नोसोड
दोस्तो, अब मैं एक ऐसे विषय पर बात करने जा रहा हूँ जिसे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तो छोड़िए, होमियोपैथिक जगत के भीतर ही अछूत का दर्जा हासिल है, जबकि मेरी दृष्टि में जो चिकित्सा जगत का महानतम आविष्कार कहलाने का अधिकार रखता है। जी हाँ, मैं बात कर रहा हूँ नोसोड दवाओं की, जिनका बहुत ही कम होमियोपैथ्स उपयोग करते हैं और जिन पर प्रतिबंध लगवाने को एलोपैथी समुदाय बेहद लालायित है। काश! नोसोड की उपयोगिता, महत्ता और विज्ञान को हम जान पाते। पूरी मानव जाति के रोगों में से 50 प्रतिशत से ज्यादा बीमारियों को किसी एक नोसोड दवा से ही ठीक किया जा सकता है। इस अध्याय को लिखने का मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि मैं नोसोड दवाओं पर छाई संदेहों की धुंध को हटाकर उनके विज्ञान और सही-सही उपयोग से आपको परिचित करा सकूँ, क्योंकि घातक, जानलेवा, तथा ज़िद्दी बीमारियों के समूल नाश में सक्षम ये दवाइयाँ मनुष्य जाति के लिए किसी ईश्वरीय वरदान से कम नहीं हैं। अतः पूरे विश्व के होमियो डॉक्टरों से मेरा निवेदन है कि किसी भी रोगी के इलाज के लिए, चाहे जो भी उसका रोग हो, उसकी वर्तमान बीमारी को छोड़कर पूर्वजों या बचपन की बीमारियों के आधार पर सर्वप्रथम एक, दो या तीन नोसोड औषधियों से उसका उपचार शुरू किया जाए। आप देखेंगे कि वर्तमान में उस मरीज़ को जितनी भी बीमारियाँ हैं, उनमें से अधिकांश या तो गायब हो गई या उनकी तीव्रता किसी-किसी मरीज में बढ़ने के बाद कम हो गई। मगर ऐसा कैसे होता है? आइए, इसके अंदर हम झाँकने की कोशिश करते हैं।
क्या होते हैं बोसोड ? नोसोड, यानी झेमियो की ऐसी दवाएँ जिनके नाम के अंत में सामान्यतः um रहता है, जैसे Syphillneum, pyroginium, medorinum आदि। ये बवाएँ मनुष्य के शरीर में होने वाली बीमारियों के रोगाणुओं से बनाई जाती हैं। जैसे तपेदिक की दवा बनाने के लिए इसी बीमारी के अंश को लेकर उसको होमियो विधि से शक्तिकृत किया जाता है। नोसोड दवा से के.एफ. की संरचना का सिस्टम तबाह हो जाता है। मानव जाति की 75 प्रतिशत से ज्यादा बीमारियाँ, यहाँ तक कि आनुवंशिक बीमारियाँ भी, जिनको सदियों से हम ढो रहे हैं, उन बीमारियों का खात्मा इन दवाओं से किया जा सकता है। छोटी-छोटी बीमारियाँ जो बड़ी-बड़ी बीमारियों में परिवर्तित होती रही हैं और हो रही हैं, नोसोड की मदद से उन्हें वापस उनके पूर्व स्तर पर, छोटी-छोटी बीमारियों के स्तर पर, लाया जा सकता है। लेकिन कैसा दुर्भाग्य है, कैसा अज्ञान है कि कुछ साल पहले नोसोड को बंद करने की माँग जोर-शोर से उठी थी और कहा गया था कि ये दवाएँ तो जहर हैं, रोग से पैदा होती हैं, इसलिए रोग ही बढ़ाएँगी। कहीं आप लोग भी ऐसा ही न सोचने लगे इसलिए मैं नोसोड बनाए जाने की प्रक्रिया आपको समझा देना चाहता हूँ।
कैसे बनते हैं नोसोड ?
