बदरा आए
धरती पर है धुंध
गगन में
घिर-घिर बदरा आए
लगे इन्द्र की पूजा करने
नम्बर दो के जल से
पाप-बोध से भरी
धरा पर
बदरा क्योंकर बरसे
कृपा-वृष्टि हो
बेकसूर पर
हाँफ रहे चैपाए
हुए दिगम्बर पेड़, परिन्दे-
हैं कोटर में दुबके
नंगे पाँव
फँसा भुलभुल में
छोटा बच्चा सुबके
धुन कजरी की
और सुहागिन का
टोना फल जाए
सूखा औ’ महँगाई दोनों
मिलते बाँध मुरैठे
दबे माल को
बनिक निकाले
दुगना-तिगुना ऐंठे
डूबें जल में
खेत, हरित हों
खुरपी काम कमाए।
फगुआ- ढोल बजा दे
हर कड़ुवाहट पर
जीवन की
आज अबीर लगा दे
फगुआ-ढोल बजा दे
तेज हुआ रवि
भागी ठिठुरन
शीत-उष्ण-सी
ऋतु की चितवन
अकड़ गई जो
टहनी मन की
उसको तनिक लचा दे
खोलें गाँठ
लगी जो छल की
रिहा करें हम
छवि निश्छल की
जलन मची अनबन की
उस पर
शीतल बैन लगा दे
साल नया है
पहला दिन है
मधुवन-गन्ध
अभी कमसिन है
सुनो, पपीहे
ऐसे में तू
कोयल के सुर गा दे।
पगडंडी
सब चलते चौड़े रस्ते पर
पगडंडी पर कौन चलेगा?
पगडंडी जो मिल न सकी है
राजपथों से, शहरों से
जिसका भारत केवल-केवल
खेतों से औ' गाँवों से
इस अतुल्य भारत पर बोलो
सबसे पहले कौन मरेगा?
जहाँ केन्द्र से चलकर पैसा
लुट जाता है रस्ते में
और परिधि भगवान भरोसे
रहती ठण्डे बस्ते में
मारीचों का वध करने को
फिर वनवासी कौन बनेगा?
कार-क़ाफिला, हेलीकॉप्टर
सभी दिखावे का धंधा
दो बित्ते की पगडंडी पर
चलता गाँवों का बन्दा
कूटनीति का मुकुट त्यागकर
कंकड़-पथ को कौन वरेगा?
गली की धूल
समय की धार ही तो है
किया जिसने विखंडित घर
न भर पाती हमारे
प्यार की गगरी
पिता हैं गाँव
तो हम हो गए शहरी
ग़रीबी में जुड़े थे सब
तरक्की ने किया बेघर
खुशी थी तब
गली की धूल होने में
उमर खपती यहाँ
अनुकूल होने में
मुखौटों पर हँसी चिपकी
कि सुविधा संग मिलता डर
पिता की ज़िंदगी थी
कार्यशाला-सी
जहाँ निर्माण में थे-
स्वप्न, श्रम, खाँसी
कि रचनाकार असली वे
कि हम तो बस अजायबघर
बुढ़ाए दिन
लगे साँसें गवाने में
शहर से हम भिडे़
सर्विस बचाने में
कहाँ बदलाव ले आया
शहर है या कि है अजगर।
पंच गाँव का
आँख लाल है, झूम-चाल है
लगते कुछ बेढंगे
इज्ज़त इनसे दूर कि इनकी
जेबों में हैं दंगे
दबंगई की दाढ़ लगी है
कैसी आदमखोरी
सूँघ रहे गश्ती में कुत्ते
लागर की कमजोरी
इनकी चालों में फँस जाते
अच्छे-अच्छे चंगे
गिरवी पर, गोबर्धन का श्रम
है दरियादिल मुखिया
पत्थर-सी रोटी के नीचे
दबी हुई है बिछिया
न्याय स्वयं बिकने आता है
बेदम-से हैं पंगे
पंच गाँव का खुश है लेकिन
हाथ तराजू डोले
लगता जैसे एक अनिर्णय-
की भाषा में बोले
उतर चुका दर्पण का पारा
सम्मुख दिखते नंगे।
देह बनी रोटी का ज़रिया
वक़्त बना जब उसका छलिया
देह बनी रोटी का ज़रिया
ठोंक-बजाकर देखा आखिर
जमा न कोई भी बंदा
'पेटइ' ख़ातिर सिर्फ बचा था
न्यूड मॉडलिंग का धंधा
व्यंग्य जगत का झेल करीना
पाल रही है अपनी बिटिया
चलने को चलना पड़ता है
तनहा चला नहीं जाता
एक अकेले पहिए को तो
गाड़ी कहा नहीं जाता
जब-जब नारी सरपट दौड़ी
बीच राह में टूटी बिछिया
मूढ़-तुला पर तुल जाते जब
अर्पण और समर्पण भी
विकट परिस्थिति में होता है
तभी आधुनिक जीवन भी
तट पर नाविक मुकर गया है
उफन-उफन कर बहती नदिया।
पीते-पीते आज करीना
पीते-पीते आज करीना
बात पते की बोल गयी
यह तो सच है शब्द हमारे
होते हैं घर-अवदानी
घर जैसे कलरव बगिया में
मीठा नदिया का पानी
मृदु भाषा में एक अजनबी
का वह जिगर टटोल गयी
प्यार-व्यार तो एक दिखावा
होटल के इस कमरे में
नज़र बचाकर मिलने में भी
मिलना कैद कैमरे में
पलटी जब भी हवा निगोड़ी
बन्द डायरी खोल गयी
बिन मकसद के प्रेम-जिन्दगी
कितनी है झूठी-सच्ची
आकर्षण में छुपा विकर्षण
बता रही अमिया कच्ची
जीवन की शुरुआत वासना?
