bhilwara Ek Nazar-


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भीलवाड़ा जिलाऐतिहासिक और सांस्कृतिक नजर-वस्त्रनगरी के रूप में विख्ख्यात भीलवाड़ा शहर रियासतकाल में मेवाड़ स्टेट का हिस्सा था। हालांकि इस शहर की स्थापना और नामकरण से संबंधित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं हैं, किन्तु कहा जाता है कि पहले यहां भीलों की बस्तियां थीं, जिन्हें शासकों द्वारा पहाड़ी क्षेत्रों में बस जाने को बाध्य कर दिया गया। बाद में यहां विकसित नगर को पूर्व में भीलों का निवास होने के कारण भीलवाड़ा नाम से पुकारा गया। यह भी कहा जाता है कि यहां मेवाड़ रियासत की टकसाल थी। उस टकसाल में निर्मित सिक्के भिलाड़ी कहलाते थे। इसी कारण तब इस क्षेत्र को पहले भिलाड़ी नाम से पुकारा गया, जो बाद में भिलावड़ी होते हुए भीलवाड़ा हुआ।भीलवाड़ा जिला २५ डिग्री १Ó से २५ डिग्री ५८Ó उत्तरी अक्षांश और ७४ डिग्री १Ó से ७५ डिग्री २८Ó पूर्वी देशांतर के बीच स्थित है। इसकी पूर्वी और उत्तर पूर्वी सीमा बूंदी एवं टोंक जिले से, उत्तरी सीमा अजमेर जिले से, उत्तर-पश्चिमी, पश्चिमी और दक्षिण-पश्चिमी सीमा उदयपुर जिले से और दक्षिणी तथा दक्षिण-पूर्वी सीमा चितौडग़ढ़ जिले से सटी है। पश्चिम से पूर्व तक जिले की अधिकतम लम्बाई१४४ किलोमीटर और उत्तर से दक्षिण में चौड़ाई १०४ किलोमीटर है। वर्ष २००१ की जनगणना के अनुसार जिले की कुल जनसंख्या २०,०९,५१६ है, जो २००८ तक अनुमानित: २४ लाख को पार कर चुकी है। गर्म और शुष्क जलवायु के इस जिले में वर्षा का वार्षिक औसत ६०.३५ सेंटीमीटर है। अधिकतम वर्षा जुलाई और अगस्त माह में होती है। दिसम्म्बर और जनवरी के महीने अमुमन सर्वाधिक ठण्डे रहते हैं। इस दौरान माध्य तापमान न्यूनतम ७ डिग्री और अधिकतम २४ डिग्री के आसपास रहता है। सर्वाधिक गर्मी मई और जून माह में पड़ती है। इस दौरान दिन का माध्य तापमान ४० डिग्री और रात का माध्य तापमान २६ डिग्री तक रहता है। अधिकतम तापमान ४५ डिग्री तक भी पहुंच जाता है।जिले में ११ तहसीले हैं, जिसमें भीलवाड़ा, माण्डलगढ़, बनेड़ा, आसींद, हुरड़ा, सहाड़ा, रायपुर, शाहपुरा, जहाजपुर, माण्डल और कोटड़ी शामिल हैं। ये सभी तहसील मुख्यालय पंचायत समिति मुख्यालय भी हैं। भीलवाड़ा जिला मुख्यालय पर नगर परिषद है, जबकि जहाजपुर, माण्डलगढ़, गंगापुर, शाहपुरा, आसींद और गुलाबपुरा में नगरपालिकाएं हैं। जिले में ३७८ ग्राम पंचायतें हैं। जिले में वन क्षेत्र महज ५.८३ फीसदी है। वन का कुल क्षेत्रफल ७३,३५८ हैक्टेयर है। भीलवाड़ा जिले में कोई प्राकृतिक झील नहीं है। लेकिन, बनास क्षेत्र की सबसे बड़ी नदी है। इसके अलावा बेड़च, कोठारी, मानसी, खारी, मैनाली और चन्द्रभागा नदियां भी इस क्षेत्र में प्रवाहित होती हैं। बेड़च, कोठारी, खारी और मानसी नदियां बनास में मिल जाती हैं। ग्रीष्मकाल में नदी में जलप्रवाह कम होने के साथ ही बनास नदी में जगह-जगह छोटे-छोटे तालाब बन जाते हैं। जिले में फेल्सपार, व्हाइट क्ले, गारनेट, माइका, लोहा अयस्क, घीया पत्थर, ताम्बा, ग्लास सैण्ड, इमारती पत्थर और बेराइल आदि खनिज पाए जाते हैं। जिंक का एशिया का सबसे बड़ा भण्डार जिले की हुरड़ा तहसील में है। गाडरमाला और जहाजपुर में टीकड़ के पास यूरेनियम के भण्डार हैं।