जैसा मैंने पहले ही आपको बताया, होमियोपैथी दवाओं के कई स्त्रोत होते हैं जिनसे मूल अर्क तैयार होता है और जिसे मदर टिंक्चर कहा जाता है। इन स्त्रोतों में पेड़-पौधे, पत्थर, खनिज, धातुएँ एवं जहर तक शामिल होते हैं। अधिकाश होमियोपैथिक दवाएँ इन्हीं स्त्रोतों से आती हैं। लेकिन कुछ बीमारियाँ ऐसी थीं जो इन दवाओं से ठीक होने में नहीं आती थीं, और इसलिए महान हैनीमैन साहब ने एक और विशिष्ट स्त्रोत के बारे में सोचा। वह स्त्रोत था उन्हीं बीमारियों के रोगाणु जैसे कोई यक्ष्मा (टीबी) का रोगी मर रहा है, अंतिम चरण में है, तो उसके शरीर में यक्ष्मा रोग के जो कीटाणु हैं, उन मृत कीटाणुओं को शक्तिकृत करके जो दवा तैयार की गयी, उसे हम ट्यूबरकॉलिनियम नौसोड कहते हैं। इसी तरह कैंसर के मरीज़ से जो दवा बनती है वह Carcinocin कही जाती है। इसी तरह से कई जो बड़ी-बड़ी बीमारियों हैं या कहना चाहिए कि आज से 100 साल पहले थीं (क्योंकि अभी तो इस पर रिसर्च बंद हो गयी है और इसलिए नई बीमारियों के नोसोड नहीं बन पा रहे हैं), उन सभी के रोगाणुओं से तमाम तरह के नोसोड बनाए गए थे। नौसोड दवाओं का पूरा एक ग्रुप है, जो बहुत विवादास्पद रहा है। बहुत सारे होमियोपैथ उसको उपयोग नहीं करते और बहुत देशों में उसे बड़ी हिकारत की नज़र से देखा जाता है।
नोसोड की आवश्यकता क्यों है ? जैसे ख्याल करें कि मेरे पिता जी को या माता जी को या दादा जी को भूतकाल में टी.बी. रही या दमा रहा या वे हार्ट की बीमारी से मरे। तो इसका मतलब है कि मेरे शरीर में भी बीज रूप में ये बीमारियाँ मौजूद होनी चाहिए, क्योंकि मेरा डीएनए इन्हीं लोगों के डीएनए से मिलकर बना है। इसलिए अगर हमारे पास कोई ऐसा मरीज़ आता है जिसे अभी टी.बी. तो नहीं है मगर उसका दम फूलता है या उसे दमा है या खाँसी की शिकायत बराबर रहती है, या मान लें कि नहीं भी रहती है पर पारिवारिक इतिहास जानने के दौरान यह उभर कर आता है कि माता-पिता या दादा-दादी या नाना-नानी में टीवी का या दमा का इतिहास था, तो हम यह मानकर चलते हैं कि उस मरीज में भी इन बीमारियों के प्रिंट अवश्य ही मौजूद होंगे, भले आज उभरकर नहीं आ रहे हैं परंतु कभी न कमी जरूर आएँगे। अब यदि ऐसे मरीज़ को हम उसके वर्तमान लक्षणों के आधार पर दवाएँ देना शुरू कर दें तो लाख कोशिशों के बाद भी उसे ठीक नहीं कर पाएंगे। और पूरी दुनिया में यही हो रहा है, एलोपैथी द्वारा भी और होमियोपैथी द्वारा भी। हम होमियोपैथ बेवजह उच्च शक्ति की दवाएँ प्रयोग करते रहते हैं। मेरे हिसाब से अगर ऐसे मरीजों पर पहले उच्च शक्ति की नौसोड का प्रयोग हो जाए तो 30x से लेकर 11m शक्ति की दवाओं के सम्यक प्रयोग से 90 प्रतिशत बीमारियों को ठीक किया जा सकता है। ऐसे मरीज़ों का correction बिना नौसोड के किया ही नहीं जा सकता, यह मेरा दावा है। क्योंकि दादा जी तो मर गए किंतु उनकी किलिंग फोर्स का जो system था, वह उनके वीर्याणुओं से मरीज़ के पिता में और फिर पिता के वीर्याणुओं से मरीज़ में आ गया है। इसीलिए अभी वर्तमान में मरीज़ को क्या तकलीफ है इसकी चिंता बाद में करें, पहले भूतकाल में उसके पूर्वजों और स्वयं उसको हुए रोगों का इतिहास निकालें और उस पर नौसोड से वार करें।
