होमियोपैथी का विज्ञान
अब हम विचार करेंगे मूल रूप से इस बुनियादी बात पर कि आखिर होमियोपैथी काम कैसे करती है और क्या उसका वैज्ञानिक रूप से कोई सिस्टम ढूँढा जा सकता है? काम करती है यह तो पक्का है, मगर कैसे? एलोपैथी में है न एक सिस्टम कि कहीं भी किसी को भी यदि बुखार हो तो celin और Crossin जैसी कुछ निश्चित दवाएँ देते हैं। ये दवाएँ कहीं भी कोई बुखार से पीड़ित हो और अगर दे दी जाएँ तो उसका शरीर ठंडा हो जाता है और बुखार उतर जाता है। इन दवाओं की एक निश्चित खुराक है 100mg की या 200 mg की या 50 mg की। बुखार की तीव्रता के अनुसार खुराक दे दी जाती है और बुखार ठीक हो जाता है। यानी थर्मामीटर से देखने पर शरीर का तापमान 102 डिग्री से घटकर 98 डिग्री तो अवश्य हो जाता है। लेकिन होमियोपैथी में ऐसा कोई सिद्धांत नहीं है, ऐसा कुछ तय नहीं है कि किसे किस दवा की कितनी शक्ति की कितनी मात्रा का कौन-सा डोज़ दिया जाए। कुछ चिकित्सक 10m से शुरू करते हैं; कहीं 6x में दवा दी जाती है, कहीं 30x में, तो कहीं 200x पोटेन्सी में दी जाती है। कहीं एक दवा दी जाती है, तो कहीं तीन फायदा कमोबेश सबसे होता है। तो इस पुस्तक के माध्यम से मेरा यही प्रयास होगा कि यह जो लापता बिंदु (missing point) है, इसे तलाशा जा सके। मुझे आश्चर्य होता है कि इतनी छोटी सी किंतु बुनियादी चीज़ कैसे छूट गयी! यह बुनियादी चीज़ अगर हम जान लें, समझ लें तो चमत्कार हो सकता है। पूरी मानव जाति की बीमारियों का 90 प्रतिशत होमियोपैथी दवा से ठीक किया जा सकता है। अभी जो एलोपैथी का जंजाल पूरे विश्व में फैला है, वह मनुष्य के जीवन की सारी कमाई हड़प लेने को आमादा है। यह सरासर पूरी मानव जाति के संसाधनों की डकैती हो रही है, जबकि इसकी कोई ज़रूरत नहीं है। जब भी मैं इन बातों पर सोचता हूँ तो मेरा मन भारी हो जाता है कि काश! होमियोपैथी में थोड़े और शोष किए जाते, जितने संसाधन एलोपैथी में शोध हेतु लगाए जाते हैं अगर उसका 100वां या 1000वां हिस्सा भी होमियोपैथिक शोष में लगाया जाता, या कुछ और लोगों को लगाया जाता तो सम्पूर्ण मानव जाति की कष्ट मुक्ति संभव हो सकती थी, साथ ही संसाधनों की डकैती की नौबत भी नहीं आती। मेरी समझ से यदि होमियोपैथी अपनाई जाए तो बहुत कम पैसों में, यहाँ तक कि 1000 रुपये में एक पूरे गाँव का इलाज हो सकता है। मेरा सिद्धांत यदि स्थापित हो गया, जो कि हो ही जाना चाहिए, तो मुझे लगता है कि गाँव के गाँव और नगर के नगर हज़ार-पाँच सौ रुपये में उपचारित हो सकते हैं। मानव जाति के लिए यह एक बड़ा मील का पत्थर साबित होगा।
होमियोपैथी कोई जादू-टोना नहीं है
जैसा कि मैंने आपको बताया कि किलिंग फोर्स को नष्ट नहीं किया जा सकता। ऐसी कोई तकनीक नहीं है जिससे इसको नष्ट किया जा सके। मगर भारत के ऋषियों ने कुछ ऐसी विधियाँ खोजी थीं जिनसे 70, 80, 90, 95 प्रतिशत अगर किसी शरीर में किलिंग फोर्स active है तो उसको बिना किसी औषधि के दस प्रतिशत तक लाया जा सकता था। होमियोपैथी भी ऐसा कर सकती है। और सिर्फ इंसानों के मामले में ही नहीं बल्कि पशु-पक्षियों के मामले में भी, क्योंकि पशु-पक्षियों के शरीर में भी किलिंग फोर्स ही बीमारी प्रकट करती है। अब यह और गूढ़ रहस्य हो गया पूरी मानव जाति और डॉक्टरों और वैज्ञानिकों के लिए। चलो मनुष्य पर तो जादू-टोना हो जाता है, पर जानवरों का क्या? मैं फिर कहना चाहता हूँ कि यह सारा खेल रोग के विज्ञान का है। सारा रहस्य सूक्ष्म शरीरों में छिपा है। रोगों की जड़ इन सूक्ष्म शरीरों में मौजूद किलिंग फोर्स के हथियारों में है। और होमियोपैथी सीधे जड़ पर वार कर देती है। जबकि ऐलोपैथी से कभी हम A शाखा में पानी देते हैं तो कभी B शाखा में, पर जड़ तो छूट ही जाती है। एलोपैथी हमारे शरीर को एक यूनिट के रूप में नहीं देखती है। उसके लिए शरीर का घुटना अलग है, हाथ अलग है, हड्डी अलग है। पर परमात्मा या प्रकृति ने ऐसा थोड़ी बनाया है, उसने तो एक बनाया है। इसलिए मेडिकल साइंस भी पूरे शरीर का एक होना चाहिए और दवा और डॉक्टर भी। मगर यहाँ तो विशेषज्ञ पर विशेषज्ञ, उस पर भी विशेषज्ञ। जाँच पर जाँच, उसकी भी जाँच। बाप रे बाप| जंजाल कर दिया है। रोग और बीमारी तो इतनी बड़ी समस्या हो गई है कि मानव जाति रोग से तो बाद में मरती है, उपचार और उपचार के तरीके से पहले मर जाती है। रोग से तो एक व्यक्ति मरता है, पर एलोपैथी के महँगे उपचार से एक पूरा का पूरा परिवार, एक पूरा का पूरा गाँव मर जाता है। इससे बड़ा कोई दुर्भाग्य हो नहीं सकता। मैं स्वयं आश्चर्यचकित हूँ कि इतनी छोटी-सी बात इतने बड़े-बड़े वैज्ञानिकों के दिमाग से छूट कैसे गई कि किलिंग फोर्स का सिस्टम हर प्राणी में लगभग एक सा है, इसलिए सिर्फ एक प्राणी पर प्रभाव का सिस्टम भी अगर विकसित कर लिया जाए तो उसी सिस्टम से सारे प्राणियों का इलाज हो सकता है।
मनुष्य, जानवर, तथा पेड़-पौधों के स्थूल शरीर देखने में भिन्न-भिन्न हो सकते हैं परन्तु सभी में जीवन शक्ति के रूप में वाइटल फोर्स ही काम करती है और किलिंग फोर्स ही सभी में रोगों की जनक है। और विश्व में अभी तक होमियो दवा ही किलिंग फोर्स की जटिलताओं और संरचनाओं को नष्ट कर सकती है। इसलिए होमियो दवा मनुष्य, जानवर, पशु-पक्षी इत्यादि सर्वो पर काम करके उन्हें निरोग करती है। यही इस पैथी की सुंदरता है।
तो चलिए, मोटे तौर पर तो बात हो गई। किलिंग फोर्स के बारे में कुछ बातें मैं जानबूझकर अभी छोड़ रहा हूँ। मुझे नहीं लगता कि यह उचित समय है इस पर चर्चा करने का, अन्यथा जैसे हैनीमैन साहब को पागल घोषित करके पागलखाने में बंद कर दिया गया था, वैसे ही मुझे भी किसी पागलखाने में बंद कर दिया जाएगा। में पिछले 10 साल से इस पर सोच रहा था, विचार कर रहा था कि यह सब आपको बताऊँ या न बताऊँ। पिछले 10 साल से मैंने अंग्रेज़ी दवा नहीं खाई है और कुछ अपवादों की स्थिति को छोड़ दें तो मेरा शरीर आज भी पूर्ण रूप से कुशल है। परमात्मा और गुरुजनों की बड़ी कृपा है कि उन्होंने मेरा होमियोपैथी से परिचय करवा दिया और मेरी उत्सुकता इसमें बढ़ गयी। और अब यह इतना आसान मामला है जैसे बच्चे कैरम और लूडो खेलते हैं। इतना सटीक और उन्नत विज्ञान हमारे पास है, काश थोड़े से इसमें और रिसर्च होते, थोड़े से लोग और उत्सुक होते, थोड़ा सा और इस पर काम किया जाता तो मनुष्य जाति की दशा कुछ और होती। और मेरा दावा है कि यदि होमियोपैथी का विज्ञान ज्यादा विकसित हो जाता तो महामारी इत्यादि बड़ी बीमारियों को पुनः सर्दी-जुकाम, बुखार पर लाया जा सकता था। यह जो बीमारियों ने बड़ा विकराल रूप धारण कर लिया है, इसके लिए मुख्य रूप से मैं ऐलोपैथी को दोष देता हूँ। अगर होमियोपैथी पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता तो महामारियों को सर्दी-जुकाम, बुखार इस सब में परिवर्तित किया जा सकता था। ठीक है कि मरना हमारी नियती है, मगर इस तरह से घिस घिसकर, छटपटा-छटपटाकर पीड़ा और तकलीफ में मानव जाति नहीं परती।
होमियोपैथी किस तरह अलग है ? मान लीजिए आपको कोई बीमारी, जैसे टाइफाइड हो गया। शरीर में वाइटल फोर्स और किलिंग फोर्स की सेनाओं के बीच युद्ध शुरू हो गया। मान लेते हैं कि वाइटल फोर्स की सेना सफेद घोड़ों पर सवार है और किलिंग फोर्स की काले घोड़ों पर। तो काले घोड़े वालों ने सफेद घोड़े वालों पर वार किया, उनके system पर वार किया, और उनके क्षेत्र में घुस गए। जवाब में सफेद घोड़े वालों ने भी पलटवार करना शुरू कर दिया। अब तक हमें पता चल चुका है कि हम पर बीमारी का हमला हुआ है और हमने उपचार शुरू कर दिया है। क्या उपचार ? चूँकि हमें किलिंग फोर्स का तो पता ही नहीं है, हम तो केवल वाइटल फोर्स को ही जानते हैं और यह मानते हैं कि उसी की कमजोरी या आलस से हम बीमार पड़े हैं, इसलिए हम क्या करते हैं कि सफेद घोडे वालों को ही और चाबुक मारते हैं कि तुमको सोना नहीं है, तुमको लड़ना है। अब हमारी वाइटल फोर्स दोतरफा मार झेलने लगती है। किलिंग फोर्स का हमला तो हो ही रहा था, अब एलोपैथी दवाओं का प्रहार भी झेलना पड़ रहा है। जबकि होना यह चाहिए था कि कोई ऐसा सिस्टम होता जो काले घोडे वालों को मारता, उनको सजा देने की, उनको नीचे करने की कोशिश करता ताकि वाइटल फोर्स को सहयोग हो। लेकिन नहीं, हम तो सफेद घोड़े वालों को ही जीवन भर धक्के देते रहते हैं, उन्हीं पर चाबुक चलाते रहते हैं। इसीलिए एलोपैथी के उपचार के बाद हमारा शरीर निष्प्राण जैसा हो जाता है, क्योंकि दोतरफा मार की वजह से वाइटल फोर्स बेदम हो जाती है। यह मामला वियाग्रा की तरह ही है जो व्यक्ति में नई सेक्स ऊर्जा पैदा नहीं करती बल्कि जो बची-खुची क्षमता है, उसी को संग्रह करके बूस्टअप कर देती है। इससे होता यह है कि वियाग्रा की कुछ गोलियाँ खाकर अगर आप काम-क्रीड़ा करें तो उसके बाद आप महीनों तक सेक्स के काबिल नहीं रहते हैं क्योंकि आपकी सारी ऊर्जा चुक चुकी होती है।
ज़रूरत इस बात की है कि वाइटल फोर्स का कम से कम इस्तेमाल करके किलिंग फोर्स पर हमारा कुछ आधिपत्य स्थापित हो जाए, उसका कुछ सिस्टम हमें समझ आ जाए। अगर हम किसी भी सिस्टम से, किसी भी पैथी से किलिंग फोर्स पर आक्रमण कर पाएँ तब ही हमारी वाइटल फोर्स अक्षुण्ण रह पाएगी, जो कि हमारी रिज़र्व पावर, रिज़र्व आर्मी की तरह काम करेगी। यह काम केवल और केवल होमियोपैथी ही करती है।
होमियोपैथी की दवाएँ वाइटल फोर्स को छूती भी नहीं। वह तो एक कोने में खड़ी रहती है, तमाशा देखती हुयी, मजे लेती हुयी। मैं फिर से कहना चाहता हूँ कि वाइटल फोर्स का बीमारी उत्पन्न होने में कोई रोल नहीं है, वह तो छोटी-छोटी बीमारियों से लड़ने में, बिना दवा के लड़ने में हमारी सहायता करती है। इसलिए प्राचीन काल में हमारे पूर्वज कहते रहे कि छोटी-मोटी बीमारियों में दवा नहीं लेनी चाहिए और वो काफी कारगर विधि थी। छोटी-मोटी बीमारी हमें हरा नहीं पाती थी।
पर अब तो स्थिति ऐसी उलटी हो गई है कि मैं हँसता हूँ। सर्दी-जुकाम हुआ नहीं कि दवा ले ली, खाँसी हुई नहीं कि दवा ले ली। और तो और, पानी भी छान के पीते हैं। थोड़े दिन में नाक में फिल्टर लगाएँगे। साँस भी लेंगे फिल्टर कर के। धतू तेरी की। यह भी कोई ढंग हुआ जीने का। मुझे याद है कि हमारे गाँव में जो नदी बहती थी, उसी नदी में जानवर भी नहाते थे, चोबी कपड़ा भी चोता था, उसी में स्त्रियों बर्तन भी साफ करती थीं, उसी से घड़े भर कर पानी भी लाती थीं, लेकिन तब भी कोई बीमार नहीं होता था। और आज यह स्थिति है कि हम आगे का फिल्टर्ड पानी पीते हैं, फिर भी बीमार हो जाते
हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रकृति प्रदत्त जो भी चीजें हमारा शरीर ग्रहण करता है, उन सभी में के.एफ. और वी.एफ. दोनों विद्यमान रहती हैं। जबकि पानी या हवा को फिल्टर करने वाली आधुनिक मशीनों से स्थूल चीज़ों के साथ-साथ के.एफ. की ऊर्जा भी बाहर हो जाती है। और कई बार तो वी.एफ. वाली धनात्मक ऊर्जा भी बाहर हो जाती है। वैसे भी यदि किसी वस्तु से के.एफ. को निकाल दिया जाए तो उस वस्तु का वी.एफ. भी निष्प्रभावी हो जाता है और वह वस्तु बेकार हो जाती है, जैसा कि आरो और पानी को शुद्ध करने वाली अन्य मशीनों से होता है। इसलिए ऐसी चीज़ों का स्वाद भी खत्म हो जाता है। वस्तुतः आजकल की जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों एवं रासायनिक उर्वरक व कीटनाशकों वाली खेती, हाईब्रिड फसलों, मुर्गों एवं अंडों में प्रकृति प्रदत्त के. एफ. और वी.एफ. का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाता है। ऐसी चीजें स्थूल रूप से सुंदर अवश्य दिखती हैं मगर भीतर से विष की तरह होती हैं, जो हमें और हमारी आने वाली पीढ़ियों को तबाह करने की क्षमता रखती हैं। हमें इस बात को समझना चाहिए कि फसलों पर जो कीटों का आक्रमण होता है वह वास्तव में हमारे लिए एक वरदान की तरह होता है। प्रकृति अतिरिक्त कीटों के आक्रमण के माध्यम से उन सब्जियों व अनाजों की जीवनी शक्ति को .एफ रूपी परखती है, चुनौती देती है, ताकि जो कमज़ोर अन्न या फल या सब्जियाँ हैं वो नष्ट हो जाएँ और जिन्होंने के. एफ. से लड़कर अपना अस्तित्व बचाया है, वह पुष्ट एवं स्वस्थ खाद्य सामग्री हमारे उपयोग हेतु उपलब्ध हो। ऐसी सामग्री ही हमारे लिए जीवनदायनी होती है, न कि वह जिसकी रक्षा हम बाहरी रूप से करते हैं। बिल्कुल वैसे ही जैसे जंगल में एक शेर का वजूद हरिण एवं अन्य प्रजातियों को और विकसित, और मजबूत, और उन्नत करने के लिए जरूरी होता है। कल्पना करें कि किसी जंगल में शेर वगैरह मारक शिकारी जीव न हों तो शाकाहारी जानवरों का क्या होगा? वस्तुतः अपने शिकारी की मारक क्षमता हमें ज्यादा, और ज्यादा समुन्नत करती जाती है। अभी तक हमारा विज्ञान इतना उन्नत नहीं हुआ है कि अपनी प्रयोगशाला में प्राकृतिक चीज़ों से बेहतर खाद्य सामग्री या कोई जीवित चीज पैदा कर सके। क्योंकि जो मूल बात है, के. एफ. और वी.एफ. का समावेश और उसका बैलेंस, यहाँ तक हमारा विज्ञान अभी नहीं पहुँचा है। तो आज भी जहाँ प्राकृतिक खेती करके, यानी कि बिना रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों के उपयोग के (गोबर और कम्पोस्ट खाद का उपयोग करके) जो फसलें उगाई जाती हैं उनमें ज़्यादा स्वाद, सुगंध और ज्यादा ताकत होती है, अतः उनका उपयोग करना श्रेयस्कर होगा।
हमें जो रोज़ नई-नई बीमारियाँ होती हैं, उनमें के.एफ. और वी.एफ. का असंतुलन भी एक मुख्य कारण है। मगर हम परिणाम को देखकर भी सबक नहीं लेते हैं। हमें यह जान और मान लेना चाहिए कि हम प्रकृति और प्रकृति प्रदत्त चीजों से जितना दूर जाएँगे और कृत्रिम चीज़ों के उपयोग के जितने निकट आएँगे, उतना ही बीमारियों के चक्र में फँसते जाएँगे।
तो यह जो हम आधुनिक जीवन शैली को अपनाकर जीवन भर छोटी-मोटी बीमारियों से भी भागते रहते हैं, उसे देखकर किलिंग फोर्स हँसती है और हमारा पीछा करती है। अगर भागने का यह सिलसिला चलता रहा तो किलिंग फोर्स की तो बल्ले-बल्ले हो जाएगी। उसको तो कोई बड़ी बीमारी देने की नौबत ही नहीं आएगी, वो तो हमें सर्दी-जुकाम से ही मार डालेगी। इसलिए मैं आपको कहना चाहता हूँ कि जितना ज्यादा हो प्रकृति से जुड़कर जिएँ, तभी हम बीमारियों के जंजाल से दूर रह सकते हैं, जैसे एक आदिवासी या किसी सुदूर गाँव का कोई निवासी रहता है।
जैसे में अगर ट्रेन से दिल्ली जाता हूँ तो मिनरल वॉटर कभी नहीं लेता हूँ। ट्रेन अगर 10 स्टेशनों पर रुकती है तो मैं दस स्टेशनों का चलता हुआ ताज़ा पानी पीने की कोशिश करता हूँ। अरे भई, किसी खास शहर के लाख दो लाख लोग जब वही पानी पी रहे हैं और बीमार भी नहीं हो रहे हैं, तो हम वहीं पानी पीकर क्यों बीमार होंगे? हर वह चीज जिसका हम उपयोग करते हैं, प्रकृति ने उसमें दोनों ऊर्जाओं को रखा है- वाइटल फोर्स को भी और किलिंग फोर्स को भी। अगर हम इन दोनों ऊर्जाओं को एक साथ शरीर में लें तो हमारी किलिंग फोर्स अगर थोड़ी ज्यादा भी रहती है तो बाइटल फोर्स उसको संभाल लेती है और इस प्रक्रिया में खुद अधिक धारदार होती जाती है, तेज होती जाती है। ऐसा समझे कि आपने एक चौकीदार रख छोड़ा है। लेकिन छह महींना कोई चोर नहीं आया। चौकीदार तो वैसे ही खड़ा है। तो धीरे-धीरे चौकीदार सोने लगेगा कि चोर तो कोई आता नहीं है, मालिक मुफ्त के पैसे दे रहा है। इसलिए अगर चौकीदार रखा है तो छोटे-मोटे चोर-उचक्के तो आने ही चाहिए, तभी चौकीदार मुस्तैदी से ड्यूटी करेगा। वरना होगा यह कि छह महीना कोई चोर-उचक्का नहीं आया, चौकीदार सो गया, और फिर एक दिन कोई छोटा-मोटा चोर भी आकर आपकी तिजोरी साफ कर गया।