धर्म-समाज:-भीलवाड़ा जिले में वैसे तो लगभग हर जाति धर्म के लोग निवास करते हैं। फिर भी ब्राह्मण समुदाय की बहुलता है। भीलवाड़ा शहर में माहेश्वरी और जैन समाज का दबदबा है। इनके अलावा अन्य जातियों में सभी हिन्दू धर्मावलम्बियों के साथ मुस्लिम, सिख, ईसाई समाज के लोग भी रहते हैं। श्री चारभुजानाथ यहां के आराध्य देव हैं।संस्कृति:-जिले में सांस्कृतिक परम्पराओं में मेले और तीज-त्योहार-पर्व विशेष महत्व रखते हैं। विभिन्न धर्म संस्कृतियों का संगम यहां देखने को मिलता है। हर समाज के लोग अपने-अपने धर्म के हिसाब सेे पर्व त्योहार हर्षोल्लास से मनाते हैं। इनमें होली, दीपावली, ईद, क्रिसमस, गुरुगोविन्दसिंह जयंती, गणेश चतुर्थी, शिवरात्रि, कृष्ण जन्माष्टमी, नवरात्रि आदि शामिल हैं। होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर्व यहां धूमधाम से मनाया जाता है। इसी दिन रंग खेलने की परम्परा है।लोक-कला :-लोक सांस्कृतिक परम्पराओं के तहत त्योहार-पर्व पर गांव-गांव में गैर खेलने की परम्परा है। क्षेत्र में मांच का खेल भी प्रसिद्ध है। फड़ पढऩे की परम्म्परा है। इसमें पाबू जी राठौड़ की फड़ संगीत की स्वरलहरियों के साथ पढ़ी जाती है। जहाजपुर, पण्डेर क्षेत्र में जरायमपेशा जाति की महिलाएं लोकगीतों पर नृत्य के साथ उत्सव मनाती हैं। गेर और नाहर नृत्य यहां के लोक नृत्य हैं। भीलवाड़ा से १५ किलोमीटर दूर मांडल का नाहर नृत्य की दूर-दूर ख्याति है।रहन-सहन:-जिले का अधिकांश हिस्सा ग्रामीण है। इसीलिए यहां ग्रामीण परिवेश की झलक वृहद रूप में मिलती है। ग्रामीण क्षेत्र के लोग आज भी खेती और पशुपालन पर निर्भर हैं। दुधारू मवेशी लगभग हर घर में हैं। जिले में श्वेत क्रांति से आर्थिक खुशहाली आई है। गांवों में अब कच्चे केलूपोश मकानों के स्थान पर पक्के मकान भी बनने लगे हैं। वैसे तो अधिकांश परिवारों में ईंधन के रूप में जलाऊ लकड़ी और कण्डों का उपयोग हो रहा है। लोगों में आपसी सद्भाव, सौहार्द्र के साथ एक दूसरे के दुख को बांटने की भावना कायम है। गांवों में दिन में और शाम को चौपालों पर लोग एकत्र होते है और सुख-दुख की चर्चा करते हैं।पहनावा:-हर जाति-धर्म के लोगों का अपना पहनावा है। वैसे अमुमन पुरुष पैंट-शर्ट और महिलाएं साड़ी-पेटिकोट-ब्लाउज पहनती हैं। ग्रामीण क्षेत्र में पुरतन विचारधारा के पुरुष धोती-कुर्ता पहनते हैं और बुजुर्गों के साथ ही कुछ युवा भी सिर पर पगड़ी, फेंटा बांधते हैं तो इसी विचारधारा वाले परिवारों में महिलाएं घाघरा, लूगड़ी और कांचली पहनती हैं। मुस्लिम और सिख समाज की महिलाएं सलवार सूट पहनती हैं।