नोसोड का निर्माण रोगाणुओं से क्यों ? जैसा मैंने पहले बताया कि होमियोपैथी में विष से ही सबसे कारगर दवा बनती है। अब रोगाणुओं जीवाणुओं से ज़्यादा विष किस में होगा। तो टी.बी के रोगाणु में जो ज़हर है उस ज़हर के स्थूल रूप को तोड़ते-तोड़ते, यानी कि उसकी एक बूंद में मौजूद अणुओं को अल्कोहल के माध्यम से विघटित करते-करते हम उसे अमृत के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। यह कार्य वैज्ञानिक प्रयोगशाला में बिना अल्कोहल के भी करके देखा जा सकता है। प्रयोगशाला में उन्नत यंत्रों की सहायता से यदि किसी ज़हर की एक बूंद में मौजूद अणुओं को विघटित करते चले जाएँ तो हम पाएंगे कि एक ऐसी स्थिति आती है जब वह ज़हर अमृत में बदल जाता है। उसमें अब उस जहर के प्रभाव को समाप्त करने की पूरी ताकत मौजूद होती है। ऐसा क्यों होता है इसके वैसे तो बहुत जवाब दिए जा सकते हैं, मगर एक खास जवाब यह है कि जहाँ से विष निकलता है, वहीं से अमृत निकलता है। वस्तुतः बिना अमृत की उपस्थिति के विष की रचना संभव नहीं है। यानी अगर किसी वस्तु के स्थूल रूप में एक छोर पर विष का प्रभाव है तो उसके दूसरे छोर पर अमृत का प्रभाव रहेगा ही। जरूरत है तो बस उसके अणुओं को, उसके स्थूल रूप को विखंडित करके उस अमृत के अणुओं की खोज करने की। इसी तरह से अगर कोई अमृत भी है तो उसके मी अणुओं के दूसरे छोर पर या उसके केन्द्रक यानी न्यूकल्यिस पर हम जाएँ तो वहाँ घातक विष पाएँगे। क्योंकि यह प्रकृति का बुनियादी नियम है कि बिना विपरीत के चीजें अस्तित्व में नहीं आ सकतीं। जैसे रात और दिन को हम अलग मान कर चलते हैं। मगर अगर हम अभी किसी हवाई जहाज से दिन में पृथ्वी के विपरीत ओर जाएँ तो हम वहाँ रात पाएँगे। इसलिए हम यह कह सकते हैं कि फलां जगह अभी दिन है और फलों जगह अभी संध्या है और फलों जगह अभी रात है। मगर अंतरिक्ष में बैठकर अगर हम देखें तो पाएंगे कि पृथ्वी पर एक हिस्सा चमकीला है और एक अंधकार में है। इसी तरह से जो घातक विष का स्थूल रूप है, उसका दूसरा सिरा अमृत कण है। और इसलिए होमियोपैथी में ज़हर वाली दवा सबसे कारगर है। दुर्भाग्य की बात है कि हज़ारों साँपों के या अन्य ऐसे विष हैं जिनसे हम अभी तक होमियो दवा का निर्माण नहीं कर सके हैं। यदि कर लिए होते तो वे आज की बीमारियों के परिप्रेक्ष्य में ज्यादा उपयोगी होते। अभी हमारी दवाएँ सौ-दो सौ साल पुरानी हैं, जो आधुनिक समय की बीमारियों के मामले में उतनी प्रभावी नहीं हैं। हमें आज धरती पर मौजूद तमाम घातक बीमारियों से नौसोड दवा बनाने की ज़रूरत है, जिनसे आज की बड़ी एवं दुःसाध्य बीमारियों का इलाज किया जा सकता है। बहरहाल, प्रकृति में समी चीज़े संयुक्त हैं, अलग-अलग कुछ भी नहीं है। ज़हर और अमृत एक ही चीज़ के दो सिरे हैं। गोधूली वेला को आप क्या कहेंगे? न दिन है, न रात है। विपरीत चीजों में एक बिंदु ऐसा आता है जब वो न ज़हर होती हैं, न अमृता वहाँ से एक छोर पर अमृत होता है और दूसरे छोर पर जहर
नोसोड का महत्व
उपचार का हमारा एक ही उद्देश्य होता है- किलिंग फोर्स के सिस्टम को नेस्तोनाबूद करना। हालाँकि किलिंग फोर्स के सिस्टम को नेस्तोनाबूद करने से वो पर नहीं जाती, खत्म नहीं हो जाती। पर हाँ, फिर से उसको अपना निर्माण करने में थोड़ा समय लगता है। तो, जो निर्माण उसने 100-50 साल में किया है, दादा जी के समय से रोगों का एक system पैदा करके पोते तक ले आयी है, उस पूरे सिस्टम को आप एक नौसोड से नष्ट कर सकते हैं। इस तरह आपने तीन पीढ़ियों की बीमारी नष्ट कर दी। न सिर्फ पिछली तीन पीढ़ियों की बल्कि अगली कई पीढ़ियों की बीमारी भी नष्ट कर दी। अब ये टी.बी. के जीवाणु, टी.बी. की किलिंग फोर्स का सिस्टम इस रोगी के आगे की पीढ़ी के बच्चों में नहीं जा पाएगा। यह कितनी बड़ी उपलब्धि है, आप जरा सोचें। ज़रा इस पर विचार करें। मुझे तो लगता है कि नौसोड बनाने वाले प्रथम होमियोपैथ डॉक्टर को नोबेल पुरस्कार दिया जाना चाहिए। उसने मानव जाति का इतना कल्याण किया है जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। तो यह जो नोसोड का सिस्टम है, एक अच्छे होमियोपैय को पूरी तरह स्पष्ट होना चाहिए। उसे हमेशा इस एक स्वर्णिम नियम का पालन करना चाहिए: Always start to treat with any nosode.