इसलिए इलाज के मामले में हमें वाइटल फोर्स की तो बात ही नहीं करनी चाहिए। वह तो हमारा दुलारा बेटा है, जिसे हम बहुत विषम परिस्थितियों में ही काम में लेंगे। उसको अभी आप अपनी रिजर्व आर्मी में रखिए। अगर आप बहुत धनवान हैं, आपका बच्चा बहुत बहादुर है, आपका नौकर भी बहादुर है, आपके पड़ोसी भी बहादुर हैं, तो लड़ाई के समय आप अपने बच्चे को पहले भेजेंगे या अपने नौकर या पड़ोसी या इधर-उधर के लोगों को? मेरा बच्चा बहादुर है, तो भी वह मेरा बच्चा है, वो तो जन्म से मृत्यु तक मेरे काम आएगा। लेकिन इस बात को पता नहीं आज तक कोई समझ क्यों नहीं पाया। आज तक हमने आँखों पर पट्टी बाँधकर हाथ में लाठी लेकर दुश्मन से लड़ाई की। इसलिए जब भी हमें कुछ हुआ, हमने अपने वाइटल फोर्स नामक दुलारे बच्चे को आगे कर दिया। इससे धीरे-धीरे हमारा बच्चा निस्तेज होता गया, हमने उसकी ऊर्जा को चूस लिया। वस्तुतः किलिंग फोर्स पर सीधे हमले का किसी पैथी के पास सिस्टम ही नहीं है।
लेकिन अब आँखों की पट्टी खोलकर लड़ाई का पूरा सिस्टम मैंने आपको बता दिया है।
होमियोपैथी से फायदा इसलिए हो जाता है क्योंकि अनजाने ही सही, पर वो वाइटल फोर्स को टच भी नहीं करती है। वह सीधे चौथे शरीर में स्थित किलिंग फोर्स पर हमला करती है। परन्तु इसमें सफलता के लिए भी होमियोपैथ के पास एक विजन होना चाहिए कि किस तरह लक्षणों के हिसाब से किलिंग फोर्स और उसकी संरचना को पकड़ सकें।।
जैसे मुझे तो कई बार मरीज़ को देखकर ही दवा सूझ जाती है। हालाँकि मुझे पता नहीं कि यह कैसे होता है, पर मुझे मरीज को देखके लगता है कि इसके अमुक शरीर में रोग की, यानी कि किलिंग फोर्स की कुछ जड़ है। होमियोपैथी सिस्टम इसी जड़ पर काम करता है, जबकि एलोपैथी शाखाओं पर काम करती है। यदि किसी पेड़ की दस शाखाएँ सूख रही हो तो दसों शाखाओं पर पानी डालने से कुछ नहीं होगा, पर यदि जड़ों में पानी डाल दिया जाए तो दसों शाखाएँ हरी हो जाएँगी। होमियोपैथी यही करती है। लोगों को लगता है कि होमियोपैथी वाइटल फोर्स को जागृत कर देती है, पर नहीं, यहीं पर चूक हो रही है, यहीं मैं कहना चाहता हूँ कि होमियोपैथी वाइटल फोर्स को छूती भी नहीं है, वह तो किलिंग फोर्स के सिस्टम को समझकर उसे नष्ट करती है। होमियोपैथी ही एक ऐसा सिस्टम है जो रोग के लक्षणों को रोग के रूप में नहीं बल्कि किलिंग फोर्स की संरचना के रूप में लेता है। जैसे- मेरा शरीर अभी गर्म हो रहा है, मुझे बुखार हुआ है तो यह एक लक्षण हुआ। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि के एफ द्वारा हमारे शरीर में की गई एक संरचना है। ये किलिंग फोर्स के सिस्टम ने कुछ लक्षण शरीर पर दिए। यह किलिंग फोर्स ने शरीर की प्राकृतिक व्यवस्था ( natural system) को भंग (disturb) कर दिया है, बस। अब जरूरत इस बात की है कि कैसे किलिंग फोर्स के उस सिस्टम को निष्प्रभावी कर दिया जाए। इसमें वाइटल फोर्स का रोल कहाँ है, आप बताइए जरा? जैसे बरसात में कोई भीग गया और उसको बुखार हो गया, तो होमियोपैथी में हम उसे 'इलकामारा' दे देते हैं और वो ठीक हो जाता है। क्यों? क्योंकि होमियोपैथी में रिसर्च के द्वारा उन्होंने एक सिस्टम पैदा करके देख लिया कि पानी में भीगने के कारण जो बुखार होता है, उसमें किलिंग फोर्स की एक विशेष ऊर्जा और संरचना काम करती है। उस संरचना को उन्होंने इस दवा से निष्प्रभावी (neutralized) कर दिया। किस संरचना को कौन-सी एंटी-फोर्स या पोटेन्सी से निष्प्रभावी करना है, यह सारा विषय होमियोपैथी का है। ध्यान दीजिएगा कि मैंने एंटी-फोर्स कहा, दवा नहीं। होमियोपैथी में दवा तो होती ही नहीं है, केवल पोटेन्सी होती है, और पोटेन्सी का मतलब है फोर्स, पानी कि ताकत। यह जो ताकत-ताकत की लड़ाई है। इसमें एलोपैथी ने केमिकल और इंजेक्शन देकर मनुष्य शरीर को कबाड़ा कर दिया है। उन्होंने हैजा और चेचक आदि का टीका बनाया, पर इससे किलिंग फोर्स को क्या मतलब है। वो दूसरा उससे मारी सिस्टम देगी आपके शरीर पर वस्तुतः जब आप किसी बीमारी का टीका बनाते हैं तो उबलती हुई केतली के ढक्कन पर एक और पत्थर रखते हैं। फलतः केतली का ढक्कन ही उड़ जाता है। अब आप भुगतिए।
इस तरह कहानी हैजा, कॉलरा, मियादी बुखार से होकर हैपेटाइटिस बी, कैंसर, तथा एचआइवी-एड्स पर आ गयी। अगर हमने किसी बीमारी का टीका ईजाद कर लिया तो इससे हमारी किलिंग फोर्स नष्ट थोड़ी हो जाएगी। उसे तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा, वो तो केवल हमारी मूर्खता पर हँसेगी कि उस पर वार नहीं हो रहा है। वह तो उन बीमारियों को अपना छोटा-छोटा मुख्यालय बनाकर उन पुलों पर भारी वाहनों में हथियार भर कर हमें मार देगी। उस समय कोई ऐलोपैथी दवा या टीका नहीं काम करता है। मेडिकल साइंस की जो तरक्की है, उसे देखकर बहुत अफसोस होता है। इससे तो बढ़िया था कि ये टीके बनते ही नहीं और हम चेचक व हैजा से ही लड़ते होते।
मैं यह सब देखकर बहुत अफसोस करता हूँ कि काश! मेरे पास और उपकरण होते, कुछ और लोग होते, कुछ फण्ड होता। अगर होमियोपैथी में थोड़ी रिसर्च, थोड़े लोग आ जाएँ, थोड़ी फंडिंग हो जाए तो कमाल हो सकता है। मैं फिर से कहता हूँ कि जिस होमियोपैथी एवं नोसोड को पश्चिमी देशों ने तिरस्कृत करके रखा है, उससे इस मानव जाति के रोगों पर चमत्कार किए जा सकते हैं। जितनी भी नोसोड हैं, वे किलिंग फोर्स के एक-एक ब्रिज को तोड़ने के लिए जरूरी हैं। और मान लीजिए कोई सेना 10 किलोमीटर आगे आ गई और उसकी रसद पीछे से आती है, खाना पीछे से आता है, ऊर्जा पीछे से आती है, सारा कुछ उसको पीछे से आता है, और हमने 10 किलोमीटर पहले के उसके उस पुल को ही तोड़ दिया, तो आप ही बताइए कि उस सेना का क्या होगा? मेरा स्वयं का भी अनुभव है कि नोसोड से जितनी भी बड़ी बीमारियों हैं, जिनको हम बोलते हैं भयंकर बीमारी, उनमें से ज्यादातर में किसी अन्य दवा की जरूरत नहीं है, उनमें से 90 प्रतिशत बीमारियाँ होमियोपैथी के नोसोड से ठीक की जा सकती है यह मेरा दावा है। में ठीक करके बता सकता हूँ। इसलिए मैंने आपको कहा कि नोसोड मानव जाति के इतिहास में सबसे बड़ा आविष्कार है। तीन पीढ़ी पहले आपके पूर्वजों में जो बीमारी थी, आप उसको लेकर आए हैं, जिसको कहते हैं आनुवंशिक बीमारियाँ मेडिकल साइंस कहती है कि आपकी जेनेटिक्स में दिक्कत है। पर एक छोटी-सी नोसोड दवा से सारी दिक्कत सही हो जाती है।
मैंने ऐसे कई मरीजों को दवा दी है जिनके माता-पिता दोनों को कैंसर था। उनमें से 5-10 प्रतिशत लोगों में कुछ नहीं हुआ। इसका मतलब कि कैंसर के जीन उनमें नहीं थे। कैंसर के वॉयरस उनमें नहीं थे। उनकी किलिंग फोर्स के पास कैंसर के मिसाइल नहीं थे। मगर 90 प्रतिशत रोगियों के शरीर ने रिस्पॉन्स दिया। नौसोड के बाद यदि आपके शरीर ने रिस्पॉन्स दिया तो समझिए आपकी तो लॉटरी लग गई। आप यूँ समझो कि भविष्य में होने वाली बड़ी बीमारियों को एक-एक नौसोड से आप नष्ट कर सकते हैं। उसके बाद आपको सर्दी-जुकाम होगा, छोटी-मोटी बीमारियाँ आती रहेंगी।
इसलिए मैं विश्व के सारे संगठनों से यह माँग करता हूँ कि एलोपैथी के सारे ठिकानों को बैन कर दिया जाए और होमियोपैथी की नोसोड दवाओं को और और विकसित किया जाए। इस तरह से हमारे पास एक उन्नत किस्म की होमियो की तकनीक और विज्ञान होगा। के.एफ. की हजारों प्रकार की संरचनाओं का संग्रह मेरी दृष्टि में भविष्य के मटेरिया मेडिका में होने वाला है, क्योंकि अब आप जानते हैं कि रोग और उपचार का यह खेल वस्तुतः के.एफ. की निगेटिव घातक संरचनाओं और होमियो दवाओं की पॉजिटिव जीवनदायनी ऊर्जा की संरचनाओं का खेल मात्र है। इन दोनों के बीच में हमारा शरीर गति करता है।
एंटी वायरस है होमियोपैथी
होमियोपेथी मानती है कि बीमारी को ठीक नहीं करना है बल्कि शरीर का correction करना है। किलिंग फोर्स ने जो अप्राकृतिक सिस्टम पैदा कर दिए है, बस उनको correction या सुधार करना है। इसलिए होमियोपैथी और इसकी दवाएं शरीर का इलाज नहीं करती, क्योंकि रोग जैसी कुछ चीज़ वस्तुतः होती ही नहीं। यो तो हमारे शरीर रूपी कम्प्यूटर में के एफ. ने कुछ वायरस पैदा करके शरीर के प्राकृतिक लक्षणों को अप्राकृतिक कर दिया होता है। होमियों की स्वाएं एंटी वायरस का काम करके पूरे सिस्टम का कलेक्शन कर देती हैं। जैसे पहले के ज़माने में सेठ लोग मुनीम रखते थे, जो लम्बे-लम्बे बही-खाता व रोजनामचा वगैरह लिखते थे। उसमें यदि रोजनामचा के पन्ने में किसी लेन-देन के लिखने में कोई गड़बड़ी हो जाए तो उससे खाता और आगे के सभी खाते के लेखों में, जैसे- लाभ-हानी खाता, ट्रॉयस बैलेंस खाता इत्याि सब में गड़बड़ी हो जाती थी। और अगर हमें उसमें सुधार करना होता था तो सारी जगह जाकर कटिंग करनी होती थी। निःसंदेह यह मामला काफी मुश्किल भरा होता था। यही ऐलोपैथी है। हर जगह काट-छाँट और सुधार। परन्तु बात कुछ बनती नहीं, बात कुछ जमती नहीं। उसके बाद 'टैली' नामक अकाउंटिंग सॉफ्टवेयर आ गया। इसमें अगर जनरल एन्ट्री में कोई गड़बड़ी हो गयी तो हमें सारी जगहों पर सुधार करने की आवश्यकता नहीं होती, केवल एक जगह सुधार कर दिया जाए तो आगे के सारे खाते, सारे विवरण ऑटोमेटिक रूप से सही हो जाते हैं। यही होमियोपैथी है। यानी दूसरे-तीसरे-चौथे शरीर के रोगों को यदि होमियो दवा की पोटेंसी से ठीक कर लिया जाए तो स्थूल शरीर की सारी दिक्कतें अपने आप ठीक हो जाती हैं।
मगर मानव जाति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जहाँ वायरस 21वीं शताब्दी के हैं, वहीं यह एंटी वायरस हमारा 18वीं शताब्दी का है। हालाँकि मैं हैरान हूँ कि इतना पुराना एंटी वायरस होते हुए भी यह इतना असरदार और कारगर है कि आज के वायरसों से भी बखूबी पंजा लड़ाकर उनको चारों खाने चित्त कर देता है। काश! इस एंटी वायरस को किसी तरह से आज के होमियो से जुड़े लोग मेरे उस विज़न और दृष्टि से अपडेट कर लें जिसके बारे में मैंने पुस्तक के अंतिम अध्याय में लिखा है।
इस तरह से होमियोपैथी दवा को में इलाज के रूप में नहीं लेता। मैं उसको कहता हूँ कि उसने शरीर के सिस्टम को correct या दुरुस्त कर दिया। चिकित्सा के बदले correction या सुधार नाम मुझे ज्यादा बढ़िया लगता है। अरे, क्या हम बचपन में ठीक नहीं थे? तो अब के एफ. ने कुछ बिगाड़ कर दिया हमारे शरीर में, जिसे हमने होमियो दवा से दुरुस्त कर लिया या correct कर लिया, बस हनीमैन साहब सही कहते हैं कि इसमें रोग और उपचार कहाँ से आ गया। यह तो नाम ही डरावना लगता है और मामले को उलझा देता है। अगर पाँच साल पहले ठीक थे तो अब क्या हो गया? अब भी वही खा रहे हैं, वही पहन रहे हैं, वैसे ही रह रहे हैं, और अचानक पाते है कि हार्ट अटैक हो गया।
करेक्शन का सही तरीका यह मान के चलें कि किसी मरीज़ के 100 प्रतिशत रोगों या लक्षणों को ठीक नहीं किया जा सकता। आपको चाहिए कि अपने इलाज से ऐसी व्यवस्था करें कि छोटी-मोटी बीमारियाँ तो रह जाएँ परन्तु बड़ी बीमारियाँ ठीक हो जाएँ। तभी यह एक अच्छा इलाज माना जाएगा। जैसे होमियोपैथी में एक स्वर्णिम नियम है जिसे Hearing law of cure कहते हैं। इसके मुताबिक, 'बड़ी बीमारियों से और बड़ी बीमारियों में जाना घातक रोग होता है, जबकि बड़ी बीमारियाँ अगर छोटी-छोटी बीमारियों में परिवर्तित हों तो समझें कि हम निरोग हो रहे हैं।' जैसे मान लीजिए कि हमें कैंसर या तपेदिक या शुगर या ब्लॅड प्रेशर या घुटने में दर्द या कब्ज़ है। अब यदि किसी दवा के प्रयोग से ये बड़ी बीमारियाँ चली जाएँ और इनके स्थान पर दस्त चालू हो जाएँ, बुखार हो जाए, पेट में दर्द हो जाए, कन्धे में दर्द हो जाए, तो क्या यह अधिक श्रेयस्कर नहीं होगा? आपको तो खुश होना चाहिए, क्योंकि निचले तल की बीमारियाँ अगर ऊपरी तल में आती हैं तो इसका मतलब है कि शरीर में मौजूद किलिंग फोर्स के पुल-पुलिया ध्वस्त हो रहे हैं। और ध्वस्त चीजों का कबाड़ा कोई अपने पास नहीं रखता, उसको बाहर फेंक देता है तो ये जो छोटी बीमारियाँ हैं न, ये वास्तव में किलिंग फोर्स के ध्वस्त हुए पुल-पुलियों का मलबा ही है जिसे वह शरीर से बाहर फेंक रहा है। इसीलिए दस्त, बुखार, ज्यादा पसीना इत्यादि लक्षणों के बावजूद भी मरीज खुद को ज्यादा स्वस्थ, ज्यादा हल्का और ज्यादा निरोगी महसूस करता है। इस तरह के इलाज से कई बार बीमारियों के वे लक्षण भी विदा हो जाते हैं जो मरीज ने डॉक्टर को बताए भी नहीं थे। इस तरह के उपचार से यदि रोग सीधे कम होने की बजाए आरंभ में और बढ़ जाता है, तो उसे शुभ लक्षण माना जाता है। होमियोपैथिक इलाज इसी तरह होना चाहिए। शुरू में रोगों के लक्षण जितने आप बढ़ा सकते हैं, बढ़ाएँ। मरीज को इस तरह से समझाया जाए कि यह आपकी बेहतरी के लिए है, इससे आपका शरीर निर्भर होगा। इसलिए मैंने अपने उपचार एवं feedback में खास करके नोट किया है कि होमियोपैथी दवा से जिन मरीज़ों के लक्षण शुरू में बढ़ जाते हैं, बाहर से वो भले ही बुरे और बीमारी के लक्षणों से ग्रस्त दिखें, मगर अंदर से वे काफी स्वस्थ अनुभव करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि निचले शरीरों की बीमारियाँ उभरकर ऊपरी शरीरों में आती हैं। हमारा वास्तविक स्वास्थ्य कहीं अंदर है जबकि हम उसे ऊपर ऊपर खोजते रहते हैं। अब जैसे बाँह में दर्द हो रहा है। काटकर आप देखें बाँह, तो कुछ नहीं है। दर्द तो मस्तिष्क के किसी हिस्से में हो रहा है। उसका अंत करना जरूरी है। तो निचले तल की तकलीफ अगर ऊपरी तल में आती है तो संभव है कि ऊपरी तल पर जो भी उत्सर्जन मार्ग हैं नाक, मल द्वार, रोमछिद्र उनसे इन बीमारियों को बाहर निकाला जाए। इसलिए अगर कोई रोगी रोग के तात्कालिक लक्षण/लक्षणों को लेकर आए तो सबसे पहले ऐसे लक्षण चुनें जो बचपन में थे, भले ही अब वो ठीक हो गए हों। यह मान के चलें कि मरीज़ के शरीर में वे बीमारियाँ अभी भी मौजूद हैं। जैसे किसी को बचपन में चेचक हुआ था, पर अभी स्थूल शरीर में चेचक का कोई अंश आप नहीं देखेंगे। परन्तु मैं आपको कहना चाहता हूँ कि इस तरह की बड़ी बीमारियों के मारक प्रिंट के एफ. ने आपके दूसरे, तीसरे या चौथे शरीर के तलों में बचाकर रखें हैं जो भविष्य में बड़ी बीमारियों के लिए सहयोगी, उत्प्रेरक और पुल का काम करेंगे। के.एफ. की यह रिज़र्व मारक ऊर्जा आपके सूक्ष्म शरीरों में संग्रहित है जो भविष्य में कई बीमारियों को जन्म देगी एवं कई बीमारियों की तीव्रता को और बढ़ाएगी, और मृत्यु की अंतिम बेला में उसका अधिकतम रूप प्रकट होकर के एफ. के साथ संयुक्त होकर उसकी ताकत को कई गुणा और बढ़ा देगा। तो जब आप बचपन के इन लक्षणों के अनुरूप कोई नासोड देंगे और अगर उसके प्रिंट शरीर के भीतरी तलों में उपलब्ध हैं तो शरीर उसका जवाब देता है और ये प्रिंट दस्त के रूप में, सर्दी-खासी के रूप में शरीर के बाहर निकल जाते हैं। और अगर शरीर में इनका कोई प्रिंट नहीं है तो दवा कोई प्रतिकुल असर शरीर पर नहीं डालकर स्वयं ही प्रभावहीन हो जाएगी तो सही इलाज नहीं है जिसमें दवा देने के बाद अगले 24-48 घंटे में शरीर में कुछ लक्षण दिखें। भले अच्छे न दिखें, पर बुरे लक्षण जरूर दिखें, क्योंकि बुरे लक्षण दिखने का मतलब है कि दवा रूपी स्कैनर ने आपके शरीर से एक वॉयरस को बाहर निकाल दिया। यह आपके लिए खुशी मनाने की बात होनी चाहिए, न कि परेशान होने की।