आभूषण:-आभूषणों में महिलाएं गले में हांसली, तेडिय़ा, बजंटी, नेकलेस, हार, बांह पर बाजूबंद, कानों में बालियां, कर्णफूल, टोकरी आदि, नाक में नथ, कांटा पहनती हैं। पैरों में वैसे तो चांदी की पायल अथवा झांझर पहनी जाती हैं, ग्रामीण क्षेत्र की महिलाएं चांदी के वजनी कड़े भी पहनती हैं। पैरों की अंगुलियों में बिछुडिय़ा भी पहनती हैं। पुरुष कानों में मुरकिया यानी कडिय़ां, लोंग और हाथ में चांदी, सोने या अन्य धातु का कड़ा भी पहनते हैं।प्रमुख भाषा:-क्षेत्र में आम व्यवहार में राजस्थानी भाषा की मेवाड़ी बोली का ही प्रचलन है। ठेठ ग्रामीण क्षेत्र में तो इसी बोली का इस्तेमाल होता है, किन्तु कुछ शहरी लोग हिन्दी के साथ अंग्रेजी भाषा का भी इस्तेमाल करने लगे हैं।प्रमुख व्यंजन:-सर्दियों में दाल-ढोकले, खिचड़ा, कुलथ मक्का की रोटी प्रमुख व्यंजन है, वहीं गर्मी में चूरमा बाटी मुख्ख्य खान-पान है। सर्दी के तुरन्त बाद होली के त्योहार पर दही व चावल का मीठा ओलिया, दही घाट भी चाव से खाया जाता है। दीपावली से पूर्व उड़द की दाल के मरके, चपड़ा व खाण्ड की लुगाई का लुत्फ उठाते है। बरसात के मौसम में रबडी के मालपुए, दूध की रबड़ी, खीर मालपुए प्रमुख व्यंजन है।उद्योग जगत:-भीलवाड़ा टेक्सटाइल उद्योग के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुका है। यहां प्रतिमाह साढ़े पांच करोड़ मीटर से भी अधिक सिंथेटिक कपड़े का उत्पादन हो रहा है। यहां से कपड़ा निर्यात भी होता है। इसके अतिरिक्त सिंथेटिक धागा उत्पादन के क्षेत्र में भी यह शहर अपनी विशेष पहचान बना चुका है। यहां माइका ब्रिक्स का उत्पादन भी हो रहा है, जो देश की इस्पात इण्डस्ट्रीज को सप्लाई होता है। पुर के निकट जिंदल समूह का कारखाना लगने से क्षेत्र के काफी लोगों को रोजगार मिल रहा है।हैण्डीक्राफ्ट:-क्षेत्र की फड़ चित्र शैली प्रसिद्ध है। भीलवाड़ा और शाहपुरा में कलाकार इस शैली में लोक कथाओं यथा पाबूजी राठौड़, गर्जरों आराध्य सवाईभोज पर आधारित फड़ पैंटिंग बनाते है, जिसमें कलाप्रेमियों की विशेष रुचि है। मिनिएचर पैंटिंग भी यहां की जाती है। पीतल पर कलाई और कांसे के बर्तन बनाने के अलावा बदनोर के चाकू प्रसिद्ध हैं।ख्ख्यातनाम चित्रकार:-भीलवाड़ा के श्रीलाल जोशी और बद्रीलाल सोनी अंतरराष्ट्रीय स्तर के चित्रकार हैं। जोशी फड़ शैली के ख्ख्यातनाम चित्रकार हैं। कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पुरस्कारों के विजेता जोशी वर्ष २००६ में पद्मश्री से अलंकृत हो चुके हैं। उन्हें शिल्प गुरु अवार्ड भी मिल चुका है। भीलवाड़ा में ५ मार्च १९३१ को जन्मे श्री जोशी दस वर्ष की उम्र से चित्रकारी कर रहे हैं। इनके चित्रों की देश की राजधानी नई दिल्ली, मुम्ंबई, कोलकाता, चेन्नई, वड़ोदरा, अहमदाबाद, बैंगलोर, भोपाल, इंदौर आदि शहरों के साथ विदेश में शिकागो, पश्चिम जर्मनी, रूस, स्वीडन, जापान, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, ऑस्ट्रिया, सिंगापुर, न्यूयार्क, वाशिंगटन आदि शहरों में प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं। श्री बद्रीलाल सोनी मिनिएचर आर्टिस्ट हैं। भीलवाड़ा जिले के गंगापुर कस्बे में जन्मे ८९ वर्षीय श्री सोनी की कई पैंटिग्स अंतररराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हो चुकी है। वे भी शिल्पगुरु अवार्ड से सम्म्मानित हो चुके हैं। इनकी पैंटिग्स लंदन के म्म्यूजियम में भी प्रदर्शित की गई हैं।