्त व्याख्या है.
कोली, कोरी और कोल भारत के मूलनिवासी हैं. आर्यों (ब्राह्मणों) से पहले वे इस भूमि पर बस चुके थे. जब मूलनिासी युद्ध में हार गए तब आगे चल कर उन्हें अलग-अलग नाम और व्यवसाय दिए गए. उन्हें अलग-अलग जाति कहा गया. उनसे शिक्षा का अधिकार छीन लिया गया. आज देश में लोकतंत्र होने के बावजूद ये अभी इतने अशिक्षित और इतने दबाव में रहे हैं कि अपनी सामाजिक और राजनीतिक एकता और सत्ता में भागीदारी के बारे में बड़ी सोच तक नहीं पहुँच पाए हैं.
ख़ैर! मेघवाल, बुनकर, मेघ, भगत, जुलाहा, अंसारी, पंजाब के कबीरपंथी आदि समुदायों की भाँति कोली और कोरी भी पारंपरिक रूप से जुलाहे हैं. सरकारी नीतियों और औद्योगीकरण के कारण इनका वह पारंपरिक व्यवसाय तबाह हो चुका है और वे आर्थिक दृष्टि से बहुत पिछड़े हुए हैं. ग्रामीण क्षेत्रों में इनकी एक बड़ी आबादी गरीबी और कुपोषण की शिकार है. इन्हें बहुत कम वेतन पर रोज़गार दिया जाता है. बेगार (Forced labor) के तौर पर कार्य करना इनके लिए कोई नई बात नहीं है. (कोल शब्द अफ़्रीकी मूल का माना जाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि कोली शब्द कोल से ही बना है). ख़ैर, आप इस आलेख के अंश पढ़ना जारी रखें और इन विश्वसनीय तथा प्यारे कोली/कोरी लोगों के बारे में जाने.
(विशेष नोट - इस आलेख में कुछ मिथकीय पात्रों के नाम है जैसे - वाल्मीकि, राम आदि जिनका अस्तित्व ऐतिहासिक दृष्टि से विवादित है. कुछ अन्य बातें भी हैं जिन्हें इतिहास की नई खोजों और पुरातत्व की कसौटी पर कसने की आवश्यकता है. इसके बावजूद यह आलेख पठनीय है.)
कोली (Story Of India’s Historic People - The Kolis)
“एक समय आता है जब हममें से प्रत्येक व्यक्ति पूछता है, ‘मैं कौन हूँ? मेरे पुरखे कौन थे? वे कहाँ से आए थे? वे कैसे रहते थे? उनकी बड़े कार्य क्या थे और उनके सुख-दुख क्या थे?’ ये और अन्य कई मूलभूत सवाल हैं जिनके बारे में हमें उत्तर पाना होता है ताकि हम अपने मूल को पहचान सकें.
भारत के मूलनिवासी कबीलों के बारे में अध्ययन करते हुए हमारे विद्वानों ने अति प्राचीन रिकार्ड और दस्तावेज़ – वेद, पुराण, विभिन्न भाषाओं के महाकाव्य, कई पुरातात्विक रिकार्ड और नोट्स और कई अन्य प्रकाशन देखे हैं.
इतिहास और एंथ्रपॉलॉजी के विद्यार्थियों ने प्रागैतिहासिक (Pre-historic) और भारत के स्थापित इतिहास में भारत के इस प्राचीन कबीले का चमकता अतीत पाया है और लगातार चल रही खोज में और भी बहुत कुछ मिल रहा है.
यह आलेख गुजराती में लिखे मुख्यतः तीन प्रकाशनों पर आधारित है. ‘भारत का एक प्राचीन कबीला – कोली कबीले का इतिहास’ – इस पुस्तक का संपादन श्री बचूभाई पीतांबर कंबेद ने किया था और भावनगर के श्री तालपोड़ा कोली समुदाय ने प्रकाशित किया था (पहला संस्करण 1961 और दूसरा संस्करण 1981), 1979 में ‘बॉम्बे समाचार’ में प्रकाशित श्री रामजी भाई संतोला का एक आलेख और डॉ. अर्जुन पटेल द्वारा 1989 में लिखा एक विस्तृत आलेख जो उन्होंने 1989 में हुए अंतर्राष्ट्रीय कोली सम्मेलन में प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया था.
ईश बुद्ध
ईश बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- “कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत,संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में 'मुंबई समाचार', 'नूतन गुजरात', 'परमार्थ' आदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे.‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा ‘मेरा शेर’ कहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी ‘कोडना गढ़’ को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर ‘सिंहाढ़’ रख दिया.
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.
हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथाईश बुद्ध
ईश बुद्ध की पत्नी कोली कबीले से थी. महान राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उसके कुल के राजा कोली कबीले के थे. संत कबीर, जो पेशे से जुलाहे थे, के कई भजनों में लिखा है- “कहत कबीर कोरी”, उन्होंने स्वयं को कोरी कहा है. सौराष्ट्र के भक्तराज भदूरदास और भक्तराज वलराम, जूनागढ़ के गिरनारी संत वेलनाथजी, भक्तराज जोबनपगी, संत श्री कोया भगत,संत धुधालीनाथ, मदन भगत, संत कंजीस्वामी जो 17वीं और 18वीं शताब्दी के थे, ये सभी कोली कबीले के थे. उनके जीवन और ख्याति के बारे में 'मुंबई समाचार', 'नूतन गुजरात', 'परमार्थ' आदि में छपे आलेखों से जानकारी मिलती है.
महाराष्ट्र राज्य में शिवाजी के प्रधान सेनापति और कई अन्य सेनापति इसी कबीले के थे.‘A History of the Marathas’ (मराठा इतिहास) मुख्यतः मवालियों और कोलियों से भरी शिवाजी की सेना का शौर्य गर्वपूर्वक कहता है. शिवाजी का सेनापति तानाजी राव मूलसरे जिसे शिवाजी हमेशा ‘मेरा शेर’ कहा करते थे, एक कोली था. जब तानाजी ‘कोडना गढ़’ को जीतने के लिए लड़ी लड़ाई में शहीद हुआ तो शिवाजी ने उसकी स्मृति में उस किले का नाम बदल कर ‘सिंहाढ़’ रख दिया.
सन् 1857 के स्वतंत्रता संग्रम में बहुत सी कोली महिला योद्धाओं ने झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के प्राण बचाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. उनमें एक उसकी बहुत करीबी साथी थी जिसका नाम झलकारी बाई था. इस प्रकार कोली समाज ने देश और दुनिया को महान बेटे और बेटियाँ दी हैं जिनकी शिक्षाओं का सार्वभौमिक महत्व और प्रासंगिकता आज आधुनिक जीवन में भी है.
हमारे प्राचीन राजा मन्धाता की कथा