लेकिन अगर कोई पुरानी आनुवंशिक बीमारी न मिले, तो? मरीज़ अगर बचपन में थोड़ा भी दुबला-पतला रहा हो तो भी tubercullnium से तो हिट कर ही दें। खाँसी, सर्दी, जुकाम का हल्का सा भी इतिहास हो तो tubercullinum तो दे ही दें। आप देखेंगे कि मरीज़ दो-चार दिन के लिए खाँसता है, सर्दी लग जाती है, फिर ठीक हो जाता है। मगर उसके बाद वो खुद को जितना स्वस्थ अनुभव करता है, आप उसकी कल्पना नहीं कर सकते। यह जो tubercullinum नौसोड है, इसे सारे नोसोडों के बीच कोहिनूर के रूप में महिमा मंडित किया जाना चाहिए।
एक से अधिक नोसोड दवाओं का प्रयोग यदि आपको लगता है कि एक से अधिक नौसोड दिए जाने की ज़रूरत है तो उनके बीच पर्याप्त अंतर रखें कितना अंतर रखना है इसका निर्णय अपने विवेक से करें। देखें कि मरीज़ का शरीर कैसे दवाओं के प्रत्युत्तर देता है, response देता है। उसके अनुसार ही अगली दवा का या अगली खुराक का चयन करें। आप देखेंगे कि अधिकतम तीन खुराक से अधिकांश बीमारियाँ ज्यादा से ज्यादा दिनों के लिए दूर हो जाती हैं। अगर वो लौटती भी हैं तो बहुत छोटे रोग लक्षणों के रूप में, और छोटे-मोटे लक्षण तो चलते रहेंगे। चलते रहना चाहिए। अगर कोई ऐसा व्यक्ति मिले जो पिछले पाँच-दस साल में बीमार नहीं पड़ा है तो उसको आयोजन करके बीमार किया जाना चाहिए, नहीं तो उसकी किलिंग फोर्स सीधे एक बार में झपट्टा मारकर हार्ट अटैक ही देगी। इसलिए प्रकृति ने खुद ऐसी व्यवस्था की है कि सर्दी-जुकाम हमें होते ही रहते हैं। सर्दी की इसलिए अभी तक कोई दवा नहीं बनी क्योंकि वो शुद्धतम रूप में किलिंग फोर्स का response है। इसलिए सर्दी-जुकाम होने चाहिए। कभी-कभार बुखार-खाँसी होने चाहिए, ताकि कुकर की सीटी थोड़े-थोड़े अंतराल पर बजती रहे और कुकर के ब्लास्ट होने की नौबत न आए। नए योगदान की ज़रूरत
सबसे पहले मैं आपसे कहना चाहूँगा कि वर्तमान में जो भी होमियो की दवाएँ या नौसोड है वो कई सौ साल पुराने और उस समय के मनुष्यों पर शोष करके और उस समय की बीमारियों के आधार पर बनाए गए थे। उसके बाद से नए नोसोड बनाने पर काम नहीं हुआ। हैनीमैन साहब के समय में जो बड़ी बीमारियाँ उन्हें ज्ञात थीं उसके नौसोड उन्होंने बना दिए, परंतु आधुनिक बीमारियों के लिए नोसोड बनाने का प्रयास किसी ने नहीं किया। परंतु वैसे मनुष्य और वैसी बीमारियाँ आज मूल रूप से तिथि बाहूय या आउटडेटेड हो गई हैं। आज की तारीख में न उतनी साधारण बीमारियाँ हैं और न उतनी सुलभ मानसिकता के वैसे सीधे-सरल लोग बचे हैं। यह तो हैनीमैन साहब की महान होमियोपैथी का विज्ञान है कि वे नौसोड आज भी मानव पर गहरे असरकारक हैं। परन्तु फिर भी आपने यदि इसके विज्ञान को, जो मैंने बताया, समझ लिया है तो आप भी इस बात से राजी होंगे कि आज के परिप्रेक्ष्य में इसे और इसकी तकनीक को और समुन्नत किए जाने की महती आवश्यकता है। मगर यह काम किस प्रकार किया जाना चाहिए? आइए, थोड़ा और गहरे समझने की कोशिश करते हैं।