खेल-खिलाड़ी:-भीलवाड़ा के बी.एम. दिवाकर बास्केटबाल के अन्तरराष्ट्रीय रैफरी रहे हैं। इस खेल विधा में भीलवाड़ा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्ख्याति दिलाने में दिवाकर का अहम योगदान है। इनके अलावा भीलवाड़ा के ही सुरेन्द्र कटारिया अंतरराष्ट्रीय स्तर के बास्केटबाल खिलाड़ी रहे हैं। वे अपने समय में एशिया के श्रेष्ठ शूटर रहे हैं। अपने बेहतरीन खेल कौशल के कारण अर्जुन अवार्ड से भी नवाजा गया। इसके अलावा अभिजीत गुप्ता शतरंज में अन्तर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में अपना प्रतिनिधित्व कर भीलवाड़ा का नाम रोशन कर चुके हैं।आवागमन:-जिले में आवागमन के प्रमुख साधन रेल और सड़क यातायात ही हैं। हवाई सेवा से यह जिला नहीं जुड़ पाया है। इसके लिए उदयपुर अथवा जयपुर ही माध्यम हैं। हमीरगढ़ में हवाई पट्टïी है, लेकिन नियमित उड़ान यहां से नहीं होती। सिर्फ छोटे प्लेन ही यहां से उड़ान भर सकते हैं।रेल सेवा:-भीलवाड़ा ब्रॉडगेज से जुड़ा हुआ है। यह अजमेर-मुम्बई वाया रतलाम रेल मार्ग पर स्थित है। चितौडग़ढ़ जंक्शन से कोटा, उदयपुर, जयपुर, जोधपुर, इंदौर के साथ ही देश के कुछ प्रमुख नगरों से जुड़ा है। कुछ समय बाद भीलवाड़ा जिले में रेल कोच फैक्ट्री लगने से रोजगार उपलब्ध हो सकेगा।बस सेवा:-राजस्थान पथ परिवहन निगम का भीलवाड़ा आगार है। यहां से राज्य और इसके बाहर दिल्ली, इंदौर, भोपाल, अहमदाबाद, हरिद्वार के लिए सीधी बस सेवा से जुड़ा है। यहां से र ोडवेज के अलावा निजी विडियोकोच बस सुविधा भी उपलब्ध होने से आवागमन की सुगमता रहती है।फेयर एण्ड फेस्टिवल:-कोटड़ी चारभुजानाथ- प्रति वर्ष भाद्रपद सुदी एकादशी (जलझूलनी- एकादशी, अगस्त सितम्बर माह) में यहां चतुर्भुज जी के सम्मान में एक विशाल मेले का आयोजन होता है जिसमें आसपास के क्षेत्रों से हजारों की संख्ख्या में श्रद्धालुजन शामिल होते हैं।सिंगोलीश्याम मेला- मांडलगढ़ तहसील के सिंगोली कस्बे में स्थित प्रसिद्ध श्याम मंदिर में फागोत्सव (फूलडोल मेला) आयोजित किया जाता है। प्रतिवर्ष चेत्र बदी अमावस्या को आयोजित होने वाले इस मेले में राजस्थान एवं मध्यप्रदेश से काफी संख्ख्या में लोग आते हैं।शिवरात्रि मेला- जिले में तिलस्वां महादेव, त्रिवेणी संगम (मांडलगढ़) हरणी महादेव (भीलवाड़ा),कदमा महादेव (शाहपुरा), ३२ खंबों की छतरी (माण्डल) में शिवरात्रि पर मेलों का आयोजन होता है जिनमें शिव भक्त सम्म्मिलित होते हैं और धार्मिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं।फूलडोल मेला:- शाहपुरा में रामस्ïनेही सम्म्प्रदाय के प्रमुख तीर्थ रामद्वारा परिसर में प्रतिवर्ष चेत्र बदी प्रतिपदा से चेत्र बदी पंचमी (मार्च) तक फूलडोल मेला भरता है। इस फूलडोल मेले में रामस्ïनेही सम्म्प्रदाय के अनुयायी पंडोसी राज्यों एवं विदेशों से भी सम्म्मिलित होते हैं। मेले में वाणी जी की सवारी निकाली जाती है। धार्मिक प्रवचन एवं कार्यïक्रम आयोजित होते हैं।