होमियोपैथी दवा का निर्माण जिनको जिनको होमियोपैथी का पता है उनको तो पता ही होगा, पर मैं नये पाठकों के लिए थोड़ा बताना चाह रहा हूँ। होमियोपैथी दवा पहले मूल अर्क के रूप में तैयार होती है। फिर उस मूल अर्क का एक हिस्सा लेकर उसे नौ हिस्से अल्कोहल में मिलाकर शक्तिकृत करते हैं। इस तरह हमें यह 1X शक्ति की दवा प्राप्त होती है। फिर इस 1X दवा के एक भाग में नौ हिस्सा अलकोहल मिलाते हैं और उसको दस बार हिलाते हैं, तब हमें 2x शक्ति की दवा मिलती है। ऐसे 30X तक जाते-जाते दवा में से मूल अर्क का अंश पूरी तरह समाप्त हो जाता है और सिर्फ शक्तिकृत अलकोहल बाकी रहता है। इस तरह करते-करते जितनी ऊँचाई तक जाते हैं, उतनी दवा की पोटेन्सी या शक्ति बढ़ती जाती है। पोटेन्सी का मतलब है तीव्रता, यानी दवा की मारक क्षमता। जैसे 1X दवा अगर मान लें कि 10 सेंटीमीटर दूर तक जाती है, तो 2X दवा हो सकता है कि 25 सेंटीमीटर तक जाए। इसी तरह से 1m दवा हो सकता है कि एक किलोमीटर तक चली जाए रोगों के तलों में इसी तरह से हो सकता है कि 10m दवा 8 किलोमीटर तक चली जाए। जितनी high potency की दवा होगी, उतनी हमारे गहरे शरीरों में, अन्तस शरीरों में वो प्रवेश कर सकेगी। कैसे? क्योंकि जितनी पोटेन्सी बढ़ती जाएगी, उतना ही दवा का अंश कम होता जाएगा। 30X से अधिक पोटेन्सी वाली दवाएँ दवाएँ हैं ही नहीं, ये तो सिर्फ मारक क्षमताएँ हैं। और किलिंग फोर्स भी एक मारक क्षमता है।
होमियोपैथी के सिद्धांत
अब जानने की कोशिश करते हैं कि आखिर होमियोपैथी किन सिद्धांतों पर काम करती है। होमियोपैथी के जनक हैनीमैन साहब ने मुख्य रूप से तीन सिद्धांत प्रतिपादित किए थे
1) पहला सिद्धांत जो हैनीमैन जी ने दिया, वह है 'समः समम शमयति'। उनका मानना था कि समान चीज़ समान चीज़ का निवारण कर सकती है। इसीलिए उन्होंने यह सिद्धांत दिया कि शरीर में किसी बीमारी के जो भी लक्षण हैं; किस पद्धति से, कौन सी दवा से, किस तरह के उपाय से स्वस्थ व्यक्ति में वे लक्षण प्रकट किए जा सकते हैं, इस बात की खोज की जाए और फिर उसी दवा का इस्तेमाल रोग मुक्ति हेतु किया जाए।
2) दूसरा सिद्धांत उन्होंने दिया 'सिंगल रिमेडी/डोज़' या 'एक दवा/खुराक' का। उनका मानना था कि इलाज केवल एक लक्षण का नहीं बल्कि संपूर्ण प्रकृति का किया जाए, और इसके लिए दवा की प्रकृति मरीज़ की प्रकृति से मेल खानी चाहिए। उन्होंने बताया कि जैसे मनुष्यों का विशिष्ट स्वभाव होता है, वैसे ही दवाओं का भी होता है। जैसा मनुष्य का स्वभाव है, दवा भी यदि वैसे ही स्वभाव वाली हो तो ज्यादा कारगर होगी। ऐसी दवा उस रोगी की बीमारी के सभी लक्षणों पर वार करती है। यदि हम कोई एक दवा ऐसी ढूँढ पाएँ जो रोगी के शत-प्रतिशत शारीरिक, मानसिक व अन्य लक्षणों से मेल खाती हो तो उस रोगी की 100 प्रतिशत बीमारियाँ ठीक हो सकती हैं, बशर्ते रोगी का मियाज्म बदल न गया हो। दूध अगर दही में परिवर्तित हो गया तो उसे वापस दूध नहीं बनाया जा सकता। यह असली होमियोपैथी है। ऐसी दवा के लिए होमियोपैथी में एक खास शब्द उपयोग करते हैं- कॉन्स्टीट्यूशनल (constitutional) दवा यह दवा उस व्यक्ति के शरीर में मौजूद सभी रोगों का जीवन भर के लिए शमन कर सकती है, बशर्ते इसका प्रयोग सावधानी और सजगता से किया जाए।
आजकल के होमियोपैथ जो अंग्रेजी दवाओं की तरह एक बार में कई-कई दवाओं का उपयोग करते हैं, उनसे मैं कहना चाहूँगा कि होमियों की पैथी अंग्रेजी दवा से प्रभावित होकर खुद ही बीमार हो गयी है। होना तो यह चाहिए था कि एक मरीज की कई बीमारियों को हम एक दवा से, सिंगल डोज़ से ठीक करके मेडिकल विज्ञान को एक चैलेंज देते कि अगर आप शुद्धतम पैथी हैं तो एक दवा से रोगी की सारी बीमारियों के लक्षण ठीक करके दिखाएँ। मगर चूँकि होमियोपैथी के विज्ञान की जड़ें ही गायब थीं, केवल शाखाएँ और पत्ते दिख रहे थे, इसलिए विश्व में होमियोपैथी के किसी भी विशेषज्ञ को निशाने पर तीर चलाने का हुनर नहीं आ पाया। वे मोटे तौर पर आँखों पर पट्टी बाँधकर तीर चलाते रहे और उनमें से कुछ तीरों ने काम भी किया। होमियोपैथी में हमारा ज़ोर किलिंग फोर्स के पूरे सिस्टम को समझने पर होता है, न कि अलग-अलग लक्षणों का अलग-अलग उपचार करने पर। हम यह जानने का प्रयास करते हैं कि जितने तरह के अप्राकृतिक लक्षण शरीर में या मन में प्रकट हो रहे हैं, जो अस्वस्थ होने के पहले नहीं थे, वे कब प्रकट हुए, किस कारण से हुए, किस तरह से हुए। इस प्रकार पूरे सिस्टम को समझकर किसी ऐसी दवा की खोज की जाती है जो रोगी के दूसरे, तीसरे, चौथे शरीर के तलों में पहुँचकर वहाँ मौजूद Killing Force, जो 70 प्रतिशत, 80 प्रतिशत, 60 प्रतिशत पर है, उसको 20 प्रतिशत कर दे। यदि ऐसा हो जाए तो आप देखते हैं कि चामत्कारिक रूप से आप स्वस्थ हो गए और जितने भी लक्षण थे शरीर में बीमारी के, जिनके लिए आपको एलोपैथी के अलग-अलग विशेषज्ञों के पास जाना पड़ता, वे एक साथ ठीक हो गए।
3) हैनीमैन जी का तीसरा सिद्धांत है 'सही पोटेंसी या शक्ति का प्रयोग | अब मान लीजिए कि कोई दवा X ऐसी है जो x नाम के मरीज के स्थूल शरीर की प्रकृति से तो मेल खाती है परंतु मानसिक लक्षणों में थोड़ी भिन्नता है, तब? तब यही कि वह दवा केवल स्थूल तल के रोगों को दूर करेगी, मानसिक एवं भावनात्मक तल के नहीं। इस तरह की दवाओं को 30X पॉवर के नीचे की पोटेन्सीज, जैसे 2x से लेकर 24X तक, में अंग्रेजी दवा की तरह दिया जा सकता है। सामान्यतः चर्मरोग जैसे स्थूल शरीर के रोगों के लिए इन दवाओं को दिया जा सकता है। और मज़ा यह है कि ये फायदा कम या ज्यादा करें, मगर अंग्रेज़ी दवा की तरह न तो इनके साइड इफैक्ट्स होते हैं और न ये addiction बनती हैं। इसलिए होमियोपैथी में हम मानसिक लक्षणों पर जोर देते हैं और चाहते हैं कि दवा की स्थूल रचना के साथ-साथ दवा के मानसिक लक्षण भी मरीज़ से मेल खाएँ। इस तरह की दवा को 'हम बने तुम बने एक दूजे के लिए' वाली दवा कहते हैं, जो हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है। मुश्किल से एक से चार तक। और अलग-अलग दवा अगर मिल भी जाए तो उसकी potency हर व्यक्ति के लिए अलग-अलग हो सकती है। तो तीसरा सिद्धांत यह हुआ कि अगर मानसिक लक्षण मेल नहीं खाते तो दवा सिर्फ स्थूल शरीर के लक्षणों को दूर करेगी। ऐसी दवा acute रोगों के लिए, स्थूल शरीर के रोगों के लिए काम करेगी, वो भी आधा-अधूरा क्योंकि शरीर की किलिंग फोर्स का जो system है, यह उस पर पूरी तरह से फिट नहीं बैठेगी, या कहें कि दवा के शरीर में जो system है, रोगी का शरीर उसको आत्मसात नहीं करेगा। यह तीसरा सिद्धांत हो गया। यहाँ हम पोटेन्सी का गणित थोड़े विस्तार से समझ लेते हैं, फिर आगे बढ़ेंगे। जैसा कि मैंने पहले ही बताया, पोटेन्सीज़ वास्तव में मारक क्षमताएँ हैं, हथियार हैं। जैसे हथियार कम घातक से अधिक घातक की श्रेणी के होते हैं, वैसे ही पोटेन्सीज़ का भी है। 30X potency छोटा-सा अस्त्र हुआ, जैसे लाठी होती है। तो लाठी से कोई मरता थोड़ी है, बस एक पैर जख्मी हुआ, भवन का एक हिस्सा गिरा। 200x potency बंदूक की तरह है, जिससे हो सकता है कि एक बड़ा हिस्सा प्रभावित हो जाए भवन का 1m मान लो कि मिसाइल चला दिया। तो भी आधा हिस्सा गिरा। भवन बहुत बड़ा है। इसके आगे जो 10m और Cm है (या उससे भी आगे की दवा। मैं तो जानता भी नहीं कि कहाँ तक होता है। मुझे कभी प्रयोग करने का मौका ही नहीं मिला। अधिकतम 1m से ही बीमारी ठीक हो जाती है।), वो तो मान लो कि रॉकेट लॉन्चर ही चला दिया। साथ में यह ख्याल रखा जाए कि उन पुराने ब्रिजों को ज़रूर तोड़ दिया जाए जिनसे सेना को आगे रसद पहुँचती है। यह काम नौसोड करता है। कैसे करता है, अगले अध्याय में हम उस पर आएँगे। तो बीमारी जितनी बाहर हो, जितने उथले तल में हो, उतनी कम पोटेन्सी की दवा दी जाती है। मान लीजिए कि शरीर पर फोड़ा-फुंसी है या त्वचा की जो सामान्य बीमारियाँ हैं, उनके लिए हम 30x से कम ताकत की दवा देते हैं। अगर छोटा-मोटा सर्दी-जुकाम है, बुखार है तो हम 2x, 3x potency से लेकर 30x potency के नीचे की कोई दवा दे सकते हैं। यह दवा कोई बाहरी प्रभाव नहीं करती और इस दवा को एलोपैथी के रूप में हम ले सकते हैं जीभ पर। यह स्वादहीन दवा कोई दुष्प्रभाव नहीं छोड़ती, मगर तात्कालिक रोगों या acute diseases का नाश कर देती है। इसमें potency या ताकत कम होती है। एक-आप महीने में जो रोग हो गए, नए-नए जो रोग हुए, चाहे वो शरीर के भीतर से के.एफ. ने दिए या बाहरी वातावरण या अन्य लोगों या कारणों से हमारे के.एफ. के सिस्टम ने उन बीमारियों को अपने अंदर आकर्षित किया, तो उसमें मेरा मानना है कि 30x potency से ऊपर नहीं जाना चाहिए बल्कि 2x से लेकर 30x potency की दवा सही अंतराल पर प्रयोग करके देखना चाहिए। निश्चित रूप से मनोवांछित परिणाम आपको मिलेंगे।
लेकिन अगर आपको लगे कि KE का प्रिंट शरीर में थोड़ा गहरा है तो रोग के लक्षणों एवं मियाज्म के हिसाब से थोड़ी अधिक potency का चयन किया जा सकता है। लेकिन तब भी कम से कम क्षमता की कम से कम मात्रा दी जानी चाहिए। जैसे बचपन में चेचक हुआ था, तो अब वो तो काफी नीचे चला गया। तो इसको ठीक करने के लिए 30x से अधिक ताकत की दवा देनी होगी। कितनी अधिक, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि बीमारी कितने गहरे तल में चली गई है। जितनी गहरी गई होंगी, उतनी ही अधिक पोटेन्सी की दबा लगगी। जितनी जरूरत हो उतनी ही शक्ति की दवा लेनी चाहिए, और छोटी मोटी बीमारियों में तो लेनी ही नहीं चाहिए। छोटी-मोटी बीमारियाँ तो जैसे सेना शांतिकाल युद्धाभ्यास करती है या सेना को सुबह परेड पर लगाया जाता है, दौड़ाया जाता है, मॉकड्रिल कराई जाती है, वैसी होती हैं। और उसमें मेरे हिसाब से किसी तीसरे पक्ष को नहीं आना चाहिए। अगर किलिंग फोर्स छोटी-मोटी लड़ाइयाँ लड़ती है तो वाइटल फोर्स उसका सामना करे, उसके लिए ही तो वह बनी है। अरे, जैसे छोटे-मोटे झगड़े बच्चे करते हैं तो बड़े मज़ा लेते हैं न तो दवाओं का प्रयोग उस समय नहीं होना चाहिए मेरे हिसाब से। हाँ, अगर कोई बच्चा दूसरे बच्चे का सर फोड़ने लगे, तब हमें खड़ा होना चाहिए। जानवर भी दवा लेते हैं। कुत्ता अगर बीमार होता है, उसे अपच होता है तो वह कुछ पत्तियाँ खाता है। उसको पता है कि कौन-सी पत्ती खानी है और कब खानी है। और वो पत्तियाँ खाकर ठीक हो जाता है। जब तक ठीक नहीं होता तब तक पत्तियाँ ही खाता रहता है, खाना नहीं खाता। आप उसको मीट दे दो, बिरयानी दे दो, जंगली कुत्ता नहीं खाएगा, हाँ पालतू कुत्ता खा जाएगा। हमारे साथ रहने से उसका कुछ system खराब हो गया है। कहने का अर्थ यह कि दवा का न्यूनतम प्रयोग होना चाहिए। यह हैनीमैन साहब का विचार था।
इसलिए दवा का प्रयोग निचली शक्ति से शुरू करें। एक-दो बार 30x, फिर 200x, फिर 1m, यहाँ तक जाते-जाते आपको परिणाम मिल जाएँगे। परिणाम मिलते ही दवा बंद कर दें, क्योंकि अगर आप दुश्मन पर ज्यादा मिसाइलों का प्रयोग कर देंगे तो दुश्मन भी उन मिसाइलों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर सकता है इस बात का हमेशा ख्याल रखें। हमारे अचूक हथियार आकस्मिक स्थिति के लिए होने चाहिए, न कि आम स्थिति के लिए।
तो मूल रूप से यही तीन सिद्धांत महान हैनीमैन जी ने प्रतिपादित किए थे, जिनको याद करके श्रद्धा से मेरा सर झुक जाता है।
'अनुभव' नामक अध्याय में की है। मेरे मरीज़ जब कहते हैं कि “कमाल कर दिया यार, सोचा नहीं था कि ऐसे भी फायदा होता है। यह तो जादू की तरह गायब हो गया।" तो मुझे बड़ा मज़ा आता है, लगता कि वाह-वाह डॉक्टर हैनीमैन! यह तो आपका कमाल है, इसमें मेरा तो कुछ भी नहीं है।
विष से ही अमृत निकलता है
ये तीन सिद्धांत तो हो गए। इन सिद्धांतों से तो इस बात का खुलासा होता है कि होमियोपैथी किन सिद्धांतों पर खड़ी है। अब हम मूल बात पर आते हैं। मूल बात यह कि वास्तव में होमियोपैथी या इसकी दवाएँ काम कैसे करती हैं? इस बात का खुलासा आज तक कोई नहीं कर पाया है, क्योंकि आज तक कोई जान ही नहीं पाया कि ऐसा कैसे होता है। अब जब मैंने जान लिया है तो आपको भी बताना चाहता हूँ। ध्यान से सुनिएगा और समझने की कोशिश कीजिएगा, क्योंकि कोई भी नई बात एकदम से समझ नहीं आती। इसलिए पहले पूरी बात को सुन लीजिएगा और फिर उस पर सोचिएगा, प्रयोग करके देखिएगा, और तब कोई फैसला सुनाइएगा।
तो दोस्तो, होमियोपैथी दवाओं का निर्माण एवं उनकी प्रभावशीलता इस सिद्धांत पर आधारित है कि एक ही चीज़ में दो विपरीत चीजें समाहित रहती हैं। या यह कह लें कि दो विपरीत या धुर विरोधी मालूम होने वाली चीजें वास्तव में एक ही चीज़ के दो सिरे होते हैं। जैसे एक किनारे पर अगर अंधकार है, तो दूसरे पर उजाला। जैसे अमृत के साथ विष। जैसे रात का क्लाइमैक्स क्या है? रात के दूसरे सिरे पर क्या है? चमकता लाल सूरज और उसके दूसरे सिरे पर है डूबता सूरज, यानी अंधेरे की शुरुआत तो विष का दूसरा छोर अमृत है, और उसी तरह अमृत का दूसरा सिरा विष होगा। जब एक सिरे को, यानी कि विष को लगातार विखंडित किया जाता है, सूक्ष्मीकृत किया जाता है, तब एक समय बाद दूसरा सिरा यानी कि अमृत उपस्थित हो जाता है, जो कि सूक्ष्म या विशुद्ध ऊर्जा के रूप में होता है और जिसके औषधीय गुणों के उपयोग का नाम ही होमियोपैथी है।
जितनी भी रोगकारक या विषैली चीज़ों से बनी होमियोपैथी दवाएँ मैं देखता हूँ, जैसे आर्सेनिकम एलबम, लेकेसिस, तथा और भी इस तरह के बहुत सारे मेटल या जो विशुद्ध ज़हर हैं जिन्हें आदमी खा ले तो मर जाए, वो इतनी कारगर है, इतनी चामत्कारिक हैं कि शुरू में मुझे भी लगता था कि ऐसा कैसा हो सकता है कि जो जितना स्थूल रूप से प्रगाढ़ विव है, जो सिर्फ मौत देता है (जैसे कोबरा सांप के विष की एक बूँद से 25-50 लोग म सकते हैं), उसी विष को अगर शक्तिकृत या पोटेन्साइज़ कर दिया जाए, यानी कि होमियोपैथी की दवा में बदल दिया जाए, तो एक बूंद से सैकड़ों लोगों के प्राण बचाए जा सकते हैं।