अभी सबसे पहला काम यह होना चाहिए कि ये जितनी बड़ी-बड़ी बीमारियाँ अभी अस्तित्व में आई हैं, जैसे कैंसर, डेंगू, एनसेफेलाईटिस, हेपेटाईटिस, एचआईवी-एड्स आदि, उनके बढ़िया से बढ़िया जीवाणु लेकर उनके नौसोड बनाए जाएँ। मैं जर्मनी, अमरीका और अन्य पश्चिमी देशों के होमियोपैथी संगठनों से इस बाबत हाथ जोड़ के निवेदन करना चाहूँगा। मधुमेह अभी सबसे बड़ी समस्या है। और हम जान रहे हैं कि यह आनुवंशिक रोग है। काश कि 100 साल पहले डायबिटीज़ का कोई नौसोड बना लिया गया होता तो आज इस बीमारी ने जो आधी आबादी को आक्रांत कर के रखा है, उसकी नौबत नहीं आती। अभी भी यदि मधुमेह, उच्च रक्तचाप, तथा दिल की बीमारियों के नोसोड बना लिए जाए तो आगे लाखों-करोड़ों जानें बचायी जा सकती हैं, लाखों-करोड़ों की बीमारी से मुक्त कराया जा सकता है। मैं हैरान हूँ कि आज तक इतने सालों में इन बातक बीमारियों के नौसोड क्यों नहीं बनाए जा सके। क्यों किसी ने इस विश्वा में पहल नहीं की। मैं सालों साल हैरान रहा कि शायद अब बनेगी, मगर मैं प्रतीक्षा करता रह गया। इसी प्रकार होमियोपैथी के संसार में मैंने हज़ारों पुस्तकें देखीं, मगर किसी भी पुस्तक में नोसोड्स के संदर्भ में जीवन्तता, वैज्ञानिक दृष्टि एवं पैनी समझ नहीं दिखी। यह बहुत ही खेद और निराशा की स्थिति है। इन्हीं सब बातों ने मुझे यह पुस्तक लिखने को प्रेरित किया। शुरू में मेरी बिलकुल हिम्मत नहीं हो रही थी और मैं यही सोच रहा था कि आखिर होमियो के संसार में इतने बड़े-बड़े लोग हैं, उनके सामने मेरी क्या हैसियत और फिर मैं तो आधिकारिक तौर पर इस क्षेत्र से जुड़ा हुआ व्यक्ति भी नहीं हूँ। परन्तु फिर भी मुझसे रहा नहीं गया।
बहरहाल, इसी कड़ी में दूसरा काम यह होना चाहिए कि नोसोड और कॉन्सटीट्यूशनल दवाओं का मेल किया जाना चाहिए। नहीं समझे? मान लीजिए किसी रोगी की, जिसकी कॉन्सटीट्यूशनल दवा सल्फर है, कैंसर से मौत हो गई। तो अब अगर उससे कैंसर कोशिका लेकर नोसोड बनाया जाता है, तो उस पर यह उल्लेख होना चाहिए कि यह 'सल्फर बेस्ड Carcinocine नौसोड' है। ताकि आगे यदि कोई ऐसा मरीज़ मिले जिसकी प्रकृति सल्फर हो और जिसे या जिसके पूर्वजों को कैंसर हुआ हो, तो बेझिझक उसे यही नोसोड दे दिया जाए। और आप देखेंगे कि उस पर वह दवा जादू की तरह काम करेगी। आप आजमा के देख लें। जैसे मान लें कि एक नौसोड 'ट्यूबरकुलिनियम' का निर्माण किया गया। यानी टी.बी. के मरीज से लिए गए एक जीवाणु से मूल अर्क का निर्माण हुआ। यह तय है कि इस मूल अर्क के अणुओं में टी.बी. के जीवाणु तो होंगे ही। साथ-साथ इस मरीज़ को अब तक हुई सारी बड़ी बीमारियों के जीवाणु भी बहुत अल्प और सूक्ष्म मात्रा में उसमें मौजूद होंगे। आज के परिप्रेक्ष्य में जैसे मान लें कि इस तरह के मरीजों के एक ग्रुप को साइटिका, माइग्रेन, या इसी तरह की कुछ अन्य बीमारियाँ रही हों जबकि एक अन्य ग्रुप के मरीजों को ब्लॅड प्रेशर, हार्ट, एवं इसी तरह की कुछ अन्य बीमारियाँ तो मेरे हिसाब से इन दोनों ही ग्रुप्स के मरीजों से बनी दवा ट्यूबरकुलिनम ही कहलाएगी। परन्तु दोनों के असर में और कार्य प्रणाली में भेट होगा। मेरे कहने का मतलब है। कि इस तरह एक ही दवा के कई ग्रुप बन सकते हैं, जैसे ट्यूबस्कुलिनम ए, ट्यूबरकुलिनम बी इत्यादि। और अलग-अलग ग्रुप की ट्यूबरकुलिनम दवाओं में मरीज़ के अन्य अलग-अलग रोगों का ज़िक होना चाहिए। इस तरह से ये दवाएँ और भी कारगर हो जाएँगी।