नवरात्रि मेला:- चैत्र व शारदीय नवरात्र के अवसर पर जिले के धनोप माता मंदिर, बाणमाता (गोवटा),जोगणिया माता, घाटाराणी (जहाजपुर), बंकियाराणी (आसीन्द) में धार्मिक मेले लगते हैं जो नवरात्रि में नौ दिन तक चलते हैं।तेजाजी के मेले:- लोककथा के नायक वीरतेजाजी जाटों के आराध्य देव है। तेजादशमी (भाद्रपद सुशी दशमी) को भीलवाड़ा, मांडल, सोडार, हुरड़ा, दांता, तहनाल (शाहपुरा) एवं बिजौलियां के विशाल मेले भरते हैं।उद्योग एवं व्यापार मेला:- औद्योगिक नगरी होने से भीलवाड़ा में प्रतिवर्ष दिसम्म्बर माह के अंतिम सप्ताह में जिला मुख्ख्यालय पर हस्तशिल्पी, बुनकर व वस्त्र व्यवसायी अपने उत्पादों की प्रदर्शनी लगाते हैं व खरीद-फरोख्त होती है। सात दिन चलने वाले मेले में प्रतिदिन रात्रि में मनोरंजक सांस्कृतिक कार्यक्रम भी होते हैं। इसके अलावा मेगा ट्रेड फेयर में भी लोगों को खरीद-फख्रोख्त कर अपनी आवश्यकता के अनुरूप सभी तरह के कपड़े तथा इलेक्ट्रोनिक आइटम मिल जाते हैं।खादी मेला:- प्रतिवर्ष दिसम्बर माह में ही खादी एवं हस्तशिल्प मेले का आयोजन जिला मुख्ख्यालय पर होता है जो १५ दिन तक चलता है। मेले में पूरे राजस्थान से खादी वस्त्र व हस्तशिल्प उत्पादक भाग लेते हैं। मेले में ऊनी व खादी वस्त्रों पर विशेष छूट भी प्रदान की जाती है।ग्रामीण हाट:- ग्रामीण हाट बाजार में समय-समय पर विभिन्न उत्सव एवं सांस्कृतिक मनोरंजक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। यहां कई तरह की प्रदर्शनियां भी आयोजित होती हैं।सवाईभोज मेला- खारी नदी के तट पर भीलवाड़ा से ६० कि.मी. दूर आसीन्द कस्बा सवाईभोज मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यहां प्रतिवर्ष भादो माह की षष्ठी को विशाल मेला लगता है। २४ बगड़ावतों में से एक सवाईभोज गुर्जरों के आराध्य देव मानते जाते हैं। इनके अलावा और भी कई स्थानों पर धार्मिक मेले एवं पशु मेले आयोजित होते हैं।प्रमुख पर्यटन स्थलमाण्डलगढ़ दुर्ग:-ऐतिहासिक माण्डलगढ़ दुर्ग जो अब जर्जर हो गया है, लेकिन अपने गौरवशाली अतीत की यादें आज भी ताजा है। यह दुर्ग आज अपने अस्तित्व को बचाने की उम्मीद में टिका हुआ है। भीलवाड़ा नगर से ५२ किलोमीटर दूर कोटा मार्ग पर अरावली पर्वत शृंखला के मध्य समुद्र तल से १८५० फिट ऊंचे लगभग एक किलोमीटर लम्बे व चौड़े पठारी भूभाग पर निर्मित यह दुर्ग सामरिक दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जाता रहा है। दुर्ग पर पहुंचने के लिए सात दरवाजों से होकर गुजरना पड़ता है। ऊपर बने महल ऐतिहासिक स्मारक तथा बस्ती अब खण्डहर में तब्दील हो गई है। दुर्ग की तलहटी में झालेश्वर जलाशय का नैसर्गिक सौन्दर्य आकर्षक है। यहां पर्यटकों के ठहरने के लिए सार्वजनिक निर्माण विभाग का डाक बंगला बना हुआ है जो रेलवे स्टेशन के निकट है।