यदि इस बात को आम जीवन में प्रयोग होने वाले पदार्थों के माध्यम से समझना चाहें तो मैं कहूँगा कि सैक्रीन से बढ़िया उदाहरण दूसरा नहीं मिलेगा। आधुनिक विज्ञान ने चीनी के बदले चीनी जैसा मीठा सैकिन बनाया है। यह सैक्रिन चीनी की तुलना में 200 गुणा ज्यादा मीठा होता है। यानी 200 किलो चीनी किसी चीज में जितनी मिठास की मात्रा उत्पन्न कर सकती है, उतनी मिठास की मात्रा 1 किलो सैकिन भी कर सकता है। लेकिन आपको शायद पता न हो कि मूल रूप में सैकिन को आलपिन में डुबोकर भी जीभ पर आप नहीं रख सकते हैं। क्यों? क्योंकि यह जहर से भी तीखा होता है। मगर इसका मीठापन सामने लाने के लिए इसको हम लगातार डाइल्यूट करते हैं, और एक ऐसा समय आता है जब हम उस तीखेपन के दूसरे सिरे पर मौजूद चीनी से भी 200 गुणी मिठास तक पहुँच जाते हैं। आज का विज्ञान भी अलग-अलग साँपों के विष से मुक्ति हेतु उन्हीं विषों से दवाओं का एंटीडॉट तैयार करता है। इसलिए विष से अमृत रूपी दवाएँ बिल्कुल तैयार की जा सकती हैं। यह अब एक स्थापित सत्य है।
शुरू में मुझे लगता था कि यह कैसा विरोधाभास है? आखिर विष को अमृत में कैसे बदला जा सकता है? लेकिन होमियोपैथी के मेरे प्रयोगों एवं स्वयं के अनुभव व निरीक्षण से यह बाद में मुझे समझ आया कि इस प्रकृति में कुछ में भी एक-दूसरे के विपरीत नहीं है बल्कि एक ही चीज़ के दो छोर हैं। वस्तुतः चीजें अलग-अलग नहीं हैं। जिन चीजों को हम अलग-अलग या विपरीत समझते हैं, वे आपस में संयुक्त हैं और एक ही चीज़ के दो सिरे मात्र हैं। जैसे छोर अमृत प्रकाश का उल्टा अंधेरा नहीं है, या सूर्योदय का उल्टा सूर्यास्त नहीं है। सूर्योदय के दूसरे छोर पर सूर्यास्त है और सूर्यास्त के दूसरे छोर पर उगता हुआ सूर्य है। इसी तरह से मैं कहना चाहता हूँ कि सबसे घातक विष का दूसरा कण होंगे। परन्तु वह उसका अति सूक्ष्म रूप होना चाहिए। या हम यूँ भी कह सकते हैं कि अमृत के अति सूक्ष्म कणों को या उसके इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और पॉज़ीट्रॉन को अगर स्थूल संघनित रूप में बदला जाए तो वे घोर विष की बूंद हो जाएँगे और फिर उसी बूँद को तोड़ते-तोड़ते उसके दूसरे छोर पर जाया जा सके, तो वह अमृत के महान कणों के रूप में परिवर्तित हो जाएगी। इस तरह हमें स्वस्थ रहने के लिए किसी अप्राकृतिक या वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में बनी रासायनिक चीजों की जरूरत नहीं है, प्रकृति की तरफ से हमें सबकुछ मिला हुआ है। जरूरत बस एक दृष्टि विकसित करने की है। यहाँ मेरा एक सुझाव यह है कि यदि हम आधुनिक प्रयोगशालाओं में वैज्ञानिक उपकरणों व तकनीकों की मदद से विर्षों व अन्य विषैले तत्वों का विखंडन करके, उनके अणुओं को तोड़ते-तोड़ते उनके आखिरी सिरों पर पहुँच जाएँ तो और बेहतर दवाइयाँ बन सकती हैं बनिस्बत अत्कोहल के द्वारा विखंडन की पुरानी विधियों के। अरे हाँ! वाइटल फोर्स और किलिंग फोर्स भी तो इसी सिद्धांत का उदाहरण हैं। वस्तुत: दोनों एक ही ऊर्जा के दो सिरे हैं।
यह अमृत (होमियो दवा) बनता कैसे है? तो आइए, इसमें थोड़ा और अंदर जाने की कोशिश करते हैं और यह देखते हैं कि स्थूल विष सूक्ष्मीकरण की प्रक्रिया से गुजरकर शक्तिकृत या पोटेन्साइज्ड होमियों दवा कैसे बनता है। इसका जवाब यह है कि जब हम 1 हिस्सा कोबरा के विष को 9 हिस्सा अल्कोहल के साथ मिलाकर हिलाते हैं तो अल्कोहल कोबरा विष का विखंडन करना शुरू कर देता है। मान लें कि कोबरा के जहर की एक बूँद के 10वें हिस्से में एक लाख अणु हैं। तो 1X पोटेन्सी बनाते समय जब जहर की एक बूँद के 10वें हिस्से में अल्कोहल मिलाते हैं तो वो 1 लाख अणु जो हैं वो अलग-अलग हो जाते हैं, संग्रहित या condenced नहीं रह पाते हैं। चलिए, मान लीजिए कि 1 लाख में से 50 हज़ार रह गए। अब इसके एक हिस्से को लेकर फिर नी हिस्से अल्कोहल में मिलाते हैं तो अणु और भी अधिक विघटित हो जाते हैं। इस तरह करते-करते ज़हर के, जो कि मारक क्षमता है, किलिंग फोर्स है, जो मौत देने वाला है, उसके जो मारक अणु हैं वे 1x में एक लाख की संख्या से 1m या 10m तक आते-आते कुछ 100 रह जाते हैं। इस तरह अंततः ज़हर दवा बन जाता है।
यह अमृत काम कैसे करता है ? अब ऐलोपैथी कहती है कि जब होमियो दवा में दवा है ही नहीं, तो फिर यह रोगों को किस तरह दूर कर सकती है? मैं कहता हूँ कि वस्तुतः हमारे पास अणुओं को जाँचने का विज्ञान नहीं है। यही समझने जैसा है कि जितने अणु कम होंगे, उतनी ही वो दवा अणु बम की तरह कारगर होती जाएगी मारक क्षमता में वैसे इसके दो स्पष्टीकरण मेरी समझ में आते हैं। दोनों ठीक हो सकते हैं या कम से कम एक तो ठीक होगा ही। पहला स्पष्टीकरण यह रहा
ऐसे समझें कि किलिंग फोर्स ने अपनी मारक शक्ति या ऊर्जा का उपयोग कर तीसरे या चौथे शरीर में एक अणुगत निर्माण किया, एक सिस्टम पैदा किया, जिसके लक्षण हमारे स्थूल शरीर में अलग-अलग अंगों में अलग-अलग बीमारियों के रूप में उभरे। उसने अपने सिस्टम से शरीर के अलग-अलग अवयवों पर अलग-अलग रोग के प्रिंट दिए, जबकि दूसरे-तीसरे-चौथे सूक्ष्म शरीरों में उसका सूक्ष्म विद्युत प्रवाह प्रवाहित हो रहा है जहाँ से वो ये सिस्टम, ये लक्षण पैदा करने की ऊर्जा भेज रहा है। बचपन से हुई सभी बीमारियाँ हमारे शरीर में कहीं न कहीं के. एफ. के पुल के रूप में मौजूद हैं, जिससे के.एफ. की ऊर्जा का मारक जाल हमारे शरीर के पूरे सिस्टम को प्रभावित कर रहा होता है। अब अगर कोई होमियोपैथी दवा, जिससे मरीज़ के मानसिक लक्षण एवं अन्य सारी संरचना मिलती-जुलती है, उसे दी जाए। उदाहरण के लिए, लेकैसिस जैसे- मरीज़ को कसे हुए कपड़े शरीर पर पसंद हैं और लेकेसिस के अन्य लक्षण भी अगर मिलते हैं, तो इसके आधार पर लेकैसिस दवा अगर उसको दी जाए एक बूँद या एक बूँद में 50 गोली तैयार करके एक छोटी सी गोली, जिससे कि अणुओं की मात्रा उसमें और कम हो जाए, तो वो एक गोली जो है वो सीधे चौथे शरीर में प्रवेश कर जाएगी, क्योंकि रोगी के शरीर और मन को लगेगा कि उसका कोई अपना प्यारा आ गया और वो, यहाँ तक कि चौथा शरीर भी, उससे मिलने को आतुर हो जाता है। फलतः रोगी का शरीर संपूर्ण रूप से उस दवा को रास्ता दे देता है। यह मामला कुछ ऐसा ही है कि जैसे AB समूह के रक्त वाले रोगी को AB समूह का ही रक्त चढ़ाया जा सकता है, किसी और ग्रुप के रक्त को शरीर स्वीकार नहीं करता। जैसे किसी व्यक्ति की बाईपास सर्जरी में उसके शरीर की ही रक्त वाहिनी नलियों को उसके शरीर में लगाया जाता है। या किसी के गुर्दे फेल होने की स्थिति में उसके रक्त संबंधी परिवार के ही गुर्दे लगाना सर्वोत्तम होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि हमारा शरीर किसी भी अंजान चीज के प्रति डिफेंसिव हो जाता है। उसे लगता है कि यह दुश्मन का आक्रमण है। दूसरी ओर मिलते-जुलते, अपने, या अपने जैसे किसी के प्रति वह बाहें फैलाए प्रेयसी की तरह आलिंगन करने को आतुर होता है। इसलिए होमियोपैथी में गलत दवाओं के प्रयोग से भी कोई नुकसान नहीं होता है क्योंकि शरीर उनको स्वीकार ही नहीं करता। यह एक अतिरिक्त सुविधा केवल होमियोपैथी के डॉक्टरों को उपलब्ध है। जबकि ऐलोपैथी में ऐसा नहीं है। उन्होंने अगर गलत दवा का उपयोग किया तो लेने के देने पड़ सकते हैं।
तो यह होमियो दवा के अणुओं के रूप में दी गई शक्ति या पोटेन्सी के. एफ. की संरचना या उसका जो एक infrastructure बना है, एक national highway बना हुआ है, उन्हीं संरचनाओं से होकर, उन्हीं पुल-पुलियों से होकर गुज़रेगी और उन्हें पूरी तरह से तहस-नहस करते हुए समस्त रोगों को विदा कर जाएगी। वह दवा बीमारी पैदा करने वाली ताकत की जड़ पर जाकर सीधे वार करेगी।
'दूसरे स्पष्टीकरण के मुताबिक मुझे लगता है कि वो दवा भी वैसे ही लक्षण कुछ समय के लिए शरीर में पैदा करना चाहती है जैसे किलिंग फोर्स पैदा करती है। इससे किलिंग फोर्स भ्रमित हो जाती है। एक नकारात्मकता अंदर से आ रही है और एक कृत्रिम नकारात्मकता हम बाहर से प्रायोजित कर देते हैं। एक बूँद लेकैसिस अगर 50 गोली में डाला जाए और दो गोली अगर हम जीभ पर रखें तो चूँकि उसमें दवा नहीं है बल्कि केवल विद्युत प्रवाह है लेकेसिस का, इसलिए वो सीधे प्रथम शरीर से होते हुए चौथे शरीर तक चला जाता है और रास्ते में के.एफ. के द्वारा उत्पन्न किए गए सारे भवनों व पुल-पुलियों को नष्ट कर देता है। जैसे गणित में नेगेटिव इनटु नेगेटिव बराबर पॉज़ेटिव हो जाता है, वैसे ही दो समान नकारात्मक ऊर्जाएँ संयुक्त होकर धनात्मक और स्वास्थ्य प्रदान करने वाली ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती हैं। और यह काम इतने सूक्ष्म रूप से होता है कि रात में बीमार से बीमार आदमी सोता है दवा लेकर, और जब सुबह उठता है तो अपने आपको स्वस्थ और बीमारी से मुक्त पाकर हैरान हो जाता है और कहता है, “अरे! कमाल हो गया। मैं तो स्वस्थ हो गया!!" यही होमियोपैथी की खासियत है कि हींग लगी न फिटकिरी और रंग आया चोखा।
दवा देने का सर्वश्रेष्ठ समय अब जब यह विज्ञान और के. एफ. की संरचना और सिद्धांत मुझे समझ में आ गया है तो मैं जब 200 से ऊपर पोटेन्सी वाली दवा, यानी high power की dose देता हूँ तो रात में सोते समय देता हूँ कि दवा लेकर सीधे बिस्तर पर सो जाना है। दवा लेने के बाद न टी.वी देखनी है, न कोई और काम करना है, सीधे सो जाना है। इससे दवा सचेतन मन के चंगुल से बचकर सीधे हमारे अचेतन मन के तलों के अंदर और अंतिम सूक्ष्म शरीर तक आसानी से प्रवेश कर जाती है और पूरी रात काम करती है।
एक और वजह यह है कि किलिंग फोर्स का सिस्टम भी रात में ज्यादा प्रभावी होता है। मैंने एक बार एक साँवली युवती को रात में सोते समय दवा दी थी। दिल्ली की युवती थी। मैं भेंट करा सकता हूँ। एक बूँद सल्फर दिया था। केवल एक बूंद उसे एलर्जी एवं अन्य ढेर सारी दिक्कतें थीं। चावल नहीं खा सकती थी। 18-20 साल की थी। मैंने रात को सोते समय उसे दवा दी और *सुबह चार बजे जब उसके कमरे में गया तो यह देखकर भौचक्का रह गया कि उसके चेहरे का साँवलापन गायब हो गया था। ऐसा लगा मानो एक ही रात में कायाकल्प हो गया हो। वह वर्षों से एक चम्मच चावल तक नहीं खा सकती थी, लेकिन उस रात के बाद उसे चावल खाने से कोई दिक्कत नहीं हुई। एक बूँद में उसकी बीमारी खत्म हो गई। कैसे हुआ? यह तो बिलकुल बच्चों का खेल है और विश्व जनमानस ने इसको अभी
तक कैसे नहीं समझा, यह मेरे लिए आश्चर्य का विषय है। सीधी-साफ बात है कि के.एफ. ने उस युवती के स्थूल शरीर से लेकर चौथे शरीर तक कुछ नकारात्मक संरचनाओं को जन्म दिया था। यूँ समझें कि उसका पॉवर हाउस तीसरे-चौथे शरीर में था। ऊर्जा वहाँ से आ रही थी और स्थूल शरीर के दस बिंदुओं पर रोगों के बल्ब प्रकाशित हो रहे थे। किसी पैथी ने बल्ब तोड़ने की कोशिश की तो किसी ने बोर्ड उखाड़ने की, जिससे पूरे शरीर में विद्युत का झटका लगा। मगर होमियो की दवा ने वस्तुतः तीसरे और चौथे शरीर में स्थित के.एफ. की संरचना रूपी पॉवर हाउस पर ऐटम बम चलाकर जड़ को ही उड़ा दिया।
होमियोपैथ का विज़न
एक बढ़िया होमियोपैथ वही है जिसके पास ऐसी पारखी नज़र हो कि वह स्थूल शरीर पर प्रकट हो रहे लक्षणों से ही किलिंग फोर्स के system को जान ले कि के. एफ. की कैसी व्यूह रचना शरीर में स्थापित है। वस्तुतः रोग तो स्थूल शरीर पर केवल के एफ. की ऊर्जा के प्रिंट होते हैं। के.एफ. की जड़ों से रोगों के पत्तों को खुराक मिलती है। इसलिए अगर के एफ. की जड़ों को ही नष्ट कर दिया जाए तो रोगों का नकारात्मक पेड़ सूख जाता है। महान हैनीमैन साहब के विज़न में यही था और इसलिए उन्होंने एक मरीज की कई बीमारियों के लक्षणों को देखकर एक दवा, यानी सिंगल डोज़ का नियम बनाया है। इस नियम को मद्देनज़र रखते हुए यदि कोई विजनरी होमियोपैथ के.एफ. की संरचना, जिसे हम रोगों की संरचना कह सकते हैं, का सही आकलन करके मटेरिया मैडिका के समुद्र मंथन के बाद अगर एक उपयुक्त दवा निकाल पाता है तो आज भी यह पैथी त्वरित प्रभाव से जादू का काम करती है, जैसा कि मैंने दिल्ली की उस पिंकी नाम की लड़की को दवा देने के बाद महसूस किया है। मेरे और भी कई परीक्षणों में ऐसा साबित हुआ है। किलिंग फोर्स रोग के जो भी दो-चार लक्षण स्थूल शरीर में दे रहा होता है, उन्हीं से हमें के.एफ. की संरचना को समझना होता है। यही मुख्य रूप से रिपर्टरी का काम है। एक विज़नरी होमियोपैथ मरीज़ के तात्कालिक लक्षणों के अलावा मरीज़ के अतीत की, यहाँ तक कि उसके पूर्वजों की भी बीमारियों का इतिहास पता करके, उसमें गहरे जाकर अगर के.एफ. की यानी दुश्मन की सेना की व्यूह रचना को परखकर एक या दो सही दवा चुन सकें और मरीज़ को दे सकें तो मरीज़ में आश्चर्यजनक सुधार के लक्षण दिखाई देंगे और मेरी जो स्वस्थ मनुष्य की परिकल्पना है, बीमार से बीमार आदमी को वैसी स्थिति में लाया जा सकता है।
परन्तु मैं देखता हूँ कि मटेरिया मेडिका में होमियो दवाओं का वर्णन काफी बचकाना है, जैसे एल.के.जी. या यू. के. जी की कोई किताब हो। होमियोपैथी की दवाओं का वर्णन वस्तुतः शरीर की एक यूनिट पर एक समय में उत्पन्न की गई के.एफ. की संरचनाओं के वर्णन के रूप में होना चाहिए। जैसे- दवा के जो वर्णन हैं, वे रोगों के लक्षण वाले बीमार मनुष्य की तरह होने चाहिए, न कि अंग्रेज़ी दवाओं की बीमारियों के नाम से मैं देखता हूँ कि आधुनिक मटेरिया मैडिका में होमियोपैथी की दवाओं की भी एलोपैथिक बीमारियों, जैसे टाइफाइड, मलेरिया, जोडिस इत्यादि के नाम से व्याख्या की गई है। यह गलत है। इसी तरह दवाओं के दिए गए शारीरिक व मानसिक लक्षण सैकड़ों साल पुराने हैं, तब के हैं जब मनुष्य सीधा-सरल होता था। लेकिन अब स्थिति बिल्कुल विपरीत हो गयी है। आज जैसा मनुष्य अगर किसी 200 साल पहले के डॉक्टर के पास जाता तो वे उसे सीधा पागलखाने या मनोचिकित्सक के पास भेजते। आज मनुष्य का अंतर्मन इतना चालाक, विषाक्त और बीमार हो गया है कि उसका उपचार किए बिना कोई बीमारी मूल रूप से ठीक करना संभव नहीं है। और दुर्भाग्य यह है कि एलोपैथी की स्थूल दवाएँ मनुष्य के स्थूल शरीर से ज्यादा गहरे नहीं जाती और इसलिए हमें मनोवांछित परिणाम नहीं मिल पाते।
वस्तुतः आज के वैज्ञानिक युग में भी होमियोपैथी 300-400 साल पहले के समय में अटकी पड़ी है। वे दवाएँ उस समय के सीधे-साधे मनुष्यों पर प्रयोग कर निर्धारित की गई थीं जबकि आज का मनुष्य बेहद जटिल है। इसलिए आज के वैज्ञानिक युग के परिप्रेक्ष्य में होमियो दवाओं की आज के मनुष्यों पर वैज्ञानिक विधि से प्रूविंग करके वर्तमान रोगों के लवाणों सहित बचपन के रोगों के लक्षणों एवं माता-पिता की बीमारियों के लक्षणों को भी समाहित कर नए सिरे से होमियोपैथी दवाओं का सजीव चित्रण करने की ज़रूरत है, जैसा कि मैंने श्री सत्यव्रत सिद्धान्तालंकार जी की पुस्तकों में कुछ-कुछ देखा है।