तीसरा काम यह किया जा सकता है कि जैसे एक परिवार है, जिसमें छह लोग हैं। तो अगर उस परिवार में कोई बूढ़ा मरता है किसी रोग से, मान लो डायबिटीज़ से, तो मरने के पहले उसके रोगाणुओं से डायबिटीज़ के नौसोड तैयार किए जा सकते हैं जो उस परिवार की अगली पीढ़ी को बहुत अच्छी तरह सूट करेंगे, क्योंकि उस दवा में उस परिवार की किलिंग फोर्स और वाइटल फोर्स दोनों के जीन्स होंगे। उनकी आने वाली पीढ़ियों में कोई भी बीमारी अगर होगी तो यह दवा उस पर निश्चित रूप से कारगर होगी और यह दवा उस परिवार की समी आनुवंशिक बीमारियों सहित अन्य बड़ी बीमारियों पर भी रामबाण की तरह असर करेगी। इस तरह के प्रयोगों से हम आने वाली पीढ़ियों को बड़ी बीमारियों को छोटी बीमारियों में परिवर्तित करके दे सकेंगे। जबकि अभी तक तो इसका उल्टा ही हुआ है।
इसी प्रकार हम एक और प्रयोग कर सकते हैं। हर शहर में होमियो की अलग लेबोरेटरी का सपना मेरे मन में है। इन प्रयोगशालाओं में अलग-अलग तरह की क्रॉनिक बीमारियों से ग्रस्त लोगों को रखा जाए और उनके रोगाणुओं से एक-एक नोसोड की दवा तैयार की जाए और उनका प्रयोग उन्हीं लोगों पर किया जाए। अब चूँकि ये नौसोड उन्हीं लोगों से बने हैं, इसलिए इनके शारीरिक एवं मानसिक लक्षण हू-ब-हू उनसे मेल खाएँगे और हमें उनके प्रभावों का एकदम सटीक ब्यौरा हासिल हो सकेगा। यह दवा उनके जीवन की सभी बीमारियों के लक्षणों को स्कैन करने में कारगर तो होगी ही होगी, साथ ही उनकी आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भी अमृत कण का काम करेगी और हम इन दवाओं का प्रयोग उनकी अगली पीढ़ी के बच्चों में 5 से 10 साल की उम्र में ही कर सकते हैं, ताकि भविष्य में उनके उन बीमारियों से पीड़ित होने की संभावना ही न रहे। इससे मेरी यह अवधारणा सफलीभूत हो सकेगी कि अतीत की जिन छोटी-मोटी बीमारियों का कैंसर, हैपेटाइटिस टाइप की बड़ी बीमारियों में परिवर्तन हो गया है, उन सब को वापस उन छोटी बीमारियों तक, सर्दी-जुकाम के स्तर तक ले जाया जा सकेगा। और हमारी आने वाली पीढ़ियाँ उन कष्ट साध्य रोगों से मुक्त होकर आजीवन परम स्वास्थ्य का मज़ा ले सकेंगी जिन्होंने आज हमें आक्रांत कर रखा है। आप ज़रा कल्पना में इन चीज़ों को साकार करके देखें। हमारी भावी संततियों के लिए इससे बड़ा उपहार और कोई नहीं हो सकता। इसके अभाव में हम वर्तमान की बीमारियों से कई गुणा घातक बीमारियाँ अपनी आने वाली पीढ़ियों को देते रहेंगे। इसलिए नई नौसोड दवाओं का निर्माण और प्रयोग हमें परम स्वास्थ्य की ओर जेट स्पीड से ले जा सकता है।
दोस्तो, आप मेरी इस बात को गांठ बाँध लें कि स्थूल शरीर तो एलोपैथी या किसी भी अन्य विधि से भी स्वस्थ किया जा सकता है, परन्तु हमारे अंदर के सूक्ष्म शरीर बिना नौसोड दवाओं के उपचारित नहीं किए जा सकते। और इसके बिना परम स्वास्थ्य असंभव है। इसलिए मैंने कहा था कि नौसोड चिकित्सा जगत का सबसे बड़ा आविष्कार है।
List of Nosode remedies in Homeopathy
Most of the nosodes listed below are not listed in the pharmacopoeia, hence standardization is suspect.
1. Agaricus Muscaris – entire fresh fungus found in dry pinewoods.
2. Ambra Grisea – morbid secretion from the liver of Spermaceti Whale (Physeter Macrocephalus)It is extracted from the rectum of the whale, found floating on the sea along the coasts of Madagascar and Sumatra.