त्रिवेणी संगम:-माण्डल के पास त्रिवेणी संगम बनास, बेड़च व मैनाली नदी मिलकर संगम की संरचना करती है। यहां प्राचीन शिव मंदिर भी है। प्रति वर्ष शिवरात्रि पर यहां मेला लगता है।बिजौलियां का मंदाकिनी मंदिर:-जिला मुख्ख्यालय से ९० किलोमीटर दूर बिजौलियां का प्राचीन नाम 'विध्यवल्लीÓ था। यहां मंदाकिनी मंदिर परिसर आज भी अपने अस्तित्व को बरकरार रखे हुए है। यहां तीन प्रमुख मंदिर, एक जलकुण्ड है। मंदाकिनी मंदिर में महाकालेश्वर मंदिर, पार्वती, गणेश की प्रतिमाएं तथा विशा नंदीकेश्वर की प्रतिमा है। गर्भगृह में शिवलिंग है। मंदिर के शिखर की बनावट भी आकर्षक है। महाकालेश्वर मंदिर में एक हजार शिवलिंग उत्कीर्ण हैं। मंदिर परिसर में 'उण्डेश्वर मंदिरÓ स्थापत्य कला एवं मूर्ति शिल्प की दृष्टि से आकर्षक है। प्रवेश द्वार चार प्रस्तर स्तम्भों पर टिका है। ये स्तम्भ घट पल्लव एवं विभिन्न देवी-देवताओं की आकृतियों से अलंकृत हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तराशी गई लाजवाब मूर्तियां देखते ही बनती है। मंदिर परिसर में स्थित मंदाकिनी कुण्ड में बारह माह जल भरा रहता है। इसके अतिरिक्त निकट ही प्राकृतिक चट्टानों पर उत्कीर्ण शिलालेख एशिया का सबसे बड़ा बड़ा शिलालेख है। यह १९ फुट ३ इंच लम्बा, ५ फुट ८ इंच चौड़ा है जिस पर ९२ श्लोक संस्कृत व प्राकृत भाषा में उत्कीर्ण है। एक अन्य चट्टान पर 'उन्नत शिखर पुराणÓ नामक दिगम्म्बर जैन काव्य ग्रन्थ उत्कीर्ण है। मंदिर परिसर में ही सफेद संगमरमर से निर्मित 'मान स्तम्ंभÓ दूर से ही दिखाई देता है। यहां की व्यवस्था एक निर्वाचित समिति श्री दिगम्म्बर जैन पाश्र्वनाथ तीर्थक्षेत्र कमेटी की देखरेख की जाती है।तिलस्वां महादेव:-माण्डलगढ़ तहसील का ऊपरमाल पठारी क्षेत्र में तिलस्वा ग्राम में स्थित तिलस्वा महादेव मंदिर का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी में हुआ था। मंदिर के सम्मुख विशाल जलकुण्ड है। कुण्ड के मध्य बावड़ी बनी हुई है। वहां तक पहुंचने के लिए पुल बना है। शिवरात्रि पर तीन दिवसीय मेला लगता है।जोगणिया माता:-राजस्थान-मध्यप्रदेश सीमा पर दक्षिण छोर स्थित जोगणिया माता मंदिर के प्रति क्षेत्र के लोगों में अगाध श्रद्धा है। नवरात्रि में यहां मेला भरता है। भीलवाड़ा से ७५ किलोमीटर दूर चित्तौडग़ढ़ जिले की सीमा में स्थित इस मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी का माना जाता है। यह पहले देवी अन्नपूर्णा का मंदिर था। अभी इस शक्तिपीठ में महाकाली, महालक्ष्मी और मां सरस्वती की प्रतिमाएं है। सामने भैरव का स्थान है। परिसर में दो शिवालय भी हैं। हरीतिमाच्छादित पहाडिय़ां और पास ही बहते झरने के कारण यह तीर्थस्थल पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है।