तो मैं बता रहा था कि एक विज़नरी होमियोपैथ की दृष्टि यहाँ तक होनी चाहिए कि किलिंग फोर्स ने बचपन से लेकर अभी तक कितनी मिसाइल इकट्ठी कर रखी हैं, कितने और कौन-कौन से ब्रिज बना रखे हैं; एक चेचक का, एक हैजा का, एक किसी और बीमारी का। यह दृष्टि यदि आपके पास आ जाए और आपको दिखने लगे कि किलिंग फोर्स का जो भवन निर्मित हुआ है उसका मुख्य खम्भा कौन सा है, उसकी मज़बूत और कमज़ोर ईंट कहाँ हैं और कहाँ कौन सी मिसाइल तैनात है, तो आप उस भवन को धराशायी करने में 100 प्रतिशत सफल होंगे। इसलिए ऐसा कोई मरीज़ नहीं हुआ जिसको मेरी दवा से फायदा न हुआ हो। मैं इलाज नहीं करता, मेरा हर इलाज, मेरा हर मरीज़ मेरे लिए एक शोध का विषय होता है। इसलिए मैं अक्सर असाध्य या जटिल बीमारियों को देखने में दिलचस्पी लेता हूँ, और मुझे इसमें बड़ा मजा आता है। इन बीमारियों को ठीक करना मुझे वीडियो गेम खेलने जैसा मज़ा देता है। और कई बार मरीज के मेरे पास आने के साथ ही मुझे दवा सूझ जाती है, यहाँ तक कि उसके लक्षण सुने बगैर। जैसे कि कान में किसी ने कह दिया हो कि फलां दवा देनी है। मुझे पता भी नहीं होता कि कौन-सा रोग, कौन-सा लक्षण उस आदमी को होगा, पर बाद में विश्लेषण के बाद वही दवा उभर कर सामने आती है और उसी दवा से मरीज ठीक हो जाता है।
किलिंग फोर्स की ठीक-ठीक व्यूह रचना को जानने की प्रक्रिया में एक कुशल होमियोपैथ रोगी से सैकड़ों सवाल करता है। सबसे कुशल होमियोपैथ मेरी समझ से वह है जो बखूबी यह तय कर सके कि उन लक्षणों में से किन-किन लक्षणों को ले, किन-किन को न ले, और किन-किन को मध्य में ले। परन्तु एक विज़नरी होमियोपैथ की कुशलता इसी में है कि मरीज के लक्षणों का समावेश सम्पूर्ण रूप से के. एफ. की सम्पूर्ण संरचना को समझने के लिए किया जाए। इसमें कभी-कभी मेरे देखे छोटे-मोटे लक्षण को पकड़ना और उसके अनुरूप दवा देना भी ज्यादा कारगर होता है। कभी-कभी तो माता-पिता और बचपन की बीमारियों को सीधे-सीधे देखकर दवा देना ज्यादा मनोवांछित परिणाम देता है। इसलिए मेरे देखे विजनरी कुशल होमियोपैच के लिए मानव मन की पकड़ शरीर की ऐनाटॉमी के ज्ञान से ज्यादा जरूरी है। तभी आप सही दवाओं का चुनाव कर सकते हैं। साथ ही उसे रोगी के मानसिक लक्षणों के आधार पर उसके व्यक्तित्व की जड़ों में जा पाने में भी कुशल होना चाहिए। निःसंदेह यह काम आसान नहीं है और इसके लिए धैर्य तथा पैनी नज़र की ज़रूरत होती है। मैंने देखा है कि इन्ट्यूटिव माइंड वाले होमियोपैथ इस मामले में अधिक कुशल होते हैं। लेकिन अधिकांश लोग चूँकि रोगी की के.एफ. की संरचना के अनुकूल एक सही दवा और उसकी सही पोटेंसी को नहीं ढूंढ पाते, इसलिए वे महान हैनीमैन साहब के सिंगल डोज़ और कॉन्सटीट्यूशनल दवा के सिद्धांत को गलत कहने लगते हैं और अपने खुद के ऐसे सिद्धांत बनाने की चेष्टा करने लगते हैं जो हल्के-फुल्के हों, सरल हों। और इसके परिणाम बहुत दुखदाई रहे हैं। इन्हीं वजहों से होमियोपैथी बदनाम हुई है। इसी तरह के होमियोपैथ्स ने एलोपैथी की तरह कई कई दवाओं का मिश्रण और एलोपैथी की तरह ही अलग-अलग रोग के लिए अलग-अलग दवा का चयन करना शुरू कर दिया है। यह सब देखकर मैं उदास हो जाता हूँ और मुझे लगता है कि महान हैनीमैन साहब की आत्मा अगर कहीं होगी तो उसे भी इस बात से अपार कष्ट होता होगा।
गलत दवा का चयन
मान लीजिए कि हमने मरीज़ को जो दवा दी, वह सही नहीं थी। तब क्या होगा? तब होगा यह कि मरीज को उससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि यदि वह मिसाइल मरीज के के एफ. की संरचना से मेल नहीं खाएगी, तो हवा में खाली चली जाएगी और उसका कोई असर मरीज पर नहीं होगा। इसलिए होमियोपैथी की दवा के कोई दुष्परिणाम किसी भी स्थिति में नहीं होते। और यह दवा सभी जीवों, यहाँ तक कि पेड़-पौधों पर भी असर डालती है क्योंकि समूचे ब्रह्माण्ड में जो भी जीवित है उसमें वी.एफ. और के एफ. दोनों रहेगा ही रहेगा। अंततः के.एफ. सारी चीजों का एक दिन नाश कर देगी, जिसे हम महाप्रलय का नाम देते हैं। फिर ये दोनों ऊर्जाएँ संग्रहित होकर महा विस्फोट करती हैं, जिससे दोबारा सृष्टि का सृजन होता है। यही बिगबैंग थ्योरी है। इस तरह परमात्मा या प्रकृति का यह खेल चलता रहता है। तो जितने भी सूर्य, चाँद, ग्रह, उपग्रह इत्यादि जीवित पिंड हैं, उन सबको एक दिन के.एफ. नष्ट कर देगी। अंतरिक्ष में ब्लैक होल्स इस के.एफ. के सुपर पॉवर घर हैं जो सारी सृष्टि को निगल सकते हैं। इसी तरह से जो वायु और अग्नि जीवनदायनी हैं, वे के.एफ. के प्रभाव में आकर ही सुनामी, बाढ़, भूकम्प, आगजनी, दावानल इत्यादि पैदा करती हैं। यहाँ तक कि ज्योतिष विज्ञान में अच्छे ग्रह एवं बुरे ग्रह या मनुष्य के अच्छे दिन या बुरे दिन के रूप में विभिन्न ग्रहों के प्रभाव को दर्शाने वाला जो विज्ञान है, वह भी वस्तुतः मनुष्य के जीवन पर के.एफ. और वी.एफ. ऊर्जाओं के प्रभाव को समझने की कोशिश है। यानी के. एफ. जब हमें विनष्ट करना या मारना चाहती है तो उसकी बाहरी शक्तियाँ भी विपरीत ग्रह बनकर हम पर सम्मिलित रूप से अघात करती हैं। इसलिए ज्योतिष के हिसाब से जब हम पर मारकेश की महादशा आती है, तो उस समय हमारे शरीर के अंदर के. एफ. की ऊर्जा ऐसी ही मारक बीमारियाँ उत्पन्न कर देती है। वस्तुतः के.एफ. की यह जटिल संरचना वास्तव में विस्मयकारी है कि यदि ज्योतिष के हिसाब से हमें 50 साल की उम्र में मारकेश की महादशा लगने वाली है तो हमारे अंदर के के.एफ को कैसे पता चल जाता है, जो ठीक उसी समय हमारे शरीर में जानलेवा घातक बीमारियाँ पैदा करके हमें मार देती है।
वृहद रूप से के. एफ. को शांत करने वाली सिर्फ होमियो दवा ही मौजूद है। थोड़े से प्रभाव इस पर योग, तंत्र, मुद्रा चिकित्सा, ऊर्जा चिकित्सा, डिवाईन हीलिंग, रेकी, एक्युपंक्चर या मैगनेट थैरेपी से डाले जा सकते हैं। इनमें से कुछ पद्धतियाँ के. एफ. की ताकत को नष्ट करती हैं और कुछ वी.एफ. की ताकत को बढ़ाने का काम करती हैं। इसी संदर्भ में यहाँ यह कहना उपयुक्त होगा कि ग्रहों के दुष्प्रभावों, यानी के एफ. के दुष्प्रभावों से मुक्त करने के लिए मंत्र शक्ति का विज्ञान भारत के प्राचीन ऋषि-मुनियों और साधकों ने ढूँढा था और बताया था कि एक विशेष समय में एक विशेष ध्वनि का अगर उच्चारण किया जाए तो वह एंटी के.एफ. शक्ति में परिवर्तित हो जाती है और जातक या रोगी के ऊपर के.एफ. के दुष्प्रभावों, यानी मारक दशा को कम या नष्ट कर देती है। फलस्वरूप मरीज़ या तो रोग मुक्त हो जाता है या जीवित रह जाता है, या कभी-कभी कम असर होने से मनुष्य मरता तो नहीं मगर कुछ लम्बी बीमारी के बाद ठीक हो जाता है। मेरे हिसाब से आज के परिप्रेक्ष्य में सभी ज्ञात उपकरणों को, जो के.एफ. पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं, साथ मिलकर, आधुनिक विज्ञान की तकनीकों का प्रयोग करके, तथा उन पर गहन शोध करके एक और समुन्नत विज्ञान को पैदा करने की ज़रूरत है। उससे ही पूरी मानव जाति को रोगों के इस महा दुष्चक्र से और संसाधनों की हो रही लूट से बचाया जा सकेगा।
तो जैसी कि हम चर्चा कर रहे थे कि अगर x रूपी बीमारी के लक्षणों की दशा में हमने होमियो की X दवा नहीं देकर Y दवा दे दी, तो मरीज का शरीर इस दवा को अनुकूल नहीं जानकार ग्रहण ही नहीं करेगा और वह दवा जीम पर ही रह जाएगी। इसलिए होमियो दवाओं के दुष्परिणाम या साइड इफैक्ट्स नहीं होते हैं। ये दवाएँ या तो काम करती हैं या नहीं करती हैं। और उसमें दवा तो है ही नहीं, इसलिए किसी बाहरी प्रभाव का सवाल ही नहीं है।
होमियोपैथी के साथ परेशानी
लेकिन अधिकांश होमियोपैथ क्या करते हैं? इलाज के नाम पर छह महीना-साल भर केवल प्रयोग करते रहते हैं। 'अच्छा, यह दवा दे कर देखते हैं। अच्छा, वह दवा दे कर देखते हैं। अब तो कई कई दवाओं का मिश्रण एलोपैथी की तरह चलने लगा है। असल में पैथी किसी को समझ में आती नहीं है। इसके सिस्टम की वैज्ञानिकता की तह में तो हम जाना चाहते ही नहीं हैं। इसीलिए तो जैसे एलोपैथी में एक मरीज को चार छड सिरप, गोली, विटामिन, इंजेक्शन सारे देते हैं, उसी तरह से अब होमियोपैथी में भी कई-कई दवाओं के मिश्रण दे दिए जाते हैं। अब चार दवाएँ एक साथ दे दी जाएँ तो कैसे काम करेंगी! तब तो शरीर में चार तरह के लक्षण पैदा होंगे। इसलिए मेरा विश्वास पारंपरिक होमियोपैथी में है, जिसमें एक बार में केवल एक कॉन्सटीट्यूशनल दवा की केवल एक खुराक का प्रयोग हो सकता है। यदि उससे काम पूरा न हो, तब ही दूसरी खुराक या दूसरी दवा का प्रयोग किया जाता है। यदि एक मिसाइल से किलिंग फोर्स का भवन पूरी तरह नष्ट न हो सके, तो ही हमें मिलते-जुलते दो-तीन मिसाइल दागने होंगे। हो सकता है कि मुख्य मिसाइल से आगे का हिस्सा तो गिर जाए पर पीछे और बीच का रह जाए, तब हमें कुछ सहायक मिसाइलें चलानी पड़ेंगी। रिसर्च द्वारा लोगों ने यह जाना है कि कौन सी दवा किसके सहायक के तौर पर काम करती है, या यह कि कौन सी दवा किसके पहले या किसके बाद अच्छा काम करती है। इन्हें 'त्रिक' दवा या 'follows well' दवा कहते हैं। मरीज़ के वर्तमान एवं पूर्व लक्षणों को ध्यान में रखकर मुख्य एवं सहायक मिसाइलों की खोज ही तो होमियोपैथी का विज्ञान है। इस विज्ञान को अगर सभी होमियोपैथ समझ लें तो सभी होमियोपैथी के सफल विशेषज्ञ होंगे।
अगर एक दवा से लाभ नहीं हुआ तो दो-तीन दवा तक दी जा सकती हैं। थोड़ा धैर्य रखकर एक बार पुनः मरीज़ के लक्षणों पर विचार कर लें। थोड़ा सा समय लगेगा, मगर मरीज़ निश्चय ही पहले से ज्यादा स्वस्थ अनुभव करने लगेगा और उसकी किलिंग फोर्स न्यूनतम जबकि वाइटल फोर्स अधिकतम स्तर पर आ जाएगी। कितना मज़ा आएगा उसके शरीर को, आप अनुमान करें। बड़ा आनंददायी है होमियोपैथी डॉक्टर बनना। मेरे सद्गुरुओं ने होमियोपैथी के रूप में मुझे एक अनुपम भेंट दी थी, फिर मेरी रुचि इसमें बढ़ती गई। मैं पिछले 10 साल से अध्ययन कर रहा हूँ, जानने की कोशिश कर रहा हूँ कि मामला क्या है, माजरा क्या है। यह किताब मेरे उसी जानने का परिणाम है।
सही दवा की कार्य-पद्धति
अब मान लें कि किसी ज्ञानी होमियोपैथ डॉक्टर ने मटेरिया मेडिका रूपी समुद्र का मंधन करके के एफ. की संरचना की बिल्कुल फोटो कॉपी जैसी दवा खोज ली और उसे मरीज के शरीर में प्रवेश करा दिया। फिर क्या हुआ? फिर यह हुआ कि वह दवा के एफ. के पूरे सिस्टम को तोड़ते हुए सीधे चौथे शरीर तक चली गई और आपको स्वस्थ कर दिया, आपकी किलिंग कोर्स को 60 या 70 या 80 से उठाकर 5 या 10 यूनिट पर ले आई। लेकिन सवाल यह उठता है कि कैसे? कैसे अचानक हमारा पूरा शरीर साफ-सुथरा (neat and clean) हो गया? कैसे अचानक हम स्वस्थ हो गए? इसके दो संभावित स्पष्टीकरण हैं। पहला तो यह कि negative X negative is positive, मतलब,
एक जैसी दो मारक शक्तियाँ मिलकर रचनात्मक ऊर्जा में बदल जाती हैं।
दूसरा यह कि किलिंग फोर्स मनुष्य के शरीर को नष्ट करने की, मारने की प्रक्रिया का श्रेय खुद लेना चाहती है। इसलिए जब कोई और ऐसा करने आता है तो वह वाइटल फोर्स के साथ संयुक्त होकर उससे लड़ने लगती है। आपात स्थितियों में के. एफ. प्रमित रहती है और अपना रोल बदलकर आपको पूर्ण सुरक्षा देती है। इसलिए आप सामान्य से दोगुनी रफ्तार से दौड़कर अपनी जान बचा लेते हैं, हालांकि बाद में आपको समझ नहीं आता कि आप इस रफ्तार से दौड़े कैसे? कभी-कभी ऐसा भी देखने में आता है कि लकवा लगा आदमी छह महीने से या छह साल से बिस्तर पर लेटा है और एक दिन अचानक भवन में आग लग गई, और वह लकवाग्रस्त रोगी अचानक दौड़कर बाहर आ जाता है। लोग पूछते हैं कि यार! तुम आए कैसे? लाया कौन? जब तक लोगों ने नहीं पूछा था, जब तक उसको स्मरण नहीं था कि लकवा लगा है, तब तक वो खड़ा है। जैसे ही लोगों ने पूछा, जैसे ही उसे याद आया कि 'अरे, मुझे तो लकवा है!" तुरंत गिर जाता है। लकवा फिर से वापस आ गया। क्या हुआ आखिर, सोचिए जरा। जब आग लगी और जान पे बन आई तब किलिंग फोर्स, जो लकवा दे रही थी, वो खुद वी एफ से संयुक्त हो गयी, इसलिए अचानक लकवा गायब हो गया। असल में किलिंग फोर्स भी तो हमें मारना चाहती है, चाहे किस्तों में हो या एक बार में हो, चाहे आधे शरीर में लकवा देकर धीरे धीरे तकलीफ देकर मारना हो या हार्ट अटैक देकर या ब्रेन का नर्वस सिस्टम फेल कर सीधे ही मार देना हो, उसको भी तो हमें नष्ट करना है न। इसलिए वो आग को इसका क्रेडिट नहीं देने वाली है। शायद उसका सी. आर. परमात्मा खराब कर दे कि उसने अपने काम में कोताही बरती। इसलिए आग से उत्पन्न खतरे के वक्त वो चट-पट वाइटल फोर्स से संयुक्त हो गई और आधे शरीर का लकवाग्रस्त मरीज अचानक से बाहर आ गया। अब वह बच गया। अब वह आग में जलकर नहीं मरेगा। खतरा टल गया। आपातकाल खत्म हो गया।
अतः किलिंग फोर्स का सिस्टम भी दोबारा चालू हो गया। इतनी छोटी-सी बात है, और क्या किलिंग फोर्स ने आपके शरीर में एक सिस्टम बनाया है। और आपने क्या किया कि उसी तरह की ऊर्जा लेकर उसी तरह का एक कृत्रिम सिस्टम तैयार कर लिया। आपने भी कोबरा के विष को शक्तिकृत कर के.एफ. जैसी एक एंटी के. एफ. फोर्स का निर्माण किया और उससे के.एफ. के सिस्टम को मारना शुरू कर दिया। तो किलिंग फोर्स प्रमित हो गई कि आखिर मामला क्या है, यह मेरे जैसी कौन-सी नई ताकत और आ गई? यह क्यों मार रही है? यह तो मेरा शिकार है। तो ये दोनों या तो लड़ती हैं या फिर किलिंग फोर्स की सेना भ्रमित होकर वापस अपने बैरक में, यानी कि दूसरे, तीसरे, या चौथे शरीर में चली जाती है। दूसरे शरीर में भी अगर चली गई तो हमारा स्थूल शरीर तो स्वस्थ हो गया। अगर तीसरे शरीर में लौट गई तो मानसिक रूप से भी हम स्वस्थ हो जाएंगे। जैसे- राजा की बेटी के मन में असफल प्रेम की पीड़ा थी, जिसकी वजह से उसके स्थूल शरीर में बीमारियों के लक्षण पैदा हो रहे थे। किलिंग फोर्स किसी भी घटना को हथियार बना लेती है, स्पॉट बना लेती है। उसे अपना काम करने के लिए कमजोर स्पॉट चाहिए होते हैं। जैसे आपका शरीर जल गया, तो जलन से होने वाली अन्य बीमारियों के प्रगाढ़ लक्षण किलिंग फोर्स पैदा करेगी। उसको एक स्पॉट मिल गया, एक मौका मिल गया। दुश्मन को तो मौका मिलना चाहिए न। तो फिर आप देखते हैं कि शरीर पर फफोले पड़ गए। उनमें पस आने लगा। कहने का मतलब है कि किलिंग फोर्स ने एक सिस्टम पैदा कर दिया। अब हमने मी वही सिस्टम कृत्रिम रूप से एक होमियो दवा से पैदा किया। किलिंग फोर्स अमित होकर बैरक में लौट गई। यदि केवल दूसरे शरीर में गई तो शारीरिक रूप से तो ठीक होंगे पर मानसिक रूप से पूरे स्वस्थ नहीं होंगे। जब तक उसे तीसरे चौथे शरीर में नहीं भेजा जाता और वहाँ से भी नष्ट नहीं किया जाता.. तब तक हम शारीरिक और मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ नहीं सकते। तो हैनीमैन साहब ने राजा की बेटी के लिए क्या किया? उन्होंने इगनेशिया देकर उसे शारीरिक एवं मानसिक रूप से पूर्णतः स्वस्थ कर दिया, जिसके चलते बुद्धि मान राजा ने हैनीमैन साहब और होमियोपैथी की ताकत को पहचान कर उन्हें कारागृह से निकाला और यथोचित पुरस्कार व स्थान दिया।
मैं समझता हूँ कि अब होमियोपैथी के कार्य-कारण का, कॉज़ एण्ड इफैक्ट का पूरा विज्ञान आपको समझ में आ गया होगा और आप जान गए होंगे कि कैसे होमियोपैथी एवं होमियो की दवाएँ मनुष्य की रोग जैसी संरचनाओं को स्कैन करके उसके नकारात्मक आवेग को स्थूल शरीर समेत सारे शरीरों से पूरी तरह बाहर ही निकाल देती हैं।