3. Anthracinum- lysate obtained without addition of antiseptic from the liver of rabbit suffering from Anthrax.
4. Anti-Colibacillary- purified form of stock serum anti-colibacillary of caprine origin, made from goats immunized with E. coli.
5. Boletus Laricis- prepared from dried fungus Purging Agaric / Larch Boletus.
6. Botulinum- Clostridium Botulinum toxin made from putrefied pork.
7. Brucella Melintensis- a filtrate of a 21 days old culture of the microbe of undulating fever.
8. Calculus bilialis
9. Calculus renalis- prepared from renal calculus.
1. Cholesterinum – prepared from gall stone.
2. Colibacillinum
3. Diphtherinum- diphtheria toxin; diphtheric membranes of a patient.
4. D. T. -T. A. B. - mixed vaccine of antidiphtheric, antitetanic and antitypho – paratyphoid.
5. Eberthinum- prepared from culture of mixture of many stocks of Salmonella typhi.
6. Enterococcinum- stocks of Streptococcus faecalis.
7. Flavus- prepared from Neisseria pharangis.
8. Gonotoxinum- prepared from anti Gonococcic vaccine.
9. Hippomanes- prepared from a sticky mucoid substance of urinous odour found in the amniotic fluid of the mareIt is also found attached to the membrane of the foetal organ of the mare in last month of pregnancy.
10. Hippozaenium- lysate from the glander of horse.
11. Homarus
12. Hydrophobinum (Lyssin)- lysate of saliva taken from a rabid dog.
13. Influenzinum – stock prepared by Pasteur Institute especially for homoeopathic uses.
14. (a)Influenzinum virus A
(b)Influenzinum virus B
15. Leprominum
16. Leprum
17. Leptospira- lysate of Leptospira ictero-haemorrhagie
18. Leusinum (Syphilinum)- prepared from serosity of Trepanoma pallidum of syphilitic chancres.
19. Malandrinum- lysate from exudates of the horse malandra: discharge of eczema in the fold of the knee of horse.
20. Malaria Officinalis- prepared from mire taken during dryness of a malarial marsh.
21. Medorrhinum- purulent urethral secretion taken during the period of discharge infected with Neisseria Gonorrhoeae.
22. Melitagrinum- nosode of Eczema capitis
23. Meningococcinum- prepared from stocks of Neisseria Meningitidis.
24. Monilia Albicans- lysate of culture of Monilia albicans
25. Morbillinum- from exudate of mouth and pharynx of measles affected patients
26. Mucor Mucedo- lysate obtained by isolating and transplanting the mushroom Mucor Mucedo from the medium of culture.
27. Mucotoxin
28. Nectrianinum- nosode of Cancer of trees.
29. Oscillococcinum- autolysate filtered from liver and heart of a duck.
30. Osteo Arthritis Nosode (O. A. N. )- synovial fluid of articulations especially knee and hip of osteoarthritic patients.
