तुमुल कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन !
विकल होकर नित्य चंचल,
खोजती जब नींद के पल;
चेतना थक सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के "तुमुल कोलाहल कलह में" कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। इस कला में, इस सारे शोरगुल में, मैं हृदय की बात हूँ मन। जब हमारा मन चंचल होता है हमेशा अशांत और चिंतित रहता है, कुछ ना कुछ सोचता रहता है। जब उसकी चेतना थक जाती है। तब वह आराम खोजती है, उसे नींद आती है। उस समय तुम्हें मलय से चलने वाली हवा की तरह जो शांति मिलती है। मैं वही (शांति) हवा हूँ मन।
चिर-विषाद विलीन मन की
इस व्यथा के तिमिर वन की;
मैं उषा सी ज्योति रेखा,
कुसुम विकसित प्रात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के "तुमुल कोलाहल कलह में" कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। लंबे समय से मन मे जो दुख-दर्द है, मन की जो व्यथा है। एक अंधकार वन की तरह है। रे मन, मैं उस अंधकार रूपी कोहरे में सुबह की एक किरण, एक ज्योत रेखा की तरह हूँ। जो पूरे वन में पुष्प (फूल) को खिला देती है।
जहाँ मरु ज्वाला धधकती,
चातकी कन को तरसती;
उन्हीं जीवन घाटियों की,
मैं सरस बरसात रे मन!
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के "तुमुल कोलाहल कलह में" कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। मरूभूमि जो ज्वाला की तरह धधकती है, जहाँ चातकी पानी की एक बूंद के लिए तरसती है। उस मरूभूमि मे उन घाटियों को जीवन देने वाली, मैं सरस बरसात हूँ मन।
पवन की प्राचीर में रुक,
जला जीवन जा रहा झुक;
इस झुलसते विश्व-वन की,
मैं कुसुम ऋतु रात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के "तुमुल कोलाहल कलह में" कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। पवन जब ऊंची चारदीवारी के में बंद होकर रुक जाता है। जलकर, झुलस कर जब मनुष्य जीवन अपने परिस्थितियों के आगे झुक जाता है। रे मन मैं इस झूलसते विश्व में, इस निराशा रूपी वन में एक वसंत ऋतु की रात तरह हूँ। जिसमें उम्मीद में फूल खिलते हैं।
चिर निराशा नीरधर से,
प्रतिच्छायित अश्रु सर में;
मधुप मुखर मरंद मुकुलित,
मैं सजल जलजात रे मन !
प्रस्तुत पंक्तियाँ पाठ्यपुस्तक दिगंत भाग 2 के "तुमुल कोलाहल कलह में" कविता से ली गई है। यह कविता महाकाव्य कामायनी का अंश है। इसके कवि जयशंकर प्रसाद जी हैं। इन पंक्तियों में कभी कहते हैं। लंबे निराशा के जो घने बादल छाया हुए है। उससे जो पानी बरसते हैं, वह आंसू रूपी तालाब की तरह है। रे मन मैं उस आंसू रूपी तालाब मे कोमल कमल की सुगंधित कलियों की तरह हूँ जिस पर भौंरे मंडराते है।