मेनाल घाटी, मंदिर और जल प्रपात:-भीलवाड़ा-कोटा मार्ग पर माण्डलगढ़ से करीब १८ किलोमीटर दूर ऊपरमाल पठार के दक्षिणी पश्चिमी छोर पर मेनाल के मंदिर, मेनाल घाटी और जलप्रपात पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यहां के मंदिरों का निर्माण बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी में हुआ था। यहां का महानालेश्वर मंदिर उत्क्ष्ठ मूर्तिशिल्प का बेजोड़ नमूना है। महानालेश्वर मंदिर की बाहरी दीवारों पर उत्कीर्ण देव देवांगनाएं अप्सराएं यक्ष किन्नर, द्वारपाल तथा नायक नायिकाओं के युग्म देखते ही बनते हैं। चारों ओर की दीवार पर सैंकडों मूर्तियां प्रतीत होती हैं। निचली पंक्ति में जुलूस, नर्तकियां एवं आखेट के दृश्य दर्शनीय है वहीं, ऊपर की पंक्ति में उत्कीर्ण मूर्तियां खजुराहो की अनुकृतियां लगती हैं। मंदिर के निचले छोर से शिखर के अंतिर छोर तक शिल्पकार ने छेनी-हथोड़ों से सौन्दर्य, रतिक्रिया, शृंगार, नृत्य, प्रेमी युगल आदि की प्रतिमाओं को बहुत ही सुन्दरता के साथ उकेरा है। महानालेश्वर मंदिर के निकट ही छोटे-छोटे देवालयो का समूह है जिनके शिखर ढह गए और गर्भगृह सूने पड़े हैं फिर भी इनकी बाहरी दीवारों पर मूर्तिकला के अवशेष तथा कलात्मक स्तम्म्भ तत्कालीन कला सौन्दर्य को इंगित करते है। मेनाल में वर्षा ऋतु में सुरम्म्य जलप्रपात के आकर्षण से यहां प्रतिदिन हजारों पर्यटक आते हैं। मेनाल घाटी के दूसरी तरफ रुठी रानी के महल एवं हजारेश्वर महादेव का मंदिर है, जिसका इन दिनों जीर्णोद्धार कार्यप्रगति पर है।जहाजपुर का दुर्ग:-भीलवाड़ा जिले की उत्तर-पूर्वी सीमा पर जहाजपुर का दुर्ग है। दुर्ग प्राचीन होने से अब खण्डहर में बदल रहा है लेकिन महल का अस्तित्व बरकरार है। सम्राट अशोक के पौत्र सम्प्रति ने इसका निर्माण करवाया था। यहां नागदी बांध, बारहदेवरा एवं गैबीपीर की मस्जिद भी दर्शनीय है।शाहपुरा की फड़ चित्रकला:-सरम्य झील जलाशयों, हरे-भरे बाग-बगीचों, राजमहलों, देवालयों,कुण्ड-बावडिय़ों और विश्व प्रसिद्ध फड़ चित्रकला के चितेरों का शहर शाहपुरा। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, पुरातत्ववेताओं, इतिहाकारों, धर्मप्रेमियोंतथा साहित्यकारों की नगरी शाहपुरा। भीलवाड़ा से ५५ किलोमीटर दूर जहाजपुर मार्ग पर बसा शाहपुरा वीर क्रांतिकारी बारहठ परिवार के कारण स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। अन्तरराष्ट्रीय रामस्ïनेही सम्म्प्रदाय का पीठ स्थल है। यहां बस स्टैण्ड चौराहे पर प्रसिद्ध क्रांतिकारी बारहठ बंधु केसरीसिंह, जोरावर सिंह तथा प्रतापसिंह की प्रतिमाओं का स्मारक बना हुआ है।रामद्वारा:- शाहपुरा का रामद्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ख्ख्याति प्राप्त है। रामस्ïनेही सम्म्प्रदाय के संस्थापक स्वामी रामचरण जी महाराज के समाधिस्थल पर बारहदरी बनी हुई है। एक सौ आठ स्तम्भ और चौरासी दरवाजे हैं। छत्र महल में १२४ खंभे हैं तथा सात प्रकार के सात झरोखे बनाए गए हैं। शाहपुरा में 'शाहपुरा बागÓ के नाम से एक हेरीटेज होटल है। इस होटल के आसपास का नैसर्गिक छटा, शांतिपूर्ण वातावरण तथा सघन पेड़ों एवं झील जलाशयों का सौन्दर्य जादुई आकर्षण लिए हैं।