31. Ourlianum- lysate from the saliva of a patient suffering from mumps.
32. Paratyphoidinum- prepared from cultures from mixture of different stocks of Paratyphoidinum bacilli.
33. Pertussinum- lysate from expectoration of patient suffering from whooping cough.
34. Pneumococcinum- Diplococcus pneumoniae found in saliva
35. Pneumotoxin- prepared from Diplococcus lanceolatus.
36. Psorinum- lysated stock obtained from serosity of furrows of itch of an unterated patient.
37. Pulmo anaphylacticus
38. Putrescinum
39. Pyrarara- lard of Pyrarara, a fish of the Amazon river.
40. Pyrogenum- prepared originally from decomposition of meat of beef.
41. Rheumatoid Arthritis Nosode (R. A. N)- prepared from synovial fluid of knee afflicted with rheumatoid arthritis
42. Sanguisuga- prepared from leech.
43. Scarlatinum- lysate from the scabs of a patient suffering from scarlatina.
44. Secale Cornutum- prepared from the fungus Claviceps purpura.
45. Serum of Yersin- from the anti-pest serum obtained from animals that have been immunized by means of live or killed cultures of Yersinia pestis.
46. Septicaeminum – prepared from septic abscess.
47. Sinusitisinum
48. Staphylococcinum- lysate of culture of many stocks of Staphylococcus pyogenes aureus.
49. Staphylotoxinum- antitoxins of staphylococcus.
50. Streptococcinum- lysate obtained from stock of streptococcus.
51. Streptoenterococcinum- lysate of culture of strepto-enterococcus.
52. Tetanotoxinum – dilution of tetanic toxin.
53. Toxoplasma Gondii – lysate of Toxoplasma Gondii.
54. Ustilago Maydis- prepared from a fungus growing on the Indian corn.
55. Usnea Barbata – prepared from lichen infecting soft maple.
56. Vaccin attenu bili
57. Vaccinotoxinum- prepared from anti-variolic vaccine.
58. Vaccinonum- prepared from the lymph of cowpox.
59. Variolinum- lysate obtained from the serosity of smallpox pustule.
60. Verriculum- prepared from warts.
61. Yersin (Pestinum)- nosode of plague.
62. Carcinosins Nosodes in Homeopathy:
63. Epitheliomine – extract of epithelioma.
64. Schirrinum- carcinoma schirrus (stomach).
65. Onkolysine- from a stock of Onkomyxa Neojormans.
66. Carcinosin-hepatica-metastat
67. Carcinosin laryngis
68. Carcinosin adenopapillary
69. Carcinosin adeno-stom- from adenocarcinoma of stomach.
70. Carcinosin adeno-vesica- papillary adenocarcinoma of bladder.
71. Carcinosin pulmonale- pulmonary cancer.
72. Carcinosin Schirr-mammae- schhirus of mammae.
73. Tuberculinums are Nosodes In Homeopathy:
74. Tuberculinum avis- prepared from Mycobacterium tuberculosis aviaire.
75. Tuberculinum bovinum- prepared from the pus of tuberculosis abscess.
76. Tuberculinum Koch- culture of Mycobacterium tuberculosis.
77. Tuberculinum Marmoreck- obtained from horses vaccinated by the filtrates of young cultures of Tuberculosis bacilli.
78. Tuberculinum laricus
79. Tuberculinum residuum Koch
80. Bacillinum Burnett- from the sputum of tuberculosis patients containing the bacteria.
81. Bacillinum testium- prepared from the testicle of tuberculosis patient.
82. Diluted B. C. G. - from vaccine B. C. G.
Other Nosodes
84. Actinomyces
85. Adenoidum
86. Arteriosclerosis
87. Bacillus pyocyanaeus
88. Bilharzia
89. Brucella melitensis
90. Cysticercosis
91. Egg vaccine
92. Epihysterinum
93. Framboesinum
94. Haffkine
95. Osseinum
96. Ringworm