होमियोपैथी दवा आधुनिक संदर्भ में यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक होगा कि महान हैनीमैन साहब ने दवाओं के मानसिक लक्षणों का वृहद रूप से वर्णन किया है और यह ताकीद की है। कि मरीज के मानसिक लक्षणों का दवा के मानसिक लक्षणों से शत-प्रतिशत मेल कराया जाए। यह बात आज के संदर्भ में और भी अधिक प्रासंगिक हो गई है, क्योंकि आज का मनुष्य मानसिक रूप से ज्यादा प्रबल और शारीरिक रूप से पहले से कमजोर हो गया है। अब हम मस्तिष्क के तल पर, या दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्म शरीरों के तल पर अधिक जीने लगे हैं। इसके अलावा यह भी विचारणीय है कि किलिंग फोर्स का सबसे ज्यादा जोर सूक्ष्म शरीरों में ही होता है, इसलिए भी हैनीमैन व अन्य लोगों ने मरीज के मानसिक लक्षणों के आधार पर दवा देने पर अत्यधिक जोर दिया है। खासकर जो लोग मन के तल पर जीते हैं, उनके लिए इस तरह के मरीजों के स्थूल शरीर के लक्षणों पर थोड़ा कम ध्यान देते हुए उनके मानसिक लक्षणों का 100 प्रतिशत मिलान करके अगर दवा दी जा सके तो वह मनुष्य मियाज्म से होने वाली बीमारियों को छोड़कर 100 प्रतिशत ठीक हो सकता है, क्योंकि हमने बीमारियों के पत्ते नहीं काटकर सीधे बीमारी की जड़ ही काट दी। इसलिए आज के परिप्रेक्ष्य में मैं चाहूँगा कि विश्व के तमाम होमियोपैथ मरीज़ के मानसिक लक्षणों को बारीकी से परखें और मटेरिया मेडिका में दवाओं के मानसिक लक्षणों को आज के मनुष्य के मानसिक लक्षणों के परिप्रेक्ष्य में कई गुणा और उन्नत बनाएँ। अभी मटेरिया मेडिका में दिए गए मानसिक लक्षण एल.के. जी. कक्षा के स्तर के हैं,
जिनको अपडेट करने की ज़रूरत है।
कॉन्सटीट्यूशनल दवा आपको जानकर ताज्जुब होगा कि होमियोपैथी में हर आदमी के लिए एक खास दवा होती है, जिसको होमियो की भाषा में कॉन्सटीट्यूशनल मेडिसिन कहते हैं। यह दवा ऐसी है जैसे आपका कोई दूसरा प्रतिरूप हो। या इसको ऐसे समझें कि मान लीजिए आपके जीवन में 50 अच्छे लोग हैं, जो आपको प्रिय हैं। अब अगर आपसे कहा जाए कि इनमें से भी ऐसे लोगों को चुनिए जो बहुत अच्छे हैं, तो हो सकता है कि आपकी सूची में 25 नाम ही रह जाएँ। फिर मैं कहूँ कि इन 25 में से भी उनको चुनिए जो बहुत-बहुत अच्छे हैं, तो संख्या और कम रह जाएगी। इस तरह से करते-करते अंत में अगर आपको कहा जाए कि अब सबसे निकटतम, सबसे प्रीतिकर केवल एक मित्र या व्यक्ति का नाम बताना है, तो? तब आप जिसका नाम बताएँगे, निश्चय ही वह आपके बेहद करीब होगा। बल्कि कहना चाहिए कि 'एक जिस्म दो जान’ वाली बात होगी। ऐसी ही होती है कॉन्सटीट्यूशनल दवा, जिसका चुनाव एक कुशल होमियोपैथ घंटों, बल्कि सप्ताहों के अनुसंधान के बाद करता है। यह दवा शारीरिक, मानसिक और चारित्रिक रूप से आपसे 100 प्रतिशत मेल खाती होनी चाहिए। यह दवा एक व्यक्ति के लिए मेरे देखे न्यूनतम एक और अधिकतम तीन, या किन्हीं-किन्हीं केसेस में चार-पाँच तक भी हो सकती हैं। इस दवा की एक खास पोर्टेंसी के प्रयोग से बचपन से लेकर मृत्यु तक की सारी बीमारियाँ, सामान्य बुखार से लेकर हार्ट अटैक तक, जो के.एफ. की संरचना द्वारा सूक्ष्म शरीरों से होते हुए आपके स्थूल शरीर तक आती हों, किसी भी समय ठीक की जा सकती हैं। परन्तु कई बार इससे पूर्ण लाभ प्राप्त करने हेतु इसके पहले और इसके बाद में दी जाने वाली दवाओं का ठीक-ठीक ज्ञान होना आवश्यक होता है। और कभी-कभी कुछ खास दवाओं के प्रयोग के बाद अंतिम रूप से मैंने फाइनल टच के लिए इस तरह की दवाओं को देकर भी मनोवांछित परिणाम प्राप्त किए हैं। परिवार में जैसे पति-पत्नी हैं और दोनों एक साथ होमियोपैथ के पास जाते हैं इलाज के लिए, और फर्ज़ करें कि पत्नी को मासिक से संबंधित कोई स्त्री रोग है जबकि पुरुष को हार्ट या पेट या अन्य कोई विपरीत रोग है। लेकिन अगर दोनों की कॉन्सटीट्यूशनल दवाएँ एक हैं, तो एक ही दवा से दोनों मरीज़ों को चामत्कारिक फायदा होगा। यह वाकई विमुग्ध करने वाला विज्ञान है। कोई एलोपैथ एक ही तरह की दवाओं से विपरीत तरह की बीमारियों को ठीक नहीं कर सकता। मेरी समझ से जब हम अपने बच्चों की शादी करें तो हमें उनके ज्योतिषीय गुणों के साथ-साथ उनके होमियोपैथिक कॉन्सटीट्यूशन भी मिलवा लेने चाहिए। समान कॉन्सटीट्यूशन वाले स्त्री-पुरुषों के विवाह से शादी के बाद होने वाले दिन-प्रतिदिन के झगड़े तथा तलाक की संभावनाएँ न्यूनतम हो जाएँगी। क्योंकि ऐसे व्यक्ति जो एक दूसरे के प्रतिरूप हों, वे आँखों के इशारों से ही एक दूसरे के मन की बात समझ जाते हैं। अतः जो 'मेड फॉर ईच ऑदर' वाले रिश्तों की हम तलाश करते हैं, उस तलाश को एक कुशल होमियोपैथ आसानी से अंजाम तक पहुँचा सकता है। लाइटर पार्ट में मेरा यह अनुरोध होगा कि इस तरह का मिलान करते समय दहेज की रकम का आधा या 75 प्रतिशत हिस्सा होमियोपैथ की फीस के रूप में दिया जाना चाहिए, क्योंकि भारत में उपनिषद् के ऋषियों ने जो चार तरह के महासुख बताए हैं उनमें से पहला सुख तो निरोगी काया है परन्तु दूसरा सुख मनोनुकूल सुंदर पत्नी को ही बताया है, और मनमाफिक पत्नी या पति के चुनाव की इससे कारगर और कोई विधि नहीं हो सकती।
तो जैसी हम चर्चा कर रहे थे कि वस्तुतः दवाओं के साथ मानसिक लक्षणों एवं शरीर के विभिन्न अंगों पर उनके प्रभावों का जो वर्णन होता है, अगर हम उनको खयाल में न लें, उनका मिलान रोगी के मानसिक लक्षणों के साथ न करें तो हमारे शरीर का जो सिस्टम है वो उस दवा को बहुत अंदर तक नहीं जाने देगा। वह दवा दूसरे-तीसरे-चौथे शरीरों तक नहीं पहुँच पाएगी, क्योंकि अभी मैत्री नहीं हुई ना अभी गुण और ग्रह नहीं मिले ना जैसे कोई हमारा दुश्मन आ जाए हमारे घर, तो शिष्टाचारवश हम उसे अंदर तो आने देते हैं परंतु बरामदे में ही चाय पिलाकर विदा कर देते हैं। इसकी जगह यदि कोई सामान्य जान-पहचानवाला मित्र आ जाए तो हम ड्रॉइंग रूम तक ले आते हैं। और यदि कहीं किसी बचपन के लंगोटिया यार का आना हो गया तब तो उसको सीधा हम अपने निजी कक्ष में ले आकर आँख में आँख डालकर और हाथ में हाथ जोड़कर बात करते हैं, उसके साहचर्य का भरपूर आनंद उठाते हैं। और भी आगे जाना चाहें तो सोचकर देख लें कि यदि स्कूल-कॉलेज के ज़माने की आपकी कोई महिला मित्र आपके पास आए और आपको गले लगाना चाहे, तो आप कैसे दिल खोलकर उसका स्वागत करेंगे और उससे अपने दिल की सारी बातें कह डालेंगे। यानी 'मेड फॉर ईच अदर' वाली बात। इसी तरह का रिश्ता होमियोपैथी की सही चुनी हुई दवा और मरीज़ के बीच होता है। इसको होमियोपैथी की भाषा में 'कॉन्सटीट्यूशनल दवा' कहते हैं। जीवन में जब आपको रोगों का जाल पूरी तरह घेर ले और कुछ मार्ग न दिखे, उस समय मेरे हिसाब से इस दवा का उपयोग करें और इस बात का ख्याल रखें कि पूरे जीवन में पोटेंसी बदल-बदलकर मात्र कुछ बार ही प्रयोग करना श्रेयस्कर होगा। इतने भर से वह आपके सारे रोग लक्षणों को दूर करने की क्षमता रखती है, बशर्ते उसके पहले और उसके बाद की कुछ दवाओं का प्रयोग आपको पता हो। पर मैं आपको एक राज़ की बात बताता हूँ। कुछ लोगों की स्कूल के दिनों से ही एक की बजाए तीन-चार महिला मित्र हो जाती हैं। क्या होता है कि कमी-कभी प्रथम महिला मित्र की सहेली भी उसको पसंद आ जाती है, कभी उसकी बहन भी पसंद आ जाती है, और कभी उसके मुहल्ले की किसी और लड़की से भी उसकी आँखें लड़ जाती हैं। तो अब वह बेचारा कन्फ्यूज़ रहता है कि शादी किससे करे। इसी तरह मैंने अनुभव किया है कि कुछ लोगों में कॉन्सटीट्यूशनल दवाओं के साथ-साथ कुछ अन्य मिलती-जुलती दवाओं के लक्षण भी मौजूद होते हैं, जिनका अलग-अलग समय पर प्रयोग किया जा सकता है। मतलब यह कि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में यह जरूरी नहीं है। कि जीवन भर के सभी रोगों के लक्षण कॉन्सटीट्यूशनल दवा से ही नष्ट किए जाएँ। कभी-कभी रोग-लक्षणों के हिसाब से और मरीज के मानसिक जनरल लक्षणों के हिसाब से कुछ अन्य दवाओं का प्रयोग भी बेहतर परिणाम दे देता है। ऐसे केस में कॉन्सटीट्यूशनल दवा की एक हकी खुराक रोगोपचार के बाद में दी जा सकती है, ताकि उसका उपयोग के एफ. की संरचना की फाइनल स्टेज से पीछा छुड़ाने में किया जा सको इन दवाओं के उपयोग के पहले मरीज़ के पारिवारिक इतिहास और पुराने रोगों के इतिहास के अनुसार यदि नौसोड दवा कुछ प्रयोग कर ली जाए तो मेरे अनुभव के हिसाब से परम स्वास्थ्य की दिशा में यह एक बहुत बड़ा सार्थक कंदम होगा। परन्तु मैं यहाँ फिर से आपको याद दिला दूँ कि कॉन्सटीट्यूशनल दवा की 200 से अधिक शक्ति की मात्रा को भविष्य की घातक बीमारियों के लिए बचाकर रखा जाना चाहिए। मतलब, हर छोटी-बड़ी बीमारी के इलाज में इन दवाओं का उपयोग करने से बचा जाए, में क्योंकि मुझे लगता है कि एक ही शक्ति की दवा बारंबार उपयोग करने से के.एफ. का सिस्टम उसके प्रति एंटीडॉट भी डेवलप कर सकता है, जिसके बाद उपचार में हमें मुश्किलें आ सकती हैं। इसलिए मेरा मानना है कि कुछ खास पाँच-सात दवाओं के उपयोग के बाद जब परम स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाए तो आगे के अध्यायों में वर्णित आहार-विहार, योग इत्यादि उपायों से उस स्वास्थ्य को बरकरार रखना चाहिए। जैसे कार में टॉप गीयर लगाने के बाद तेज गति में चलने हेतु बहुत कम ईंधन की ज़रूरत होती है, उसी तरह से परम स्वास्थ्य एक बार अगर प्राप्त कर लिया जाए और मरीज की बाकी चीजें सही रहें तो बिना दवा के या साल में अधिकतम दो-चार खुराक दवा से उस परम स्वास्थ्य के स्तर को बरकरार रखा जा सकता है।
मानसिक लक्षणों के हिसाब से पोटेन्सी ध्यान रखें कि 30 से ज्यादा potency को अगर आप मानसिक लक्षणों का मिलान किए बिना इस्तेमाल करते हैं तो मेरे हिसाब से आपको समुचित दूरगामी परिणाम नहीं प्राप्त हो सकेंगे। इसलिए होमियोपैथी की दवा के चुनाव में अधिकतम जानकारी रोगी के मानसिक लक्षणों के बारे में जुटाते हैं। उसके सोचने के, देखने के विचार करने के ढंग और यहाँ तक कि उसके सपनों के पैटर्न तक की बातें करते हैं, उसके अचेतन में जाने की कोशिश करते हैं। होमियोपैथी दवाओं के चेतन लक्षणों, यानी कि शारीरिक लक्षणों पर तो काफी रिसर्च की गई है लेकिन अचेतन लक्षण क्या क्या है, इस पर काफी कुछ काम करना अभी शेष है। मैं देखता हूँ कि दवाओं के मानसिक लक्षण बहुत कम परिभाषित हैं। कोई-कोई होमियोपैथ ही, जैसे केन्ट साहब हैं या और कुछ लोग है, मानसिक लक्षण देखकर दवा देते हैं। लेकिन यह दवा पुरानी और ज़िद्दी बीमारियों पर ज्यादा अच्छी तरह काम करती है। साधारण एक्यूट बीमारियों के लिए सामान्यतः रोग के और मरीज़ के हल्के फुल्के मानसिक लक्षणों को मिलाते हुए रोगी को 2x से 30x तक की दवा दी जा सकती है।
नये सीखने वाले होमियोपैथी चिकित्सकों एवं प्रेमी जनों से हमारा अनुरोध होगा कि वे सीखने के क्रम में 2x से 30x दवाएँ हल्के-फुल्के रोगों के लिए प्रयोग में लाएँ, उनके परिणामों को बारीकी से परखें, और तभी 30 से अधिक पावर की दवाओं का उपयोग करें। और हाँ, कभी भी एक साथ ज्यादा दवाओं या ज्यादा खुराकों का प्रयोग किसी मरीज़ पर न करें।
सिंगल डोज़ के बाद क्या ? मानसिक लक्षणों के अनुसार मुख्य सिंगल डोज़ की दवा देने के बाद छोटी-मोटी बची हुई बीमारियों के लिए होमियोपैथी में त्रिक दवाओं का उल्लेख है। मतलब, एक दवा के बाद दूसरी, फिर तीसरी दवा का प्रयोग किया जा सकता है। जैसे किसी छोटे पत्थर को उठाने के लिए एक मज़दूर काफी होता है, लेकिन बड़े पत्थर के लिए 3 मज़दूर चाहिए होते हैं।
कम शक्ति की दवाओं का प्रयोग
तो यह तो हुई 30 शक्ति से ऊपर की शक्तिकृत दवा और उसके कार्य करने का सिद्धांत। इसी संदर्भ में आइए अब देखते हैं कि होमियों की 1x से लेकर 24x तक की कम शक्ति वाली दवाएँ शरीर पर कैसे काम करती हैं। चूँकि इन दवाओं में दवा के मूल अर्क का कुछ न कुछ स्थूल अंश मौजूद होता है, इसलिए ये दवाएँ स्थूल शरीर से ज्यादा गहरे नहीं जा पातीं। तो कई बार ऐसी बीमारियाँ जिनको के. एफ. ने बाहरी वातावरण एवं कुछ अन्य मिलते-जुलते कारणों से अंदर के सूक्ष्म शरीरों में न भेजकर स्थूल शरीर तक ही सीमित रखा होता है और जिन्हें हम छोटी-मोटी या मौसमी या हाल-फिलहाल की या एक्यूट या तरुण बीमारियाँ कहते हैं, जैसे कि सर्दी-खाँसी, जुकाम, बुखार, बवन दर्द, मौसमी बदलाव इत्यादि, या शरीर के ऊपरी हिस्से की बीमारियाँ, जैसे कि चर्मरोग; उन बीमारियों पर ये दवाएँ बहुत असरदार होती हैं। इनका प्रयोग अंग्रेज़ी दवा की गोलियों की तरह दिन में कई बार किया जा सकता है। इनका कोई साइड इफैक्ट नहीं होता और इनकी आदत भी नहीं लगती। इन दवाओं का भी कार्य-कारण का सिद्धांत, यानी के.एफ. की नई-नई संरचनाओं पर असर का सिद्धांत वही है जिसकी हमने अभी-अभी ऊपर चर्चा की है। इस संदर्भ में मैं एक खास बात यह बताना चाहूँगा कि कभी-कभी 60-70 साल के पुराने रोगी, जो महीनों से बीमार हैं और जिनकी उम्र काफी हो चुकी है, उनमें वी.एफ. अपेक्षाकृत बहुत कम हो जाता है। फलस्वरूप के.एफ. ने अगर स्थूल शरीर पर छोटी-मोटी बीमारियाँ भी दी हैं तो उन बीमारियों की तीव्रता या इंटेनसिटी भी काफी उच्च होती है। ऐसे केसेज़ में मेरे अनुभव के हिसाब से 30 एक्स से अधिक शक्ति की दवाओं की अपेक्षा कम शक्ति की दवाएँ ज्यादा कारगर साबित होती हैं। धीरे-धीरे स्थूल शरीर से उनके लक्षण विदा होने के बाद अधिक शक्ति की दवाओं और नौसोड का प्रयोग अपेक्षाकृत बेहतर साबित होता है। क्योंकि जब तक बूढ़े और बीमार शरीर से स्थूल शरीर के लक्षण बाहर नहीं किए जाते, तब तक अंदर के सूक्ष्म शरीरों को नौसोड एवं अन्य दवा से उपचारित करना बहुत सही नहीं साबित होता है।
कुछ मूल अर्क वाली दवाओं, जिनको क्यू या मदर टिंक्चर बोला जाता है, का प्रयोग भी होमियोपैथी में हम करते हैं। ये वो दवाइयाँ हैं जिनसे शक्तिकृत दवाएँ तैयार की जा सकती हैं। कभी-कभी ऐसे कई मरीज़ों में मूल अर्क का प्रयोग भी वांछित होता है और इसका कोई दुष्परिणाम भी नहीं होता। इस प्रकार अब हम कह सकते हैं कि होमियो दवा और होमियोपेथी झाड़-फूँक का विज्ञान नहीं है अपितु एक उच्च कोटि की उपचार विधि है, जो शरीर की सहमति से उसका उपचार करती है।
दो खुराक के बीच अंतराल
अब हम देखते हैं कि होमियोपैथी दवा कितने अंतराल पर दी जानी चाहिए। मैं देखता हूँ कि कोई-कोई होमियोपैथ 10m की दवा रोज़ चलाते हैं। कुछ लोग 15 दिन के अंतराल से देते हैं। जबकि कोई-कोई दो-तीन दिन गैप करके चलाते हैं। उनको लगता है कि पुनरावृत्ति बढ़ाने से बीमारी खत्म हो जाएगी, पर ऐसा संभव नहीं होता है। कृपया इस भ्रम को दूर करें। थोड़े समय के लिए लक्षण ज़रूर दूर हो सकते हैं परन्तु पुनः बीमारी वापस आ ही जाएगी। बंदूक की गोली या मशीनगन से मच्छरों को नहीं मारा जा सकता, उसके लिए Good Night जलाना या कीटनाशक का छिड़काव करना ही ठीक होगा। बंदूक की गोलियाँ या मशीनगन या तोप चलाना तभी श्रेयस्कर होगा जब बड़े-बड़े दुश्मन आ जाएँ। मेरा सुझाव यह है कि सामान्यतः 30x, 200x और 1m की ताकत की दवाओं से अधिकतम बीमारियों को शांत किया जा सकता है। अतः एक दवा देने के बाद उसके परिणामों की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा की जाए और उसके बाद ही इससे अधिक शक्ति की दवाओं का प्रयोग अपेक्षित है। मेरी दृष्टि में सबसे कारगर होमियोपैथ वही है जो न्यूनतम दवा और न्यूनतम पोटेंसी से अधिकतर रोगों के के.एफ. के लक्षणों को दूर कर सकता है। मैं चाहूँगा कि सभी होमियोपैथ डॉक्टर खुद को इस तराजू पर तौलें और रोगियों के साथ-साथ अपने सिस्टम को भी अपडेट करते रहें।