बनेड़ा का दुर्ग:-शांत सुरम्म्य पहाडिय़ों से घिरा कस्बाई गांव बनेड़ा। एक तरफ ऐतिहासिक महत्व का दुर्ग और दूसरी तरफ पर्यटन की दृष्टि से आकर्षक सरोवर। भीलवाड़ा-शाहपुरा देवली मार्ग पर स्थित बनेड़ा का अपना अलग इतिहास है। यहां एक गढ़ीनुमा दुर्ग पर बने प्राचीन महल आज भी मूल स्वरूप में है। समुद्र तल से १९०० फुट ऊंची पहाड़ी पर तत्कालीन जागीरदारों द्वारा बनवाए इस महल के चारों तरफ दोहरा-तिहरा परकोटा है। दुर्ग का निर्माण राजा सरदारसिंह ने करवाया था। भीतर जो महल बने है वे मर्दाना महल, जनाना महल, मित्र निवास और कंवरपदा महल कहलाते हैं। राजा सरदार सिंह ने इस दुर्ग पर सरदार निवास महल बनवाया। यहां शीश महल, अमर निवास महल भी दर्शनीय है।मांडल का मिन्दारा:-ब्यावर मार्ग पर भीलवाड़ा से १४ किलोमीटर दूर मांडल पुरातत्व, इतिहास, धर्म व लोक कला का केन्द्र रहा है। माण्डल राव द्वारा माण्डल में बनाया गया विशाल तालाब प्राकृतिक सौन्दर्य की अद्भुत छटा बिखेरता है। पहाड़ी पर मिन्दारा बना हुआ है लगभग एक हजार वर्ष पुराने इस ऐतिहासिक मिन्दरे का पिछले वर्षों में जीर्णोद्धार करवाया गया। माण्डल-मेजा मार्ग पर बनी बत्तीस खम्भों वाली जगन्नाथ कछवाहा की छतरी अपने स्थापत्य सौन्दर्य के कारण अलग पहचान रखती है। कहते है कि मुगल सेना की एक टुकड़ी के सेनापति रहे राजा मानसिंह के काका जगन्नाथ कछवाहा के हल्दीघाटी युद्ध में घायल होने पर उसका माण्डल में निधन हुआ। जिस जगह दाह संस्कार किया गया वहीं यह छतरी बनाई गई।आसीन्द का सवाई भोज मंदिर:-भीलवाड़ा से ५५ किलोमीटर दूर आसीन्द में स्थित सवाईभोज मंदिर गुर्जर समाज का तीर्थ स्थल है। जिस स्थान पर सवाईभोज का पवित्र तीर्थस्थल है वो गोष्ठ दड़ावत कहलाता है। यहां राण के राजा दुर्जन शाल व बगड़ावतों के बीच युद्ध हुआ था। मंदिर के पास ही राठोड़ा तालाब है। सवाईभोज मंदिर में आने वाले दर्शनार्थियों को घाट और छाछ का प्रसाद दिया जाता है। हर वर्ष भादवी छठ और माघी सप्तमी पर यहां मेला लगता है।बदनोर का प्राचीन गढ़:-जिले का सीमान्त ग्राम बदनोर अपने गौरवशाली इतिहास के कारण पहचाना जाता है। पहाडिय़ों से जुड़े परकोटे से घिरा बदनोर दुर्ग कभी सामरिक दृष्टि से अति महत्वपूर्ण स्थान रखता था। यहां का भव्य सात मंजिला राजमहल अपनी दास्तां सुना रहा है। बदनोर पैलेस की प्रत्येक मंजिल और उनमें बने कुल १३० अनोखे छज्जे, गुम्ंबद युक्त झरोखे महल की भव्यता में चार चांद लगा देते हैं। इस भव्य दुर्ग में दीवाने आम, दीप निवास, रनिवास, राजनिवास, हाथी ठाण, घुड़शाला, तोपखाना, भंडार गृह, शस्त्र भण्डार, रसद भवन, जलागार, सैनिक आवास, महफिल खाना, सूरजपोल आदि दर्शनीय है। जनश्रुति के अनुसार परमार नरेश बदन ने ईसा से ८४५ वर्ष पूर्व बदनपुर या वरदनपुर गांव की स्थापना की जो बाद में बदनोर कहलाया। प्राचीन ग्रन्थों में कन्नोज नरेश हर्षवर्धन द्वारा इसकी स्थापना का भी उल्लेख मिलता है। बदनोर समय-समय पर चौहानों, परमारों और सोलंकियों के अधिकार क्षेत्र में रहा। बदनोर की पहाडिय़ों में एक ऊंची चोटी पर बेराठ माता का मंदिर भी दर्शनीय है।



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