समझो माहुर घोल गयी।
कोरोना का डर है लेकिन
कोरोना का डर है लेकिन
डर-सी कोई बात नहीं
धूल, धुआँ, आँधी, कोलाहल
ये काले-काले बादल
जूझ रहे जो बड़े साहसी
युगों-युगों का लेकर बल
इस विपदा का प्रश्न कठिन, हल
अब तक कुछ भी ज्ञात नहीं
लोग घरों से निकल रहे हैं
सड़कों पर, फुटपाथों पर
एक भरोसा खुद पर दूजा
मालिक तेरे हाथों पर
जीत न पाए हों वे अब तक
ऐसी कोई मात नहीं
कई तनावों से गुजरे वे
लहरों से भी टकराए
तोड़ दिया है चट्टानों को
शिखरों को छूकर आए
सूरज निकलेगा पूरब में
होगी फिर से प्रात वही।
विज्ञापन की चकाचौंध
सुनो ध्यान से
कहता कोई
विज्ञापन के पर्चों से
हम जिसका निर्माण करेंगे
तेरी वही जरूरत होगी
जस-जस सुरसा बदनु बढ़ावा
तस-तस कपि की मूरत होगी
भस उड़ती हो
आँख भरी हो
लेकिन डर मत मिर्चों से
हमें न मंहगाई की चिंता
नहीं कि तुम हो भूखे-प्यासे
तुमको मतलब है चीजों से
मतलब हमको है पैसा से
पूरी तुम बाज़ार उठा लो
उबर न पाओ खर्चों से
बेटा, बेटी औ' पत्नी की
मांगों की आपूर्ति करोगे
चकाचोंध से विज्ञापन की
तुम सब आपस में झगड़ोगे
कार पड़ोसी के घर आई
बच न सकोगे चर्चों से।
श्रम की मण्डी
बिना काम के ढीला कालू
मुट्ठी- झरती बालू
तीन दिनों से
आटा गीला
हुआ भूख से
बच्चा पीला
जो भी देखे, घूरे ऐसे
ज्यों शिकार को भालू
श्रम की मंडी
खड़ा कमेसुर
बहुत जल्द
बिकने को आतुर
भाव मजूरी का गिरते ही
पास आ गए लालू
बीन कमेसुर
रहा लकड़ियाँ
बाट जोहती
होगी मइया
भूने जाएंगे अलाव में
नई फसल के आलू।
चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी
सत्ता पर क़ाबिज़ होने को
कट-मर जाते दल
आज सियासत सौदेबाजी
जनता में हलचल
हवा चुनावी आश्वासन के
लड्डू दिखलाए
खलनायक भी नायक बनकर
संसद पर छाए
कैसे झूठ खुले, अँजुरी में-
भरते गंगा-जल
लाद दिए पिछले वादों पर
और नये कुछ वादे
चिंताओं का बोझ-ज़िंदगी
कोई कब तक लादे
जिये-मरे, ये काम न आये,
बेमतलब, बेहल
वही चुनावी मुद्दा लेकर
वे फिर घर आए
मन को छूते बदलावों के
सपने दिखलाए
हैं प्रपंच, ये पंच स्वयं के,
कैसे-कैसे छल।
रेल-ज़िंदगी
एक ट्रैक पर
रेल ज़िंदगी
कब तक?
कितना सफ़र सुहाना
धक्का-मुक्की
भीड़-भड़क्का
बात-बात पर
चौका-छक्का
चोट किसी को
लेकिन किसकी
ख़त्म कहानी
किसने जाना
एक आदमी
दस मन अंडी
लदी हुई है
पूरी मंडी
किसे पता है
कहाँ लिखा है
किसके खाते
आबोदाना
बिना टिकट
छुन्ना को पकड़े
रौब झाड़ कर
टी.टी. अकड़े
कितना लूटा
और खसोटा
'सब चलता'
कह रहा ज़माना।
सर्वोत्तम उद्योग
छार-छार हो पर्वत दुख का
ऐसा बने सुयोग
गलाकाट इस ‘कंप्टीशन’ में
मुश्किल सर्वप्रथम आ जाना
शिखर पा गए किसी तरह तो
मुश्किल है उस पर टिक पाना
सफल हुए हैं इस युग में जो
ऊँचा उनका योग
बड़ी-बड़ी ‘गाला’ महफिल में
कितनी हों भोगों की बातें
और कहीं टपरे के नीचे
सिकुड़ी हैं मन मारे आँतें
कोई हाथ साधता चाकू
कोई साधे जोग
भइया मेरा बता रहा था
कोचिंग भी है कला अनूठी
नाउम्मीदी की धरती पर
उगती है कॅरिअर की बूटी
सफल बनाने का असफल को
सर्वोत्तम उद्योग।