होमियोपैथी के साथ अन्य दवाएँ अब तक हमने चर्चा की कि दवाओं के प्रभाव कैसे होते हैं और दवाओं का चयन कैसे किया जाता है। अब हम बात करते हैं कि होमियोपैथी के साथ अन्य दवाओं का प्रयोग किया जाए कि नहीं। मेरा सुझाव है कि जहाँ तक संभव हो, न किया जाए। यदि बहुत जरूरी हो जाए, जैसा कि डायबिटीज़ या रक्तचाप के
साथ कभी-कभी होता है, तो उस हिसाब से मरीज़ न्यूनतम दवा ले सकता है। इसी कड़ी में आगे बढ़ते हुए में निवेदन करना चाहूँगा कि जैसे हमने शरीर को एक यूनिट के रूप में लिया है, उसी तरह इलाज में भी पूर्णता का प्रयोग हो सकता है। जैसे, ऐसा नहीं है कि एलोपैथी उपयोगी है ही नहीं। वस्तुत स्थूल शरीर की कुछ खास बीमारियों के लिए एलोपैथी अच्छा कार्य करती हैं। फिर एक निश्चित समय के बाद हम उसी मरीज पर आयुर्वेद और होमियोपैथी का प्रयोग कर सकते हैं। अगर हमने सभी उपचार पद्धतियों के भीतर वैज्ञानिक रूप से झाँक कर देख लिया है तो हमें उनके समन्वित प्रयोग में कोई परेशानी नहीं होगी। और मेरा मानना है कि ऐसा होना चाहिए। यदि किलिंग फोर्स का सही-सही आकलन किया जाए तो ऐसी कोई बीमारी नहीं जिसे इन सभी उपचार पद्धतियों के समन्वित या क्रमिक प्रयोग से ठीक न किया जा सके। मेरे कुछ स्वानुभूत सफल प्रयोगों में होमियो और एलो के सम्मिलित प्रयास से बहुत अच्छे परिणाम आए हैं। अगर मुझे एलोपैची के कुछ उत्सुक डॉक्टर मिलें तो मैं उन्हें अच्छा होमियोपैथ बना सकता हूँ। उसके बाद वे अपने विवेक के आधार पर दोनों पैथियों को मिलाकर बहुत अच्छा उपचार कर सकते हैं।
पुस्तक के अंतिम चरण में हमने बताया है कि होमियो दवा एवं अन्य उपचार पद्धतियों का समन्वयन कैसे और किस प्रकार से हो। संदर्भ के लिए उस अंश का गहराई से अध्ययन किया जाए।
एक विशेष अनुरोध
यहाँ पर एक अनुरोध में विश्व के तमाम होमियोपैथ डॉक्टरों और होमियो प्रेमियों से यह करना चाहूँगा कि मरीज़ की बेहतरी के लिए उसे यह कदापि न बताया जाए कि उसे कौन-सी दवा दी जा रही है। क्योंकि कई बार जिस दवा से रोग शांत होते हैं, उसी दवा का अधिक उपयोग करने से रोग वापस मी आ जाते हैं। दवा की धनात्मक ऊर्जा के.एफ. की बैट्री को चार्ज भी कर देती है।
लेकिन इसका एक दूसरा पहलू भी है, उसका भी ध्यान रखा जाना चाहिए। वह यह कि मरीज़ अगर किन्हीं कारणों से दूसरे होमियोपैथ के पास जाना चाहे तो ऐसी स्थिति में नये वाले डॉक्टर को सारी दवा बता देनी चाहिए, ताकि वह ज्यादा कुशल ढंग से मरीज़ का इलाज कर सके और मरीज का आर्थिक शोषण न हो। यह एक तरह से प्रत्येक होमियोपैथ की नैतिक जिम्मेदारी बनती है। लेकिन मैंने अनुभव किया है कि होमियोपैथी के क्षेत्र में इस ज़िम्मेदारी का नितांत अभाव है और इस स्थिति में सुधार की महती आवश्यकता है। मैं फिर से कहता हूँ कि होमियोपैथी दवाओं को हल्के में न लें, ये बहुत उच्च तकनीक से लैस विद्युतीय सूक्ष्म ऊर्जा है जो आपके सूक्ष्म शरीरों और नर्वस सिस्टम में बहुत बदलाव लाने की ताकत रखती है। इसलिए जब तक आप निश्चित दवा पर न पहुँचे, तब तक मरीज़ को सेकलेक या चीनी की गोलियाँ दी जा सकता हैं। साथ ही मैं प्रबुद्ध लोगों से, जो इस पैथी में विश्वास रखते हैं, अपील करना चाहूँगा कि कृपया अपना और अपने परिवार का इलाज ऐसे कुशल डॉक्टर से ही करवाएँ जो कम से कम दवा देता हो। और एक अनुरोध उन सभी होमियोपैथ चिकित्सकों से जिन्हें ऐसे मरीजों का इलाज करना पड़ रहा हो जिनको अंग्रेज़ी दवा की तरह दिन भर में चार बार दवा खाने की आदत है। कृपया उन्हें मूल दवा देने के बाद सेकलेक की दवाइयों दिन भर में चार बार के लिए अवश्य दें। यह विधि उन मरीज़ों पर ज्यादा असरदार होगी।
आपातकाल में कारगर होमियोपैथी इसी कड़ी में एक और बात हम करते हैं। जैसी कि हमने पहले चर्चा की कि बचपन से के.एफ. हमारे शरीर में छोटी-मोटी बीमारियाँ इसलिए देता है कि उन बीमारियों के जो प्रिंट हमारे शरीर में रह जाएँ, उनका पुल के रूप में इस्तेमाल कर बड़ी ताकतवर सेना से एक बार अटैक कर हमें अंतिम रूप से मौत के मुँह में धकेल सके। तो ऐसे किसी अटैक के समय, जबकि के. एफ. की मारक ऊर्जा परवान पर चढ़ी रहती है और वाइटल फोर्स लगभग 10 यूनिट या उससे भी नीचे की ओर जा रही होती हैं और दुनिया की सारी दवाएँ जब फेल हो जाती हैं, उस समय भी होमियो की उच्च शक्तिकृत दवाओं (जैसे कारबो-वेज इत्यादि) की 10m, 50m, या cm पोटैन्सी में जीभ पर दी गयी सिर्फ एक बूँद खुराक से कभी-कभी के एफ. की ऊर्जा नीचे चली जाती है और मरीज़ के प्राण एकाएक लौट आते हैं। ऐसा दुनिया के कई जाने-माने होमियो डॉक्टरों का अनुभव रहा है। के.एफ. के वजूद और होमियो दवा की कार्यप्रणाली का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है कि जब एलोपैथी पेड़ की शाखाओं व पत्तों पर, यानी स्थूल शरीर पर रोगों के कारणों को ढूँढ कर दवा देती है और परिणाम शून्य रहता है, उस समय होमियो की जीवनदायनी दवाएँ मरीज के के. एफ., यानी रोग की जड़ों पर सीधा ही वार कर के मरीज के प्राण बचा लेती हैं। पर चूँकि हम इस विज्ञान को आज तक समझ नहीं पाए हैं, इसलिए कहते हैं कि होमियोपैथी झाड़-फूँक, तंत्र-मंत्र, या इस जैसी कोई विधि है।
सिफलिटिक मियाज़्म
चलिए, अब सिफलिटिक मियाज्य की बात करते हैं। जैसे हमने समझा कि किलिंग फोर्स का सिस्टम हमारे स्थूल शरीर के प्राण लेने के लिए बना है। तो पूरे शरीर का सिस्टम एकदम से बंद कैसे होगा? या तो नर्वस सिस्टम को बंद कर दिया जाए। या तो हार्ट अटैक कर दिया जाए। या पेट में कुछ ऐसी बीमारी हो कि हम खाना ही भूल जाएँ, खा ही न सकें। जैसे लिवर कैंसर हो जाए, ब्लॅड कैंसर हो जाए, हेपेटाईटिस हो जाए, डेंगू बुखार या इन्सेफिलाइटिस हो जाए। मगर कभी-कभी किलिंग फोर्स ज्यादा स्मार्ट होती है और पिछली पीढ़ी से इस पीढ़ी तक आने वाली बीमारियों के मिसाइल्स उसके पास रहते हैं। तो वह पूरे शरीर को न मारकर शरीर के जो मुख्य सैनिक हैं, जो मुख्य अंग हैं, जैसे कि हार्ट, किडनी, लिवर, फेफड़े, पैन्क्रीयाज, इन सब पर योजनाबद्ध ढंग से हमला करती है। और इस हमले के फलस्वरूप अगर वो किसी अंग विशेष को मारने में सफल हो जाती है तो उसको हैनीमैन साहब कहते हैं- सिफलिटिक मियाज्म उदाहरण के लिए, क्रिलिंग फोर्स ने पैनक्रियाज को मार दिया, खत्म कर दिया। पूरे शरीर को नहीं मारा, पर पैनक्रियाज को अपाहिज कर दिया। इससे क्या हुआ? आप जीते जी मर गए। अब न आप ठीक से खा सकते हैं, न पचा सकते हैं। अब शरीर में रोगों का आक्रमण शुरू करने में के. एफ. को आसानी होगी। अब उसका काम आसान हो गया। सिफलिटिक मियाज्म में कोई भी अंग या अवयव 100 प्रतिशत नहीं मरता अगर 100 प्रतिशत मर जाए तो हम भी मर जाएँगे। हार्ट 100 प्रतिशत मर गया, तो हम भी मर गए। तो सिफलिटिक मियाज्म के लिए हैनीमैन साहब कहते हैं कि जैसे दूध दही बन गया। और दही को हम खुला छोड़ दें तो वो और खड़ा हो जाता है, उसमें कीड़े हो जाते हैं। लेकिन उसी दही को अगर फ्रिज में रख दिया जाए तो 10 दिन में भी खट्टा नहीं होगा, न ही कीड़े लगेंगे। तो महान हैनीमैन साहब का मानना था कि किलिंग फोर्स के हमले से यदि हमारे शरीर का कोई मुख्य अंग मृतप्राय हो गया हो तो सिफलिटिक मियाज्म की दवाओं से उसे शत-प्रतिशत मृत होने से बचाया जा सकता है। इसके लिए होमियोपैची में Seilinium जैसी कई दवाएँ हैं। मैंने खुद उनका प्रयोग किया है। उदाहरण के लिए एक छोटे बच्चे के केस की बात बताता हूँ। एक पाँच साल के बच्चे को जन्म से ही भीषण कब्ज़ था और वह हफ्ते में केवल एक बार toilet जाता था। न कुछ खाता था, न कुछ पीता था, बस माँ की गोद से चिपटा रोता रहता था। कई तरह की अंग्रेज़ी दवाएँ उसे दी गई। फिर होमियोपैथी दवा भी एक साल तक चली। उस होमियोपैथिक डॉक्टर ने लगभग सारी दवाएँ देकर देख ली। लेकिन बच्चे में सुधार के बदले लंगड़ापन आने लगा। चलने में वो लंगड़ाने लगा। मैं एक दिन बैठा था उस डॉक्टर के यहाँ। वे बड़े घबराए हुए थे। कहने लगे, “अब तो उसका पिता मुझे छोड़ेगा नहीं! अब मेरी तो पिटाई हो जाने वाली है! उसका इकलौता बेटा है।" मैंने कहा कि आप मेरी उनसे भेंट कराइए। मैंने भेंट की तो मुझे दिखा कि वह पाँच साल का बच्चा हफ्ते में केवल एक बार पॉटी जाता था। तत्काल मेरे भीतर से आवाज़ आई कि यह तो निर्माणगत त्रुटि ( manufacturing defect) हुई। यह तो बच्चा बीमारी लेकर आया है। इसका तो कोई सिस्टम खराब है, पूरा नहीं तो 90 प्रतिशत, 80 प्रतिशत फिर मैंने खोजना शुरू किया कि किस दवा से उस खराब सिस्टम को ठीक किया जा सकता था। खोजते-खोजते और सिस्टम मिलाते-मिलाते मुझे sefilinium सूझा । मैंने sefilinium 200 की एक बूँद की एक खुराक रात को सोते समय उसको दी। और आप विश्वास नहीं करेंगे, अगले दिन से लगातार एक हफ्ता वो पॉटी करता रहा। जो बच्चा बमुश्किल दिन भर में एक समय खाना खा पाता था, उसकी यह स्थिति हो गई कि अगर उसको एक समय खाना न मिले तो वो मिट्टी खाना शुरू कर देता था। एक हफ्ते में ही उसका चार-पाँच किलो वज़न बढ़ गया। देखकर उसकी माँ की आँखों में आँसू आ गए।
इसको कहते हैं होमियोपैथी। इस तरह के विज़नरी होमियोपैथ अगर हम बना सकें, पैदा कर सकें तो पूरी मानव जाति का कल्याण हो जाएगा। दो तरह के होमियोपैथ दुनिया में हैं। एक उस योद्धा की तरह हैं जिनके हाथों में हथियार तो हैं पर उनकी आँखों पर पट्टी बँधी है और वे एक ऐसे शत्रु का सामना कर रहे हैं जो बहुत चालाक है और जिसने अपनी आँखों पर पट्टी भी नहीं बाँधी हुई है। दूसरे वे हैं जिनके पास दुश्मन से लड़ने के लिए हथियार भी हैं और उसकी चालाकियों को परखने के लिए जरूरी नज़र भी। ऐसे पोछा आसानी से शत्रु को परास्त कर सकते हैं। पर विश्व के अधिकांश होमियोपैय पहली वाली श्रेणी के हैं जो उन्नत हथियारों से लैस हैं परंतु जिनके पास दृष्टि या विज़न का अभाव है। यही वजह है कि बड़ी-बड़ी दवाएँ सालोंसाल चलानी पड़ती हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि यह पुस्तक ऐसे सभी योद्धाओं को वैज्ञानिक दृष्टि एवं रोगोपचार के सही सिद्धांत प्रदान करने में सहायक होगी।
मैं जिस विधि से और जिस विज़न से रोगों का उपचार करता हूँ, वो मैंने आपको अभी बताया। कई बार मुझे मरीज़ को देखते ही उसके के.एफ. की व्यूह रचना और उस रचना को ध्वस्त कर सकने वाली दवा भी सूझ जाती है। परन्तु कई बार में भी कई मरीज़ों पर शून्य हो जाता हूँ, मेरे अंदर से कोई दवा नहीं निकलती। ऐसे में मैं यह स्वीकार कर लेता हूँ कि इस रोगी के माग्य में प्रकृति या परमात्मा द्वारा कुछ और कष्ट और पीड़ा भोगने को शेष है। इसलिए उनके बीच आना में उचित नहीं समझता।
होमियोपैथी का एक हैरतअंगेज़ प्रयोग आइए, अब चर्चा को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर की ओर, यानी गहरे से और गहरे में ले चलते हैं। अब मैं आपको होमियोपैथिक उपचार की एक ऐसी हैरतअंगेज तकनीक बताने जा रहा हूँ कि जिसके बारे में सुनकर पहलेपहल तो आपको यकीन ही नहीं होगा कि ऐसा भी हो सकता है, लेकिन फिर आप दाँतों तले उंगली दबा लेंगे। आपमें से जो लोग होमियो में गहरी दिलचस्पी रखते हैं या होमियो के विशेषज्ञ भी हैं, उन्हें शायद, जी हाँ, शायद इस तकनीक के बारे में कोई मालूमात हो। और ऐसे होमियोपैथ तो विरले ही होंगे जिन्होंने इस विधि का उपयोग किया हो। तो आइए, अब जब हमने होमियो नामक परी के सारे नकाब उतार ही दिए हैं तो इस एक अंतिम नकाब को भी उठा ही दिया जाए। मगर चूँकि यह अंतिम नकाब है, इसलिए मैं इस नकाब को पूरी तरह से न उठाकर इस तरह से उठाना चाहूंगा कि इस परी के मासूम से चेहरे के ऊपर एक झीना-सा पर्दा शेष रह जाए, कुछ इस तरह से कि चेहरा दिखे भी और कुछ-कुछ छिपा भी रह जाए।
मैं बात कर रहा हूँ सिर के एक बाल की मदद से मीलों दूर बैठे व्यक्ति का उपचार करने की। जी हाँ, होमियोपैथी दवाओं द्वारा किसी मरीज़ के सर से झड़कर गिरे एक जड़सहित बाल की मदद से उसकी किसी भी बीमारी को दूर किया जा सकता है, फिर चाहे वह मरीज़ आपसे हज़ारों मील दूर सुदूर अमेरिका में क्यों न बैठा हो ।
आप कहेंगे कि 'बिनोद जी! आपने तो पूरी किताब में मज़ाक ही मज़ाक किया है और अब तो आप हद ही कर रहे हैं, यह तो सीधे-सीधे बेवकूफ बनाने की बात है। आज के वैज्ञानिक दौर में तो ऐसा सोचने वाले को भी लोग पागल कहेंगे। यह तो कतई मानने की बात नहीं है। होमियोपैथी को तो पश्चिम के लोग वैसे ही जादू-टोना या इस तरह का कुछ नाम देते हैं, उस पर से आप मी अब इस तरह की बातें करने लगे!'
जी नहीं, ऐसा कुछ नहीं है। मैं जो भी कह रहा हूँ, पूरे होश-ओ-हवास में कह रहा हूँ और स्वयं कई सारे मरीज़ों पर प्रयोग करने के बाद कह रहा हूँ। और मैं इसके पीछे के विज्ञान का भी खुलासा करूँगा, तब आप खुद तय कर लीजिएगा कि यह मज़ाक है या चमत्कार। आइए, पहले इस प्रयोग की विधि को समझें, फिर उसके अंदर की तकनीक या विज्ञान के बारे में चर्चा करेंगे।
बाल से उपचार की विधि अगर कभी ऐसा हो जाए कि मरीज सामने उपलब्ध न हो और जहाँ वह है वहाँ होमियो दवा की उपलब्धता न हो, तब ऐसी स्थिति में यदि उसका कोई ऐसा बाल उपलब्ध हो जाए जो हद से हद सप्ताह भर पहले उसके सिर से जडसहित गिरा हो तो उसकी मदद से भी उसका इलाज किया जा सकता है। इसकी विधि यह है कि पहले तो होमियोपैथ मोबाइल पर वीडियो या ऑडियो वार्तालाप के माध्यम से मरीज़ के लक्षण व प्रकृति पता करके उस हिसाब से सही दवा का चुनाव करता है। फिर उस दवा की एक में उस बाल को एक निश्चित अवधि तक के लिए डुबोकर रख दिया जाता है। यह अवधि होमियोपैथ के अपने तजुर्वे के मुताबिक एक मिनट से पाँच मिनट तक होती है। एक शीशे के बर्तन में वह बाल जड़ की ओर से दवा में कुछ इस तरह से डुबाया जाता है कि जड़ वाला हिस्सा लगभग आधा या एक सेंटीमीटर तक डूबा हुआ रहे। इस स्थिति में वह सिर का बाल उस मरीज़ की जीभ की तरह काम करता है। मानो दवा बाल को नहीं बल्कि जीम को स्पर्श कर रही हो। और वह इसी अनुरूप फायदा भी करती है।
इसके पीछे का विज्ञान
अब आप कहेंगे कि नहीं, दुनिया चाहे इधर की उघर हो जाए, मगर यह तो कोई मानने वाली बात ही नहीं है। मगर मैं आपसे कहता हूँ कि यह बिलकुल सत्य, प्रभावी और कारगर, तथा सशक्त विधि है। और कई बार यह, जैसा कि मैंने देखा है, अचम्मित कर देने वाले परिणाम देती है। मगर अब फिर वही यक्ष प्रश्न आ खड़ा होता है कि आखिर यह होता कैसे है? इस प्रश्न का उत्तर देने वाले को तो सीधे पाँच नोबेल पुरस्कार एक बार में मिलना चाहिए, नहीं?
तो दोस्तो, लाइटर पार्ट में अगर आप नोबेल पुरस्कार के लिए मेरे नाम की सिफारिश करने का वादा करें तो मैं आपको इसका भी विज्ञान और रहस्य आज बता ही देता हूँ। मज़ाक कर रहा हूँ, दोस्तो। दोस्तो, यह विषय सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म जगत से जुड़ा हुआ है। और जो भी चीज़ सूक्ष्म होने के कारण हमें दिखाई नहीं देती या सीधे तौर पर नज़र नहीं आती या जिसे समझना हमारी बुद्धि के लिए मुश्किल होता है, उसे हम तंत्र-मंत्र, झाड़-फूँक, ओझा गुणी, जादू-टोना जैसे नाम देकर बदनाम कर देते हैं और मान लेते हैं कि उसका विज्ञान और कार्य कारण के सिद्धांत से कोई नाता नहीं है। हर बड़ी खोज के साथ ऐसा ही हुआ है। पहलेपहल उन खोजों को सिरे से नकार दिया गया, मगर जैसे-जैसे विज्ञान विकसित होता गया और प्रकृति या परमात्मा के गूढ़ रहस्यों से पर्दा उठता गया, वैसे-वैसे उन खोजों की सत्यता प्रमाणित होती गई, विज्ञान ने उनको कार्य कारण के सिद्धांत की कसौटी पर कसकर यह साबित कर दिया कि उनमें कुछ भी अस्वाभाविक नहीं था। और तब लोगों को भी समझ में आता गया कि यह कोई जादू-टोना नहीं था वरन उस समय वे उसकी तकनीक एवं सिद्धांत को समझ नहीं पा रहे थे। जैसे पहली बार जब ग्रामोफोन का आविष्कार हुआ और ग्रामोफोन के तांबे पर सुई द्वारा संगीत की स्वर लहरी उभारी गई, तो लोगों ने इसे जादू-टोना का नाम दिया। परन्तु क्या आज आप ऐसा कहेंगे? नहीं ना इसी तरह से ग्राहम बेल ने जब टेलीफोन का और राईट ब्रदर्स ने हवाई जहाज का आविष्कार किया, तब भी लोगों ने इसी तरह की बातें की, क्योंकि परेशानी यह थी कि उनको उस तकनीक का ज्ञान नहीं था। गैलीलियो ने जब कहा कि सूर्य एवं अन्य ग्रह-नक्षत्र पृथ्वी के चक्कर नहीं लगाते अपितु पृथ्वी अन्य ग्रह-नक्षत्रों के साथ सूर्य के चक्कर काटती है, तो इसके लिए तो उन्हें कारागार में ही डाल दिया गया था और जमकर यातनाएँ दी गई थीं। लेकिन कई सौ सालों बाद जब भौतिक एवं खगोलीय विज्ञान का विकास हुआ तो गैलीलियो की बात सच साबित हुई और जिन लोगों ने उनके जीते-जी उन्हें अपमानित किया था, उनके वंशजों को अपनी गलती स्वीकारनी पड़ी। दुर्भाग्य की बात यह है कि ऐसा सदियों पहले भी होता था और आज भी होता है।
यही हाल आज सूक्ष्म शरीरों, सूक्ष्म जगतों, ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा, अध्यात्म विज्ञान, एनर्जी हीलिंग, टेलीपैथी, मंत्र-चिकित्सा, पूर्व जन्म प्रतिक्रमण चिकित्सा, परामनोविज्ञान तथा पराभौतिकी जैसी बातों का है। आज भले हमें ये चीजें हवाहवाई लगती हों, पर मैं आपको कहना चाहता हूँ कि भविष्य में किसी न किसी दिन हम इन चीजों का भी वैज्ञानिक आधार खोज लेंगे। उस दिन हमें ये सारी बातें बेहद सहज व स्वाभाविक मालूम होने लगेंगी।
तो चलिए, मैं आपको बाल या केश चिकित्सा का विज्ञान समझा देता हूँ। हमारे इर्द-गिर्द जिस शून्य का फैलाव है, वह वस्तुतः शून्य या खाली नहीं है। वैज्ञानिक कहते हैं कि वह ईथर से भरा है, जिसे हिंदी में कहेंगे- आकाश तत्व। इसका विस्तार केवल हमारे इर्द-गिर्द ही नहीं अपितु अंतरिक्ष में भी है। यह ईथर या आकाश सब तरह की ऊर्जा तरंगों, जिनमें टी.वी., रेडियो, तथा मोबाइल तरंगों के साथ-साथ विचार एवं भाव तरंगें भी शामिल हैं, को सम्प्रेष कर सकता है। अंतरिक्ष में जो यान इत्यादि भेजे जाते हैं, वैज्ञानिक लोग धरती पर बैठकर उनका संचालन इसी तरंग संप्रेषण सुविधा की वजह से कर पाते हैं।
इसी प्रकार हमने इस बात पर भी चर्चा की है कि सृष्टि में जितने भी जीव है, सभी ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा के एक विशेष प्रकार के धागे से जुड़े हैं, जिसको हम ब्रह्माण्डकीय अवेतन या सुपर अनकॉन्सस कह सकते हैं। सम्मोहन या हिप्नोसिस का विज्ञान भी इसी पर काम करता है। और इसकी कला अगर हम सीख लें, यह पूरी तकनीक हम जान लें, तो हम जगत के सारे पशु पक्षियों से वार्तालाप कर सकते हैं।
हमारा स्थूल शरीर सांसारिक भार और गति के नियमों का पालन करता है परन्तु हमारे सूक्ष्म शरीर जो हैं, उन पर ये नियम लागू नहीं होते। क्योंकि वस्तुतः ये उसी विशाल ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा या चेतना की बहुत छोटी इकाई हैं या कहें कि उन्हीं के बच्चे हैं। इन शरीरों के आकाश में प्रक्षेपण के लिए समय, भार और गति कोई बाया नहीं है। ये सेकण्ड के हज़ारवें हिस्से में सुदूर मंगल ग्रह पर पहुँच सकते हैं। यह प्रणाली इतनी विकसित है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
तो जैसा कि हम जानते हैं, हमारे सूक्ष्म शरीरों में भी के.एफ. और वी.एफ. की संयुक्त संरचना विद्यमान है। और यह संरचना अस्तित्व ने सभी चीजों में प्रदान की है, जैसे बड़े-बड़े ग्रहों में, और यहाँ तक कि सूर्य में भी। इसलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि हमारा सूर्य भी धीरे-धीरे मर रहा है और किसी दिन यह पूरी तरह समाप्त हो जाएगा और इसके साथ ही इस सोलर सिस्टम का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। इसी तरह से हमारे सोलर सिस्टम में पृथ्वी सहित सारे ग्रहों उपग्रहों में भी इन दोनों ऊर्जाओं का सिस्टम विद्यमान है। इसलिए ये भी एक दिन नष्ट होंगे। तो अब होता क्या है, यह समझने की कोशिश करते हैं।
जैसा कि मैंने आपको बताया, होमियोपैथी की दवाएँ स्थूल दवाएँ न होकर ऊर्जा की उच्च मात्राएँ हैं, और जैसा कि हम जानते हैं, ऊर्जा का एक विशिष्ट स्वभाव गति करना है। ऊर्जा बैठ कर नहीं रह सकती। तो जैसे ही हम स्थूल शरीर में जीभ पर एक बूंद या एक गोली होमियो दवा की रखते हैं, वह सीधे हमारे दूसरे सूक्ष्म शरीर से लेकर चौथे सूक्ष्म शरीर तक गति करती है और रोगों की संरचना का नाश करती है। इस प्रकार से हमने जाना कि हम रोगमुक्त हो जाते हैं। हमारे सिर का बाल चूँकि हमारे शरीर के मुख्यालय, गानी नर्वस सिस्टम से जुड़ा है, जिसे हम शरीर के टी.वी. ऐनटिना या केवल वायर की तरह समझ सकते हैं। हमारी छत पर लगे ऐनटिना से जोड़े गए तार से टी.वी. के सिगनल हमारे टी.वी. में आते हैं, तब हम टी.वी. देख पाते हैं। किसी दिन हमें पता लगेगा कि हमारे सिर के बाल भी बेकार की वस्तु नहीं है। ये ऊर्जा की सूक्ष्म तरंगों के आदान-प्रदान का ज़रिया बन सकते हैं। तो बाल का वह हिस्सा जो हमारे सिर से टूट गया है, वस्तुतः ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा के माध्यम से उसका संपर्क अब भी हमारे सिर और सिर के माध्यम से हमारे शरीर के नर्वस सिस्टम से जुड़ा हुआ है। तो उस बाल का जड़ वाला हिस्सा जब होमियो दवा के पॉवर बैंक में डाला जाता है, तो उससे हमारे चारों ओर मौजूद ईयर या आकाश या ब्रह्माण्डकीय ऊर्जा के द्वारा वह ऊर्जा तुरंत गति कर जाती है और हमारे सूक्ष्म शरीर के के.एफ. और वी.एफ. के हिस्सों पर, जो कि बेस स्टेशन हैं, पहुँचकर उनको नष्ट कर देती है। और मज़े की बात यह है कि इस 8 अरब की जनसंख्या में स्थान, समय, दूरी या व्यक्ति से इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। इन 8 अरब व्यक्तियों में से यह उर्जा ठीक उसी व्यक्ति पर काम करती है जिसके लिए इसे छोड़ा गया है या वह बाल जिसके सिर का हिस्सा था। और चूँकि ऊर्जा के इस संचरण में स्थूल शरीर का कोई उपयोग नहीं किया जाता, इसलिए इसके परिणाम और गति तीव्र से भी तीव्रतर होती है। ऊपर ऊपर से सारी प्रक्रिया अगर आप देखें तो यह रहस्यमय और जादू-टोना जैसा आपको लगता है।
इस प्रकार जब हम एक व्यक्ति को उसकी मानसिक संरचना के अनुरूप हाई पोर्टेंसी की दवा देते हैं तो उस शक्तिकृत पोटेंसी की ऊर्जा के लिए हमारे सिर का बाल एक माध्यम बन जाता है और हमारे शरीर और उस बाल में यह तमाम फैला हुआ स्पेस या अंतरिक्ष या आकाश, जो कि हमारे शरीर का भी एक हिस्सा है, उस होमियोपैथी दवा और हमारे शरीर के सिर वाले हिस्से, यानी नर्वस सिस्टम के बीच में एक तरह के अदृश्य पुल का काम करने लगता है- ऐसा पुल जिस पर समय और गति के सामान्य नियम लागू नहीं होते। यह सबकुछ इतना अद्भुत और विस्मयकारी है कि इसकी संरचना और सिस्टम जब मेरी समझ में आया तो मैं कई दिनों तक हैरान रहा। फिर मैंने कुछ प्रयोग किए और उनके परिणाम देखकर मैं दंग रह गया। इसके परिणाम स्थूल शरीर पर दवा देने से ज्यादा कारगर साबित हुए। मगर इस विधि के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है, वह यह है कि यदि मरीज़ का वेतन मन इस पूरे सिस्टम पर सवाल खड़े करता है या उसका माखौल उड़ाता है या उसे लगता है कि उसके साथ कुछ मजाक किया जा रहा है, तो ऐसी स्थिति में कई मरीज़ों पर इसके मनोवांछित परिणाम मुझे देखने को नहीं मिले। असल में इस तकनीक से फायदा होने का जो सबसे बड़ा बुनियादी तत्व है, वह डॉक्टर और मरीज़ का एक-दूसरे पर भरोसा है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज के मरीज़ का भरोसा गलत जगह, गलत लोगों और गलत सिस्टम या पैथी पर हो गया है। इसका आया भरोसा भी यदि लोग होमियोपैथी पर करें और अगर हम कुछ और विज़नरी होमियोपैथ बना सके, जिनको कि इस पूरे सिस्टम की सूक्ष्म तकनीक का और इसके विज्ञान का पता हो, तो कमाल के परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
इस तकनीक में सामान्यत: 200x या Im की उच्च शक्ति वाली दवाएँ ज्यादा प्रभावी होती हैं, क्योंकि सुदूर बैठे मरीज़ के स्नायु मंडल को प्रभावित करने के लिए अधिक सूक्ष्म ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। इस पूरी घटना के और पहलू कुछ भी है जो पूरब के अध्यात्म और उसके विज्ञान से जुड़े हैं, पर उन पर बातचीत करना ठीक नहीं होगा क्योंकि आप सहज रूप से उन बातों पर भरोसा नहीं कर सकेंगे और दूसरी बात यह कि अध्यात्म के उन गहरे रहस्यों को आम जनों के समक्ष अनावृत करना ठीक नहीं होगा, क्योंकि सदियों से हमारे ऋषियों, मुनियों और संतों ने इस विज्ञान को आम जनों को बताने के लिए मना किया है। हाँ, परन्तु शिष्यों और साथकों के लिए, जो इस दिशा में साधना करना और यात्रा करना चाहते हैं, उनके लिए गुरु-शिष्य परंपरा के तहत एक सद्गुरु धीरे-धीरे एक एक करके कुछ परतों को शिष्यों के सामने उघाड़ता है जबकि बाकी की बातें सदशिष्य अपनी साधना और दृष्टि से अनुभव कर पाता है। इसलिए एक तो सामान्य जनों को यह बात गले नहीं उतरेगी, और दूसरे इस तकनीक का गलत इस्तेमाल भी किया जा सकता है। क्योंकि चाकू तो चाकू है। इससे आप किसी की हत्या कर दें या ऑपरेशन करके किसी की जान बचा लें। परिणाम तकनीक पर नहीं, उस तकनीक का उपयोग करने वाले व्यक्ति पर आधारित होता है। इस तकनीक के इस्तेमाल में निम्नलिखित विशेष सावधानियों का हमें
ख्याल रखना चाहिए
1. इस विधि का प्रयोग विशेष परिस्थिति में और न्यूनतम बार किया जाना चाहिए, क्योंकि हम दवा नहीं बल्कि सूक्ष्म ऊर्जा के सिस्टम से खेल रहे हैं। न्यूनतम इसलिए कि ज़्यादा बार प्रयोग करने पर कभी-कभी एग्रेवेशन कुछ ज्यादा ही हो जाता है। दूसरी बात यह कि बाल कब और कितने समय तक दवा के अंदर रखा जाए, इस पर बहुत कम होमियोपैथ्स की पकड़ है। एक बार किसी मरीज़ का बाल दवा में ज़्यादा देर तक छूट गया था और उसके दुष्परिणाम उस मरीज़ पर होने शुरू हो गए थे, फिर उसको बहुत मुश्किल से पटरी पर लाया जा सका था। 2. इस विधि में उपयोग हेतु बाल के सर से टूटने की अवधि जितनी कम होगी, विधि उतनी ही कारगर होगी। क्योंकि ताज़ा टूटा हुआ शरीर का कोई भी अवयव शरीर से पुनः जुड़ना चाहता है। आपने देखा होगा कि छिपकली जब अपनी पूँछ को अपने शरीर से अलग कर देती है तो किस तरह वह पूँछ बड़ी देर तक तड़पती रहती है। वह वस्तुतः शरीर के उसी हिस्से से वापस जुड़ने और मिलने को बेकरार हो जाती है। मगर थोड़ा वक्त बीत जाए तो अंततः वह हिस्सा निष्प्राण हो जाता है। 3. इस तकनीक का प्रयोग मेरी समझ से रात को तब किया जाना चाहिए जब मरीज़ सोया हुआ हो या अर्द्ध निद्रा में हो, यानी तुरंत-तुरंत सोया हो। उस समय उसका चेतन मन सुप्त और अचेतन मन प्रबल होता है। होमियोपैथी की दवाएँ चूँकि हमारे सूक्ष्म शरीरों के गहरे तलों में जाती हैं, इसलिए मैंने अपने अनुभव से देखा है कि मरीज़ जब एक घंटा पहले सोया हो तब उसे उठाकर और दवा खिलाकर पुनः सुला दिया जाए या सोते वक्त दिया जाए तो ये दवाएँ ज्यादा कारगर और ज्यादा असरदार हो जाती हैं। उस समय हमारा चेतन मन कोई रुकावट नहीं डाल पाता और दवा सीधे ही शरीर के गहरे तलों में प्रवेश कर जाती है।
4. जिन रोगियों को स्थूल शरीर से ज्यादा भावनाओं, कामनाओं और डिप्रेशन जैसी मानसिक समस्याएँ हैं, उनके ताज़ा टूटे हुए बालों पर इस विधि का प्रयोग ज्यादा असरदार होता है। मेरा मानना है कि सर्दी, खाँसी, बुखार जैसे छोटे-मोटे या एक्यूट रोगों के उपचार हेतु इस तरह के सूक्ष्म प्रयोग सर्वया वर्जित हैं। भूल कर भी इस तरह के प्रयोग ऐसे मरीज़ों के लिए न करें। बल्कि मैं तो कहूँगा कि बहुत अनुभवी और बहुत कुशल विज़नरी होमियोपैय ही इस विधि का प्रयोग करें। वे भी पूरे उपचार के दौरान मरीज़ से लगातार टेलीफोनिक सम्पर्क बना कर रखें।
5. एक और अंतिम चेतावनी के रूप में यह बात मी नोट करके रखें कि उस डॉक्टर को अपने बाल प्रयोग हेतु न दें जिस पर आपका 100 प्रतिशत भरोसा न हो या जो किसी कारण से आपके प्रति वैर या वैमनस्यता का भाव रखता हो। क्योंकि होमियोपैथी में उच्च श्रेणी की कुछ ऐसी भी विशिष्ट तकनीकें व दवाएँ हैं जिनके प्रयोग से किसी व्यक्ति या रोगी को भयंकर नुकसान पहुँचाया जा सकता है, अवसाद में ले जाया जा सकता है, या और भी कई तरह से अनिष्ट उस व्यक्ति का किया जा सकता है। मगर चूँकि उस विद्या का कोई ज्ञान मुझे नहीं है, इसलिए मैं उस विषय में अधिक नहीं बता पाऊँगा।
भविष्य की होमियोपैथी में मैं इस विधि के व्यापक प्रयोग और अनुसंधान को लेकर आशान्वित हूँ। मानसिक लक्षणों वाले ज्यादातर रोगियों पर इस विधि का प्रयोग ज्यादा कारगर हो सकता है। जिन रोगियों का तीसरा, चौथा शरीर ज्यादा विकसित है, जो मानसिक रूप से ज्यादा सक्षम और कुशाग्र हैं, जिनका आईक्यू ज्यादा उच्च है, तथा जिनमें प्रायः मानसिक बीमारियाँ ही प्रबल रहती हैं, ऐसे रोगियों के लिए मेरे सपनों में एक ऐसा उच्च सुविधा वाला हॉस्पिटल आता है जो सामान्य हॉस्पिटल्स से हटकर एक उच्च तकनीक वाले क्लब की तरह की जगह हो और जहाँ इन मरीज़ों को मानसिक स्तर की सारी सुविधाएँ, जैसे टी.वी. या मनोरंजन के सारे साधन उपलब्ध कराए जाएँ और उनके विशिष्ट प्रेमी जन उनके साथ हों, जो उनको मानसिक रूप से समय-समय पर बूस्टप करें। और उस क्लब जैसे हॉस्पिटल में एक केंद्रीय कक्ष हो, जहाँ शीशे की दीवारों के भीतर बैठकर बाहर का पूरा नज़ारा देखा जा सके मगर बाहर से भीतर कुछ दिखाई न पड़े। उस कक्ष में बैठकर कुशल होमियोपैथों की एक टीम उन मरीजों के बालों को लेकर अनुसंधान और उन पर दवाओं के प्रयोग करे। इस प्रकार हमें पागलखानों की आवश्यकता पड़न बंद हो सकती हैं। इन अस्पतालों को ऐसे मानसिक स्वास्थ्य केंद्रों में बदला जा सकेगा जो रोगियों को घर जैसा वातावरण उपलब्ध कराएँगे और उनकी मानसिक समस्याओं पर किलिंग फोर्स की संरचनाओं के दृष्टिकोण से अनुसंध न कर उनका मानवीय तरीकों से और जड़ से समाधान देंगे। हाँ, यह ज़रूर है कि कुछ विशेष प्रकार के उन्मादी और आक्रामक रोगियों के लिए हमें अलग व्यवस्था करनी होगी। पर उनके लिए भी हम अलग प्रकार के कक्षों का निर्माण कर उन पर भी प्रयोग एवं अनुसंधान कर सकते हैं। तो इस प्रकार आने वाले दिनों में मैं होमियोपैथी के उन्नत भविष्य की परिकल्पना करता हूँ।
विश्व के तमाम डॉक्टर, जो होमियोपैथी की विधि से रोगों का निदान करते हैं, उनसे मेरा आग्रह होगा कि भले ही मेरे इस सिद्धांत को, इस पुस्तक में लिखी मेरी बातों को मानें या न मानें, हालाँकि मैं जानता हूँ कि आज नहीं तो 100-200 साल बाद ही सही पर इस सिद्धांत को स्थापित हो ही जाना है, मगर तब तक अगर आप इस पर भरोसा और विश्वास नहीं करते हैं तो भी अगर आपने इस पुस्तक को दो-तीन बार पढ़कर अपने अंदर गहरे आत्मसात कर लिया तो यह पुस्तक आपके अचेतन में जाकर आपको एक विजनरी होमियोपैथ डॉक्टर बनाने की क्षमता रखती है और मानव जाति के लिए जो भी महत्वपूर्ण और उपयोगी है वह हमारे निजी विचारों व मान्यताओं से ज्यादा महत्वपूर्ण है। इसलिए मेरा अनुरोध होगा कि आप तमाम डॉक्टर्स साल छह महीने के लिए मेरे इस सिद्धांत को सही मानकर मेरी इस तकनीक का इस्तेमाल करके इलाज शुरू करें। फिर आप देखेंगे कि इस तकनीक ने कैसे आपको पकड़ लिया इसका पता भी आपको नहीं चलेगा। यह तकनीक आपके उपचार का हिस्सा बन जाएगी। हाँ, ऐसे कुछ डॉक्टर जिनको यह तकनीक सूट न करे, वे बेशक इसे छोड़कर पुरानी तकनीक का इस्तेमाल जारी रख सकते हैं। मेरे देखे होमियोपैथी की मेरी यह तकनीक भविष्य की होमियोपैथी का प्रारूप और हिस्सा बनने वाली है।
अगले अध्याय में हम बात करेंगे कि नौसोड, जिस पर कि सारी दुनिया में बैन लगाने की बात हो रही है परंतु जिसके बारे में मेरा दावा है कि यह मानव जाति के इतिहास में सबसे बड़े अमृत कण की खोज है, क्या है?